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मुजफ्फरनगर दंगा: मंत्री सुरेश राणा, संगीत सोम, साध्वी प्राची पर फिर से चलेगा दंगा भड़काने का मुकदमा

योगी सरकार ने मार्च 2021 में सुरेश राणा, संगीत सोम आदि के मुकदमे, राजनीति से प्रेरित बताते हुए वापस ले लिए थे। इसी से मुजफ्फरनगर दंगे से जुड़े इन मुकदमों के दोबारा खुलने को योगी सरकार के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है।
मुजफ्फरनगर दंगा: मंत्री सुरेश राणा, संगीत सोम, साध्वी प्राची पर फिर से चलेगा दंगा भड़काने का मुकदमा

मुजफ्फरनगर दंगा मामले में भड़काऊ भाषण देने के आरोपी योगी सरकार के मंत्री सुरेश राणा, विधायक संगीत सोम, कपिल देव और साध्वी प्राची पर दंगा भड़काने का मुकदमा फिर से चलेगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आरोपियों के साथ योगी सरकार की मुश्किलें भी बढ़ सकती हैं। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने सांसद विधायकों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को वापस लेने पर रोक लगा दी है। राज्य सरकारों की मुकदमा वापस लेने की शक्तियों को खत्म करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कोई भी राज्य, हाईकोर्ट की मंजूरी के बिना सांसदों विधायकों के खिलाफ किसी भी आपराधिक मामले को वापस नहीं ले सकता है। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने 16 सितंबर 2020 के बाद वापस लिए गए, विचारधीन व निस्तारित मुकदमों की समीक्षा (जांच) के भी आदेश दिए हैं।

योगी सरकार ने मार्च 2021 में सुरेश राणा, संगीत सोम आदि के मुकदमे, राजनीति से प्रेरित बताते हुए वापस ले लिए थे। इसी से मुजफ्फरनगर दंगे से जुड़े इन मुकदमों के दोबारा खुलने को योगी सरकार के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है। दूसरी ओर, एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी उम्मीदवारों का आपराधिक रिकार्ड सार्वजनिक न करने के कारण भाजपा, कांग्रेस सहित 8 राजनीतिक दलों पर 1 से 5 लाख रुपयों तक का जुर्माना लगाया है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना, न्यायमूर्ति विनीत सरन और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की खंडपीठ ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों की पेंडेंसी और विशेष अदालतों की स्थापना मामले में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए यह निर्देश दिए हैं। बेंच ने आदेश दिया कि, पहला मुद्दा मामलों को वापस लेने के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के तहत शक्ति के दुरुपयोग का है। कोर्ट ने कहा, हम निर्देश देते हैं कि सांसदों, विधायकों के खिलाफ कोई भी मुकदमा बिना उच्च न्यायालय की अनुमति के वापस न लिया जाए। बेंच ने एमिकस क्यूरी वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया के अनुरोध के अनुसार निर्देश जारी किया कि सीआरपीसी की धारा 321 के तहत उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना किसी संसद सदस्य या विधानसभा, परिषद सदस्य (वर्तमान और पूर्व) के विरुद्ध किसी भी अभियोजन को वापस लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। 

