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चुनाव अभियानों के दौरान शर्मसार करतीं महिला-विरोधी टिप्पणियां !   

प्रधानमंत्री,उनकी भाजपा,और कई अन्य राजनेता और संगठन अपनी बेशर्म महिला-विरोधी टिप्पणियों से सार्वजनिक माहौल को ख़राब कर रहे हैं।
चुनाव अभियानों के दौरान शर्मसार करतीं महिला-विरोधी टिप्पणियां !   
Image Credit; Feminism in India

17-सेकंड की एक क्लिप हर तरफ़ चर्चा का विषय बनी हुई।इसमें एक शख़्स रोष और तंज करते हुए "दीदी,ओ दीदी" कम से कम छः बार बोलता है और यह बोलते हुए वह बीच-बीच में ठहरता है और जम्हाई लेता है। शब्द भले ही मासूम हो, लेकिन जिस अंदाज़ में यह बोला जाता है,उससे कामुकता की बू आती है। इस चुनावी रैली में भीड़ से कुछ तालियां आती हैं,मगर इसके बाद भीड़ आपत्तिजनक इस दोहरे अर्थ वाले अंदाज़ से बेतरह उछल जाती है।

वह शख़्स जिस महिला पर तंज मारता है, दरअसल वह पश्चिम बंगाल की निर्वाचित मुख्यमंत्री,ममता बनर्जी हैं।

और जो शख़्स तंज कसता है,वह कोई और नहीं,बल्कि भारत के प्रधान मंत्री,नरेंद्र मोदी हैं। बंगाल में उनकी पार्टी के प्रमुख,दिलीप घोष ने 24 मार्च को चुनावी रैलियों में अपने पट्टी लगे पैर को "प्रदर्शित" करने के लिए बनर्जी की खिल्ली उड़ायी थी। बनर्जी पहले किसी रैली के दौरान ज़ख़्मी हो गयी थीं और उन्हें अपने बायें पैर का प्लास्टर कराना पड़ा था। घोष ने तंज करते हुए कहा था, "प्लास्टर तो काट दिया गया है, अब एक बारीक़ पट्टी बची है, और वह हर किसी को अपना पैर दिखाने के लिए उसे उठाती रहती हैं... उनका वह एक पैर तो पहनी हुई साड़ी से ढका हुआ है और दूसरा पैर खुला हुआ है ... अगर उन्हें अपना पैर बाहर रखना ही है, तो वह साड़ी क्यों पहनती हैं ?" इसके लिए तो वह साड़ी के बजाय बरमूडा पहन सकती थीं।”

इस विधानसभा चुनाव को राज्य की राजनीति पर हावी होने की हरचंद कोशिश के तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता पर काबिज़ होने के लिए तमाम पैंतरे अपना लिये हैं। इस चुनाव के कवरेज को मीडिया में ज़रूरत से ज़्यादा जगह मिली है,इस महिला-विरोधी टिप्पणी को भी कुछ जगह ज़रूर मिली है, लेकिन तक़रीबन उतनी जगह नहीं मिली है,जितनी कि इस टिप्पणी को मिलनी चाहिए थी; इस टिप्पणी को लेकर कुछ नाराज़गी भी ज़रूर थी,लेकिन उतनी नाराज़गी भी नहीं थी, जितनी कि होनी चाहिए थी।

यह तक़रीबन वैसा ही है जैसे कि मान लिया गया हो कि चुनाव अभियानों के दौरान तो इस तरह की महिला-विरोधी कुछ बातें होती ही हैं; मोदी की आपत्तिजनक टिप्पणी पर तो शायद ही किसी ने ध्यान दिया,लेकिन घोष ज़रूर कुछ हद तक लोगों के निशाने पर रहे। जब इस तरह की महिला-विरोधी टिप्पणी की बात की जाती है और ऐसा किसी शीर्ष नेता की तरफ़ से होता है,तो इस बात पर ज़्यादा ध्यान जाना ही चाहिए और उतनी ही इसकी कड़ी निंदा भी की जानी चाहिए,क्योंकि इस तरह की बयानबाज़ी से उस पार्टी, कार्यकर्ताओं और अभियान प्रबंधकों का स्तर तय होता है और सही मायने में आख़िरकार इससे पूरे देश का स्तर भी तय हो जाता है।

