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फुटबॉल की दीवानी मुंब्रा की 'गली गर्ल्स', जिनके पास जुनून तो है लेकिन जूते नहीं

''सबा मिस हमको सपोर्ट करती हैं लेकिन अब उनके पास ही सपोर्ट नहीं है तो वो हमें कैसे आगे बढ़ाएं''
mumbra girls

हाल ही में एक ख़बर चर्चा में आई थी कि FIFA ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिया।  जिसकी वजह से भारत में अक्टूबर में होने वाली महिला अंडर-17 की मेज़बानी को छीन लिया गया। हालांकि बाद में फैसला रद्द हो गया और भारत को मेज़बानी एक बार फिर से मिल गई।  बैन लगा और फिर हटा लेकिन क्या आप जानते हैं ऐसा क्यों हुआ था? FIFA ने एक तीसरे पक्ष के ग़ैर ज़रूरी दख़ल की वजह से ये फ़ैसला लिया था। देश में ऐसा पहले कब हुआ था ये सोचने के लिए शायद हमें तारीख़ के दायरे से बाहर छलांग लगानी पड़ जाए।

वैसे ये 80 साल में ऐसा पहली बार हुआ था, पर देश में जब जनता दो जून की रोटी और जान बचाने के चक्रव्यूह को भेद रही हो तो किसको मतलब है फुटबॉल, शुटबॉल की मेज़बानी के छिन जाने पर सवाल करे। मान के चलिए अब उन बातों से ही देश का मान बढ़ता है जो हमें गोदी मीडिया बताए और जो वो ना बताए उसपर इस महंगाई के दौर में बेजा सवालों को ख़र्च नहीं किया जाता।

फिसलती हुई मेज़बानी को भले ही एक बार फिर गोल पोस्ट में किक कर दिया गया हो। लेकिन FIFA के इन फैसलों का उन खिलाड़ियों पर क्या असर हुआ होगा जिनकी ज़िन्दगी ही फुटबॉल के इर्द-गिर्द घूमती हो? हो सकता है देश के दूसरे लोगों की तरह मेरे लिए भी ये घटनाक्रम आया गया हो सकता था। लेकिन हुआ नहीं मैंने जैसे ही ये ख़बर देखी मैं कुछ परेशान हो गई और उसकी वजह थी मेरी वो स्टोरी जिसके पीछे मैं कई दिनों से लगी थी।

दरअसल ये स्टोरी है फुटबॉल की दीवानी मुंब्रा( मुम्बई) की कुछ लड़कियों की।


बारिश की वजह से गीली-गीली मुंबई में एक ऐसी तंग गली, जिसमें दो लोग साथ में चलना चाहें तो बहुत मुश्किल से क़दम बढ़ा पाएं। इसी गली के एक मोड़ पर हमें महक मिलती है, गुलाबी हिजाब में फुटबॉल थामें, उन सीढ़ियों पर खड़ी थी जिन पर पीली और ऑरेंज रंग की टाइल लगी थीं।  महक की  तस्वीर में उसकी आंखों की चमक देखकर बिल्कुल ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी पोस्टर के लिए भारत की जीत के बाद पोज़ दे रही हो। ये तस्वीर भले ही किसी पोस्टर या फिर मैगज़ीन के लिए नहीं थी लेकिन महक की आंखों में तैरती उन ख़्वाहिशों को समझना बिल्कुल मुश्किल न था।



महक मुंबई के बाहरी इलाक़े मुंब्रा में रहती है, जी हाँ ये वही मुंब्रा है जिसकी पहचान कभी आतंक के अड्डे के रूप में की जाती थी, ये वही मुंब्रा है जहां से गुज़रने वाली लोकल ट्रेन इस स्टेशन पर रुकना नहीं चाहती थीं, ये वही मुंब्रा है जहां की लड़कियों को कभी लोकल में AK-47 के नाम से बुलाया जाता था, लेकिन वक़्त के साथ वो पहचान बदली है, लेकिन इस पहचान को और निखारने के लिए एक लड़की ने जिद पकड़ ली है और ये नाम है सबा परवीन का। सबा की कहानी मेरी रिपोर्ट के अगले हिस्से में मिलेगी लेकिन जब मैं महक से बात कर रही थी तो सबा का ज़िक्र आते ही वो उदास हो गई और रुंधे गले से कहने लगी।

