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टीम का नाम: भारतीय फुटबॉल टीम; जन्मस्थल: ओलंपिक

टोकियो 2020, ओलंपिक पखवाड़ा (सीरीज़): स्वतंत्र भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली और पहला आधिकारिक मैच खेलने वाली, पहली भारतीय फुटबॉल टीम का नेतृत्व डॉ तलिमेरेन कर रहे थे, जिसने 1948 के लंदल ओलंपिक में अपना पहला मैच खेला था। फ्रांस के खिलाफ़ खेले गए इस मैच में भारत को 1-2 से हार का सामना करना पड़ा था। भारत ने इसके बाद लगातार तीन ओलंपिक में जगह बनाई। 1956 ओलंपिक में भारत चौथे नंबर पर था। लेकिन 1960 के बाद से भारतीय फुटबॉल वैश्विक पैमानों के हिसाब से कमज़ोर हो गया और तमाम ऊंचे-ऊंचे दावों के बावजूद इसका लगातार गिरना जारी है।
1948 London Olympics Indian football team

स्वतंत्रता के बाद भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली पहली फुटबॉल टीम नंगे पांव खेली थी, यहां तक कि ओलंपिक में भी टीम ने नंगे पांव ही हिस्सा लिया था। जहां शेष दुनिया को यह बात मनोरंजक लगती थी, वहीं भारतीय इसमें गर्व महसूस करते थे। उन्होंने नंगे पांव ही कई अहम जीत भी दर्ज कीं।

मार्क ट्वेन ने कलकत्ता की "द ग्रेट ईस्टर्न होटल" को स्वेज़ नहर के पश्चिम में सबसे शानदार होटल बताया है। अपने 180 साल के इतिहास में यह होटल कुछ अहम बैठकों की गवाह बनी है। 1896 में वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं से मिलने आए गांधी जी इसी होटल में 15 दिन रुके थे। स्वतंत्रता के बाद ‘हो ची मिन्ह’ और ‘निकिता खुर्शचेव’ जैसे बड़े नेता भी भारतीय नेताओं से विमर्श करने के लिए भी इस होटल में पहुंचे।

होटल ने भारतीय फुटबॉल इतिहास को आकार देने में भी अहम योगदान दिया है। 30 मार्च, 1947 को ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (AIFF) की बैठक ग्रेट ईस्टर्न में ही हुई, यहीं 1948 के ओलंपिक में राष्ट्रीय टीम को भेजने का फ़ैसला लिया गया था।

AIFF की स्थापना 1937 में हुई थी, लेकिन स्वतंत्रता तक भारतीय फुटबॉल सिर्फ़ क्लब और राज्य स्तरीय प्रतिस्पर्धाओं तक ही सीमित थी। राष्ट्रीय टीम की अवधारणा ही मौजूद नहीं थी। भारत में आधारित ब्रिटिश क्लबों और मिलिट्री यूनिट्स को हराने में गर्व महसूस किया जाता था।ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और बर्मा में लगने वाले कुछ गैर-आधिकारिक दौरों के सिवाए भारतीय फुटबॉल का बाहरी दुनिया से कोई संपर्क ही नहीं था।

भारत ने किसी बड़े धमाके के साथ अपनी अंतरराष्ट्रीय यात्रा शुरू नहीं की थी, लेकिन लोगों में भारतीय टीम को लेकर दिलचस्पी थी। हालांकि इसकी एक अलग वजह थी। लंदन ओलंपिक में जिस भारतीय टीम ने मैच खेला और फ्रांस से 1-2 से हार पाई, उसमें ज़्यादातर नंगे पांव खेलने वाले खिलाड़ी मौजूद थे।
पूरी दुनिया को यह बात मनोरंजक लगी। लेकिन भारतीयों ने न केवल ऐसे खेलने में गर्व महसूस किया, बल्कि उन्होंने नंगे पांव खेलते हुए ही कई अहम जीत भी दर्ज कीं। सबसे शानदार जीत 1951 में हुए पहले एशियन गेम्स में गोल्ड मेडल जीतने वाली थी।

1948 में लंदन ओलंपिक में हिस्सा लेना आसान नहीं था। उसकी कीमत करीब़ एक लाख रुपये आंकी गई थी, AIFF के पास पैसा नहीं था। बंगाल फुटबॉल की पितृसंस्था इंडियन फुटबॉल एसोसिएशन तब AIFF की आंशिक मदद करने के लिए आगे आई। संस्था ने 40,000 रुपयों की मदद की, वहीं बॉम्बे और मैसूर ने 10-10 हजार रुपये दिए।

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लंदन ओलंपिक, 1948 में भारतीय फुटबॉल टीम

20 अप्रैल, 1948 को शिलांग स्थित तैयारी करवाने वाले कैंप में 40 लोगों को बुलाया गया। नागालैंड के डॉ तलीमेरेन अओ को स्वतंत्र भारत का पहला कप्तान बनने का गौरव हासिल हुआ। तलीमेरेन कोलकाता में कारमाइकल मेडिकल कॉलेज (अब RG कार मेडिकल कॉलेज) में फिज़िशियन थे। वे मोहन बागान के बेहतरीन खिलाड़ी थे और सेंटर हॉफ पर खेला करते थे।

