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नए मंत्री, नए फ़ैसले - कहानी वही पुरानी

कोविड-19 से लड़ने की ज़िम्मेदारी अभी भी राज्यों पर ही है और कृषि में निवेश केवल कॉर्पोरेट अधिग्रहण को आसान बनाने के लिए किया जा रहा है।
नए मंत्री, नए फ़ैसले - कहानी वही पुरानी
Image Courtesy: DNA India

7 जुलाई को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 43 नए मंत्रियों को शामिल किया और 12 को दफ़्तर छोड़ने के आदेश के साथ मंत्रिमंडल में फेरबदल किया। मुख्यधारा के मीडिया ने इस फेरबदल को बड़े उत्साह के साथ कवर किया, मीडिया की इस कवरेज को सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा खुद प्लांट किए गए 'विश्लेषणों' ने मदद की और नए विस्तार को जातिय संयोजन, युवा औसत आयु (61 वर्ष से 58 वर्ष तक) और साथ पीएम मोदी की दूरदर्शिता से भरपूर टेक्नोक्रेट और समर्पित पेशेवरों का नया मंत्रिमंडल बताया।

अगले दिन ही, नए कैबिनेट की बैठक हुई और उसमें कई फैसले लिए गए, जिसे मीडिया ने फिर से बड़ी ही उत्सुकता से उन मुद्दों को "ताज़ातरीन और ऊर्जावान" बताते हुए रिपोर्ट किया, जिन मुद्दों ने पिछले एक साल से अधिक समय से मोदी सरकार के कामकाज़ को प्रभावित किया था। 

जहां तक कैबिनेट में फेरबदल और नए चेहरों की बात है तो इसे लेकर आम चर्चाएं हो रही हैं। यह प्रधानमंत्री मोदी और उनके भरोसेमंद लेफ़्टिनेंट अमित शाह का सत्ता में रोब दिखाने का एक ओर अवसर था, जिसके चलते अधिकतर ऐसे संघ परिवार से जुड़े लोगों को शामिल किया गया, जिनकी वफ़ादारी उनके प्रति निर्विवाद है। इसके फेरबदल के पीछे का प्राथमिक या मुख्य विचार अगले साल की शुरुआत में राज्य विधानसभाओं के आने वाले चुनाव है। यही कारण है कि नए मंत्रिमंडल में उत्तर प्रदेश और गुजरात से नए मंत्रियों की भारी उपस्थिति देखी जा रही है, और यही कारण है कि मंत्रिमंडल के विस्तार में जाति को मुख्य आधार बनाया गया है, जिसे कुछ भाजपा के अंदरूनी सूत्रों के कथित उदाहरण के तौर पर मीडिया ने बेशर्मी से कवर किया है। जाति विभाजन से ऊपर उठने की बात करने वाली पार्टी द्वारा ऐसा करना अपने में गैर-तर्कपूर्ण लगता है, लेकिन फिर भाजपा के बारे में एक बात आम है कि वह कहती कुछ है और करती कुछ और है।

लेकिन फेरबदल की इस स्पष्ट झलक से जुदा चिंता की बात यह है कि नए मंत्रिमंडल ने जो निर्णय लिए हैं वे सरकार की सोच को स्पष्ट रूप से प्रकट करते हैं। और, जो देश के लिए सबसे दुखद बात है वह यह कि ये निर्णय केवल इस बात की पुष्टि करते हैं कि सरकार न केवल अपनी रीपैकेजिंग और पुनर्विक्रय नीति को जारी रखे हुए है बल्कि लोगों के सामने आने वाले तीन बड़े मुद्दों पर कोई नई सोच नहीं दर्शाती है। ये हैं: कोविड-19 महामारी, किसानों आंदोलन और डूबती अर्थव्यवस्था।