''सबा मिस हमको सपोर्ट करती हैं लेकिन अब उनके पास ही सपोर्ट नहीं है तो वो हमें कैसे आगे बढ़ाएं''

वो आगे कहती है कि मैं नेशनल खेलना चाहती हूं, मैं मुंब्रा और देश का नाम रौशन करना चाहती हूं। लेकिन फिर वो अचानक ख़ामोश हो जाती है। और ये वो ख़ामोशी थी जिसमें तैर रहे दर्द और बेबसी से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। महक का परिवार मुंब्रा में एक कमरे के घर में रहता है।  ये एक किराए का कमरा (खोली) है जो उनका ड्राइंग रूम, लिविंग रूम, किचन सब है, इस घर का वास्तु यही बताता है कि जहां दिल करे वहीं ज़िन्दगी की ख़ुशियों को सजा लीजिए। उसका घर भले ही सी साइड व्यू वाला नहीं लेकिन कूड़े का पहाड़ और उसमें पलने वाले कीड़े मकोड़े अक्सर ही उसके घर बिना बुलाए चले आते हैं। जब पूरी दुनिया में रहमत की बारिश हो रही होती है तो महक के घर में आफ़त का पानी घर के बर्तनों में बूंद-बूंद कर समेटा जा रहा होता है। महक के अब्बू ऑटो चलाते हैं और वही ज़िन्दगी को खींचने का एक अदद ज़रिया है।

ज़िन्दगी की इन तमाम परेशानियों के बीच महक फुटबॉल सीखने सबा के पास जाती है, वो फुटबॉल की बारीकियों को समझने की कोशिश कर रही है, हालांकि कुछ समय के लिए महक को घर के हालात की वजह से फुटबॉल छोड़ कर नौकरी करनी पड़ी लेकिन जब वहां दो तीन महीने की सैलरी नहीं मिली तो उसे मजबूरन नौकरी छोड़नी पड़ी। महक ने नौकरी छोड़ी तो एक बार फिर से सबा के पास मैदान पर पहुंच गई। वो कहती है ''भले ही नौकरी छूट गई लेकिन एक बार फिर से मुझे मेरा मैदान मिल गया, जब मैं नौकरी पर जाती थी तो प्रैक्टिस के लिए नहीं आ पाती थी''।

महक के घर और प्रैक्टिस ग्राउंड के बीच भले ही कुछ किलोमीटर की दूरी हो लेकिन ये फ़ासला तय करना उसके लिए आसान नहीं है। मुफ़लिसी को अगर एक तरफ़ कर दिया जाए तो महक को अपने घर में फुटबॉल खेलने के लिए अब्बू को मनाना मतलब एवरेस्ट पर चढ़ाई करने जैसा था। अब्बू ने दो टूक कह दिया ''तू लड़की है हमारा मज़हब इसकी इजाजत नहीं देता''। ऐसे में महक क्या करे? वो किस आलिम के पास जाकर इस बात की इजाज़त मांगे कि वो खेलना चाहती है लेकिन अब्बू उसे इसकी इजाज़त नहीं देते। महक भले ही किसी आलिम को ना जानती हो लेकिन उसकी अम्मी उसे इसकी इजाजत देती है वो कहती हैं ''जो तुम्हारा मन करे वो करो''। महक और उसकी अम्मी ने एक बीच का रास्ता निकाला और महक अब्बू से छुप कर फुटबॉल सीखने जाती है। लेकिन जिस रास्ते से होकर वो इस मैदान तक आती है वहां घूरती नज़रों के साथ ही सवालिया तीर होते हैं कि ''मुसलमान लड़की और फुटबॉल''?

लेकिन क्या फुटबॉल के ग्राउंड तक पहुंच जाने से ही महक ने मैदान फ़तह कर लिया? जवाब है नहीं। मुंब्रा की एक हिजाब पहनने वाली लड़की किसी तरह घर से तो निकल गई अपने सपनों को सच करने लेकिन क्या ये इतना आसान है? जवाब है नहीं।

 

