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केरल : UDF के लिए ईसाई मतदाताओं का मोहभंग क्या इशारा करता है

कांग्रेस को अपने ईसाई समर्थक वर्ग को वापस हासिल करने और IUML के प्रभाव को संतुलित करने में बहुत मुश्किल होने वाली है।
केरल
Image Courtesy: AFP/Getty Images

केरल के स्थानीय निकाय चुनावों में अगर कोई आंकड़ा अलग दिखाई पड़ता है, तो वह क्रिश्चियन मतदाताओं का का यूनाईटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) से लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट और कुछ हद तक बीजेपी के पक्ष में जाना है।

किसी भी बात पर आगे बढ़ने से पहले यह बता देना जरूरी है कि केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूडीएफ अल्पसंख्यकों की पार्टी है, यह अल्पसंख्यक कुल मतदाताओं का 44 फ़ीसदी हिस्सा हैं। उत्तर केरल (मालाबार) में मुस्लिम ज़्यादा प्रभावशाली हैं, वहीं मध्य केरल (मध्य त्रावणकोर) में क्रिश्चियन प्रभावशाली हैं। यह दोनों ही 1950 के दशक से यूडीएफ का राज्य में आधार रहे हैं।

पहले भी अल्पसंख्यकों का यूडीएफ से छोटा-मोटा मोहभंग हुआ है, अकसर यह किसी खास स्थानीय जगह तक सीमित होता था,  लेकिन इनमें से कोई भी हाल के पंचायत चुनावों जितना बड़ा नहीं रहा है। इस मोहभंग का सबसे ज़्यादा प्रभाव मध्य केरल के कोट्टायम, एर्नाकुलम, पथनमथिट्टा और इडुक्कि में देखने को मिला। यूडीएफ के लिए बुरी बात यह है कि यह मोहभंग मालाबार और दूसरे जिले, जहां बड़ी संख्या में क्रिश्चियन आबादी है, वहां भी देखने को मिला है। इस पूरी प्रक्रिया का यूडीएफ के ढांचागत मिश्रण और केरल की राजनीति पर प्रभाव पड़ेगा।

पहली नज़र में यह माना गया कि यह नतीजे केरल कांग्रेस (M) के जोश के मनी के यूडीएफ से हटने के कारण आए हैं। केरल कांग्रेस (M) राज्य में ज़्यादातर सीरियाई ईसाईयों (या सेंट थॉमस क्रिश्चियन) की प्रतिनिधि है। लेकिन अगर हम पास से देखें तो पाएंगे ईसाईयों के यूडीएफ से मोहभंग की कई वज़हों में से यह सिर्फ़ एक वज़ह है। जोश के मनी की वज़ह से उनकी पार्टी के गढ़ कोट्टायम में कुछ वार्ड, ग्राम पंचायत और पाला नगरपालिका एलडीएफ के पक्ष में आ गई। लेकिन ईसाईयों का यह पूरा मोहभंग उस बड़ी लहर का नतीज़ा है, जो पूरे राज्य में जारी है।

इस पूरी पहेली के केंद्र में यूडीएफ की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) की भूमिका है। 1957 में पहली EMS नम्बूदरीपाद सरकार के वक़्त से ही IUML बड़ी भूमिका निभा रही है, यहां तक कि बहुत थोड़े वक़्त के लिए पार्टी का मुख्यमंत्री तक बन गया था। पार्टी मुख्यत: मालाबार क्षेत्र, खासतौर पर मल्लपुरम जिले में सीमित हैं, जहां कि 16 में से 13 सीटों पर वह चुनाव लड़ती है और हर चुनाव में इनमें से ज़्यादातर जीतती है।

2016 के विधानसभा चुनावों में, जब 87 सीटों पर लड़ी कांग्रेस सिर्फ 21 सीटें जीत पाई थी, तब IUML ने 24 सीटों पर चुनाव लड़कर 18 सीटें हासिल की थीं। लेकिन इतने खराब नतीज़ों के बावजूद कांग्रेस का ईसाई समर्थक वर्ग लगातार उसके साथ रहा। लेकिन उन नतीज़ों ने यूडीएफ के भीतर कांग्रेस की स्थित कमजोर कर दी और IUML कई मुद्दों पर अपनी चलाने लगी।