यह निर्णय एडवोकेट अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर याचिका में संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए चुनाव आयोग, विधि आयोग और राष्ट्रीय आयोग द्वारा प्रस्तावित महत्वपूर्ण चुनावी सुधार को लागू करने के निर्देश देने की मांग की गई है। विधायिकाओं के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और अधिकतम आयु सीमा निर्धारित करने के साथ ही आपराधिक अपराधों के आरोपित व्यक्तियों को चुनाव लडऩे, राजनीतिक दल बनाने और किसी भी पार्टी के पदाधिकारी बनने से रोकने की भी मांग की गयी थी। योगी सरकार ने इसी साल मार्च महीने में मुज्जफरनगर दंगा भड़काने और भड़काऊ भाषण देने के आरोपी गन्ना मंत्री सुरेश राणा और सरधना से विधायक संगीत सोम के खिलाफ एमपी-एमएलए कोर्ट की सिफारिश पर मुकदमा वापस ले लिया था। मामला सितंबर 2013 का है जिसमें एक पंचायत में संगीत सोम और सुरेश राणा ने भड़काऊ भाषण दिया था। इसके बाद दंगा भड़क उठा था। इसी मामले में साध्वी प्राची समेत 11 पर मुकदमा दर्ज हुआ था।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, सुरेश राणा आदि चारों आरोपियों ने एक समुदाय के खिलाफ भड़काऊ बयान दिया और धारा 188 आईपीसी (घातक हथियार से लैस गैरकानूनी सभा में शामिल होना), 353 आईपीसी (लोक सेवक को रोकने के लिए हमला या आपराधिक बल) इत्यादि धाराओं के तहत आरोपी हैं। एमिकस क्यूरी की रिपोर्ट में कहा गया है, "ये मामले मुजफ्फरनगर दंगों से संबंधित हैं जिसमें 65 लोग मारे गए थे व करीब 50 हजार लोग विस्थापित हुए थे। 12 जनवरी, 2020 को एक अन्य रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसमें कहा गया था कि सरकार ने ऐसे 76 मामलों को वापस लेने का फैसला किया है।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) की राज्य इकाई ने मांग की है कि सुरेश राणा आदि की ही तरह सीएम योगी आदित्यनाथ पर से आपराधिक मुकदमे हटाने की भी न्यायिक समीक्षा होनी चाहिए। राज्य सचिव सुधाकर यादव ने कहा कि मुख्यमंत्री योगी ने अपने पद का दुरूपयोग करते हुए खुद के खिलाफ एमपी रहने के दौरान अतीत में दर्ज आपराधिक मुकदमों को वापस करवा लिया था। इनमें साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने समेत कई गंभीर किस्म के आरोप थे। वापस किये गए मुकदमों में पीड़ित पक्षों को न्याय नहीं मिला। कॉमरेड सुधाकर ने कहा कि कुख्यात मुजफ्फरनगर दंगे में आरोपी भाजपा के हाई प्रोफाइल नेताओं जिनमें वर्तमान मंत्री, एमपी एमएलए शामिल हैं, के खिलाफ दर्ज कई मुकदमे भी योगी सरकार ने वापस कराए। सरकार ने उनके किये अपराधों की सजा न दिलाकर न्यायिक व्यवस्था व लोकतंत्र का न सिर्फ मखौल उड़ाया, बल्कि दंगा पीड़ितों के साथ दोहरा अन्याय किया। इन सभी मुकदमों की समीक्षा कर न्याय करने और लोकतंत्र को स्थापित करने का जिम्मा उच्च न्यायपालिका को लेनी चाहिए।

अब देखा जाए तो 10 सालों में दागी सांसदों की संख्या भी 30% से बढ़कर 43% हो गई है जिनमें सबसे ज्यादा सत्तारूढ़ बीजेपी से ही हैं। 2014 में 185 दागी जीत कर आए थे, जो सभी सांसदों का करीब 34 प्रतिशत था। इस बार संख्या 233 हो गई, प्रतिशत भी बढ़कर 43 पर पहुंच चुका है। वहीं 2009 में संसद पहुंचे दागियों के मुकाबले यह वृद्धि 44 प्रतिशत की है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि किसी अपराध में आरोपी होने पर प्रत्याशी की जीत की संभावना 15.5 प्रतिशत रही है, जबकि साफ छवि वाले प्रत्याशी की जीत की संभावना इससे तीन गुना कम 4.7 प्रतिशत ही रही। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा ताजा लोकसभा के 539 विजेताओं के विश्लेषण के आधार पर यह हालात रखे गए हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, भाजपा के सांसदों में सर्वाधिक 39% दागी हैं। जघन्य अपराधों के आरोपी सांसद भाजपा से 87, कांग्रेस से 19, जेडीयू व वाईएसआरसीपी से 8-8, डीएमके से 6, शिवसेना से 5 और तृणमूल से 4 हैं।

लोकसभा में 10 प्रत्याशी ऐसे जीते जिन्होंने अपने हलफनामों में बताया कि उन्हें किसी न किसी मामले में अदालत द्वारा सजा दी गई है। इनमें भाजपा 5, कांग्रेस के 4 वाईएसआर सीपी के 1 सांसद हैं। यही नहीं हत्या, दुष्कर्म, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं से हिंसा जैसे जघन्य अपराधों में आरोपी सांसद पिछली बार से 47 और 15वीं लोकसभा से 83 अधिक हो चुके हैं। संसद में इनकी मौजूदगी 2009 के मुकाबले 109 प्रतिशत और 2014 के मुकाबले 42 प्रतिशत वृद्धि बढ़ी है।