ममता बनर्जी अपनी ही शैली में गरजते हुए कहती हैं कि मोदी के "पेंच ढीले हैं"। यह एक मुंहतोड़ जवाब तो है, लेकिन इससे शायद ही उस मुद्दे को हवा मिल पायी। उन्हें तो मोदी और घोष दोनों को उनके महिला-विरोधी टिप्पणियों के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग और भारत के चुनाव आयोग में घसीटना चाहिए था। लोगों को लगता है कि भारतीय चुनाव आयोग कुछ नहीं करेगा और यह अहसास सही मायने में इस संस्था में उनके टूटते भरोसे की गवाही है।

ऐसा नहीं कि मोदी ने ऐसी टिप्पणी पहली बार की हो। वह पहले भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए "जर्सी गाय" और उनके बेटे राहुल के लिए "हाइब्रिड बछड़े" जैसे भद्दे शब्दों का इस्तेमाल कर चुके हैं।इसी तरह,कांग्रेस सांसद,शशि थरूर की तत्कालीन साथी,सुनंदा पुष्कर के लिए "50 करोड़ रुपये की गर्लफ़्रेंड" जैसे शब्द का इस्तेमाल कर चुके हैं। इसी तरह,बांग्लादेश की प्रधान मंत्री ने शेख हसीना के लिए ऊपर बतायी गयी टिप्पणियों से थोड़े हल्के,मगर आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा था कि "वह महिला होने के बावजूद आतंकवाद के प्रति शून्य सहिष्णुता रखती हैं।" ऐसा नहीं कि ये टिप्णियां ज़बान के फ़िसल जाने वाली टिप्पणियां थीं, न ही यह किसी तरह की भूलवश की गयी टिप्पणियां थीं,और न ही ग़लतफ़हमी के पलों में हो गयी कोई अशोभनीय टिप्पणियां ही थीं। अगर ऐसा कुछ भी होता, तो वह माफ़ी मांग लेते या फिर कम से कम खेद तो ज़रूर जताते।

ये टिप्पणियां जानबूझकर की गयी हल्की और महिलाओं की खिल्ली उड़ाने के लिए की गयी ऐसी टिप्पणियां थीं,जिनके बारे में यह तोलकर ही बोला गया था कि इससे सामने के दर्शक इस तरह की सस्ती टिप्पणियों से लोट-पोट हो जायेंगे।

यह महज़ संयोग नहीं था कि मर्दवादी ताक़त और मर्दवादी विचारों वाले "56-इंच की छाती" का रूपक 2014 के राष्ट्रीय चुनाव अभियान पर हावी रहा, हालांकि इस रूपक का इस्तेमाल 2019 के अभियान में उतना नहीं चल पाया था। प्रधानमंत्री के भाषणों में विचारों,करुणा और संवेदनशीलता की कोई जगह नहीं होती,बल्कि मर्दानगी और कठोर नेतृत्व से मिलता जुलता बेरुखी का भाव होता है।

यहां तक कि प्रशंसा करते हुए भी महिलाओं के प्रति यह दुर्भावना सामने आ ही जाती है; इसका अच्छा उदाहरण वह बात है,जिसमें उन्होंने निर्मला सीतारमण के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा था कि "देस की बेटी पहली बार रक्षा मंत्री है।" दरअस्ल वह बयान ही झूठा था,क्योंकि इंदिरा गांधी इससे पहले भारत की रक्षा मंत्री रह चुकी थीं, लेकिन "देस की बेटी" जैसी बातें वास्तव में अनैतिक रूप से महिलाओं को लेकर एक पूर्वाग्रह है।

इस तरह की टिप्पणी उस पितृसत्तात्मक जगत के नज़रिये से सामने आती है,जिसमें महिलाओं को लेकर बरती जाने वाली रूढ़ धारण एक अहम तत्व होती है। दुनियादारी के सिलसिले में अपनी सभी अर्जित समझ को लेकर मोदी उन विचारों से शायद मुक्त नहीं हो पाये हैं,जो इन्हें शुरुआती सालों में संभवत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उन्हें मिले थे। भाजपा जिस राजनीतिक दर्शन से चलती है,उसमें महिलायें मातायें, पत्नियां या बेटियां होती हैं,जो किसी परिवार या समुदाय के सम्मान का प्रतीक होती हैं और उनका संरक्षण तब किया जाना चाहिए,जब वह अपनी महिला होने से अलग पहचान नहीं रखती हों; जो महिलाएं आसानी से इस सांचे में नहीं ढल पाती हैं, वे तिरस्कार और दुर्व्यवहार की पात्र बना दी जाती हैं।