IUML द्वारा शक्ति का यह प्रदर्शन और पहले, मतलब 2011 में भी देखा जा चुका था। तब UDF को LDF पर बहुत थोड़ी ही बढ़त हासिल हुई थी (UDF ने 72 और LDF ने 68 सीटें जीती थीं)। उस वक्त की परिस्थितियों को देखते हुए IUML ने अपने कोटे से पांचवा मंत्री बनाने का दबाव डाला। तब पार्टी 22 सीटें जीती थी। इस मुद्दे पर IUML के अड़ियल रवैये और ओमान चांडी द्वारा उन मांगों को मान लेने से कांग्रेस का अपने गठंबधन में शामिल नायर और इझावा समुदाय के नेतृत्व के साथ टकराव बढ़ गया। नायर समुदाय का प्रतिनिधित्व नायर सर्विस सोसायटी (NSS) के सुकुमारन नायर और इझावा समुदाय का प्रतिनिधित्व श्री नारायण धर्मा परिपालनम (SNDP) के वेल्लापल्ली नटेशन कर रहे थे। दोनों ने चांडी के खिलाफ़ मोर्चा खोलते हुए उन्हें अल्पसंख्य-समर्थक (प्रो-माइनॉरिटी) करार दिया। उन्होंने ओमान चांडी की कैबिनेट के गठन पर सवाल उठाए जिसमें अल्पसंख्यकों का वर्चस्व था और मंत्रालयों का बड़ा हिस्सा ईसाईयों और मुस्लिमों को दिया गया था। इसमें कांग्रेस और केरल कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रतिनिधि भी शामिल थे। नतीजतन् 2014 के आम चुनावों में नायर मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने कांग्रेस से बीजेपी में पाला बदल लिया। 2011 में 6 फ़ीसदी मतदाताओं की कमजोर हिस्सेदारी वाली बीजेपी के पक्ष में मतदान करने वालों में बड़ा इज़ाफा हुआ।

2016 के विधानसभा चुनावों में UDF ने मलंकारा सीरियन ऑर्थोडॉक्स चर्च जैसे कुछ ईसाई समूहों के साथ समझौता किया, जिसके तहत उनके समुदाय से आने वाले लोगों को टिकट दिए गए। राज्य में ईसाई मतदाताओं में बहुसंख्यक कैथोलिक समुदाय तब UDF के पीछे मजबूती से खड़ा रहा।

फिर 2020 आया, तब तक ओमान चांडी मुख्यमंत्री के तौर पर विदा ले चुके थे और UDF का नेतृत्व विधानसभा नेता रमेश चेन्निथाला कर रहे थे, तभी अचानक केरल कांग्रेस (एम) से जोश के मनी के बाहर जाने से सीरियाई ईसाइयों को अपने विकल्पों पर फिर से विचार करने का मौका मिल गया।

इस फेरबदल के बाद अहम घटनाक्रमों का विकास हुआ, जिसमें IUML भी शामिल थी, इन घटनाक्रमों को समझने में कांग्रेस नेतृत्व असफल रहा और इनका ठीक ढंग से प्रबंधन भी नहीं कर पाया। इसकी शुरुआत IUML के प्रचारपत्र चंद्रिका में हागिया सोफिया के मस्जिद के तौर पर दोबारा खुलने पर लिखे गए एक लेख से हुई। हागिया सोफिया 1935 से एक म्यूजियम था, उससे पहले यह रोमन साम्राज्य की राजधानी कांस्टेनटिनपोल में एक चर्च हुआ करता था।

इसके बाद IUML ने ऊपरी जाति के लोगों के लिए बनाए गए 10 फ़ीसदी के कोटे को वापस लिए जाने की मांग रखी। पिनराई विजयन की सरकार ने यह कोटा सामान्य वर्ग से काटकर बनाया था। केरल में सभी मुस्लिमों को ओबीसी माना जाता है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी आर्थिक या सामाजिक स्थिति कैसी है। यहां IUML की मांग सीरियन क्रिश्चियनों के लिए नाराजगी की वज़ह बन गई, क्योंकि वे सभी सामान्य वर्ग में आते हैं। कांग्रेस ने इस मुद्दे पर हीला-हवाली की और कई दिन तक अपनी स्थिति साफ़ नहीं की, आखिर में चर्च को समर्थन दिया।

इसके बाद UDF का जमात-ए-इस्लामी के राजनीतिक अंग "वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया" के साथ चुनावी गठबंधन का मुद्दा सामने आया। यह मुद्दा विवाद में तब घिर गया, जब कुछ कांग्रेस नेताओं ने गठबंधन की प्रवृत्ति पर विरोधाभासी बयानबाजी कर दी। समस्था केरला जामिय्याथुल उलेमा (एक सुन्नी धार्मिक संस्था) जैसे संगठनों के विरोध के बावजूद IUML ने इसलिए यह गठबंधन किया क्योंकि कुछ कट्टरपंथी संगठन मॉडरेट IUML के समर्थक वर्ग में सेंध लगा रहे थे। इनमें पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) द्वारा बनाई गई सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) शामिल है।

यह अविश्वास के ताबूत में आखिरी कील साबित हुई। 2015 में कुछ क्रिश्चियन लड़कियां मुस्लिम लड़कों के साथ ISIS में शामिल हो गई थीं, तभी से चर्च का डर और इस्लाम विरोधी घृणा बढ़ गई थी। 2010 में PFI के कैडर ने चर्च द्वारा चलाए जाने वाले एक कॉलेज में काम करने वाले TJ जोसेफ के हाथ काट दिए थे, उसी मोड़ से बात काफ़ी खराब हो चुकी थी, लेकिन इस दशक में जो अविश्वास बढ़ा और IUML ने UDF में जो प्रभाव पाया, उसे चर्च ने उकसावे के तौर पर देखा।

