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नरोदा पाटिया नरसंहार पीड़ित शकीला बानो की कहानी

वह नरोदा पाटिया जनसंहार की मुख्य गवाह है। पर इतिहास में शकीला की ज़िन्दगी सिर्फ इसी घटना के तर्ज़ पर नहीं दर्ज है। शकीला के परिवार की तीन पीढ़ियाँ आधुनिक अहमदाबाद की कहानी सुना रही है।

गरबा के मौसम की शुरुआत होने वाली थी. आधा दिन बीत भी चूका था और शकीला के पास तीन चुन्निया और चोलियाँ बनाने के लिए बची हुई थी। पांच जोड़े सिलने के उसे 200 रूपए मिलेंगे।उसके पैर सिलाई मशीन पर तेज़ी से चल रहे थे और लाल साटन की चुन्निया सुई के नीचे तेज़ी से गुजर रही थी। उसे काम के वक़्त भटकाव पसंद नहीं पर उसके दो बेटे, अशफाक और जुनैद जिनकी उम्र 10 और 8 साल थी, टीवी की आवाज़ कम ही नहीं कर रहे थे। वह नवरात्री के समय पर्याप्त पैसे कम लेना चाहती थी ताकि महीने का मकान भाड़ा जो  1500 था दिया जा सके और वह एक कूकर भी खरीद सके।

                                                                                                                                 

जब से वह इस मोहल्ले में आई है, उसका समय अपने आप को बहादुर, तेज़ बनने, जीने की इच्छा, वापस लड़ने की शक्ति को दिखाने और अपने पैरों पर खड़ा होने में ही बीता है।कमजोर और कष्टमय जीवन दिखाने का जोखिम वह नहीं उठा सकती।उसे हर हाल में यह दिखाना है कि वह जीने के लिए वहां आई है।

शकीला को 2002 धमाल के केस में गवाह होने के कारण सुरक्षा के लिए दो पुलिस वाले मिले हैं पर वह उन्हें हमेशा अपने साथ नहीं रखती। वे मेन सड़क के बीट बॉक्स में बैठते हैं। उन्हें वैसे भी पाटिया के अन्दर अच्छा नहीं लगता। इस बस्ती के अन्दर आने के लिए केवल एक ही पतली सड़क है। छोटी गलियां, खुली हुई नालियां, बजबजाते गटर’, मच्छर,मक्खीयों के सिवा और कुछ नहीं दिखता। हर दुसरे दिन यहाँ कम पानी और कम बिजली की समस्या रहती है।ऑटोवाले भी अन्दर तक नहीं जाते।किसी भरोसा होगा कि यह भी “दक्षिण के मेनचेस्टर” या उस “गुजरात मॉडल” का हिस्सा है जिसका पूरा देश नक़ल कर रहा है।

नरोदा के बाहर ऐसा नहीं है। वहां ऊँची इमारते, नए आवासीय सोसाइटी, होर्डिंग्स जिसमे  घर खरीदने के लिए सस्ते लोन की घोषणा हो रही है, नए बीआरटीएस( बस रैपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम)स्टॉप्स, उद्योगिक पार्क,कई माले के पार्किंग काम्प्लेक्स,नई फैक्टरियां,साफ़ सड़क है। इनमे से कई चीजों को तो शकीला के घर के पास कूड़े के ढेर से भी देखा जा सकता है।

वह गार्ड्स को तभी बुलाती है जब जरुरत पड़ती है।जैसे की तब जब उसे घर से बहार जाना होता है। आखिर वह उनपर कैसे भरोसा कर ले?यह वही पुलिस है जो तब मौन खड़े थे जब12 साल पहले कुदरत और महमूद मदद के लिए रो रहे थे। इसी पुलिस ने तब कुछ नहीं किया जब उनपर पेट्रोल डाल कर उन्हें जिंदा जला दिया गया।शब्बीर,उसकी पत्नी और उनके बच्चे समीना और आसिफ उसके सामने घायल पड़े थे। उसके घर में पैदा हुए सबसे खूबसूरत बच्चे नदीम को, जो केवल 3 महीने का था, उसे जलती हुई आग में फेक दिया गया था। उसकी 14 साल की भतीजी शबनम के साथ बलात्कार कर उसे टुकड़ों में काट दिया गया था। यह वही पुलिस है जिसके सामने उसकी बहन कौसर बानो शेख के पेट को काट दिया गया था। यह वही पुलिस है जिसने कई बार उस रास्ते की तरफ गुमराह किया था जहाँ लोग उन्हें मारने के लिए तैयार खड़े थे।

                                                                                                                                 

