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नीतीश की शराबबंदी नीति: आपातकाल से भी बुरे हालात

शराबबंदी की नीति उस डर के क़हर की एक ऐसी ज़बरदस्त मिसाल बन गयी है, जो एक पितृसत्तात्मक राज्य अपने उन नागरिकों के लिए पैदा कर सकता है, जिनमें वह सुधार चाहता है।
नीतीश
कैप्शन: नीतीश कुमार

अनुमान है कि लॉकडाउन के चलते 32 लाख प्रवासी मज़दूर बिहार लौटने के लिए मजबूर कर दिये गये थे और इसके अलावा बाढ़ से 80 लाख और लोगों की ज़िंदगी तहस-नहस हो गयी थी, लेकिन इन दोनों घटनाओं से कहीं पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की शराबबंदी एक ऐसी डरावनी कहानी में बदल गयी थी, जो बिहारियों के लिए आपातकाल से भी बदतर है। आपातकाल के दौरान की गयी ज़्यादती की जाँच करने वाले शाह आयोग के मुताबिक़, 25 जून 1975 और 21 मार्च 1977 के बीच के उन काले वर्षों में देश भर में कुल 1.11 लाख लोगों को विभिन्न प्रतिबंधात्मक निरोध क़ानूनों के तहत क़ैद किया गया था।

बिहार में शराब पर प्रतिबंध अप्रैल 2016 में लागू हुआ था। नवंबर 2019 तक शराब को नियंत्रित करते इस क़ानून की धज्जियां उड़ाने वाले 1.67 लाख लोगों को गिरफ़्तार किया गया था। तब तक पटना उच्च न्यायालय में 40,000 ज़मानत के आवेदनों सहित शराबबंदी का उल्लंघन करने वाले दो लाख मामले अपने निपटाये जाने के इंतज़ार में थे।

जिस समय प्रवीण कुमार और विजय राघवन के पेपर, “अंडरट्रायल प्रिज़न इन बिहार: ए स्टडी ऑफ़ लीकर बैन अरेस्ट” प्रकाशित हुआ था, उस समय तक, शराबबंदी क़ानून के तहत गिरफ़्तार होने वाले लोगों की संख्या 1.50 लाख थी। इन लेखकों ने अपने इस पेपर में बताया है कि इन गिरफ़्तार हुए लोगों में से 70% अन्य पिछड़ी जातियों और दलित समुदायों के थे और 88% आर्थिक रूप से हाशिये पर रह रहे श्रेणी के लोग थे। उनकी ग़रीबी ने उन्हें क़ानूनी सहायता पाने या ज़मानत लेने में भी अक्षम बना दिया था। वे महीनों तक जेल में पड़े रहे।

कुमार और राघवन ने इनमें से कुछ तड़पा देने वाली कहानियों को भी दर्ज किया हैं। मसलन, 35 वर्षीय दिहाड़ी मज़दूर,शिवेंद्र साह को शराब का सेवन करने और यातायात बाधित करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था। साह की मां को मिले उस आघात की कल्पना कीजिए, जिन्हें साह को लेकर इस बात का अता-पता तक नहीं था कि उनका बेटा कहां ग़ायब हो गया है। साह को 21 महीने जेल में बिताने से पहले जज की तरफ़ से पीआर (पर्सनल रिकॉगनाइजेशन) बॉन्ड पर रिहा कर दिया गया था।

या फिर नाली साफ़ करने वाले 45 वर्षीय मुकेश डोम का ही उदाहरण लें, जिसे नवंबर 2017 में गिरफ़्तार किया गया था। कुमार और राघवन लिखते हैं, "मुकेश का कहना था कि ऐसी नौकरियों करने और ऐसी दयनीय स्थितियों के बीच ज़िंदा रहने के लिए उन्हें गंदी नालियों में जाने से पहले शराब पीना पड़ता था।" मुकेश को भी जेल से पीआर बाँड पर रिहा होने से पहले 11 महीने जेल में बिताने पड़े थे।