महामारी से कैसे निपटें

नई कैबिनेट ने अपनी पहली ही बैठक में महामारी की चुनौती से निपटने के लिए 23,212 करोड़ रुपये ख़र्च करने का फ़ैसला किया है। दूसरी लहर अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है और ज्यादातर वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि तीसरी लहर लगभग आनी तय है, जो दूसरी लहर से भी ज्यादा घातक हो सकती है। इस साल अप्रैल-मई में भारत में महामारी के कारण जो भयानक नरसंहार हुआ और स्वास्थ्य प्रणाली जिस तरह ढह गई थी, जिसके लिए मोदी सरकार की कोई तैयारी न होने के कारण और त्वरित निर्णय लेने में असमर्थ होने के कारण भारी आलोचना की गई थी। इसलिए, भविष्य में आने वाली लहरों के लिए अभी से तैयारी करना सही बात है, और निश्चित रूप से इस पर अधिक ख़र्च करने की ज़रूरत भी है।

इस साल 2 फरवरी को राज्यसभा में उठाए गए प्रश्न संख्या 100 के जवाब के अनुसार, सरकार ने पिछले साल 15,000 करोड़ रुपये आवंटित किए थे और लगभग 6309.9 करोड़ रुपये राज्य सरकारों को उनके बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए दिए थे। वेंटिलेटर, मेडिकल ऑक्सीजन, जांच किट आदि की व्यवस्था पर लगभग 5,000 करोड़ रुपये ख़र्च किए गए थे। यह स्थिति 21 जनवरी तक की है। संभवतः, कुछ और पैसे ख़र्च किए गए होंगे – शायद आवंटित 15,000 करोड़ रुपये पूरी तरह ख़र्च कर दिए गए होंगे। 

23,212 करोड़ रुपये की नई घोषणा वैसी नहीं है जैसी दिखती है। यह दो घटकों मिलकर बनी है – इसमें केंद सरकार का हिस्सा, जो कि 15,000 करोड़ रुपये है और शेष 8,123 करोड़ रुपये राज्यों का हिस्सा है। तो, वास्तव में घोषणा थोड़ी भ्रामक है। इसे 15,000 करोड़ रुपये कहना चाहिए था। जो पिछले साल की तरह ही है।

इन दो घटकों का इस्तेमाल किस लिए किया जाएगा? केंद्र का हिस्सा जिन पर ख़र्च किया जाएगा वे इस प्रकार हैं:

• केंद्रीय अस्पतालों, एम्स और अन्य स्वास्थ्य मंत्रालय संस्थानों को कोविड प्रबंधन के लिए 6,688 बिस्तरों के पुनर्निमाण के लिए सहायता देना।

• राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) को मजबूत करना, विशेष रूप से आनुवंशिक अनुक्रमण पर ख़र्च करना।  

• राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन (एनडीएचएम) के कार्यान्वयन में मदद करने के लिए सभी जिला अस्पतालों में अस्पताल प्रबंधन सूचना प्रणाली (एचएमआईएस) की स्थापना करना (जो वर्तमान में, केवल 310 डीएच में लागू है)।

• ई-संजीवनी टेली-परामर्श मंच के विस्तार को आर्थिक समर्थन देना।

•स्वास्थ्य मंत्रालय में केंद्रीय युद्ध कक्ष को मजबूत करने के लिए, कोविड-19 पोर्टल को मजबूत करने के लिए, 1075 कोविड हेल्पलाइन और कोविन (COWIN) प्लेटफॉर्म को मजबूत करने में सहायता करना है।

तो, पूरे के पूरे 15,000 करोड़ रुपये स्वास्थ्य देखभाल और चिकित्सा विज्ञान प्रणाली के शीर्ष क्षेत्रों में जा रहे हैं। यह स्वास्थ्य रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण पर भी जोर देता है, जिसकी बीमा कंपनियों को सख्त ज़रूरत है, और डॉक्टरों के साथ टेली-परामर्श के लिए भी इसकी ज़रूरत है। वैज्ञानिक अनुसंधान को मजबूत करना या केंद्रीय अस्पतालों में 6,688 कोविड तैयार बिस्तर उपलब्ध कराना ठीक है। जिला अस्पतालों से सूचना एवं डाटा संग्रहण भी ठीक है।