महक का सपना है फुटबॉल लेकिन इस सपने को आंखों के कोनों से उतर कर प्लेग्राउंड तक पहुंचने का सफ़र तमाम परेशानियों को लांघ कर तय करना है। क्योंकि वो जिस ग्राउंड पर खेलती है वो सिर्फ़ ले दे कर मिट्टी का एक ग्राउंड है जिसपर टूटा हुआ बस एक गोल पोस्ट है। ना उसके पास अच्छे शूज़ हैं और ना ही ढंग की फुटबॉल, क़रीब-क़रीब हर दस दिन में फुटबॉल सिलवाकर खेली जा रही है। महक और मुंब्रा की हर उस लड़की के पास अपने उन सपनों के सिवा कुछ नहीं जिन्हें लेकर वो कोच सबा परवीन के पास आती हैं। ये सबा की ही कोशिश का नतीजा है कि महक जैसी तमाम बच्चियां फुटबॉल से जुड़ रही हैं पर वो कितना आगे तक जा पाएंगी ये कोई नहीं जानता।


कोच और फुटबॉल खिलाड़ी सबा परवीन के पास फुटबॉल सीखने आने वाली क़रीब-क़रीब हर लड़की की यही कहानी है।


16 साल की क़शफ़, 12 वीं में पढ़ती है लेकिन ज़िन्दगी के मैदान पर जो सबक उसे सीखने को मिले वो शायद किसी डिग्री हासिल करने पर भी ना मिले। महक के तो घर पर सिर्फ़ उसके अब्बू ने उसे फुटबॉल खेलने से रोकने की कोशिश की लेकिन कशफ़ का तो पूरा खानदान ही उसके पैरों में फुटबॉल के जूतों की जगह घर की चारदीवारी पहना देना चाहते हैं। एक दिन स्कूल जाते वक़्त जब उसने सबा को लड़कियों को फुटबॉल सिखाते देखा तो वो हैरान रह गई ये देख कर कि लड़कियाँ भी फुटबॉल खेल सकती हैं, उसने हिम्मत करके सबा से पूछा कि क्या वो भी फुटबॉल खेल सकती है? सबा ने ना सिर्फ़ उसे फुटबॉल के बारे में समझाया बल्कि उसके कहने पर उसके घर वालों से भी बात की पर वहां भी वही जवाब मिला ''हमारा मज़हब इसकी इजाज़त नहीं देता''।

क़शफ़ ने हिजाब लगाया और शूज़ पहन कर उतर गई मैदान पर, लेकिन यहां भी उसे मैदान पर देखकर लोगों ने ताने मारने शुरू कर दिए। रास्ते से आते-जाते उस पर फ़ब्तियां कसी गई कि ''ये कैसी लड़कियां हैं जो फुटबॉल खेलती हैं'', ''ये लड़कों के खेल में लड़कियां क्या कर रही हैं'', ये सब सुनकर क़शफ़ शर्मा जाती है लेकिन वो अपने सामने सबा को देखती है तो उसका डगमगाता हुआ कॉन्फिडेंस लौट आता है। वो उन तमाम ज़हर बुझी नज़रों को नज़रअंदाज़ कर अपने खेल में लग जाती है। वो कहती है कि ''मैं देश और मुंब्रा का नाम रौशन कर पाऊंगी की नहीं ये तो नहीं पता लेकिन मैं चाहती हूं कि मैं इतना आगे बढ़ जाऊं की मेरा परिवार और मुंब्रा के लोग कहें कि क़शफ़ जाओ आगे बढ़ो''।

लेकिन क़शफ़ के ये हौसले अपने ग्राउंड की पथरीली मिट्टी में दफ़न होते नज़र आ रहे हैं क्योंकि सबा के पास उसे सिखाने के लिए फुटबॉल की बारीकी तो है लेकिन ना तो फुटबॉल है और ना ही अच्छी किट  और ना ही बढ़िया ग्राउंड।  वो कभी नंगे पांव तो कभी फटे जूतों के साथ खेलती है ऐसे में वो कैसे प्रोफेशनल खिलाड़ी बन पाएगी इसकी चिंता सबा को रात-दिन परेशान करती है।

ये कहानी महक और कशफ़ की ही नहीं है। ये ''ग़म का ख़ज़ाना'' हर उस मुंब्रा की लड़की है जो फुटबॉल में अपना करियर बनाने के लिए सबा के पास आती हैं। सबा की ये 'मुंब्रा गर्ल्स' कहां तक पहुंच पाएंगी क्या पता? ऐसी ही एक और बच्ची है रेणुका।



