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निर्भया मामले के पाँच साल , कितनी आगे बढ़ी है नारी मुक्ति की लड़ाई ?

NCRB के ये आंकडे डराने वाले हैं , और एक बार देखने में पर ये हमें निराश कर सकते हैं . पर ऐसा नहीं है कि पिछले 16 दिसंबर के बाद हुए आन्दोलन की कोई बड़ी उपलब्धि ही नहीं रही .
nirbhaya case

इस 16 दिसंबर को निर्भया रेप मामले को पाँच साल पूरे हो जायेंगे . ये वही  भयानक दिन था जिसनें हमारे समाज को झंझोड़कर कर रख दिया था . इसने हमारी असंवेदनशीलता की नींद को न सिर्फ तोडा बल्कि हमें कुछ कर गुज़ारने के लिए मजबूर भी किया था . इस हादसे के पाँच साल गुज़र जाने के बाद आज कुछ सवाल हमारे सामने हैं .क्या निर्भया मामले के बाद उठे आन्दोलन ने ज़मीन पर कुछ बदला ? क्या उसके बाद आये कानूनी बदलावों से कुछ असर हुआ ? हमारा समाज उसके बाद क्या आगे बढ़ा ?

कुछ ही दिन पहले हरियाणा के हिसार में एक 6 साल की बच्ची के साथ हुए घिनौने रेप और क़त्ल की घटना हमें ये सोचने पर मजबूर करती है  कि हमने निर्भया मामले से क्या सीखा ?

NCRB के आकंडो के अनुसार 2007 से 2016 महिलाओं के प्रति हिंसा के मामलों में 83% वृद्धि हुई है. यहाँ हमें ये भी याद रखना होगा कि महिलाओं के प्रति हिंसा के बहुत से मामले समाज और पुलिस के पितृसत्तामक रवैये के कारण दर्ज़ नहीं होते. वहीं ये बात भी सत्य है कि पिछले कुछ सालों में पहले से ज्यादा महिलाएं बाहर आकर मामले दर्ज़ करा रहीं हैं , आंकड़ों की बढ़त की एक ये भी वजह हो सकती है . इसमें IPWA की महासचिव कविता कृष्णन का कहना है कि 40% केसों में लड़की के घर वाले उसके सहमति से शरीरिक सबंध बनाने पर भी उसे रेप कहकर मामले दर्ज़ करते हैं .

पर ये बात भी सत्य है कि 2012 में हुए निर्भया मामले के बाद जो जन आन्दोलन उभरा उसकी की ही वजह से महिला हिंसा से जुड़े कानूनों में काफी सुधार किये गए. इसमें यौन हिंसा की परिभाषा का दायरा बढ़ा दिया गया , यानी पहले जिन चीज़ों को यौन हिंसा नहीं माना जाता था उन्हें अब माना जाता है . इसके अलावा कानूनी तौर पर पहले रेप तभी माना जाता था जब मर्द ज़बरदस्ती महिला के गुप्त अंगो में अपना लिंग को प्रवेश करे , पर अब अगर लिंग के आलावा रौड या अन्य चीज़ों के डालने को भी रेप माना जाता है . स तरह रौड या लकड़ी डालने का घिनौनापन निर्भया और हाल में हुए हिसार की बच्ची के रेप दोनों में देखा गया है . इसके अलावा महिला हिंसा से जुड़े कानून में और भी कई सुधार किये गए हैं .

16 दिसंबर की घटना के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमिटी सिफ़ारिशों की वजह से ही कानून में बदलाव संभव हुए .पर महिला आन्दोलनों से जुड़े लोगों का ये भी कहना है कि रेप के कुछ मामलों में फांसी की सज़ा का प्रावधान और बलात्कारी की आयु को कम करके 16 कर देना जस्टिस वर्मा की सिफारिशों में नहीं थे . साथ ही मैरिटल रेप को अब भी एक अपराध के तौर पर मानने को मान्यता नहीं मिली है.

पर क्रिमिनल लॉ अमेडमेंट 2013 जिसकी वजह से कानून में ये सुधार आये हैं के लागू किये जाने के बावजूद भी दोषियों को सज़ा मिलने की दर में ज्यादा सुधार नहीं हुआ है. NCRB के आकड़ों के अनुसार 2007 में जहाँ सज़ा मिलने की दर सिर्फ 4.2% थी वहीँ 2016 में ये दर बढकर सिर्फ 18.9% हुई है , यानी अब भी 5 में से एक से भी कम दोषियों को सज़ा मिल पाती है . यहाँ हमें याद रखना होगा कि NCRB मोटे तौर पर 13 चीज़ों को महिला हिंसा मानती है.

NCRB के आंकड़ों के मुताबिक प्रति 1 लाख की जनसंख्या में महिला हिंसा की दर 2007 में 16.3 थी जो 2016 में बढ़कर 53 हो गयी है . 2007 से रेप 88% तक बढ़ गयें हैं , साथ ही में पति और रिश्तेदारों द्वारा हिंसा 45% तक बढ़ गयी है . यहाँ एक और डरा देने वाला आंकड़ा सामने आया है NCRB  के मुताबिक Assault on Women with Intent to Outrage her Modesty  के मामलों में 116% तक की बढ़ोतरी हुई है . इसके अंतर्गत यौन हिंसा , छेड़छाड़ , स्टाकिंग , तांक झाँक करने के साथ बाकी अपराध शामिल हैं .

NCRB के ये आंकडे डराने वाले हैं , और एक बार देखने में पर ये हमें निराश कर सकते हैं . पर ऐसा नहीं है कि पिछले 16 दिसंबर के बाद हुए आन्दोलन की कोई बड़ी उपलब्धि ही नहीं रही .कानूनों में सुधार के अलावा महिलाओं में अपने हक के प्रति जागरूकता बढ़ी है . साथ ही इस आन्दोलन ने महिलाओं के बेख़ौफ़ आज़ादी और पितृसत्ता से आज़ादी के नारे भी बुलंद करे जिनकी गूँज BHU और बाकी आन्दोलनों में भी सुनाई पड़ी . नारीवाद की चेतना को जन जन तक पहुँचाने में इस आन्दोलन ने जो भूमिका निभाई वो सच में एतिहासिक है.

पर दक्षिण पंथी ताकतों का उभार और समाज में इसका दखल एक बड़ी चुनौती बनके सामने आया है .लव जिहाद जैसी मुहिमों ने न सिर्फ मुसलमानों  बल्कि महिलाओं की आज़ादी पर भी रोक लगाने की कोशिश करी है , इसका उदाहरण केरल की हदिया के केस में देखा जा सकता है .

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