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किसानों की बदहाली दूर करने के लिए ढेर सारे जायज कदम उठाने होंगे! 

केवल 3 कृषि कानूनों को वापस ले लेने से ही छोटे किसानों, खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण कारीगरों की दुर्दशा में सुधार नहीं होने जा रहा है। भारी कर्ज और बेहद गरीबी में जी रहे किसानों की भलाई के लिए ढेर सारे जायज कदम उठाने पड़ेंगे।
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चित्र साभार: द फाइनेंशियल एक्सप्रेस 

19 नवंबर, 2021 को गुरु नानक जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2020 में बनाये गए तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की। 24 नवंबर को प्रधानमंत्री की कार्यान्वयन किये जाने की घोषणा को बरकरार रखते हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भी तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने पर अपनी मुहर लगा दी है। केंद्रीय मंत्रिमंडल के फैसले के मुताबिक 29 नवंबर को शुरू होने जा रहे संसद सत्र में तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की प्रकिया शुरू होगी।

केंद्र सरकार को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) अपने आंदोलन को वापस ले लेगा। विभिन्न स्थानों पर संघर्षरत किसान अपने-अपने घरों को लौट जायेंगे। एसकेएम ने प्रधानमंत्री की घोषणा और केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी को अपनी पहली जीत के तौर पर घोषित किया है और तब तक अपने संघर्ष को जारी रखने का प्रण लिया है जब तक कृषि वस्तुओं पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी सहित अन्य प्रमुख मांगों को क़ानूनी रूप से गारंटीकृत तौर विचार करने के लिए मान नहीं लिया जाता है।

चूँकि केंद्र सरकार ने जून 2020 में तीनों कृषि अध्यादेश को जारी कर दिया था, जिससे किसानों, खेतिहर मजदूरों, ग्रामीण कारीगरों और कृषि क्षेत्र पर निर्भर अन्य वर्गों, उपभोक्ताओं, देश की खाद्य सुरक्षा, देश का संघीय ढांचा प्रभावित हो रहा था, तो ऐसे में अलग-अलग लोगों ने इन अध्यादेशों से पड़ने वाले प्रभावों पर अपने विचार व्यक्त करने शुरू कर दिए थे। तीन कृषि कानूनों के कानूनन लागू होने से पहले, विभिन्न किसान संगठनों ने केंद्र सरकार से इन अध्यादेशों से उपजने वाले घातक दुष्प्रभावों से बचने के लिए इसे वापस ले लेने का आग्रह किया था। लेकिन इसके बावजूद, केंद्र सरकार अपने फैसले पर अड़ी रही और उसने संसद में तीन कृषि कानूनों को अमली जामा पहनाने का काम किया। 

इसे देखते हुए देश के विभिन्न किसान संगठनों ने इन कानूनों को निरस्त करने और अपनी कुछ अन्य महत्वपूर्ण मांगों को मनवाने के लिए 26 नवंबर, 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर अपना शांतिपूर्ण एवं लोकतांत्रिक संघर्ष शुरू कर दिया। इस संघर्ष के दौरान, केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों के साथ कई दौर की बातचीत चली। वार्ता के दौरान, केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों ने कानूनों में मौजूद कई खामियों को स्वीकार भी किया, लेकिन इन्हें निरस्त करने के बजाय वे इनमें संशोधन करने के लिए ही राजी हुए।

एसकेएम के सामूहिक फैसलों ने उनके शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक संघर्ष को भारी सफलता प्रदान की, जिसकी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जबर्दस्त सराहना हुई। समय के साथ-साथ, देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले किसानों की भारी संख्या और समाज के अन्य वर्ग के लोग भी इस संघर्ष में शामिल हो गए। केंद्र सरकार ने विभिन्न राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों में किसानों के कष्टों से पड़ने वाले दुष्परिणामों का आकलन करने के बाद कहीं जाकर इन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला लिया है।

लेकिन इन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला लेने में केंद्र सरकार ने काफी वक्त बर्बाद कर दिया है। जहाँ एसकेएम इसे अपनी पहली उपलब्धि के तौर पर देख रहा है, वहीँ इसकी वजह से किसानों के अलावा अन्य वर्गों को भी इससे कई मायनों में फायदा होने जा रहा है। 

