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निजी क्षेत्र में आरक्षण के बिना आरक्षण अधूरा है और अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकता

भारत में दलित, आदिवासी, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक आदि जैसी सामाजिक रूप से बहिष्कृत आबादी की एक विस्तृत श्रृंखला है जो रोजमर्रा की जिंदगी में भेदभाव और शोषण का अनुभव करती है।
निजी क्षेत्र में आरक्षण के बिना आरक्षण अधूरा है और अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकता

सामाजिक भेदभाव भारतीय समाज में ऐतिहासिक समय से एक बुनियादी विभाजन के रूप में विद्यमान है। भारत में दलित, आदिवासी, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक आदि जैसी सामाजिक रूप से बहिष्कृत आबादी की एक विस्तृत श्रृंखला है जो रोजमर्रा की जिंदगी में भेदभाव और शोषण का अनुभव करती है। लोगों का वंचित होना उस प्रक्रिया का परिणाम है, जिसके तहत कुछ व्यक्ति समाज के हाशिए तक पहुंचा दिये जाते हैं और उन्हें गरीबी के आधार पर, या बुनियादी दक्षताओं और आजीवन सीखने के अवसरों के अभाव के चलते अथवा भेदभाव के परिणामस्वरूप पूरी तरह से भागीदारी करने से वंचित किया जाता है। यह उन्हें नौकरी, आय और शिक्षा तथा प्रशिक्षण के अवसरों से वंचित करता है। उनके पास शक्ति और निर्णय लेने वाली निकायों में बहुत कम पहुंच होती है और इस प्रकार वे प्रायः स्वयं को शक्तिहीन और अपने दिन-प्रतिदिन जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णयों पर नियंत्रण लेने में असमर्थ महसूस करते हैं।

सामाजिक बहिष्कार की यह प्रक्रिया, जिसने समाज के कुछ वर्गों से वंचित किया, वह एकाधिकार अवधारणा का परिणाम है, जहां कुछ वर्ग (उच्च जाति) अन्य वर्गों (निचली जाति), जैसे कि वंचितों को सामाजिक कार्य-व्यवहार से बाहर रखते हैं। भारतीय समाज में लोगों को वंचित करने की इस प्रक्रिया को धार्मिक विश्वास और जाति की संरचना द्वारा संस्थागत किया गया है। जाति एक वास्तविकता है जिसने अधिकांश लोगों को इतिहास में अपने मूल अधिकारों से वंचित किया है। वंचित जातियों के साथ उन उच्च जातियों द्वारा आर्थिक और सामाजिक रूप से भेदभाव किया जाता था जो कि उत्पादन के साधन और संसाधनों के मालिक हैं। निचली जातियों पर अपने उत्पीड़न को बनाये रखने के लिए उच्च जातियों ने धार्मिक मान्यताएं बना रखी हैं।

वास्तव में, अधिकारों का प्रश्न उन लोगों के लिए कभी एक प्रश्न ही नहीं बन पाता है, जिन्हें जातिगत सोपानक्रम में नीचे में रखा गया है। जो लोग ऊपर के पायदान में स्थित हैं, उन्हें अंतिम पायदान में रखे गए लोगों की कीमत पर विशेषाधिकार का आनंद मिलता है। इस प्रकार, ये तबके सामाजिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग लेने में असमर्थ हैं, जिसके चलते वे कभी किसी समाज का अभिन्न अंग बन ही नहीं पाते हैं। इसलिए, अन्य सामाजिक वर्गों के समक्ष मौजूद भेदभाव और गरीबी पर बात करने के साथ-साथ, भारत में सामाजिक समावेश को प्राप्त करने का कार्य, व्यापक रूप से उन समूहों के लिए समानता को प्राप्त करना है, जिन्हें सामाजिक सोपानक्रम में सबसे निचले पायदान पर रखा गया है।