इस तरह की कहानियां इसलिए हैरान करती हैं कि राष्ट्रीय मीडिया कांग्रेस की इस घोषणा को सुर्खियां बनाने में नाकाम क्यों रहा कि बिहार की शराबबंदी नीति की समीक्षा की जानी चाहिए। भले ही कांग्रेस महागठबंधन का एक भागीदार है, लेकिन इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि अगर वह सत्ता में आती है, तो बिहार में शराब से प्रतिबंध हटाना एक बाध्यकारी मामला होगा। शारबबंदी नीति उस डर के क़हर की एक ऐसी ज़बरदस्त मिसाल बन गयी है, जो एक पितृसत्तात्मक राज्य अपने उन नागरिकों के लिए पैदा कर सकता है, जिनमें वह सुधार चाहता है।

असल में नीतीश कुमार की शराबबंदी की नीति उन महिलाओं की तरफ़ से पड़ने वाले दबाव के जवाब में लायी गयी थी, जिन्होंने शराब की खपत के बढ़ने के ख़िलाफ़ विरोध किया था, उन्होंने बोतलें तोड़ी थीं और शराब बेचने वाली दुकानों को बंद कर दिया था। उनका मानना था कि शराब की आसान उपलब्धता परिवारों को बर्बाद कर रही है; कहा जा रहा था कि बच्चों की शिक्षा या उनके लिए पौष्टिक भोजन पर ख़र्च करने के मुक़ाबले मर्द शराब पर कहीं ज़्यादा पैसे ख़र्च कर रहे थे। उनका यह भी कहना था कि नशे करने वाले मर्द घर और सार्वजनिक क्षेत्र में औरतों की सुरक्षा के लिए ख़तरा बन गये थे।

हालांकि, विडंबना यही है कि बिहार की शराब की खपत के बढ़ने के लिए नीतीश कुमार ख़ुद ही ज़िम्मेदार थे। नीतीश कुमार ने 2007 में शराब की दुकानें खोलने के लिए लाइसेंस जारी करने वाले आबकारी क़ानूनों को उदार बना दिया था। इसके बाद शराब की दुकानों की संख्या में ज़बरदस्त उछाल आया था, यह संख्या 2006-2007 में 3,436 से बढ़कर 2012-2013 में 5,467 से भी ज़्यादा हो गयी थी। यह बढ़ोत्तरी काफ़ी हद तक ग्रामीण बिहार में हुई थी- ग्रामीण बिहार में जहां 2006-2007 में शराब की दुकानों की संख्या 779 थी,वहीं 2012-2013 में बढ़कर इन दुकानों की तादात 2,360 हो गयी। शराब की बिक्री में आयी तेज़ी के चलते बिहार का उत्पाद शुल्क 2007-2008 में 525 करोड़ रुपये से बढ़कर 2012-2013 में 2,765 रुपये हो गया था।

नीतीश कुमार की शराब नीति को लेकर महिलाओं की प्रतिकूल प्रतिक्रिया ने उन्हें दूसरे चरम पर पहुंचा दिया। उन्होंने न सिर्फ़ शराब पर प्रतिबंध लगा दिया, बल्कि बिहार शराब निषेध एवं उत्पाद शुल्क अधिनियम, 2016 के प्रावधानों को कठोर बना दिया गया। मसलन, किसी व्यक्ति को पहली बार शराबखोरी करते हुए पकड़े जाने पर जेल की सज़ा को अनिवार्य कर दिया गया। दो साल बाद, उस अधिनियम को संशोधित करते हुए उसमें 50,000 रुपये का जुर्माना या तीन महीने की जेल की सज़ा का भी प्रावधान कर दिया गया। लेकिन, इससे भी शराबख़ोरी के मामलों को क़ाबू करने में बहुत मदद नहीं मिली। ज़ाहिर है, पीते हुए पकड़े गये ग़रीब लोग जुर्माना तो भर नहीं सकते थे और उन्हें जेल में ठूंस दिया जाता था। इस अधिनियम में संशोधन से पहले आदतन शराब पीने वालों को दो से छह महीने तक अपने ज़िलों से दर-बदर किया जा सकता था; किसी परिवार के एक सदस्य के भी पीते हुए पकड़े जाने के मामले में उस पूरे परिवार की गिरफ़्तारी हो सकती थी; शराब पीने या स्टोर करने वाले किसी भी व्यक्ति के घर को ज़ब्त किया जा सकता था।