मैं सबा के पास आने वाली जिस भी लड़की से बात कर रही थी ऐसा महसूस हो रहा था बस नाम बदल रहे हैं वर्ना हर किसी की वही कहानी है। हर किसी की ज़िन्दगी मुंब्रा की गलियों से निकल कर अपनी कहानी ख़ुद अपने तईं लिखने को बेताब है।

गुलाबी सफ़ेदी के बीच से एक बड़ा सा धब्बा सीमेंट का झांक रहा था, सामान को बहुत ही करीने से एक दूसरे पर ऐसे समझा-बुझा कर टिका दिया गया था जैसे वो भी घर की इज़्ज़त पर पर्दा डाल रहे हों। घर के हालात बता रहे थे कि इसमें रहने वालों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के सिवा किसी और ख़्वाहिश के बारे में सोचने की इजाज़त नहीं। लेकिन मुंब्रा की इसी खोली में रहती है रेणुका। रेणुका आसमान छूने का हौसला रखती है लेकिन उसके सपनों की ताबीर कैसे होगी ये कोई नहीं जानता।



रेणुका कहती है कि ''गोल पोस्ट टूट गया है, शूज़ नहीं हैं, लेकिन हम बिना शूज़ के भी खेल लेते हैं, चोट लगती है लेकिन कोई बात नहीं, हमारे पास सामान नहीं है लेकिन हम फिर भी खेलेंगे, वो कहती है हम जोड़-तोड़ कर घर से मिलने वाले दस-बीस रुपये मिलाकर फुटबॉल ख़रीद लेते हैं। जूते भी सिलवा लेते हैं। वो आगे कहती है ''जब मैं खेल कर निकलती हूं तो अगर कोई पूछता है कि क्या आप फुटबॉल खेलते हो तो मुझे बहुत अच्छा लगता है"। ये 17 साल की रेणुका की मासूम ख़ुशी है, सुनकर ऐसा लगता है कि कितनी सिमटी हुई ख़ुशी है इस बच्ची की लेकिन अगर इसे मौक़ा मिले तो यक़ीनन ये देश की ख़ुशी का भी सबब बन सकती है।


हमारे देश में बहुत से खेल खेले जाते हैं लेकिन जो दीवानगी क्रिकेट को लेकर देखी जाती है शायद ही वो किसी और खेल के साथ जुड़ी हो। लेकिन इतने बड़े देश में और भी बहुत से खेल हैं जो दिल से जुड़े हैं। फुटबॉल, हॉकी, रेसलिंग, टेनिस, बैडमिंटन, तीरंदाजी, निशानेबाज़ी, कई नाम जो मुझे पता तक नहीं देश के अलग-अलग हिस्सों में बहुत ही मोहब्बत से खेले जाते हैं, जिनकी तैयारी में लोग दिन-रात एक किए रहते हैं, लेकिन जो नाम बुलंदी तक पहुंचते हैं वो सिर्फ़ गिनतियों के हैं। 

ऐसे ही एक खेल के साथ जुड़ी हैं सबा परवीन, सबा ना सिर्फ़ ख़ुद फुटबॉल खेलती हैं बल्कि मुंब्रा की लड़कियों को फुटबॉल खेलना भी सिखाती हैं। सबा के बारे में बात करना शुरू करूं तो वो शायद मेरे लिए अलग से एक स्टोरी है, सबा ने जब फुटबॉल खेलना शुरू किया था उस वक़्त को याद करके वो बताती हैं ''मेरे लिए उस वक़्त फुटबॉल खेलना आसान था लेकिन हिजाब के बग़ैर स्टेडियम या किसी भी ग्राउंड पर उतरना बहुत मुश्किल था''। एक वक़्त था जब हिजाब के बगैर सबा बहुत ही असहज हो जाती थीं। लेकिन हिम्मत करके वो ग्राउंड पर उतरी और जीत हासिल की। सबा को आज भी वो दिन याद है जब उन्होंने फुटबॉल खेलना शुरू किया था वो जिस ग्राउंड पर खेलने जाती थी उन्हें उस ग्राउंड पर खेलने नहीं दिया जाता था। ग्राउंड पर आस-पास के क्रिकेट खेलने वाले लड़कों का क़ब्ज़ा था। लेकिन सबा ने भी उसी ग्राउंड के एक कोने में प्रैक्टिस करनी शुरू कर दी। कई बार बॉल से चोट लगी, आंखों के आगे अंधेरा छाया लेकिन वो रुकी नहीं और एक दिन वो भी आया जब उन्होंने अपनी जीत की टॉफ़ी लाकर ग्राउंड पर रख दी। उस दिन के बाद लड़कों ने ना सिर्फ़ सबा की हौसलाअफ़ज़ाई की बल्कि उनके लिए ग्राउंड भी छोड़ दिया।