वंचित जातियों की स्थिति में सुधार और सामाजिक समावेश के लिए, उन मुद्दों के संयोजन को हल करना महत्वपूर्ण है जिनमें आय असमानता, शिक्षा, कौशल स्तर, आवास तक पंहुच, स्वास्थ असमानताएं और कार्य-जीवन संतुलन शामिल हैं। जब हमने अपने संविधान को अपनाया था तो इन वंचित और हाशिए के समूहों के उत्थान के बारे में विस्तृत चर्चा की गई थी, और इन विमर्शाें के परिणामस्वरूप संविधान में कुछ विशेष संवैधानिक उपाय हैं जिन्हें सकारात्मक कदम कहा जाता है। हम जानते हैं कि अन्य कल्याणकारी कदमों के साथ-साथ, शिक्षा और रोजगार मुहैया करा के आय बढ़ाने के माध्यम से वंचितों की स्थिति सुधारना, एक बेहतर विकल्प है। इस पहलू के बारे में गंभीर चर्चा और विचार-विमर्श किया गया था और अंततः दलितों और आदिवासियों को राज्य प्रायोजित योजनाओं, शैक्षणिक, राजनैतिक और रोजगार के अवसरों में क्रमशः 15 और 7.5 प्रतिशत अवसरों को आरक्षित किया गया है। इसके अलावा ओ0बी0सी0 को सभी शैक्षणिक और रोजगार के अवसरों में 27 प्रतिशत सीटें प्रदान की जाती हैं और ज़मीनी स्तर के राजनैतिक संस्थानों में 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

जातीय उत्पीड़न की प्रक्रिया को तोड़ने और विकास की प्रक्रिया में निचली जातियों को मुख्यधारा में लाने के लिए, शिक्षा और रोजगार में समान अवसर सबसे महत्वपूर्ण हैं। यह उन लोगों के लिए आर्थिक उत्थान (रोजगार के माध्यम से) का एक तरीका भी माना जाता है, जिन्हें मुख्यधारा से बाहर रखा गया है और जिससे बाद में वे अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार कर सकते हैं। यद्यपि यह एक तथ्य है कि अकेले आर्थिक उत्थान से ही जाति से संघर्ष नहीं किया जा सकता, फिर भी संसाधनों और रोजगार के अवसरों तक पहुंच उस लम्बे रास्ते की बाधाओं को तोड़ सकती है।

विभिन्न शोधों दर्शाते हंै कि रोजगार के अवसरों के सम्बन्ध में जाति, धर्म, लिंग और जन्म स्थान का प्रभाव बहुत अधिक है। इस कारण से रोजगार में आरक्षण वंचित वर्गों के लिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।

रोजगार में आरक्षण की नीति को कभी भी पूरे मन से लागू नहीं किया गया, जो विभिन्न विभागों में विशेषकर शीर्ष पदों के लिए मौजूदा बैकलॉग द्वारा साफ तौर देखा जा सकता है, फिर भी हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि रोजगार में आरक्षण ने दलितों की उन्नति की प्रक्रिया में वास्तव में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आरक्षण के कारण पिछले छह दशकों के दौरान विभिन्न सरकारी और अर्ध-सरकारी सेवाओं में, सभी समूहों या वर्गाें में, दलितों की हिस्सेदारी में काफी वृद्धि हुई है।

उदाहरण के लिए 1965 में समूह ए, बी, सी और डी में दलितों (अनुसूचित जातियों) का प्रतिनिधित्व 1.64 प्रतिशत, 2.82 प्रतिशत, 8.88 प्रतिशत और 17.75 प्रतिशत था जो 1.1.2005 को बढ़कर 11.9 प्रतिशत, 13.7 प्रतिशत, 16.4 प्रतिशत और 18.3 प्रतिशत हो गया है। (मंडल, 2010ः 157)। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि समूह ए और बी सेवाओं में दलितों का प्रतिनिधित्व अभी तक निर्धारित कोटे तक नहीं पहुंचा है। दलितों का यह प्रतिनिधित्व बैंक, बीमा, न्यायपालिका, शैक्षणिक संस्थानों जैसे अन्य क्षेत्रों में गैर दलित लोगों की तुलना में काफी कम है। जैसा कि हमने पहले कहा है कि इस कमजोरी के बावजूद आरक्षण के महत्व को कम कर के नहीं आंका जा सकता। लागू किये जाने की प्रक्रिया में अपनी कमज़ोरी और कमियों के बावजूद नौकरियों में आरक्षण के चलते दलितों की समग्र सामाजिक-आर्थिक स्थिति में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है। इसने न केवल सामाजिक गतिशीलता के कदमों को चैड़ा किया है बल्कि सामूहिकता में सभी समुदायों को मानसिक स्थिरता और आत्मविश्वास प्रदान किया है।