प्रज्ञा ठाकुर सहित 11 सांसद हत्या के आरोपी हैं, जिनमें पांच भाजपा के हैं। 30 सांसदों पर हत्या के प्रयास के मामले भी हैं। 29 पर भड़काऊ भाषण के मामले हैं। यही नहीं, इस चुनाव में जीतने वाले 475 सांसद करोड़पति हैं। यह कुल सांसदों का 88 प्रतिशत है। यह भी कहा जा सकता है कि हर 10 में से नौ सांसद करोड़पति हैं। यह संख्या पिछली बार से 32 और 2009 से 160 अधिक है। 2009 के मुकाबले करोड़पति सांसदों की संख्या 51 प्रतिशत बढ़ चुकी है। चुनाव में जीत के मामले में करोड़पति होना कितना फायदेमंद है, इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि करोड़पति प्रत्याशियों में से 21 प्रतिशत चुनाव जीते हैं, वहीं जिन प्रत्याशियों की संपत्ति एक करोड़ रुपये से कम थी, उनकी जीत की संभावना भी 1% ही रह गई।

 इसी सब से राजनीति को अपराधमुक्त करने की दिशा में शीर्ष अदालत ने अत्यंत महत्वपूर्ण फैसले में चुनावी उम्मीदवारों का आपराधिक रिकार्ड सार्वजनिक न करने के कारण भाजपा, कांग्रेस सहित 8 राजनीतिक दलों पर 1 से 5 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया है। भाजपा-कांग्रेस, जेडीयू, आरजेडी, एलजेपी और सीपीआई पर एक-एक लाख रुपये तथा एनसीपी और सीपीएम पर 5-5 लाख का रुपए का जुर्माना लगाया गया है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि हाईकोर्ट की अनुमति के बगैर सांसदों विधायकों के खिलाफ दर्ज मामले वापस नहीं लिए जा सकेंगे। राजनीति और समग्र समाज को अपराध मुक्त बनाने की दिशा में शीर्ष अदालत के ये फैसले दूरगामी असर दिखा सकते हैं, बशर्ते इनका पालन कड़ाई से व लंबे समय तक हो सके। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ प्रकरणों की सुनवाई करने वाली विशेष अदालतों के न्यायाधीशों का अगले आदेश तक स्थानांतरण न किया जाए। अक्सर ऐसा होता आया है कि अनुकूल फैसला पाने के लिए स्थानांतरण के माध्यम से न्यायाधीशों को मामलों से ही हटा दिया जाता है। हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरलों को भी विधायकों-सांसदों के खिलाफ मामले एक तयशुदा प्रारूप में सौंपने के लिए कहा गया है। इस मायने में इसे बहुत महत्वपूर्ण निर्णय माना जाना चाहिए क्योंकि आज भारत का सबसे बड़ा संकट हमारी सियासत का अपराधीकरण है। बड़ी संख्या में सांसद और विधायक ही नहीं बल्कि राजनीति में शामिल होने वाले निचले स्तर तक के कार्यकर्ताओं-नेताओं की किसी न किसी तरह के अपराधों में संलिप्तता होती है। इसके कारण वे बड़े पैमाने पर मतदाताओं और पूरी व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। झूठे शपथपत्रों से लेकर हत्या और बलात्कार जैसे अपराधों में उन पर मामले चलते रहते हैं और वे बाकायदे निर्वाचित होकर विभिन्न तरह के निकायों में पहुंचते रहते हैं। 

पीएम नरेन्द्र मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने न्यायपालिका से उम्मीद जताई थी कि जनप्रतिनिधियों पर चल रहे आपराधिक मामलों पर एक वर्ष के भीतर सुनवाई पूरी कर निर्णय देने की व्यवस्था की जाये। पहले से प्रकरणों के बोझ में दबी न्यायपालिका के लिए यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि इसके लिए पर्याप्त सुविधाएं मुहैया न कराई जायें। रही-सही कसर, उनके अपने दल यानी भाजपा ने ही अनेक ऐसे अपराधी तत्वों को संसद और विधानसभाओं तक पहुंचाया। इसी से सामान्य मारपीट से लेकर हत्या, बलात्कार और यहां तक कि दंगे और आतंक फैलाने वाले लोग भी हमारी विधायिकाओं में शान से बैठे हुए हैं। कहना न होगा कि वे ऐसा कोई कानून आने ही नहीं देंगे जो अगले चुनावों में उनका रास्ता रोके। यह विडंबना ही है कि कानून तोड़ने वालों को हम कानून बनाने की जिम्मेदारी सौंपते हैं। देश की निर्वाचन प्रणाली में सुधार के मद्देनजर कई बार व्यक्तिगत और संस्थागत कोशिशें की गईं लेकिन राजनैतिक स्वार्थों के चलते अपराध मुक्त राजनीति का सपना कभी भी पूरा नहीं हो पाया। सत्ता लोलुपता, धन की आकांक्षा, शक्ति बटोरने की इच्छा व और भी ऊंचा पद पाने की हसरतों से देश की राजनीति अपराधों के दलदल में फंस गई है। समाज के अपराधीकरण होने का भी सीधा असर हमारी राजनैतिक व्यवस्था पर पड़ा है। 