पिछले दो सप्ताह उसने एक बनती हुई मिल में दिहाड़ी पे काम किया। उसके पति सलीम को इस हफ्ते भी कुछ काम नहीं मिला है। 2002 के धमाल के बाद सलीम नरोदा पाटिया वापस आने को मजबूर था पर शकीला अपने ४ बच्चो के साथ शाह आलम कैंप में ही रुक गई थी।वह इलाका सुरक्षित नहीं था पर क्योंकि दिहाड़ी पर काम सबसे ज्यादा इसी इलाके में मिलता था इसीलिए सलीम को वहां जाना पड़ा। रियल एस्टेट, हाईवे, एयरपोर्ट, उद्योगिक क्षेत्र का विकास, सब वही हो रहा था। अगले आठसाल तक वो  अहमदाबाद के नेहरु नगर में एक ठेला लगाता था। पर 2012 में २०० से अधिक ठेला लगाने वालो को यह कह कर हटा दिया गया कि उनकी वजह से सड़क जाम हो जाती है। तब से वह इसी तरह के अलग थलग काम कर रहा है।  

वह हर 15 दिन पर घर वालो से मिलने जाता था, कभी कभी 1 महीने पर।बच्चो को बहुत समय तक यह लगता था कि सलीम किसी और शहर में काम कर रहा है।ठीक शकीला के पिता खुर्शीद अहमद की तरह, जो अहमदाबाद में एक टेक्सटाइल के कारखाने में काम करते थे। वे भी महीने में एक बार गुजरात महाराष्ट्र सीमा पर बसे बुलसर गावं में उनसे मिलने आते थे।

1960 के दशक में खुर्शीद जैसे अनेक हज़ार लोग अहमदाबाद के टेक्सटाइल मिलो में काम करने के लिए यहाँ आए थे। 1861 में रणछोड़लाल छोटालाल ने यहाँ देश का पहला टेक्सटाइल मिल लगा कर “मेड इन इंडिया” के ब्रांड को प्रसिद्ध किया था। स्वतंत्रता के समय यहाँ लगभग 75 टेक्सटाइल मिल थी जो 1960 के दशक में घट का 40 पे आगई। 2012 से पहले यही(1960) आखिरी साल था जब मजदूरों की तनख्वाह बदली गई थी। जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “मेक इन इंडिया” योजना की शुरुआत की, तब इस इलाके में कुल 15 मिलें बची थी। इस योजना के तहत उन्होंने विश्व के बड़े उद्योगपतियों को भारत में आकर निर्माण करने का न्योता दिया गया है।

जब खुर्शीद ने नरोदा पाटिया में रहना शुरू किया तब पलायन की वजह से अहमदाबाद की जनसँख्या लगभग 38 प्रतिशत बढ़ चुकी थी। उनमे से अधिकांश वे गरीब मुस्लिम और दलित समुदाय ले लोग थे जो रोजगार और रोजो रोटी के चक्कर में यहाँ आए थे। बुनकर के रूप में काम कर रहे खुर्शीद की कमाई से उसके परिवार की आर्थिक स्थिति में थोड़ा सुधार तो आया था पर ये ज्यादा दिन नहीं चल सका।

उस दशक के समाप्त होते होते, लगभग ७ मिलें बंद हो चुकी थी और इसकी वजह से 17000 मजदूर बेरोजगार हो गए थे। खुर्शीद भी उनमे से एक था। 1917 में महात्मा गाँधी द्वारा शुरू किया गया मजदूर महाजन संघ जो उस वक़्त का सबसे मज़बूत मजदूर यूनियन था, वह भी इसमें कुछ नहीं कर पाया। कम नौकरियों और बढ़ती प्रतियोगिता ने धार्मिक बटवारे को और बढ़ा दिया। 1969 में अहमदाबाद में हुए सांप्रदायिक दंगे ने ताबूत में आखिरी कील का काम किया। इन दंगो में सरकारी आकड़ों के अनुसार 660 लोगो की जान गई थी।खुर्शीद उसके बाद से कभी दोबारा नौकरी नहीं पा सका।शकीला को याद है कि किस तरह उसकी माँ ने खुर्शीद को शराब से अलग रखने के लिए अनेक कोशिश की थी।खुर्शीद हमेशा कहता कि वह इसलिए नौकरी नहीं पा रहा क्योंकि वह मुसलमान है। और किस तरह कुदरत( शकीला की माँ) हमेशा कहती कि वह इसलिए नहीं नौकरी पा रहा क्योंकि इस्लाम में शराब “हराम” है और वह पाप कर रहा है।