लेकिन अब नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के शासनकाल में सार्वजनिक क्षेत्र में आरक्षण का प्रभाव कम हो रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में निरंतर कटौती के साथ लगातार और भी कम होता जा रहा है। उदारीकरण और निजीकरण की नीति ने रोजगार के अवसरों की संख्या कम कर दी है, जिसके चलते सरकारी सेवाओं और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में, वंचित वर्गों, विशेष रूप से दलितों और आदिवासियों के लिए रोजगार के अवसरों में कमी आई है। केन्द्र और राज्यों की सरकारें ने नये पदों के सृजन और नई नियुक्तियों पर लंबे समय से प्रतिबंध लगा रखे हैं। इसके साथ ही, सरकार अब नियमित आधार के बजाय तदर्थ या अनुबंध के आधार पर नियुक्ति करना चाहती है। उच्च और निचले, दोनों ही स्तर के पदों में, इन तदर्थ या संविदात्मक नियुक्तियों में आरक्षण के प्रावधानों का पालन नहीं किया जाता है। तदर्थ या संविदात्मक नियुक्तियां, निसंदेह, आरक्षण के प्रावधानों तथा नौकरियों के सम्बन्ध में दलितों के हितों पर गम्भीर प्रभाव डालेंगी।

सरकार द्वारा मनमाने तरीके से हजारों पदों के उन्मूलन के कारण स्थिति और अधिक जटिल हो जाती है, जो सरकारी सेवाओं और सार्वजनिक उद्यमों में दलितों और अन्य कर्मचारियों के रोजगार पर भी गम्भीर प्रहार करता है। यदि कर्मचारियों की संख्या कम हो जाती है, तो यह हाशिए के तबकों, विशेषकर दलितों को गम्भीर रूप से प्रभावित करती है; वास्तव में, सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण की मुहिम ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण को सीधे तौर पर प्रभावित किया है।

सार्वजनिक क्षेत्र के इन थोड़े से रोजगार के अवसरों की उपलब्धता, निजीकरण और विनिवेश के विभिन्न रूपों के माध्यम से, तमाम सरकारी उद्योगों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को पहले ही बेच दिये जाने से, और अधिक प्रभावित होती हैं। मौजूदा सरकार द्वारा, अच्छा मुनाफा देने वाले उन बुनियादी ढांचागत सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को भी निजी संस्थानों को सौंप देने का प्रयास किया जा रहा है, जिन्हें ’’नवरत्न’’ कहा जाता है। इस कड़ी में, वे पहले ही भारत में सर्वाधिक रोज़गार देने वाले नियोक्ता, भारतीय रेलवे के निजीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ कर चुके हैं। एयर इंडिया को निजी घरानों के सामने बोली लगाने के लिए थाली पर परोस दिया गया है। इन वर्षों में अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्र निजी निवेश के लिए खोल दिये गए हैं। मौजूदा सार्वजनिक क्षेत्रों में विनिवेश के लिए 50 प्रतिशत से भी अधिक की अनुमति पहले ही दे दी गई है।

