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मोदी सरकार के कोयला खनन और थर्मल पावर में व्यापार को आसान बनाने से पारिस्थितिक तंत्र को ख़तरा 

खनन मंत्रालय ने खनिज की नीलामी के लिए नियम का एक नया मसौदा जारी किया है, जिसमें हितधारकों को 13 दिनों के भीतर अपनी आपत्तियाँ दर्ज करनी होंगी, जबकि बिजली मंत्रालय बिजली संयंत्रों के लिए उत्सर्जन की नई सीमा बढ़ाने पर विचार कर रहा है।
कोयला खनन
Image Courtesy: Down to earth

नई दिल्ली: घरेलू कोयले के इस्तेमाल को प्रोत्साहन देने के लिए मोदी सरकार थर्मल पावर सेक्टर के नियमों को लगातार ढीला कर रही है, इसके लिए आम जनता की चिंताओं को भी धीरे-धीरे दरकिनार किया जा रहा है, क्योंकि उद्देश्य स्पष्ट रूप से ऐसे कार्पोरेट्स की मदद करना है जो हाल ही में व्यापार के लिए वाणिज्यिक कोयला खनन में उतरे हैं।  केंद्रीय खनन मंत्रालय ने 23 जनवरी को खनिज नीलामी के नियम में बदलाव सुझाते हुए एक मसविदा जारी किया है और आम जनता सहित विभिन्न राज्य सरकारों और अन्य सभी हितधारकों से  अपनी आपत्तियों और सिफारिशों को दर्ज़ करने के लिए केवल 13 दिनों का समय दिया है। 

यह नोटिस मंत्रालय की वेबसाइट पर पोस्ट किया गया है और इसे ‘अधिनियम बनाने से पहले कंसल्टेंसी पॉलिसी’ के हिस्से के रूप में जारी किया गया है। ऐसा उन कोल ब्लॉक आवंटियों को प्रोत्साहित करने के लिए नीति आयोग ने अपने उपाध्यक्ष की अध्यक्षता में एक उच्च-स्तरीय समिति की सिफारिश पर इस संशोधन का सुझाव दिया जो अपने संबंधित निविदा दस्तावेजों में निर्धारित समय से पहले संचालन या काम शुरू करेंगे और उत्पादन भी चालू कर पाएंगे। 

“सरकार नियमित तौर पर ये संशोधन कर रही है और सार्वजनिक आपत्तियों के लिए समय कम देना एक आदर्श बात बन गई है। एक धारणा जो काम कर रही वह यह कि यदि संशोधन उच्च-स्तरीय समितियों की सिफारिशों से किए जाते हैं, तो अतिरिक्त प्रतिक्रिया को कम किया जा सकता है। सभी विनियामक रोलआउट यानि रेगुलेशन से जुड़े निर्णय घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के लिए किए जाते है, जिसमें पुनर्वास के लंबित मसले, भूमि संघर्ष या उससे पैदा होने वाले प्रदूषण की समस्या को संबोधित करने का कोई प्रयास नहीं किया जाता है और इस बात का पता लगाने का भी कोई प्रस्ताव नहीं है कि खनन पदचिह्न यानि खनन के काम को बढ़ाने से किस तरह का अन्याय हो सकता है," उक्त बातें दिल्ली आधारित थिंक-टैंक, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, के कांची कोहली ने न्यूज़क्लिक को बताई।

मंत्रालय ने मसौदा नियम पर आपत्तियां और सिफारिशें दर्ज़ करने लिए अंतिम तारीख 5 फरवरी तय की है। इससे पहले भी अधिनियम तैयार करने से पहले की सलाह की नीति के तहत सुधारों को आगे बढ़ने के लिए बेहद कम समय दिया गया था जिसकी वजह से नागरिक समाज और पर्यावरणविदों ने मोदी सरकार की तीखी आलोचना की थी। 

हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में स्थित स्वतंत्र शोधकर्ता मीनाक्षी कपूर ने बताया कि नियमों के अनुसार, किसी भी मसौदा कानून को सार्वजनिक रूप से अधिसूचित करने से पहले और अंतिम मसविदे के रूप में अधिसूचित किए जाने के लिए 30 दिनों की न्यूनतम अवधि अनिवार्य है।

कपूर के मुताबिक, "वर्ष 2014 में इस आशय के नियम बनाए गए थे। केंद्र सरकार ने इस कानून में संशोधन कर दिए, शायद नियमों को भुला दिया गया या अनदेखा कर दिया गया,"। 

कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने वर्ष 2014 में नियम में संशोधन करने का एक संक्षिप्त औचित्य देना अनिवार्य बनाया था, खासकर तब जब इसे हितधारकों की आपत्तियों के लिए सार्वजनिक डोमेन में रखा जाएगा। कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में 10 जनवरी, 2014 को सचिवों की समिति की बैठक में यह निर्णय लिया गया था।

“संबंधित विभाग/मंत्रालय को सार्वजनिक डोमेन में मसौदा कानून को रखते वक़्त कम से कम इतनी संक्षिप्त जानकारी देनी चाहिए कि कानून में बदलाव का क्या औचित्य है या ये बदलाव क्यों किस वजह से किए जा रहे हैं और कि  प्रस्तावित कानून के आवश्यक तत्व क्या हैं, इसके व्यापक वित्तीय निहितार्थ और अनुमानित मूल्यांकन भी शामिल किया जा सकता है, साथ ही संबंधित/प्रभावित लोगों के पर्यावरण, मौलिक अधिकारों, जीवन और आजीविका आदि पर इस तरह के कानून का क्या प्रभाव पड़ सकता है, इस तरह के सारे विवरण को सार्वजनिक डोमेन में न्यूनतम तीस दिनों के लिए रखा जा सकता है और संबंधित विभाग/मंत्रालय को इसके बारे में तफ़सील से बताना,“ उक्त जानकारी बैठक की मिनट्स मिली है।

न्यूज़क्लिक की ओर से केंद्रीय खनन मंत्रालय को एक ईमेल भेजी गई थी, जिसमें पूछा गया था कि मसौदा (नीलामी) नियम, 2021 के मसौदे पर आपत्तियाँ दर्ज़ करने के लिए अधिनियम बनाने से पहले सलाह लेने की नीति के तहत केवल 13 दिनों का समय किस आधार पर दिया गया है। मंत्रालय से अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है। जब भी मंत्रालय से प्रतिक्रिया मिलेगी हम इस लेख को अपडेट कर देंगे।

"एचएलसी [उच्च-स्तरीय समिति] की सिफारिशों के मद्देनजर, खनिज (नीलामी) नियम, 2015 में यह प्रावधान किया करने का निर्णय लिया गया है कि पूरी तरह से अध्ययन किए गए ब्लॉकों के लिए, उद्धृत राजस्व हिस्सेदारी में 50 प्रतिशत की छूट होगी, इसके लिए टेंडर डॉक्यूमेंट में तय तारीख से पहले खनिज की मात्रा और गुण के हिसाब से इसे डिस्पैच किया गया हो... संशोधन का उद्देश्य बाजार में खनिजों को जल्द से जल्द उपलब्ध कराना है, यह देखते हुए कि खनिज कई उद्योगों के लिए इनपुट हैं," इसे जारी सार्वजनिक सूचना में दर्ज़ किया गया है जिसे 23 जनवरी को खनन मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर पोस्ट किया था। 

इसके साथ ही, थर्मल पावर सेक्टर की खातिर पर्यावरण नियमों को कमजोर करने के प्रयास में, मोदी सरकार ने जनवरी के पहले सप्ताह में, लक्षित उत्सर्जन मानदंडों को हासिल करने के लिए थर्मल पावर प्लांटों पर लगाई गई सीमा को ओर अधिक बढ़ाने का प्रस्ताव किया है। मूल रूप से सल्फर के जहरीले आक्साइड के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए थर्मल पावर प्लांट्स पर फ्लु-गैस डीसल्फ्यूरिजेशन (Desulphurisation) (FGD) सिस्टम को स्थापित करने के लिए वर्ष 2017 की अंतिम सीमा तय की गई थी, लेकिन विभिन्न उद्योगों के दबाव में सरकार ने इस सीमा को फिर 2022 तक बढ़ा दिया था। 

रिपोर्टों के अनुसार, केंद्रीय बिजली मंत्रालय ने इस ज्ञापन को या प्रस्ताव को केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को मंजूरी के लिए भेजा है।

पहली बात तो यह कि “पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर निर्णय लेने का हक़ बिजली मंत्रालय के डोमेन में नहीं आता है। दूसरे, थर्मल पावर प्लांटों का एक बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र से है। पर्यावरण वकील रितविक दत्ता ने बताया कि निजी उद्योगों के लिए समय सीमा बढ़ाने में मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए, क्योंकि निजी उद्योग पहले की समय सीमा को पूरा करने में विफल रहे हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Modi Govt Easing Business in Coal Mining and Thermal Power, Ignoring Ecological Concerns

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