अब यह कहना मुश्किल है कि समाज ने राजनीति को अपराधी बनाया या राजनीति ने समाज को। चूंकि समाज को अपराध मुक्त बनाने की जिम्मेदारी राजनीति की ही है, लिहाजा सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये ये निर्देश काफी महत्वपूर्ण हैं। विधायिका कार्यपालिका को चाहिए कि इस निर्णय का कड़ाई से पालन करें। जब तक राजनीति और निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपराधी प्रवृत्ति के होंगे, एक लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। 

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना ने देश के पुलिस थानों में हो रहे मानवाधिकार हनन को लेकर भी कड़ा रुख दिखाया है। भारतीय राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के विजन एंड मिशन स्टेटमेंट के लिए विकसित एप लांचिंग के अवसर पर चीफ जस्टिस ने देश भर के थानों को मानवाधिकार हनन का अड्डा बताया। कहा हमारे थानों की पहचान यातना केन्द्रों के रूप में होती है जहां न्याय पाने के लिए जाने वालों की रूहें कांप उठती हैं। बिना जान-पहचान या प्रभावशाली लोगों की मदद के बगैर आप थाने में पांव भी नहीं धर सकते। खास है कि समाज में होने वाले किसी भी तरह के अन्याय से छुटकारा पाने की पहली सीढ़ी पुलिस ही होती है, लेकिन वास्तविकता यही है कि वहां जाकर तकलीफों में इज़ाफा ही होता है। थानों में न केवल पैसा चलता है बल्कि सबूतों के साथ सर्वाधिक छेड़छाड़ और उन्हें मिटाने तक के काम धड़ल्ले से होते हैं। इस चक्की में वे ही पिसे जाते हैं जिनके पास या तो पैसे नहीं होते या किसी प्रभावशाली व्यक्ति का वरदहस्त नहीं होता। 

देश के ज्यादातर पुलिस स्टेशन साधनहीन लोगों के लिये यातनागृह हैं। गरीब, दलित, आदिवासी, महिलाएं, कमजोर तबके के लोग इसका सर्वाधिक शिकार होते हैं। समय-समय पर अनेक लोगों ने इस कटु यथार्थ की ओर ध्यान तो दिलाया है परन्तु उस दिशा में कुछ भी सार्थक नहीं हुआ है। पिछले दिनों स्वयं पीएम मोदी ने एक कार्यक्रम में कहा था कि पुलिस को अपनी छवि सुधारे जाने की आवश्यकता है। पुलिस की छवि का सीधा संबंध असल में पुलिस स्टेशनों की कार्यपद्धति से है जो नागरिकों के बुनियादी अधिकारों पर चोट पहुंचाती है। नागरिकों की स्वतंत्रता की गारंटी संविधान देता है लेकिन उसका हनन सहजता से एक सामान्य सा पुलिस वाला कर देता है। लोगों को असंवैधानिक तरीके से रोककर रखना, गैरकानूनी रूप से घरों-दफ्तरों की बिना सर्च वारंट के तलाशी लेना, आरोपी के रिश्तेदारों को प्रताड़ित करना, गालीगलौज, मारपीट, उनसे पैसे या सामग्री छीन लेना, उन्हें गलत बयानी हेतु मजबूर करना, वक्त पर आरोपपत्र पेश न करना, शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित करने जैसे कई उदाहरण आम हैं। आरोप उगलवाने अथवा झूठे आरोप स्वीकार कराने के नाम पर असंख्य तरीके से उनके नैसर्गिक व संवैधानिक हकों को कुचला जाता है।  