इस अधिनियम के नरम होने से भी पूरे बिहार भर में व्यापक स्तर पर शराब के आतंक की लहर कम नहीं हुई। पुलिस पहले से ही इस अधिनियम के दुरुपयोग से पैसे ऐंठने और नागरिकों को परेशान करने की आदी है। इससे भी बदतर तो यह हुआ कि शराब का अवैध व्यापार और बढ़ गया, शराब दोगुनी या तिगुनी क़ीमत पर बेचे जाने लगी। दूसरे शब्दों में, पीना-पिलाना पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा महंगा हो गया। शराबबंदी के चलते महिलाओं की बचत पर भी चपत लग गयी।

यह भी बहस का मामला है कि क्या शराबबंदी ने बिहार सरकार के दावों के उलट महिलाओं को सुरक्षित महसूस कराया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़,महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों की घटनाओं की संख्या जहां 2015 में 13,904 थी,वहीं 2016 में इसमें हल्की सी कमी आयी और इस तरह की घटनायें 13,400 की संख्या में दर्ज की गयीं। लेकिन, यह हल्की गिरावट भी बहुत जल्द काफ़ूर हो गयी और 2017 में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध बढ़कर 14,711 हो गये, फिर 2018 में 16,920 और 2019 में 18,585 घटनायें हुईं।

हालांकि,"पति या उसके रिश्तेदारों की तरफ़ से की जाने वाली क्रूरता" की घटनायें लगातार घट रही हैं, जहां 2017 में 3,776 घटनायें हुई थीं,वहीं 2019 में 2,397 घटनायें हुईं। ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि क्या बिहारी पति अपनी पत्नियों के प्रति कम क्रूर इसलिए हो रहे हैं कि वे कम शराब पी रहे हैं या फिर इसके दूसरे सामाजिक कारण हैं, जिनमें बढ़ती सामाजिक जागरूकता भी एक कारण है।

मीडिया में आने वाली ख़बरों से पता चलता है कि महिलायें अब नीतीश कुमार की इस शराबबंदी नीति को लेकर आसक्त नहीं हैं, इसका मुख्य कारण बड़े पैमाने पर शराब का ग़ैर-क़ानूनी कारोबार है। उनके मनोदशा में आया यह बदलाव कहीं शराब पर पाबंदी लगाने के मुक़ाबले एक ज़्यादा संवेदनशील सामाजिक हस्तक्षेप को लेकर सोच का संकेत तो नहीं है। यह भी बहस का एक मुद्दा है कि शराब पीने के विकल्प को ख़ास तौर पर लोकतंत्रों में व्यक्ति पर छोड़ा जाना चाहिए या नहीं।

संविधान के अनुच्छेद 47 में विकल्प के इस चुने जाने के अधिकार को शामिल किया जाय या नहीं, इसे लेकर होने वाली चर्चा पर ज़बरदस्त बहस हुई थी। यह अनुच्छेद शराबबंदी की सिफ़ारिश तो करती है, लेकिन संविधान में इसे अनिवार्य नहीं किया गया है। इस अनुच्छेद 47 का विरोध करने वालों में महाराष्ट्र के कोल्हापुर के एक स्वतंत्र सदस्य बीएच खारदेकर भी थे। उन्होंने राजनीतिक सिद्धांतकार, हेरोल्ड लॉस्की के विचार को उद्धृत करते हुए कहा था,"शराबबंदी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की प्रकृति के बिल्कुल ख़िलाफ़ है"। खारदेकर ने कहा था कि नौजवानों को शराब पीने के लिए प्रोत्साहित तो नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन यह बेहतर होगा कि वे अपनी ग़लतियों से सीखें। उनकी दलील थी कि आज़ादी का विचार तभी आगे बढ़ सकता है, जब लोग ज़िम्मेदारी से व्यवहार करना सीखें।

खारदेकर ने कहा था कि एक संपूर्ण शराबबंदी नीति राज्य को उस अच्छे-ख़ासे राजस्व से वंचित कर देगी, जिसका इस्तेमाल सामाजिक और शैक्षणिक बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए किया जा सकता है। इसके अलावा, उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के अनुभव का हवाला देते हुए इस बात की भविष्यवाणी की थी कि इससे शराब के ग़ैर-क़ानूनी कारोबार को बढ़ावा मिलेगा।