नंगे पांव खेलने वाली टीम को बहुत सुर्खियां मिलीं, लेकिन टूर्नामेंट में उस तरह के नतीज़े नहीं मिले, जिनकी दरकार थी। 31 जुलाई को भारत ने फ्रांस के खिलाफ़ बड़ी हिम्मत के साथ संघर्ष किया, जिसमें हमें हार मिली। बल्कि हमने मैच खुद अपने हाथों से खो दिया। भारत को दो स्पॉट किक मिली थीं। लेकिन अनुभवी शैलेंद्र नाथ मन्ना और महावीर प्रसाद ने क्रॉसबार के ऊपर से गेंद मार दी।

एक भारतीय प्रकाशन के लिए एक ब्रिटिश पत्रकार ने लिखा, ‘भारतीय खिलाड़ी शुरुआत से ही खेल में वर्चस्व बनाए हुए थे.... लेकिन भारतीय खिलाड़ी गोल करने में इतने कमजोर थे कि उन्होंने अपने 10 हजार प्रशंसकों को बार-बार निराश किया। क्या फॉरवर्ड खेलने वाले भारतीय खिलाड़ियों को कभी शार्पशूटिंग नहीं सिखाई गई, क्या उन्हें सिर्फ़ अपने पंजों से ड्रिबल करते हुए ही गोल करना बताया गया है।

ओलंपिक फुटबॉल तब तक शौकिया लोगों का ही खेल हुआ करता था, उसमें उम्र पर कोई प्रतिबंध नहीं था। भारत में स्वाभाविक तरीके से प्रतिस्पर्धा को बड़ी गंभीरता से लिया गया। लंदन ओलंपिक के दो साल बाद भारत ने ब्राजील में विश्वकप के लिए चयन पा लिया। लेकिन हमने अपनी टीम नहीं भेजी। 1949 से 1954 तक भारत के कप्तान रहे शैलेष मन्ना ने बाद में कहा कि उन्होंने विश्वकप की अहमियत नहीं पहचानी।

हेलसिंकी ओलंपिक और दो एशियन गेम्स में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले मन्ना ने कहा, ‘हमारे लिए विश्वकप दूर की बात था, हम ओलंपिक पर केंद्रित थे। हम ओलंपिक में अपने देश का प्रतिनिधित्व कर गौरवान्वित हैं।’खैर, ओलंपिक में खेलने का गौरव जरूर है, पर वहां दिखाए प्रदर्शन में गौरवान्वित होने जैसा कुछ भी नहीं था। भारतीय फुटबॉल टीम ने 1960 में हुए रोम ओलंपिक तक अपनी टीम भेजी। इसके बाद चयन की शर्तें कड़ी होने लगीं, फिर भारत कभी ओलंपिक में अपनी जगह नहीं बना पाया।

स्वतंत्रता के बाद मिलने वाले निराशाओं के बीच 1956 में मेलबर्न और 1960 में रोम ओलंपिक चमकते सितारे हैं। मेलबर्न में भारत ने अबतक ओलंपिक की अपनी एकमात्र जीत दर्ज की। हमने मेजबान ऑस्ट्रेलिया को एक दिसंबर, 1956 में खेले पहले मैच में 4-2 से हरा दिया। कालटेक्स बॉम्बे से खेलने वाले शानदार स्ट्राइकर नेविले डिसूजा भारतीय कैंपेन के हीरो थे। उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ़ गोल की शानदार हैटट्रिक मारी थी।

गेंद के साथ शानदार क्षमताओं वाले डिसूजा सेंटर फॉरवर्ड थे। वे पेनाल्टी बॉक्स के बेहद ख़तरनाक खिलाड़ी थे। जबकि उनके पास गेंद आती, डिसूजा के पास कम से कम दो डिफेंडर्स को छकाकर आगे जाने की क्षमता होती। डिसूजा एक ऐसे खिलाड़ी थे, जो क्लासिकल ढंग से अपना खेल खेलते थे, शारीरिक तरीके से उठापटक का खेल उन्हें पसंद नहीं था। न केवल फुटबॉल, बल्कि डिसूजा सेंट ज़ेवियर, बॉम्बे में अपने स्कूल के दिनों में हॉकी के भी शानदार खिलाड़ी थे। कुछ साल टाटा के लिए खेलने के बाद, 50 के दशक के बीच में डिसूजा कालटेक्स में आ गए। वहां उन्होंने अपने भाई डेरेक के साथ ख़तरनाक जुगलबंदी बनाई। डेरेक ने भी 1960 के दशक में भारतीय टीम के लिए अपना खेल दिखाया।