लेकिन यहां मैं सबा के कहने पर उस मुद्दे पर बात कर रही हूं जिसकी उन्हें इस वक़्त दरकार है। सबा पिछले आठ-नौ साल से मुंब्रा की लड़कियों ( ख़ासकर मुस्लिम ) को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम कर रही हैं। सबा न सिर्फ़ पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गई बच्चियों को आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं बल्कि वो उन्हें फुटबॉल से जोड़कर कुछ करने का जज़्बा भी देती हैं। सबा इन बच्चियों को फ्री में फुटबॉल की कोचिंग देती हैं। और जब नौकरी करती थीं तो सैलारी का एक हिस्सा इन बच्चियों पर ख़र्च कर देती थीं। पर कोरोना ने धीरे-धीरे आगे बढ़ रही इन बच्चियों को कोसो पीछे धकेल दिया।

सबा की 'मुंब्रा गर्ल्स' अच्छा कर रही थीं। स्थानीय नेता के साथ ही कुछ NGO से भी मदद मिली लेकिन जहां पैसा होगा वहां पॉलिटिक्स होगी ये सबक जल्द ही सबा को मिल गया। जहां-तहां से वो बच्चियों की मदद करती रही लेकिन अब हालात बद् से बद्तर होते जा रहे हैं। बच्चियों के पास ना तो जूते हैं ना ही फुटबॉल, गोल पोस्ट भी बस नाम बराबर है। ऐसा नहीं है कि सबा को मीडिया कवरेज ना मिला हो उनपर स्टोरी बनी चली पर उसका कोई फायदा नहीं हुआ। बच्चियां आज भी फटे जूतों के साथ ग्राउंड पर नज़र आती हैं। 

सबा बहुत मुश्किल से इन बच्चियों को( मुस्लिम) घर से ग्राउंड तक लाई थीं, लेकिन अब उन्हें वो सारे सपने बिखरते नज़र आ रहे हैं जो सबा ने इन बच्चियों के लिए देख रही थीं।

कहते हैं मुम्बई सपनों की नगरी है, देश की इस आर्थिक राजधानी में देश के ही नहीं दुनिया के सबसे रईस लोग रहते हैं। ये शहर किसी को कुछ दे या ना दे लेकिन सपने देखने उनके पीछे दौड़ने और उन्हें सच करने का मौक़ा ज़रूर देता है। सबा भी कुछ छोटे-छोटे सपनों को उम्मीद की एक डोरी में बांधकर दौड़ रही हैं। लेकिन उनकी ये दौड़ कामयाबी की मंजिल तक पहुंच पाएगी कि नहीं क्या पता?

मुंबई के स्लम पर बनी फ़िल्मों ने कई लोगों को मिलिनेयर बना दिया, यहां की झुग्गियों से गुज़रने वाली गलियों ने कई लोगों को बॉक्स ऑफ़िस पर धमाल मचाने वाली स्टोरी आइडियाज़ दिए। गुलज़ार ने जब ''ज़िन्दा शाहमियाने  के तले ज़री वाले नीले आसमान के तले'' गाने का तस्सवुर किया होगा तो क्या उन्होंने किसी मुंबई के स्लम में रहने वाले जमाल, सलीम, लतिका जैसे बच्चों के सपनों के बारे में ही सोचा होगा?
काश की सबा की कोशिश पर भी किसी की नज़र पड़ जाए और कोई करिश्मा मुंब्रा गर्ल्स को मुंब्रा के छोटे से पथरीले ग्राउंड से निकाल कर दुनिया पर छा जाने का मौक़ा दिला दे। मुंब्रा की इन लड़कियों के हौसले को देखकर मुझे अल्लामा इक़बाल का वो शेर याद आता है जिसमें वो कहते हैं- 

हज़ारों साल तक नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है 

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा 

 

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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