यह स्पष्ट है कि सार्वजनिक क्षेत्र में रोज़गार के अवसर लगातार सिकुड़ रहे हैं और साथ ही यह कि अधिकांश रोज़गार के अवसर निजी क्षेत्र में उपलब्ध हैं। एक और पहलू यह है कि मौजूदा निजी क्षेत्र भी बेरोजगार विहीन विकास का सामना कर रहा है। निजी क्षेत्र, भर्ती के लिए किसी भी प्रकार की आरक्षण नीति का पालन नहीं करते हैं। इस स्थिति में सार्वजनिक क्षेत्र में आरक्षण का कोई मतलब नहीं है, जब वहां नौकरियों के अवसर नहीं हैं या बहुत कम हैं।

जहां तक निजी क्षेत्र का सम्बन्ध है, जो पूरी तरह से बाज़ार की शक्तियों द्वारा नियंत्रित है, वह व्यापक स्तर पर उच्च जाति के उद्यमियों के स्वामित्व में है। निजी क्षेत्र के सभी उपक्रमों में जातिगत और लैंगिक असमानताएं हैं। दलित-आदिवासी स्वामित्व की हिस्सेदारी में इस अवधि में गिरावट आई है, दलित-आदिवासी उद्यम छोटे होते हैं, शहरी से ज्यादा ग्रामीण होते हैं, और उनमें मालिक-संचालित (एकल कर्मचारी) इकाइयों का बड़ा हिस्सा होता है। (अश्वनी देशपांडे और स्मृति शर्मा)

दलित और आदिवासियों को निजी क्षेत्र में, विशेषकर कि उच्च पदों में, भर्ती के दौरान काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उच्च जातियों के स्वामित्व वाले यह निजी संस्थान भेदभाव से भरे होते हैं। यही विभिन्न अध्ययनों से सिद्ध होता है।

नियमित वेतन वाले शहरी श्रम बाजार में, समान काम के लिए समान वेतन जैसे कानून होने के बावजूद, उच्च जातियों और अनुसूचित जातियों/जनजातियों के बीच मजदूरी में अंतर है। पॉल एटवेल और एस0 मधेस्वरन ने अपने अध्ययन (2007) में निष्कर्ष निकाला है कि (क) भेदभाव के चलते अनुसूचित जाति/ जनजातियों को समान रूप से योग्य अन्य लोगों की तुलना में 15 प्रतिशत कम वेतन मिलता है; (ख) अनुसूचित जाति/ जनजाति के श्रमिकों के साथ सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में भेदभाव किया जाता है, लेकिन निजी क्षेत्र में भेदभाव कहीं अधिक है; (ग) यह भेदभाव नियमित वेतन वाले शहरी श्रम बाजार में, दो सामाजिक समूहों के बीच सकल आय अंतर का एक बड़ा कारक है, जहां व्यावसाय के आधार पर भी भेदभाव है - नौकरियों तक असमान पहुंच - जो मजदूरी के भेदभाव - समान काम के लिए असमान वेतन - की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है; और (घ) आय का अंतर भेदभाव के घटक से बड़ा है।

यह भेदभाव प्रवेश के स्तर पर और भी अधिक प्रचलित है। थोराट और एटवेल (2007) द्वारा किए गए एक अध्ययन का दावा है कि आधुनिक निजी उद्यमों में नौकरियों के लिए आवेदन के दौरान, समान शैक्षिक योग्यता और कौशल वाले हिन्दु नामों की तुलना में, सफल होने के बाद भी दलित और मुस्लिम परिवार के नामों के साथ उन्हें चयन प्रक्रिया में अगले चरण के लिए बुलाया जाना बहुत कठिन है।

नौकरियों में आरक्षण ऐसे उद्यमों के नए निजी मालिकों के लिए बाध्यकारी नहीं है। इसके परिणामस्वरूप, दलितों के लिए रोजगार के अवसरों में काफी गिरावट आई है। ऐसी स्थितियों में जब निजी खिलाड़ियों की बाज़ारों में सक्रिय भूमिका है और नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के चलते बुनियादी सेवा प्रावधानों से राज्य अपने हाथ खींच रहा है और निजी क्षेत्र में भेदभावपूर्ण प्रचलन व्याप्त हैं, तब यदि हम वास्तव में वर्तमान समय में वंचित तबकों के उत्थान के बारे में परवाह करते हैं तो निजी क्षेत्र के संस्थानों में आरक्षण को लागू करना एक बुनियादी मांग है। यह भी नोट करना आवश्यक है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण का मतलब केवल ज़मीनी काम या शारीरिक श्रम के काम में आरक्षण नहीं है बल्कि इसका अर्थ है निजी संस्थानों में सभी स्तरों पर आरक्षण।