एक साल बाद कुदरत बीबी ने अपना सामान बाँध लिया और अपने चार बच्चो और सास के साथ नरोदा आकर रहने लगी। वहां कोई नौकरी नहीं थी पर दिहाड़ी मजदूर का काम मिल जाता था। इसीलिए खुर्शीद को छोड़ कर, जो अब तक पूरी तरह शराब के नशे में डूब चूका था, परिवार के सभी सदस्य आसपास की मिलों में काम करने लगे थे। शकील और उसके भाई-बहन पैकेजिंग विभाग में काम करने लगे जहाँ उन्हें दिन के 10-12 रूपए मिल जाते थे।कुदरत और उसकी सास करघा में काम करती थी और एक दिन का 30 रूपए कम लेती थी।सभी की मजदूरी मिला कर खुर्शीद की मासिक आय के बराबर हो जाती थी।यह 20 साल तक चलता रहा।

एक बार काम करते समय कुदरत की साड़ी का किनारा सिलाई मशीन में फस गया और इसके कारण उसे सिर में 20 टाँके लगे।फैक्ट्री ने दवाई का खर्चा तक नहीं दिया। शकीला को याद है कि फैक्ट्री मेनेजर इन उन्हें बताया था कि वे केवल स्थाई कर्मचारियों को यह खर्चा देते हैं।शकीला दस साल तक काम करने के बावजूद भी स्थाई नहीं हो पाई थी। तब तक खुर्शीद गुजर चुका था और उसके बड़े भाई महबूब शेख और शब्बीर अहमद को रेडीमेड कंपनियों से टेलर के रूप में कॉन्ट्रैक्ट मिलने लगा था। उन्हें हर पीस के हिसाब से पैसे मिलते थे जैसे अब शकीला को मिलते हैं।

शकीला की बहन कौसर उससे काफी छोटी थी। उसने हीरे को काटने और पोलिश करने का काम सीखा था। उसे शाहिद शेख से प्यार हुआ और दोनों ने एक साल पहले ही शादी की थी। यह उनकी पहली संतान थी,जो उस रात होने वाली थी।

शकीला खालिक नूर,मोहम्मद शेख,अपने खालू जो कौसर के पिता थे, उनके साथ शाह आलम रिलीफ कैंप में थी जब उसे रेशमा बानो द्वारा उस कौसर के साथ हुई घटना की सुचना मिली। रेशमा उस घटना की चस्मदीद गवाह थी। शेख पास के ढाबे में जा छुपा था, वहां वह बेहोस हो गया और उसे अगले दिन कैंप लाया गया। उस दिन, शकीला,उसके दोनों बच्चे,ननद,भतीजा- भतीजी भी उसी ढाबे में छुपे थे। कुदरत जो पूरी तह जल चुकी थी, तब भी जिंदा थी। उसके हाँथ और पैर झुलस गए थे। 7 घंटे बाद जब बचाव टीम आई तब उन्होंने कड़े निर्देश दिए कि जो “पूरी तरह जिंदा” हैं, वही बचाव बस में बैठेंगे।

                                                                                                                               

शकीला को याद है कि कुदरत खुद को साथ ले जाने की मिन्नतें कर रही थी पर उन्हें उसे वहीँ छोड़ना पड़ा। आज भी यह याद कर उसकी रूह काप जाती है कि उसे कुदरत को वहां छोड़ने का फैसला लेना पड़ा था।उसे उन्हें बचाना पड़ा था जो अभी जिंदा थे। शकीला को जली हुई लाशों के ऊपर से गुजरना पड़ा था। चार महीने बाद उसे कुदरत,महमूद,समीना और आसिफ का शरीर मिला था।बाकी चार का कुछ पता नहीं चला,ना ही उनका डेथ सर्टिफिकेट उसे मिला और न ही पोस्ट मोर्टेम रिपोर्ट। इस धमाल में उसके परिवार के 18 सदस्यों की मौत हुई थी।

रेशमा जो उस घटना की चस्मदीद गवाह थी, ने स्पेशल कोर्ट को वह सब कुछ बताया जो उसने देखा। उसने बताया कि टोले ने कौसर बानो को घसीटा और उसके पेट को काट दिया। उसके अभी अजन्मे बच्चे को तलवार को नोक पर घुमाया और लहराया गया।2002 में 70 वर्षीय शेख , 12 लोगो के परिवार में आखिरी जीवित सदस्य थे।वे एक कॉन्ट्रैक्ट पेंटर थे जो महीने का 4000 कमाने थे।वह भी खुर्शीद के साथ अपनी नौकरी गवा बैठे थे। उन्होंने खुर्शीद को भी पेंटिंग के काम में जोड़ने की कोशिश अनेक बार की,पर शराब के नशे में धुत खुर्शीद ने उस काम को छोड़ दिया  घटना के बाद किसी को भी शाहिद का पता नहीं चल पाया। शेख ने अपने दोनों घर बेच दिए और कर्नाटक जा कर रहने लगा।वहां उसका ससुराल था। पर किसी को पता नहीं कि वो अब भी वहां रह रहा है कि नहीं।