कुछ स्वतंत्र महिलायें,जिन्हें पार्टी में शीर्ष पद पर बैठाया गया है और जिन्हें अपने हिस्से के झटके और ताने सहने पड़ते रहे हैं, उन्होंने भी उस समय मौन धारण कर लिया है,जब उनकी ही पार्टी के कुछ महिला-विरोधी बातें करने वाले नेताओं ने दूसरी महिलाओं को लेकर बदज़ुबानी की है। सबसे अच्छा तो यही होता कि घोष के इस ताने के बाद केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी सामने आतीं और महिला विरोधी इस तंज को लेकर "चेतावनी देतीं"। ऐसा इसलिए,क्योंकि ख़ुद ईरानी कई बार राजनेताओं के निशाने पर रही हैं।

भाजपा के ऐसे कई राज्य स्तरीय नेताओं के नाम लिये जा सकते हैं,जिन्होंने महिलाओं के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा महिला-विरोधी और अपमानजनक बयान दियें हैं।कैलाश विजयवर्गीय ने कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा को एक "चॉकलेटी चेहरा" कहा था,जबकि विनय कटियार ने पहले ही उन्हें यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि “भाजपा में कहीं ज़्यादा सुंदर महिलायें और स्टार प्रचारक" हैं। दिवंगत सुषमा स्वराज को एक हिंदू-मुस्लिम जोड़े को पासपोर्ट देने में तेज़ी दिखाने के लिए ट्रोल किया गया था। भाजपा के एक नेता ने उत्तर प्रदेश के मतदाताओं से कहा था,"जब आप मायावती के चेहरे वाली महिला को पांच साल तक बर्दाश्त कर सकते हैं,तो निश्चित रूप से आप हमें भी कुछ सालों का मौक़ा तो दे ही सकते हैं। यूपी के एक अन्य बीजेपी नेता,दयाशंकर सिंह ने मायावती को '' वेश्या '' तक कह डाला था।यूपी में बीजेपी के विधायक ने जघन्य हाथरस बलात्कार की घटना के बाद कहा थ कि '' इन जैसी घटनाओं को अच्छे संस्कारों से रोका जा सकता है, सभी माता-पिता को अपनी लड़कियों को अच्छे मूल्यों वाली शिक्षा देनी चाहिए।” मध्य प्रदेश के पूर्व मंत्री,बाबूलाल गौर ने कहा था,“बलात्कार एक सामाजिक अपराध है,जो कभी-कभी सही होता है,कभी-कभी ग़लत होता है ”। इस तरह के शर्मसार करने वाले बयानों की सूची लंबी है।

हालांकि,भाजपा के पुरुष नेताओं की इस तरह के महिला-विरोधी स्वर ज़ोर-शोर से सुनायी पड़ते रहते हैं। इस तरह की बदज़ुबानी करने वाले लोग हर एक राजनीतिक दल में हैं। कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी ने वित्त मंत्री सीतारमण पर हमला करते हुए कहा था, "हम आपका बहुत सम्मान करते हैं ... लेकिन कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि आपको निर्बला (शक्तिहीन) सीतारमण कहा जाये।" वह शायद इस बात पर ज़ोर देना चाहते थे कि मोदी कैबिनेट में कुछ मंत्री अपनी वास्तविक शक्ति का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन उन्होंने इसे कहने के लिए शब्दों के जिस विकल्प को चुना था,वे निश्चित रूप से महिला-विरोधी शब्द थे।

राहुल गांधी भी इस होड़ में तब शामिल हो गये थे,जब उन्होंने मोदी पर तंज कसते हुए कहा था “56 इंच के सीने वाला चौकीदार भाग गया… और एक महिला (सीतारमण) से कहा “मुझे बचा लो, मैं अपनी रक्षा नहीं कर सकता”। कांग्रेस के संजय निरुपम ने एक बार स्मृति ईरानी को "नाचने गानेवाली" कहा था.