निजी घरानों द्वारा निजी क्षेत्रों में आरक्षण के खिलाफ कई प्रकार के दावे प्रचारित किये जा रहे हैं। इनमें से दो महत्वपूर्ण हैं; आरक्षण बनाम योग्यता की पुरानी बहस जिसका कहना है कि आरक्षण निजी संस्थानों की कार्य कुशलता पर प्रभाव डालता है तथा दूसरा यह कि निजी घराने आरक्षण के लिए तैयार नहीं होंगे। इन दोनों ही तर्क बेकार हैं।

विभिन्न अध्ययनों ने, विशेषकर कि भारतीय रेलवे पर अश्वनी देशपाण्डे का अध्ययन इंगित करता है कि आरक्षण का कार्य कुशलता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। निजी क्षेत्र की इच्छा सम्बन्धी दूसरा तर्क भी व्यर्थ है और यह शासक वर्ग की इच्छाशक्ति को प्रतिबिंबित करता है। जब निजी क्षेत्र औद्योगिक वृद्धि को बढ़ाने के लिए सरकार से मिलने वाली विभिन्न रियायतों का लाभ उठाते हैं, तब यह समझना कठिन है कि इस क्षेत्र को संविधान द्वारा प्रस्तावित सकारात्मक कार्यों को लागू क्यों नहीं करना चाहिए। हम जानते हैं कि निजी क्षेत्र सार्वजनिक संसाधनों और यहां तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और वित्तीय संस्थानों से पूंजी का भी उपयोग करता है (कर रियायतों और कर्ज़ माफी की भारी मात्रा को ध्यान में रखें)।

असल में यह सब देश के शासक वर्ग के बहाने मात्र हैं। हमारे पास अपने अनुभव हैं जब सार्वजनिक क्षेत्रों के इन आरक्षणों को लागू करने के लिए भी आम जनता को विभिन्न संघर्षों को खड़ा करना पड़ा है।

अगर हम सरकार की सामान्य नीति का विश्लेषण करें तो हम उनकी नीति के दोगलेपन को समझ सकते हैं। सरकार दावा कर रही है कि वह वंचित तबकों के विकास के लिए प्रतिबद्ध है, परन्तु सरकार का यह कदम एक पहेली बन जाता है, जहां एक ओर वह नवउदारवादी नीतिगत तंत्र को अपनाती है और वहीं इसके विपरीत, वह समावेशी विकास को बढ़ावा देने की बात करती है। ये दोनों अवधारणाएं, एक सवाल छोड़ जाती हैं कि क्या सरकार वास्तव समावेशी विकास चाहती है और वंचित तबकों के उत्थान के बारे चिंतित है।

इसलिए, यह वक्त का तकाज़ा है कि भारत में निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग को उठाया जाये। विभिन्न मुद्दों पर वंचित जातियों के हालिया संघर्ष भी इन तबकों के युवाओं की बेरोजगारी की स्थिति को प्रतिबिंबित करते हैं। जब हमारी सरकार देश की जनता को उनके वास्तविक मुद्दों से भटकाने के आपराधिक षड्यंत्र में व्यस्त है, तो लोगों को उनके बुनियादी मुद्दों पर एकजुट करने की ज़िम्मेदारी वामपंथी लोगों और प्रगतिशील आंदोलन की है; और रोजगार युवा भारत का बुनियादी मुद्दा है लेकिन निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग के बिना रोजगार के लिए संघर्ष अधूरा होगा।

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