ज्योत्स्नाबेन याग्निक, जो स्पेशल कोर्ट की जज थी, को भी शकीला ने बताया था कि किस तरह 2002 में पाटिया में मारे गए सैकड़ों लोगो को बचाने के लिए पुलिस ने कुछ नहीं किया। मारने वालो में पड़ोस में रह रहे वे लोग भी शामिल थे जो महमूद और शब्बीर के लिए काम लेकर आया करते थे। पहले वे अपने आप को दलित कहते थे। 2002 के बाद अपने आप को हिन्दू कहने लगे हैं और वह उस बिजली खम्बे के दूसरी तरफ रहते हैं जो हिन्दुओं और मुस्लिमो को दो इलाको में बांटता है।

1969 के दंगो के बाद, मजदूर महाजन संघ ने हिन्दू मुस्लिम भाईचारे के पक्ष में अनेक रैलीयां निकाली थी।शकीला को आज भी बड़े पोस्टर्स याद हैं। 2002 के बाद ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। आखिरकार वे केवल एक दिहाड़ी मजदूर थे, स्थाई नहीं जिन्हें यूनियन का सपोर्ट था।

धमाल के बाद कोई भी सिन्धी या हिन्दू फैक्ट्री मालिक मुसलमानों को काम पर नहीं रखता जबकि पड़ोस के अनेक दलितों को उन्ही जगहों पर नौकरियां मिल गई है।उस बस्ती मेंजहाँ काफी संख्या में दलित रहते थे, 4,600 में से अब केवल 500 दलित बचे हैं। बाकी सब किसी अन्य “विकसित” इलाकों में अपना बसेरा बनाने में कामयाब रहे हैं। अब सुरक्षा के लिए अनेक और मुसलमान इस इलाके में रहने के लिए आ रहे हैं।

कासिम भाई हाल ही में 29 अगस्त 2012 के फैसले के बाद जिसमे भाजपा की माया कोडनानी और बजरंग दल के बाबू बजरंगी को सजा मिली, शकीला के घर के बगल में रहने के लिए आए हैं। गुलबर्ग सोसाइटी काण्ड में इनके परिवार के 19 सदस्यों की हत्या कर दी गई थी।

                                                                                                                       

इस क्षेत्र के मुसलमानों को फैक्ट्रीयों में दिहाड़ी मजदूर के रूप में अब काम मिलने लगा है पर मजदूरी केवल 50-80 रूपए के बीच ही मिल पाती है। काफी कुशल कारीगरों को 150 रूपए मिल जाते हैं। सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम दिहाड़ी 214 रूपए है । बाकी सब सलीम की तरह ठेला लगाने लगे हैं जिसमे पान की दूकान,चाय की दूकान, मिट्टी के बर्तनों या चाईनीस बिजली के सामान की दूकान शामिल है।जबसे अहमदाबाद का विकास शुरू हुआ है, रोड चौड़ीकरण,सौन्दरियकरण और फ्लाईओवर बनाने की योजनाये अस्तित्व में आई हैं, ठेले वालो के लिए इस शहर में कोई जगह नहीं बची है। कांकरिया झील के बगल में पानीपूरी बेचने वाले शकीला के भाई को 2008 में अपनी रोजो रोटी से हाँथ धोना पड़ा। इसकी वजह थी इस झील को सुन्दर बनाने को योजना का अस्तित्व में आना। अब केवल लाइसेंस प्राप्त लोग ही यहाँ सामान बेच सकते हैं। अब वह एक केमिकल फैक्ट्री में दिहाड़ी मजदूर है। उसका पूरा परिवार उसके साथ ही काम करता है,ठीक उसी तरह जैसे तीस साल पहले शकीला का परिवार करता था। बच्चो को दिन का 30 और बड़ो को 100 रूपए तक मिल जाता है। 

2012 के फैसले के बाद, शकीला को खतरा बढ़ गया है। उन 32 लोगो का परिवार उसी इलाके में रहता है। जब भी उसके सामने से उनमे से कोई गुजरता, वे यही कहते हैं कि कोर्ट में गवाही देने की सजा शकीला को झेलनी पड़ेगी। वे इस इलाके में रह रहे और गवाहों के साथ भी यही करते हैं।

कल ही जब वह अपनी मशीन पर सिलाई कर रही थी, तब एक महिला उसके पास आई और उसने कहा कि,” जितना सिल सकती हो सिल लो, अगले साल ऐसा नहीं होगा”। त्यौहार हमारा,पैसे बने तुम्हारे?”

क्या गरबा-डांडिया में वह हिस्सा नहीं ले सकती? यह सोचने में समय नहीं गवाना है। उसे शाम को बिजली गुल होने से पहले बची हुई चुन्निया और चोलियाँ सिलनी है।

(अनुवाद- प्रांजल)

यह yahoo.com और GRIST मीडिया के लिए लिखे गए लेख का अनुवादित रूप है।

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

 

 

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