लालू प्रसाद यादव का वह वादा मशहूर है,जिसमें उन्होंने दावा किया था कि सड़कें हेमा मालिनी के गालों की जैसी चिकनी हो जायेंगी। शरद यादव ने भी मोदी के बराबर होड़ लेते तब दिखे थे,जब उन्होंने महिलाओं को लेकर मोदी की तरह बदज़ुबानी करते हुए दशकों पहले किसी चुनावी रैली में आरक्षण पाने की इच्छा रखने वाली महिलाओं को "परकटी" कहा था,जिस तरह मोदी ने अपनी किसी चुनावी रैली के दौरान कहा था कि "वोट का सम्मान आपकी बेटी के सम्मान से बहुत बड़ा सम्मान" है।

समाजवादी पार्टी,जिसके शीर्ष पदों पर जया बच्चन जैसी मज़बूत महिलायें हैं,लेकिन उसी पार्टी में आज़म ख़ान भी हैं, जिन्होंने अपनी पार्टी के सहयोगी,जया प्रदा को “खाक़ी अंडरवियर” वाली कहकर तंज कसा था।

सपा मुखिया,मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार को उचित ठहराते हुए कभी कहा था कि “लड़के तो आख़िर लड़के ही होते हैं”। केरल के वाम नेता और राज्यसभा के पूर्व सांसद,ए विजयराघवन ने कांग्रेस उम्मीदवार,राम्या हरिदास के बारे में कहा था, "वह (मुस्लिम लीग नेता) कुन्हालीकुट्टी से मिलने गयी थीं। मुझे नहीं पता कि उसकी क्या हालत हुई होगी।” बतौर शिवसेना प्रमुख,दिवंगत बाल ठाकरे ने मंच से पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सोनिया गांधी का भद्दे तरीक़े से मज़ाक उड़ाया था। मोदी तो इसका इस्तेमाल चुनावी मंच से भी करने लगे हैं। फिक्की की महिला शाखा के एक कार्यक्रम में उन्हें आमंत्रित किया गया था,जहां उन्होंने महिला उद्यमियों से "मां को लेकर श्रद्धा" की बात की थी और आगे कहा था कि उन्हें लिज्जत पापड़ और जसुबेन पिज्जा की कहानियों का बारीकी से अध्ययन करना चाहिए।

इस तरह की स्त्रीविरोधी बदज़ुबानियों का एक व्यापक संकलन प्रस्तुत करना तो यहां मुमकिन नहीं, लेकिन यह कहना ज़्यादा ठीक है कि इस मुद्दे पर किसी भी पार्टी का रिकॉर्ड शायद ही साफ़-सुथरा हो। जिस तरह की स्त्रीविरोधी बदज़ुबानियां ऑफ़लाइन हो रही हैं,ऑनलाइन भी उसी तरह की बदज़ुबानियां जारी हैं। ट्रोल,जिनमें ज़्यादातर भाजपा से होते हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि ये किसी एक ही पार्टी तक सीमित हैं, इनके बीच प्रतिद्वंद्वी दलों की महिला राजनीतिज्ञों पर स्त्रीविरोधी टिप्पणी किये जाने की होड़ लगी हुई है। यह सब धड़ल्ले से जारी है और भारत में एक महिला राजनीतिज्ञ होना तो एक तरह का खामियाज़ा है।

जनवरी में जारी एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की महिला राजनेताओं को प्रति दिन औसतन 113 संदिग्ध या अपमानजनक ट्वीट किये जाते हैं,जिनमें धमकी और बदतमीज़ी शामिल होती है। इस अध्ययन में 2019 के आम चुनावों के दौरान महिलाओं द्वारा निर्देशित सोशल मीडिया पोस्ट,ख़ासकर ट्वीट के एक लाख से ज़्यादा का विश्लेषण किया गया था; सात में से एक ट्वीट अपमानजनक या संदिग्ध था। यह अपशब्दों के पैमाने को दिखाता है,इसका एक बड़ा हिस्सा स्त्रीविरोधी है,जिसे महिला राजनेता को सहना पड़ता है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि यह विश्वेषण भारत के लिए ख़ास तौर पर नहीं था,लेकिन भारत की महिला राजनेताओं को जितना कुछ सहना पड़ता है,वह उत्पीड़न यूके या यूएस के उनके समकक्षों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार से तक़रीबन दुगुना है।