लेकिन क्या यह सब काफी है? केंद्र सरकार अपनी भूमिका की कल्पना केवल इतना ही कर सकती है और इस अभूतपूर्व महामारी में वह आगे कुछ और नाहें सोच सकती है, जो पहले ही तीन करोड़ से अधिक भारतीयों को प्रभावित कर चुकी है और चार लाख से अधिक लोगों को मौत की नींद सुला चुकी है?

मोदी सरकार जो कर रही है, वह अमेरिका की तर्ज़ पर है यानी पूरी तरह से निजीकृत, बीमा-आधारित स्वास्थ्य सेवा मॉडल स्थापित करने के लिए जमीन तैयार करना और लगातार इसके लिए काम करना। जहां तक ​​महामारी के नट और बोल्ट को संभालने की बात है – तो गेंद अब राज्य सरकारों के पाले में फेंक दी गई है।

नई घोषणा का दूसरा घटक राज्य सरकारों को 8,123 करोड़ रुपये का दिया जाने वाला योगदान है। इस का इस्तेमाल निम्न में किया जाएगा:

• सभी 736 जिलों में बाल चिकित्सा इकाइयां बनाना। 

•सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में 20,000 आईसीयू बिस्तरों का विस्तार करना।

• टियर-II या टियर-III शहरों और जिला मुख्यालयों में मौजूदा सीएचसी, पीएचसी और एसएचसी (6-20 बिस्तर वाली इकाई) और बड़े फील्ड अस्पतालों (50-100 बिस्तर वाली इकाई) में अतिरिक्त बिस्तर जोड़ने के लिए प्री-फैब्रिकेटेड स्ट्रक्चर उपलब्ध कराना। 

• मेडिकल गैस पाइपलाइन सिस्टम (एमजीपीएस) के साथ 1050 लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन स्टोरेज टैंक स्थापित करना, प्रति जिले में कम से कम एक ऐसी इकाई का निर्माण करना।

• 8,800 एम्बुलेंस जोड़ना।

• प्रभावी कोविड-19 प्रबंधन के लिए मेडिकल/नर्सिंग छात्रों और इंटर्न को शामिल करना।

•राज्यों को प्रतिदिन कम से कम 21.5 लाख जांच करनी होंगी। 

• बफर स्टॉक के निर्माण सहित कोविड-19 प्रबंधन के लिए आवश्यक दवाएं उपलब्ध कराना।

इसलिए जो है वह यह है। कोविड-19 के खिलाफ असली लड़ाई राज्य सरकारों को अपनी जेब से करनी होगी। इस सब को केंद्र सरकार के पैकेज के रूप में दावा करते हुए, वास्तव में, केंद्र सरकार ने असली लड़ाई से हाथ धो लिया है और राज्यों को यह सब करने के लिए कह दिया है।

इसमें कुछ नया नहीं है, बल्कि पिछले साल की रणनीति का ही सिलसिला है, जिसमें नकदी की कमी से जूझ रही राज्य सरकारों को कुछ न देते हुए पूरी की पूरी जिम्मेदारी उन्हे सौंप दी गई है। पैसा भी उन्हीं को जुटाना है। इसे गतिशील और नए मंत्रिमंडल के महान ताजा निर्णय के रूप में देखने के बाद, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि आने वाले महीनों में क्या होने वाला है।

कृषि ढांचा – कृषि के निगमीकरण की तैयारी करना
नए मंत्रिमंडल का दूसरा 'बड़ा' फ़ैसला और भी भयावह है। इसमें कहा गया है कि अब कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए कृषि ढांचा कोष (एआईएफ) से 1 लाख करोड़ रुपये का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस उद्देश्य के लिए विभिन्न छूट और ब्याज सबवेंशन सूचीबद्ध किए गए हैं। इसे विरोध कर रहे किसानों को किसी तरह के आश्वासन के रूप में चित्रित किया जा रहा है कि एपीएमसी यानी कृषि मंडी रहेगी और उनका डर और गुस्सा बेवजह है।

