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नज़रिया :  आज से लिंचिंग को देशसेवा कहा जाए?

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने मंगलवार को दशहरा के मौके पर कहा कि ‘भीड़ हत्या’ (लिंचिंग) पश्चिमी तरीका है और भारत को बदनाम करने के लिये इसका इस्तेमाल कतई नहीं किया जाना चाहिए।
mohan bhagvat
फोटो साभार : हिन्दुस्तान

उन्हें लिंचिंग से ऐतराज़ नहीं है, सिर्फ़ शब्द से है। इसलिए फिकर नॉट...आप बेधड़क लिंचिंग करते रहिए, वे इसे देशसेवा कहेंगे। जैसे गो-गुंडों को गो-रक्षक। जैसे बाबरी विध्वंस करने वालों को कार-सेवक। जैसे गुजरात दंगों को क्रिया की प्रतिक्रिया। जैसे आर्थिक मंदी को आर्थिक तेज़ी। जैसे देश की बर्बादी को देश का विकास।

उन्हें सिर्फ़ नाम और शब्द बदलने में रुचि है, काम में नहीं। उनके लिए मॉब लिंचिंग यानी भीड़ द्वारा घेरकर की गई हत्या बुरी नहीं है, बुरा है भीड़ हत्या को भीड़ हत्या कहना। वैसे इससे साफ है कि मॉब लिंचिंग भी दरअसल मॉब लिंचिंग नहीं, बल्कि असल में मोबलाइज़ लिंचिंग है। यानी भीड़ अक्समात या अचानक किसी को भी घेरकर नहीं मार रही, बल्कि इसके लिए उसे बाकायदा तैयार किया जा रहा है। राजनीतिक प्रेरणा और संरक्षण दिया जा रहा है।
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत के बयान का शायद यही मतलब था। हालांकि वे और उनके समर्थक कहेंगे कि उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है। लेकिन वास्तव में तोड़-मरोड़ तो भारतीय संस्कृति को दिया गया है, जिसकी वे दुहाई देते हैं। जानकार बताते हैं कि आरएसएस का गठन ही भारतीय संस्कृति को तोड़-मरोड़ कर किया गया है। बताते हैं कि आरएसएस की पूरी विचारधारा और कार्यशैली फासीवाद और नाज़ीवाद से प्रभावित है। यानी इटली के तानाशाह मुसोलिनी और जर्मनी के तानाशाह हिटलर के विचारों और तरीकों को अपनाकर आरएसएस का गठन किया गया। कहा तो यहां तक जाता है कि आरएसएस की यूनिफार्म भी मुसोलिनी की सेना से प्रभावित थी।

फासीवादी एक पार्टी, एक राष्ट्र और उसकी अर्थव्यवस्था के अधिनायकवादी नियंत्रण में विश्वास करते हैं। फासीवादी शासन राष्ट्रवाद और सैन्यीकरण को महत्व देता है और अक्सर साझा नस्लीय या जातीय श्रेष्ठता की अवधारणा के आसपास राष्ट्रवादी उत्थान का निर्माण करता है।

इसी अवधारणा से हिटलर प्रभावित था और उसने अपने देश में इसे लागू किया। हिटलर के नाज़ीवाद में कट्टर जर्मन राष्ट्रवाद, विदेशी विरोधी, आर्य और जर्मन हित शामिल था। नाज़ी यहुदियों से सख़्त नफ़रत करते थे और यूरोप और जर्मनी में हर बुराई के लिये उन्हें ही दोषी मानते थे। यही सबकुछ इन दिनों भारत में देखने को मिल रहा है, जिसमें हर संकट, हर बुराई के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया जा रहा है।

राष्ट्रवाद (ध्यान रहे राष्ट्रवाद और देशप्रेम दो अलग-अलग बातें हैं और राष्ट्रवाद भी एक पश्चिमी अवधारणा ही है) का राग अलाप कर मुसलमानों को विदेशी यानी आक्रमणकारी, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी और उसके साथ आतंकी चिह्नित कर दुश्मन के तौर पर पेश किया जा रहा है। यही वजह है कि अब मुसलमानों को कहीं भी कभी गो-रक्षा के नाम पर, कभी बच्चा चोर के नाम पर घेरकर मार दिया जा रहा है। और ऐसी हत्याओं को जायज और इसका विरोध करने वालों को मुजरिम ठहराया जा रहा है।

वाकई अगर ऐसा न होता तो ऐसे हत्यारों का सम्मान न होता, उन्हें फूल-माला न पहनाई जाती, उन्हें चुनाव में टिकट न दिया जाता।

वाकई अगर ऐसा न होता तो मॉब लिंचिंग पर चिंता जताते हुए प्रधानमंत्री को पत्र लिखने वाली देश की 49 हस्तियों पर मुकदमा न होता। मुकदमे की बजाय उनकी चिंता का संज्ञान लेते हुए ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए त्वरित कार्रवाई की जाती।
प्रधानमंत्री इन लेखक-कलाकारों की तारीफ़ करते और देश के प्रति जागरूक रहने और सरकार को जागरूक करने के लिए उनका धन्यवाद करते। लेकिन नहीं उनके ऊपर मुकदमा किया गया और उसी के समर्थन में संघ प्रमुख दशहरा पर भाषण या कहें कि प्रवचन दे रहे थे।
संघ प्रमुख ने तो मंदी को भी मंदी कहने पर ऐतराज़ जता दिया। अब मंदी को क्या कहा जाए? क्या वही, जो मोदी जी ने कहा- सब अच्छा है, सब चंगा है!