खारदेकर की आलोचना का फ़लक बहुत बड़ा था। मसलन, उन्होंने कहा था,"तो सर- मैं यहाँ फ़ालतू बातें नहीं करने जा रहा हूँ, बल्कि ...मैं आपसे कहता हूं कि बस आप दो चीज़ों की तुलना करें- एक गिलास मक्खन और दूध की दावत पर कुछ दोस्तों की चर्चा शाम या रात में काफी गंभीरता के साथ हो सकती है, और इसके ठीक उलट, एक गिलास शराब या बीयर के साथ एक मासूम, लेकिन बौद्धिक चर्चा भी हो सकती है।” खारदेकर ने कहा था कि डॉ. बीआर अंबेडकर जैसे लोगों को अकादमिक किताबें पढ़ना अच्छा लगता है, अन्य लोगों को उपन्यास पसंद हैं और कुछ को पियानो बजाना अच्छा लगता है। उन्होंने कहा था, "कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें वाइन या बीयर पीना पसंद है।"

यह जानते हुए कि उनकी उन दलीलों को अभिजात्य क़रार दिया जा सकता है, खारदेकर ने उन मिल-मज़दूरों का ज़िक़्र किया था, जो दिन भर कड़ी मेहनत करते हैं और शाम को एक या दो गिलास ताड़ी पीना पसंद करते हैं। खारदेकर ने कहा था, “आपको उन्हें उससे वंचित क्यों करना चाहिए? महोदय, मैं चाहता हूं कि आप उस पर विचार करें,जिससे उन्हें ढांढस और थोड़ा आराम मिलता है।” उन्होंने टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादक के हवाले से कहा था, "शराब के अलावा और भी चीज़ें हैं, जिसका नशा सिर चढ़कर बोलता है और उनमें से एक सत्ता है। बहुमत को इससे नुकसान न होने दें।”

खारदेकर का समर्थन करने वाले जयपाल सिंह भी थे, जिन्होंने 1928 के ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम की कप्तानी की थी। उन्होंने तब कहा था कि शराब आदिवासियों के सांस्कृतिक-धार्मिक और आर्थिक जीवन का एक अटूट हिस्सा है। उन्होंने कहा था, “मसलन, अगर पश्चिम बंगाल के संथालों को अपने चावल की बीयर नहीं मिले, तो उनके लिए धान की रोपाई करना नामुमकिन हो जायेगा।” और इसके बाद, विधानसभा में मज़ाक के बीच सिंह ने ऐलान किया था, "आप इसे संविधान में डालना चाहते हैं या नहीं, लेकिन मैं तो अपने इस धार्मिक विशेषाधिकारों को छोड़ने के लिए कत्तई तैयार नहीं हूं।"

सिंह का जन्म इस समय के झारखंड सूबे में हुआ था, जो दो दशक पहले तक अविभाजित बिहार का हिस्सा था। शायद नीतीश कुमार को सिंह की उस बात पर ग़ौर करना चाहिए था, जिसमें उन्होंने कहा था, “ अति हमेशा ग़लत होती है...अगर आप बहुत ज़्यादा भात (चावल) खाते हैं, तो यह आपके लिए ठीक नहीं है। लेकिन, अगर आप इसे सही मात्रा में खाते हैं, तो यह आपके लिए अच्छा है।” उन्होंने कहा था कि ज़्यादा मात्रा में शराब पीने से किसी का भला नहीं होता, लेकिन इसके बाद उन्होंने चेतावनी भी दी थी, “हमें याद रखना चाहिए कि हमें संविधान में ऐसा कुछ भी शामिल किये जाने को लेकर जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए, जो पहले से कहीं ज़्यादा कड़वाहट पैदा करे।”

नीतीश कुमार की शराबबंदी नीति को लेकर बिहार की स्थिति सचमुच दर्दनाक है। एक क्वार्टर शराब पी लेने वालों को गिरफ़्तार कर लेने भर से तो लोकतंत्र नहीं संवर जाता।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Nitish’s Prohibition Policy: A Horror Worse than Emergency

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