यही नहीं, पुलिस का राज्य समर्थित दुरुपयोग और भी भयानक है। मारपीट, दंगे, शासकीय कामों में बाधा पहुंचाने से लेकर राजद्रोह तक के झूठे मुकदमे पुलिस के जरिये ही राजनैतिक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर दर्ज होते हैं। देश भर की जेलों में असंख्य ऐसे कार्यकर्ताओं को जेलों में ठूंसकर रखा गया है जो सरकार के खिलाफ होते हैं या उसकी आलोचना करते हैं। यह कार्य भी पुलिस के जरिये ही होता है। हालांकि अनेक न्यायाधीश अलग-अलग फोरमों या न्यायालयों की आसंदी से प्रकरणों की सुनवाई के दौरान भी यह राय जाहिर कर चुके हैं। कभी वे सरकार को फटकार लगाते हैं तो कभी पुलिस को। फिर भी, पुलिस स्टेशनों के माध्यम से लोगों के मानवाधिकार हनन से न तो सरकारें बाज आती हैं और न ही स्वयं पुलिस। इस स्थिति के लिए पुलिस के कामों में राजनैतिक दुरुपयोग एक बहुत बड़ा कारण है। जिस पार्टी की सरकार होती है या जिन व्यक्तियों, वर्गों, समुदायों या सम्प्रदायों का सरकार को समर्थन-साथ होता है, उन्हें थानों में विशेष तवज्जो दी जाती है। विरोधियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है।

हालांकि ऐसा भी नहीं है कि पुलिस में ही सारी खोट है। उन पर भी कई तरह के दबाव होते हैं। सीमित बल संख्या, कम थाने, सुविधाओं का अभाव जैसी परिस्थितियां उनके काम को दुरुह बनाती हैं। उन्हें कई तरह के काम थमाए जाते हैं जिससे लोगों को न्याय देने का उनका काम प्रभावित होता है। भारत में पुलिस का कामकाज सुधारने के लिए 1902-03 में एन्र्ड्यू फ्रेजर व लॉर्ड कर्जन कमेटी से लेकर जस्टिस जेएस वर्मा आयोग (2013) तक कई आयोगों व समितियों ने अपनी रिपोर्टें पेश की परंतु समग्रता व गंभीरता से किसी पर काम नहीं हुआ। मानवाधिकारों के मामले में भारत की रैंकिंग विश्व सूची में काफी नीचे है। संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य होने के नाते भारत अपने नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए वचनबद्ध तो है पर व्यवहारिक रूप से वह इस दिशा में बेहद असफल राष्ट्रों में से एक है। 

मानवाधिकारों की रक्षा की पहली सीढ़ी पुलिस स्टेशन ही हैं। देखना यह होगा कि जस्टिस रमन्ना की इस टिप्पणी का सरकार पर कितना असर होता है और वह क्या कदम उठाती है। हालांकि वर्तमान केंद्र व राज्य सरकारें भी इसके लिए जिम्मेवार हैं। इसी से जानकार कह रहे हैं कि जस्टिस रमना ने जो नहीं कहा, वह यह है कि अब पुलिस ज्यादतियों को एक सरकारी नीति के रूप में अपना लिया गया है, जो और भी ज्यादा चिंता का विषय है।  ‘ठोक दो’ के औपचारिक आदेश ने पुलिस को बंधन मुक्त कर दिया है। अब जब बात यहां तक पहुंच गई है, तब जस्टिस रमन्ना ने वह कहा है, जो स्थिति आजादी के बाद हमेशा से रही है। खैर, कुछ भी कहो लेकिन आज के मायूसी के दौर में बहुत से लोगों ने जस्टिस रमन्ना की टिप्पणी को उम्मीद की एक किरण के रूप में देखा है। पर अगर गौर करें, तो वे ऐसी सामान्य बातें हैं, जिन्हें भारत का हर जागरूक नागरिक जानता है। एक पूरी पीढ़ी 1960 के दशक में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज आनंद नारायण मुल्ला की इस टिप्पणी को सुनते-सुनाते बड़ी हुई थी कि पुलिस संगठित अपराधियों का सबसे बड़ा गिरोह है। मगर सवाल है कि ऐसी बातों से होता क्या है? पुलिस तब जैसी थी, उसकी भूमिका आज उससे भी ज्यादा चिंताजनक है। बहरहाल, जस्टिस रमन्ना ने जो कहा और नहीं कहा, सवाल है कि उस सबका हल क्या है? 

साभार : सबरंग 

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