जब जाने माने राजनीतिक परिवारों से आने वाली महिलाओं तक को नहीं बख्शा जाता है, तो दूसरों की क्या बिसात ? सिर्फ़ बहादुर महिलायें या निरंतर स्त्रीविरोधी हमले झेलने की क्षमता रखने वाली महिलायें ही राजनीतिक जीवन के विकल्प का चुनाव करती हैं। ऐसे में कम से कम आंशिक रूप से इस बात को समझा जा सकता है कि निर्वाचित महिलाओं के कम प्रतिशत के पीछे का कारण क्या है; 2019 में आहूत संसद में इसके सदस्यों के बीच मुश्किल से 14% महिलायें हैं, राज्य विधानसभाओं में भी इनका औसत कम है। हालांकि,इसमें बढ़ोत्तरी तो हुई है, लेकिन यह प्रतिशत भारत की महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता है।

महिलायें निश्चित रूप से राजनीतिक नहीं हैं।वास्तव में आम चुनाव में उनके मतदान को अगर राजनीतिक भागीदारी के प्रमाण के रूप में लिया जाये,तो चुनावी आकंड़े बताते हैं कि 1960 के दशक की शुरुआत के मुक़ाबले अभूतपूर्व 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है,पुरुषों और महिलाओं के मतदान के बीच का अंतर,जो 16.5 प्रतिशत से ज़्यादा था, वह 2019 के चुनाव में बमुश्किल 0.3 प्रतिशत तक सीमित रह गया। हाल के चुनावों में कुछ राज्यों में तो मतदान में भागीदारी के लिहाज़ से महिलाओं ने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया है।

चुनाव में स्ट्राइक रेट के लिहाज़ से पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं की स्ट्राइक रेट बेहतर है, 2019 के आम चुनाव में महिलायें कुल उम्मीदवारों का मुश्किल से 8% थीं,लेकिन जीतने वाली महिलाओंओं का प्रतिशत लोकसभा के कुल सांसदों का 14% था। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज की तरफ़ से कराये गये नेशनल इलेक्शन स्टडीज़ दिखाता है कि चुनाव प्रचार में महिलाओं की भागीदारी भी उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है। राजनीतिक दलों का दावा है कि उनकी प्राथमिक सदस्यता में बड़ी संख्या में महिलाओं के नाम दर्ज हैं।

राजनीतिक दल,ख़ासकर शीर्ष नेताओं के लिए यह एकदम वाजिब समय है कि वे राजनीतिक संस्कृति के बीच की उस कड़ी को चिह्नित करें,जो महिलाओं के निम्न प्रतिनिधित्व की वजह है और फिर उन तत्वों को बढ़ावा दें,जो महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए मायने रखती है। अगर नेता स्त्रीविरोधी टिप्पणियों में लिप्त होते हैं और माहौल को ख़राब करते हैं,तो यह दूसरे और तीसरे नंबर के नेताओं के साथ-साथ कार्यकर्ताओं के लिए भी यह एक संकेत होता है कि सस्ते,अभद्र,स्त्रीविरोधी शब्द और बर्ताव स्वीकार्य हैं और इससे किसी भी मुद्दे पर होने वाली गंभीर बहस की जगह इस तरह के अपशब्द ले सकते हैं। यही कारण है कि मोदी की टिप्पणियां मायने रखती हैं। उन टिप्पणियों का असर बंगाल चुनाव के बाहर भी होगा;सालों से हो रही इस तरह की स्त्रीविरोधी कड़ी-दर-कड़ी टिप्पणियां आगे भी सार्वजनिक माहौल को ख़राब करेंगी।

लेखक मुंबई स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं। वह राजनीति, शहरों,मीडिया और लिंगगत भेदभाव से जुड़े विषयों पर लिखती है। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

No, Sexism is Not Par for the Course During Election Campaigns

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