पहली बात, यह कोई नया फ़ैसला नहीं है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने इसी साल फरवरी में 2021-22 का बजट पेश करते हुए यही घोषणा की थी। नए मंत्रिमंडल ने इसका थोड़ा विस्तार कर फिर से इसकी घोषणा कर दी है।

दूसरा, एपीएमसी को मजबूत करने के लिए एआईएफ फंड का इस्तेमाल करने से किसानों का दर या चिंता किसी भी तरह से दूर नहीं होती है, जो डर और चिंताए तीन नए कृषि संबंधी कानूनों से उत्पन्न हुए हैं। उनकी चिंता यह है कि नए कानून कृषि उपज में व्यापार के निजीकरण को बढ़ाएंगे, सरकारी ख़रीद को कम करेंगे, न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने से इनकार कर दिया जाएगा और इस तरह एपीएमसी की पूरी मौजूदा प्रणाली तबाह हो जाएगी और किसानों को दी जाने वाले कुछ वित्तीय सहायता निरर्थक बन जाएगी। यह उल्टे इन कानूनों के जरिए व्यापार, भंडारण और अंततः मूल्य निर्धारण पर कॉर्पोरेट नियंत्रण और अधिग्रहण को आसान बना देगा। 

तीसरा, केवल एपीएमसी को बेहतर बुनियादी ढांचा देकर, और कॉरपोरेट अधिग्रहण के खतरे को दूर न करके, मोदी सरकार वास्तव में उनके लिए सौदे को मधुर बनाकर कॉरपोरेट्स के प्रवेश की सुविधा प्रदान कर रही है। उनके पास रेडीमेड इन्फ्रास्ट्रक्चर होगा - आधुनिक एपीएमसी, कोल्ड चेन होगी, सॉर्टिंग और ग्रेडिंग यूनिट होगी, सीलोज, वेयरहाउस होंगे और जैसा कि वे कहते हैं, वे इस प्रणाली को तुरंत लागू कर सकते हैं।

प्रदर्शनकारी किसानों के साथ सुलह की दिशा में कदम बढ़ाना तो दूर की बात है, बल्कि उल्टे सरकार चुपचाप चालाकी से ये दावा कर रही है कि मोदी सरकार पीछे नहीं हटने वाली है। किसान आंदोलन ने इसे एक साजिश के तौर पर देखते हुए, इस कदम को सही नहीं ठहराया है। सात महीने के विरोध के बाद, आंदोलन फिर से अपनी ताक़त दिखाने की तैयारी कर रहा है और आने वाले महीनों में आंदोलन और तेज हो जाएगा। इस तरह नए 'गतिशील' कैबिनेट ने अपनी पारी की शुरुआत की है।

जहां तक अर्थव्यवस्था का सवाल है, नए मंत्रिमंडल की उदासीनता या लापरवाही की बराबरी पहले के मंत्रिमंडल की कारगुजारियों से ही की जा सकती है। ऐसा लगता है कि ऊपर के स्तर पर कोई नई सोच है ही नहीं, भले ही बेरोजगारी सबसे ऊंचे स्तर पर हो, निवेश मुश्किल में है, बैंक कर्ज़ लगात्तार बढ़ रहा है, मजदूरी और कमाई में ठहराव है और उत्पादक अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा अभी भी नीचे के स्तर पर है। लगता है तीसरी लहर आते ही हालात और ख़राब हो जाएंगे।

लेकिन दुख की बात है कि देश अभी भी – लापरवाह पुरुषों और महिलाओं के नेतृत्व में काम करने जा रहा है, भले ही वे इस काम के लिए नए हों या जवानी के उत्साह से भरे हों।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

New Ministers, New Decisions – Old Story

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