वास्तव में क्या कहा था मोहन भागवत ने?

दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने मंगलवार को कहा कि ‘भीड़ हत्या’ (लिंचिंग) पश्चिमी तरीका है और भारत को बदनाम करने के लिये इसका इस्तेमाल कतई नहीं किया जाना चाहिए।
विजयदशमी के मौके पर नागपुर के रेशमीबाग मैदान में ‘शस्त्र पूजा’ के बाद स्वयंसेवकों को संबोधित कर रहे

भागवत ने कहा, ‘‘ ‘लिंचिग’ शब्द की उत्पत्ति भारतीय लोकाचार से नहीं हुई, ऐसे शब्द को भारतीयों पर न थोपें।’’
लिंचिंग ही नहीं मोहन भागवत को मंदी को मंदी कहने पर भी आपत्ति है। भागवत ने कहा कि ”तथाकथित” अर्थिक मंदी के बारे में ‘‘बहुत अधिक चर्चा” करने की जरूरत नहीं है क्योंकि इससे कारोबार जगत तथा लोग चिंतित होते हैं और आर्थिक गतिविधियों में कमी आती है।

राजनीतिक प्रतिक्रियाएं

संघ प्रमुख के भाषण की राजनीतिक दलों में भी तीखी प्रतिक्रिया हुई है।

कांग्रेस भी पूछ रही है कि संघ प्रमुख बताएं कि वह ‘लिंचिंग’ का समर्थन करते हैं या निंदा। वाम दल भी कह रहे हैं कि भागवत जी, लिंचिंग एक अमानवीय अवधारणा है। यह जघन्य काम के लिए शब्दों की पसंद के बारे में नहीं है।

कांग्रेस के वरिष्ठ प्रवक्ता आनंद शर्मा ने ट्वीट कर कहा, ‘‘ मेरा सरसंघचालक मोहन भागवत जी से सीधा सवाल है- क्या वह और उनका संगठन घृणा और हिंसा का इस्तेमाल कर निर्दोष और असहाय लोगों की हत्या का अनुमोदन करते हैं या ऐसी घटनाओं की भर्त्सना करते हैं। देश जानना चाहता है कि आपको समस्या इन घटनाओं से है या सिर्फ शब्दावली से?’’
उन्होंने यह भी कहा, ‘‘यह भारतीय और यूरोपीय भाषा का विषय नहीं है, यह मानवता और देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों का विषय है। क्या अफवाहों से उत्तेजित भीड़ द्वारा निर्दोष व असहाय लोगों की हत्या का आप अनुमोदन करते हैं या निंदा ? राष्ट्रहित में आपका स्पष्टीकरण अनिवार्य और वांछित है।’’

 ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुख हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा,‘‘ (भीड़ हत्या के) पीड़ित भारतीय हैं। (भीड़ हत्या के) दोषियों को किसने माला पहनाई थी, किसने उन्हें (तिरंगे में) लपेटा था। हमारे पास गोडसे प्रेमी भाजपा सांसद हैं।’’

ओवैसी ने ट्वीट किया कि गांधी और तबरेज़ अंसारी की हत्या जिस विचारधारा ने की उसकी तुलना में भारत की बड़ी बदनामी और कोई कुछ नहीं हो सकती। भागवत भीड़ हत्या रोकने के लिए नहीं कह रहे हैं। वह कह रहे हैं कि इसे वो (लिंचिंग) मत कहो।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने भी मोहन भागवत के भाषण की आलोचना की है। येचुरी ने इस विषय में ट्वीट कर कहा, "लिंचिंग एक अमानवीय अवधारणा है। यह जघन्य काम के लिए शब्दों की पसंद के बारे में नहीं है। लिंचिंग को रोका जाना चाहिए और दोषी को दंडित किया जाना चाहिए, न कि उसका स्वागत किया जाता है, उसे माला पहनाई जाती है।

इसी तरह सीपीआई-एमएल के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा कि मोहन भागवत एक तरह से उन लेखकों-कलाकारों के ख़िलाफ़ एफआईआर का समर्थन कर रहे हैं जिन्होंने मॉब लिंचिंग के ख़तरे के खिलाफ आवाज़ उठाई थी।
उन्होंने कहा कि मोदी-शाह के न्यू इंडिया में मॉब लिंंचिंग का समर्थन करो और पुरस्कृत हो जाओ और निंदा कर उत्पीड़न का सामना करो।

ख़ैर, बात निकली है तो दूर तलक जाएगी...अंत में अपनी यही पंक्तियां याद आती हैं कि

क्या गज़ब करते हो तुम
दु:ख को दु:ख लिखते हो तुम!

ज़हर को लिक्खो दवा
आह! को लिक्खो दुआ
रात को लिक्खो सहर
वरना टूटेगा क़हर...

क्या गज़ब करते हो तुम!
 
...

(कुछ इनपुट समाचार एजेंसी भाषा से)

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