फिर यह अफवाहें भी उड़ने लगीं कि अगर UDF सत्ता में आता है, तो IUML के पीके कुन्हालिकुट्टी उपमुख्यमंत्री बनाए जा सकते हैं। कांग्रेस में ए के एंटनी और ओमान चांडी द्वारा कई दशकों के प्रभाव के बाद, अब कोई भी बड़ा ईसाई नेता (LOP, PCC चीफ या UDF संयोजक) नहीं था। इसलिए यह बात चर्च को पसंद नहीं आई।

अपनी तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद ईसाई समाज जब राजनीति की बात करता है, तो वह चर्च के ही मत को आगे बढ़ाता है। चर्च के पास पॉस्तोरल पत्रों और खुद के द्वारा चलाए जाने वाले अख़बारों (जैसे दीपिका, जो केरल का सबसे पुराना अख़बार है) से ईसाई समाज का मत बदलने की ताकत है। हाल में दीपानलम में एक लेख के ज़रिए LOP रमेश चेन्निथाला की आलोचना कर संदेश दिया गया। दीपानलम सायरो-मालाबार चर्च की पाला डॉयोसीज़ का हिस्सा है, इस लेख जोश के मणि द्वारा छपवाए जाने की संभावना भी है।

कैथोलिक चर्च का इतिहास राजनैतिक रहने का रहा है, बहुत लंबे वक़्त तक चर्च कम्यूनिस्ट पार्टी का विरोधी रहा है। 1957 में पहली EMS नंबूदरीपाद सरकार के खिलाफ़ चर्च ने खुले युद्ध का ऐलान कर दिया था, आखिर में "विमोचना समारम (आजादी का संघर्ष)" के जरिए चर्च सरकार को हटाने में कामयाब हो गया था। लेकिन हाल में चर्च पिनराई विजयन के नेतृत्व में CPI(M) के लिए गर्मजोशी दिखा रहा है। हालांकि यह काम फिलहाल जारी था, लेकिन केरल कांग्रेस (M) के जोश के मणि के प्रवेश के बाद यह प्रक्रिया तेज हो गई।

बीजेपी भी अपना जाल बड़ा कर रही है, ताकि चर्च से जुड़े संगठन उसके पाले में आ सकें। पार्टी समझ चुकी हैं कि वो केरल में बिना एक या दो अल्पसंख्यक वर्गों को साथ लिए कभी सत्ता में नहीं आ सकती। हाल में मातृभूमि अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि कैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केरल के दो कार्डिनल से मुलाकात की, यह ईसाई समाज में बीजेपी के लिए समर्थन बढ़ाने की कोशिश थी।  केरल कांग्रेस (M) के गढ़ मुथोली पंचायत में बीजेपी की जीत और क्रिश्चियन ग्रामीण इलाकों में बढ़त से पता चलता है कि बीजेपी भी इस अहम वर्ग में अपनी जगह बना रही है। यहां बीजेपी ने सीरियन क्रिश्चियन की सवर्ण मानसिकता का इस्तेमाल किया है, जो मानते हैं कि वे ब्राह्मणों के वंशज हैं। उनका मानना है कि उन्हें सेंट थॉमस ने धर्मांतरित किया था, यह बिलकुल वैसा ही है, जैसा पार्टी ने पहले नायर समुदाय का "सवर्ण" भ्रम फैलाया था। 

LDF और बीजेपी के अलावा, एर्नाकुलम में कॉरपोरेट समर्थित राजनीतिक संगठन "ट्वेंटी20" का तेज विकास हुआ है, जिससे UDF का आधार सिकुड़ा है, इससे ना केवल कांग्रेस को चिंतित होना चाहिए, बल्कि दूसरे संगठनों को भी सावधान हो जाना चाहिए। 

ऐसी स्थिति में कांग्रेस की 2021 में वापसी के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वो UDF में चीजें सही से व्यवस्थित करे। अब बहुत कम वक़्त बचा है। बहुत पहले की बात नहीं है जब आर्यादन मोहम्मद के तौर पर कांग्रेस के पास एक बहुत मजबूत क्षेत्रीय नेता हुआ करता था, जिसकी धर्मनिरपेक्ष पहचान बहुत मजबूत थी, वह मालाबार में IUML को संतुलित करते थे। कांग्रेस उनका इस्तेमाल मलाप्पुरम के एकमात्र ईसाई बहुसंख्यक क्षेत्र नीलामबुर को जीतने, वह भी बिना IUML के समर्थन के ऐसा करती थी। इस तरह के मजबूत क्षेत्रीय नेताओं की अनुपस्थिति में, कांग्रेस को अपने ईसाई समर्थक वर्ग को वापस हासिल करने और IUML के प्रभाव को संतुलित करने में बहुत मुश्किल होने वाली है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और द कोच्चि पोस्ट के पूर्व संपादक हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

What the Erosion of Christian Voters Could Mean for UDF in Kerala

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