यह शर्म की बात है कि डिसूजा का करियर 1950 के आखिरी सालों के बाद आगे नहीं बढ़ सका। उन्हें रोम ओलंपिक में ट्रॉयल कैंप के लिए भी नहीं बुलाया गया। कुछ लोगों को कहना है कि ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि डिसूजा फुटबॉल कोच एस ए रहीम को पसंद नहीं थे। लेकिन डिसूजा ने भी खुद के लिए कोई बेहतरी नहीं चुनी और एक ऐसा जीवन जिया, जो फुटबॉलर के लिए सही नहीं था। उन्होंने 1963 के बाद फुटबॉल ही नहीं खेली और 1980 में केवल 47 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

मेलबर्न में भारत ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ़ जीत के दम पर सेमीफाइनल में तक जगह बनाने में कामयाब हो गया था। लेकिन वहां भारत युगोस्लाविया से 4-1 से हार गया। कांस्य पद के लिए हुए मुकाबले में भी हम बुल्गारिया से हार गए। लेकिन युगोस्लाविया के खिलाफ़ भारत का प्रदर्शन संघर्षपूर्ण माना गया, क्योंकि चार साल पहले हेलसिंकी ओलंपिक में युगोस्लाविया ने हमें 1-10 से हराया था।

रहीम ने तीन ओलंपिक में भारत को प्रशिक्षण दिया, जिसमें से रोम में प्रदर्शन सबसे शानदार रहा। उस दौरान हमारे कप्तान पीके बनर्जी थे। भारत को मजबूत समूह में रखा गया, जिसमें फ्रांस, हंगरी और पेरू थे। भारत ने जब फ्रांस के साथ 1-1 से मैच ड्रॉ करा लिया और हंगरी से एक करीबी मैच हारा, तो आलोचकों ने भारत की तारीफ़ की। उस टीम में पीटर थंगराज, जरनैल सिंह, अरूण घोष, युसुफ खान, बनर्जी, चुनी गोस्वामी और तुलसीदास बलराम शामिल थे। इन्हीं की टीम ने दो साल बाद एशियन गेम्स में स्वर्ण पदक हासिल किया।

लेकिन यही हमारा आखिरी धमाका था। अगले 60 सालों में भारत का प्रदर्शन बेहद लचर रहा। हमें प्री ओलंपिक तक खेलने के लिए सीमित कर दिया। कई बार भारत ने बिना लड़े ही आत्मसमर्पण कर दिया। 1980 और 1983 जैसे कुछ मौकों पर भारतीय टीम ने कुछ आश जगाई, लेकिन अहम मुकाबलों में हमें हार का सामना करना पड़ा।

1983 के प्री-ओलंपिक्स में सिरिक मिलोवान की अगुवाई में टीम ने इंडोनेशिया और सिंगापुर जैसी टीमों को हराया। लेकिन आखिर में हमें सऊदी अरब से 0-5 की बड़ी हार का सामना करना पड़ा। रियाध में हुआ वह मैच आर्टिफिशियल टर्फ़ पर खेला गया था। एक दिन के लिए भी भारतीय टीम इस तरीके के टर्फ पर अपने खिलाड़ियों को प्रशिक्षण नहीं दिलवा पाई थी। यहां तक कि टर्फ पर खेलने के लिए जरूरी जूते भी उपलब्ध नहीं थे। पहले 15 मिनट में ही भारत को तीन गोल खाने पड़े।

1980 के क्वालिफायर से पहले, बेंगलुरू में तैयारियों के लिए लगाया जाने वाला कैंप जद्दोज़हद भरा होता था। फुटबॉल खिलाड़ियों के रहने लायक स्थितियां बेहद ख़राब थीं। दोपहर और रात का खाना कांतीरावा स्टेडियम की कैंटीन में दिया जाता था। 1980 के क्वालिफायर में भारत करीबी मुकाबलों में चीन, ईरान और उत्तर कोरिया से हार गया। हम श्रीलंका से ही एकमात्र मैच जीत सके। उसमें ज़ेवियर पिअस ने शानदार हैट-ट्रिक बनाई थी।

मौजूदा स्थितियों में भारतीय टीम का ओलंपिक खेलना बहुत दूर का सपना है।1992 के ओलंपिक से ही यह एक उम्र आधारित टूर्नामेंट हो गया। अब इसमें एशिया से होने वाले चयनों की प्रक्रिया बहुत कठिन हो गई है। AFC अंडर-23 चैंपियनशिप के सेमीफाइनल में पहुंचने वाली आखिरी चार टीमों को ही ओलंपिक में जगह दी जाती है।

2020 के लिए हुई जंग में भारत दूर-दूर तक कहीं नहीं था। ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान के खिलाफ़ क्वालीयर में मिली बुरी हारों से ही टोकियो का सपना चकनाचूर हो गया था। AIFF प्रेसिडेंट प्रफुल्ल पटेल की मानें तो यह टीम 2026 वर्ल्ड कप खेलने की तैयारियों में लगी हुई है।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Name: Indian Football Team; Place of Birth: The Olympics

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