लेकिन यदि सिर्फ तीन कृषि कानूनों को ही वापस ले लिया जाता है तो किसानों, खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण कारीगरों की जो दुर्दशा 5 जून, 2020 को थी, वे उसी स्थिति में बने रहेंगे। जहां वे भारी कर्ज और घोर गरीबी में जी रहे थे। जीवन की उनकी सारी उम्मीदें सरकार और समाज के द्वारा इस हद तक ध्वस्त कर दी गई हैं कि कई लोगों ने तो ख़ुदकुशी कर ली।  यह एक ऐसी दुखद वास्तविकता है जो अभी भी जारी है। इसलिए इन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के साथ-साथ सरकार, समाज और कृषि क्षेत्र पर निर्भर विभिन्न वर्गों कई और  कदम उठाने की तत्काल आवश्यकता है। 

केंद्र सरकार द्वारा तीन कृष कानूनों को वापस लेने के अलावा एसकेएम की मांगों में कृषि उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की क़ानूनी गारंटी की मांग बेहद अहम है। 

कृषि मूल्य आयोग की स्थापना 1965 में की गई थी। इसके द्वारा विभिन्न कृषि वस्तुओं के न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण के संबंध में सिफारिशें दी जाती हैं, जिसे केंद्र सरकार आम तौर पर स्वीकार कर लेती है।

शुरू-शुरू में आयोग की सिफारिशें किसानों के पक्ष में होती थीं, लेकिन बाद के दौर में वे किसानों के हितों के खिलाफ होने लगीं, जिसके चलते कई किसानों के संगठनों और कुछ राजनीतिक दलों की ओर से इसकी कड़ी आलोचना की गई।

इस आलोचना को समाप्त करने के लिए केंद्र सरकार ने यह धारणा बनाने की कोशिश की कि सिर्फ ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ के तौर पर आयोग का नाम बदलकर, वह कृषि उत्पादन लागत पर अपनी सिफारिशों को आधारित करने में सफल हो सकता है। लेकिन यह सच्चाई से कोसों दूर है। कृषि उत्पादन की लागत की गणना में कई दिक्कतें/खामियां हैं।

देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग तरीके से खेती किये जाने की वजह से उनकी उत्पादन लागत भी अलग-अलग होती है। लेकिन जब उत्पादन लागत की गणना की जाती है तो देश के सभी क्षेत्रों/हिस्सों का औसत ले लिया जाता है, जो कि उच्च उत्पादन लागत लगाने वाले क्षेत्रों के लिए लाभप्रद स्थिति नहीं है। किसान के श्रम की गणना भी बेहद कम अवधि के लिए की जाती है। जबकि इसके विपरीत एक किसान अपने कृषि उत्पादन की जरूरत के मुताबिक साल भर दिन के 24 घंटे अपने खेत पर मौजूद रहता है।

किसान परिवारों की महिलाएं जो अपने घरेलू कामकाज के अलावा खेतों में भी काम करती हैं, खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण कारीगरों के लिए चाय और रोटी बनाती हैं, मवेशियों की देखभाल करने से लेकर खेतों में काम करती हैं। उनके श्रम को उत्पादन की लागत में बिल्कुल भी शामिल नहीं किया जाता है। इसी प्रकार से भूमि के किराए के साथ-साथ कृषि भवनों और औजारों की टूट-फूट को भी बेहद कम करके आँका जाता है।

इन बातों को देखते हुए न्यूनतम लाभकारी समर्थन मूल्य (एमआरएसपी) को एमएसपी के बजाय सही तरीके से आकलन करने के लिए कृषि उत्पादन लागत के आधार पर तय करना होगा। इस संबंध में कई किसान संगठनों और कुछ राजनीतिक दलों की ओर से लंबे समय से स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक कृषि उत्पादन लागत पर 50% लाभ की गणना करने वाले लाभाकारी मूल्यों की मांग की जा रही है। 

यदि इस सिफारिश को स्वीकार कर लिया जाता है तो जिन किसानों के पास बाजार में बेचने योग्य अधिशेष होगा, उनके लिए वर्तमान घाटे में चल रही खेती लाभकारी हो जायेगी। इस संबंध में ध्यान देने वाली बात यह कि आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, देश में मौजूद कुल कृषक परिवारों में से 71% ऐसे लोग हैं, जिनके पास 2.5 एकड़ से कम की जमीन है। इन परिवारों के पास बाजार में बेचने के लिए कृषि उपज इतनी कम मात्रा में होती है कि उनकी आय इतनी कम रह जाने वाली है कि वे उस आय के भरोसे खुद का भरण-पोषण नहीं कर सकते हैं।

इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, केंद्र सरकार को देश के विभिन्न हिस्सों को कृषि-जलवायु परिस्थितियों के आधार पर अलग-अलग कृषि क्षेत्रों में बाँट देना चाहिए, ताकि वहां पर उपयुक्त कृषि उपजों के उत्पादन को सुनिश्चित किया जा सके और उन्हें लाभकारी दामों पर ख़रीदा जा सके। इस संबंध में राज्य सरकारों को सब्जियों, फलों और कुछ अन्य कृषि उपजों के लाभकारी मूल्य तय करने होंगे और उनकी खरीद करनी होगी या फिर इन कीमतों और बाजार मूल्य के अंतर को पाटना होगा। 

किसानों के लिए एक और महत्वपूर्ण मुद्दा गंभीर ऋणग्रस्तता का बना हुआ है। कई राज्यों में संचालित किये गये विभिन्न अध्ययनों में यह तथ्य सामने निकलकर आया है कि लगभग सभी भूमिहीन, सीमांत, और छोटे किसान, खेतिहर मजदूर और ग्रामीण कारीगर जन्म से ही कर्ज और गरीबी में डूबे रहते हैं। उनकी सारी जिंदगी बेहद कठिन परिस्थितियों में कर्जे और गरीबी में बीतती है। वे अभाव में ही मर जाते हैं और अपने पीछे भारी कर्ज और घोर गरीबी का जीवन छोड़ जाते हैं। इतना ही नहीं जब सरकार और समाज के द्वारा उनके जीने की सारी उम्मीदें चकनाचूर कर दी जाती हैं तो वे खुदकशी का प्रयास करते हैं।

उनकी हालत ऐसी नहीं है कि वे अपने कर्ज का ब्याज चुकता कर सकें क्योंकि उन्होंने चूल्हा जलाकर दो जून का खाना खाने तक के लिए कर्ज ले रखा है। इन लोगों के बीच में ऋणग्रस्तता की स्थिति कई समस्यायें पैदा करती है।

केंद्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि अपने संस्थागत एवं गैर-संस्थागत कर्ज/ऋणों को बट्टे खाते में डाल दें। एक लंबी अवधि के दौरान उनकी आय को इस स्तर तक बढ़ाया जाना चाहिए कि वे अपने द्वारा लिए गए ऋणों को समय पर चुकता करने की स्थिति में पहुँच जाएँ। वे इस ऋणग्रस्तता की समस्या से मुक्ति के हकदार हैं।

केंद्र और राज्य सरकारों को कृषि उत्पादन लागतों में तीव्र वृद्धि को कम करने के लिए अनुसंधान एवं विकास (आर एंड डी) के क्षेत्र में अपना योगदान देना चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों को भूमिहीनों, सीमांत, और छोटे किसानों के लिए ब्याज-मुक्त ऋणों की व्यवस्था करनी चाहिए। केंद्र सरकार को आयात और निर्यात के संबंध में ऐसी नीतियों को तैयार करना चाहिए जो किसानों और देश के हित में हों। केंद्र और राज्य सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि-प्रसंस्करण के लिए छोटी औद्योगिक ईकाइयों को स्थापित करने में अपना योगदान देना चाहिए।

देश की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए जिस नई कृषि तकनीक को अपनाया गया, उसके पैकेज में मशीनरी और खर-पतवार नाशक के इस्तेमाल के कारण कृषि क्षेत्र में रोजगार में भारी गिरावट आ गई है। इसकी सबसे भारी मार खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण कारीगरों के उपर पड़ी है। इसने भूमिहीनों, सीमांत एवं छोटे किसानों को भी प्रभावित किया है।

इन वर्गों के लिए महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और इसी प्रकार की अन्य रोजगार योजनाओं के तहत साल भर इनकी जरूरतों के मुताबिक रोजगार को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसकी मजदूरी की दर विभिन्न सरकारों द्वारा तय की गई न्यूनतम मजदूरी दर के बराबर होनी चाहिए।

भूमि सुधार के जरिये इन वर्गों के हितों में सार्थक योगदान किया जा सकता है, जैसा कि विभिन्न राज्यों में चलाए गए भूमि सुधारों के परिणामों ने इसे साबित किया है। पंचायतों और धार्मिक संस्थाओं की भूमि से होने वाली आय का उद्देश्य गरीबों का कल्याण करना है। सिख धर्म सिखाता है कि “गरीब का मुख, गुरु की गोलक है।” इसलिए पंचायतों और धार्मिक संस्थाओं की जमीनों को इन गरीब तबकों को बिना किराया वसूले सहकारी खेती के लिए दे देना चाहिए। 

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व की खाद्य आपूर्ति की रक्षा करने और पर्यावरण को प्रदूषण से बचाए रखने के लिए पारिवारिक खेती बेहद महत्वपूर्ण है। इस रिपोर्ट का एक अनिवार्य पहलू यह है कि कृषि क्षेत्र को पूंजीवादी/कॉर्पोरेट जगत के चंगुल से बाहर रखने की जरूरत है। केरल और देश के अन्य राज्यों में सहकारी खेती देश की खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त बनाये रखने के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश दे रही है। 

इस समय केरल में भूमिहीन महिलाओं के पास 68,000 से अधिक की संख्या में सहकारी समितियां हैं। इन महिला सहकारी खेतों की उपज अन्य खेतों की तुलना में 1.9 गुना है, और शुद्ध आर्थिक लाभ पांच गुना अधिक है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को सहकारी खेती में कार्यरत किसानों, खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण कारीगरों को विशेष सहायता मुहैय्या करानी चाहिए।

कृषि क्षेत्र की बेहतरी के लिए सरकार को 1991 के बाद से देश में अपनाए गए पूंजीवादी/कॉर्पोरेट समर्थक मॉडल के स्थान पर जन-समर्थक और प्रकृति के अनुकूल आर्थिक विकास के मॉडल के मुताबिक खुद को ढालना और अपनाना होगा। 

ऐसा करने से खेती में काम करने वाली 50% आबादी की राष्ट्रीय आय 16% से बढ़कर कम से कम इस स्तर पर पहुँच सकती है कि वे जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं - भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, स्वच्छ पर्यावरण और सामाजिक सुरक्षा को पूरा करने वाले पर्याप्त स्तर तक पहुँच पाने में कामयाब हो सकेंगे। 

दुनिया के बाकी हिस्सों की तरह ही भारत के सबसे धनाड्य वर्ग के बीच में भी अपने मुनाफे को उच्चतम स्तर पर ले जाने का जुनून सवार है। देश में मध्यम आय वर्ग का एक बड़ा हिस्सा लगातार इस भ्रम में जी रहा है कि वे जिस टैक्स को चुका रहे हैं, उससे होने वाली आय की किसानों और अन्य श्रमिकों के बीच में सब्सिडी/अनुदान के तौर पर बंदर-बांट की जा रही है। यहाँ तक कि प्राथमिक स्तर के अर्थशास्त्र के विद्यार्थी तक को भी इस तथ्य के बारे में बखूबी पता है कि प्रत्यक्ष करों की तुलना में अप्रत्यक्ष करों पलड़ा भारी है। जबकि अप्रत्यक्ष करों से किसान और अन्य श्रमिक सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। कोरोनावायरस महामारी ने इस बात को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया है कि इंसान कार, बंगले, हवाई जहाज, महंगे-महंगे फोन और अन्य विलासिता की वस्तुओं के बिना भी जिंदा रह सकता है। लेकिन मानव जाति के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए रोटी सबसे आवश्यक है, जो कि खेती से ही संभव है।

इन तथ्यों को समझते हुए मध्य आय वर्ग के लोगों को कृषि क्षेत्र के बारे में अपनी समझ को बदलने की सख्त जरूरत है। किसान संघर्ष की सफलत में खेतिहर मजदूरों, ग्रामीण कारीगरों और अन्य मजदूरों का योगदान रहा है।

हालाँकि देश में सामंतवाद का क़ानूनी तौर पर खात्मा हो चुका है, लेकिन कुछ किसानों के बीच में अभी भी सामंती सोच बरकरार है। किसान संगठनों को इस दिशा में आवश्यक कदम उठाने होंगे। कृषि क्षेत्र के सभी वर्गों को आपस में सहयोग की भावना को समझने और इसे जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनाने की तत्काल आवश्यकता है। इन सभी समूहों को अपने सदस्यों को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के महत्व के बारे में जागरूक बनाने की जरूरत है और इस संदेश को देने की आवश्यकता है कि आत्महत्या कर लेना किसी समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि परिवार में किसी के आत्महत्या कर लेने के बाद परिवार के बाकी सदस्यों को कई अन्य तकलीफों का सामना करना पड़ता है।

डॉ ज्ञान सिंह पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला के अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्रोफेसर हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Much More Needs to be Done Than Repeal of Laws to pep up Agricultural Sector

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