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राजस्थान:बीजेपी ने मज़दूरों को दिया धोखा, सभी वादे हवाई साबित हुए

अगर बीजेपी के 2013 के संकल्प पत्र की बात की जाए तो इसमें श्रमिकों के लिए कई वादे किये गए थे। लेकिन 5 साल बाद ज़मीनी हक़ीक़त पर नज़र डालें तो इन वादों की हवा निकलती दिखाई पड़ती है।
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image courtesy: indian express

राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की 'गौरव यात्रा' जारी है। इस समय जब वसुंधरा राजे और बीजेपी अपने किये गए 'तथाकथित' कामों का प्रचार कर रही है , मज़दूरों की हालत एक अलग ही कहानी बयान करती है । अगर बीजेपी के 2013 के संकल्प पत्र की बात की जाए तो इसमें श्रमिकों के लिए कई वादे किये गए थे। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त पर नज़र डालें तो इन वादों की हवा निकलती दिखाई पड़ती है। 

श्रमिकों को किये गए वादों में पहला वादा था कि सरकार असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के बच्चों को निशुल्क शिक्षा देगी। लेकिन मज़दूर संगठनों से जुड़े लोगों की माने तो छठी कक्षा के ऊपर बच्चों को निशुल्क शिक्षा प्रदान करने का कानून केंद्र सरकार की योजना है और वह देवगौड़ा की सरकार के समय बना था। इसके तहत सिर्फ निर्माण मज़दूरों के बच्चों को यह सुविधा मिलती है, बाकी मज़दूरों के बच्चों को इसकी सुविधा नहीं मिलती है। हमें समझना होगा कि यह सुविधा राज्य सरकार के अंतर्गत नहीं आती है और इसे ठीक ढंग से लागू भी नहीं किया जा रहा है।

संकल्प पत्र में एक मुख्य वादा यह किया गया था कि सरकार संगठित और असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों का न्यूनतम वेतन महंगाई के हिसाब से तय करेगी। इस मुद्दे पर न्यूज़क्लिक से बात करते हुए CITU के राजस्थान सचिव भंवर सिंह कहा "ये वादा बिलकुल हवाई साबित हुआ है, क्योंकि राजस्थान में न्यूनतम वेतन सिर्फ 213 रुपये प्रति दिन है , यानी सिर्फ 6,000 रुपये प्रति माह । जबकि पडोसी राज्य में यह14,500 रुपये प्रति माह है और केरल में 770 रुपये प्रति दिन है- जिसका मतलब महीने में करीब 23,000 रुपये। हमने कई बार सरकार से यह माँग की है कि श्रम सलाहकार मंडल की बैठक बुलाकर इसे बढ़ाया जाए , लेकिन यह आज तक नहीं हुआ है। इसके साथ ही मज़दूर को 213 रुपये के 12 घंटे की दर पर खुले आम काम कराया जाता है। "

संकल्प पत्र यह भी वादा करता है कि मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जाएगी लेकिन यह वादा भी अब तक ज़मीन पर नहीं उतरा है। सूत्र बताते हैं कि प्रदेश में ज़्यादातर संगठित मज़दूरों को पीएफ और ईएसआई जैसी मूलभूत सुविधाएं प्राप्त नहीं होती हैं। जब भी कोई मज़दूर इन हक़ों के न मिलने के खिलाफ शिकायत करता है तो पहले राज्य के बड़े अधिकारिरीयों से अनुमति लेनी पड़ती है। इससे होता यह है कि यह अधिकारी फैक्ट्री या मिल मालिकों को निरीक्षण या छापे की सूचना पहले ही दे देते हैं और इससे मालिकों को लीपापोती करने का समय मिल जाता है। 

संकल्प पत्र में असंगठित क्षेत्र के लोगों को रोज़गार के अवसर प्रदान करने की बात कही गयी है। लेकिन वास्तविकता यह है कि नरेगा में जो सरकारी फण्ड था उसे बहुत कम कर दिया गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ 100 दिन का रोज़गार मिलता था अब वहाँ सिर्फ 50 दिन का काम मिलता है।नरेगा में मुद्दे को समझते हुए भाकपा माले के राज्य  राज्य कमिटी सदस्य शंकर लाल चौधरी ने कहा था "गाँवों में जेसीबी मशीने लगा रखी हैं, जिनके ज़रिये काम कराया जा रहा है। गाँव  के सरपंच, प्रधान , कांट्रेक्टर और स्थानीय राजनेता मनरेगा के अंतर्गत मिलने वाले वाले पैसे को इस तरह खर्च कर रहे हैं। जहाँ 100 लोगों को काम मिलना चाहिए वहाँ सिर्फ 6 -7 लोगों को काम मिलता है। बाकी के पैसे का हिसाब नहीं है। इसके अलावा आरक्षण के ज़रिये जो लोगों को नौकरियाँ मिलनी चाहिए वहाँ एक भी भरती नहीं हुई। "

एक वादा यह भी किया गया कि ट्रेड यूनियनों /मज़दूर संगठनों के पंजीकरण की प्रक्रिया सरल की जाएगी। इस वादे को देखकर अब हँसी आती है क्योंकि इसका  उलट किया जा रहा है। जुलाई 2014 में वसुंधरा सरकार ने श्रम कानूनों में कई बदलाव किये जिनके चलते मज़दूरों स्थिति अब बदतर हो गयी है और यूनियन बनाना बहुत ही मुश्किल हो गया है। 

Industrial Disputes Act, Factories Act, Contract Labor act  सभी में एक एक कर बदलाव किये गए हैं। Industrial Disputes Act में ये बदलाव किया कि जहाँ पहले 100 लोगों वाली फैक्ट्री को बिना इजाज़त बंद किया जा सकता था, वहाँ अब 300 मज़दूरों की फैक्ट्री को बंद किया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि एक नोटिस लगाकर मालिक कभी भी संस्थान को बंद कर सकता है और मज़दूर रातों रात बेरोज़गार हो सकते हैं। इसका उदाहारण है पिछले कुछ समय में Arriston, Polaris और अन्य प्लांट बन कर दिए गए हैं। इसी तरह पहले 10 लोगों की फैक्ट्री चलाने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था, अब इस सीमा को 50 कर दिया गया है। इससे 50 लोगों तक के संस्थान या फैक्ट्री पर  श्रम कानून लागू ही नहीं होते। इसके अलावा अब किसी फैक्ट्री में 30 % लोगों के यूनियन का सदस्य  होने पर ही यूनियन बनायी जा सकती है , पहले फैक्ट्री में यूनियन बनाने के लिए के 15 % लोगों की ज़रुरत होती थी। वहीं factory act में बदलाव करके अब यह नियम बना दिया गया है कि बिजली के काम करने वाली फैक्टरियाँ में अब 40 लोगों को रखा जा सकता है , पहले ये आँकड़ा 20 था। इसका अर्थ ये है कि पहले जो फैक्ट्रियां Factories Act और  Contract Labor act  के दायरे  में आती थी, उन्हें अब इससे बाहर कर दिया गया है। इससे हुआ ये कि इन कानूनों से मज़दूरों को मिलने वाली सुरक्षा को ख़त्म कर दिया गया है साथ ही ठेकाकरण को बढ़ावा दिया गया है।   

राजस्थान में मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा निर्माण मज़दूरों का है। जयपुर, जोधपुर और दूसरे बड़े शहरों में निर्माण ज़्यादा होने की वजह से उन्हें काफी काम मिला करता था। सूत्र बताते हैं कि सिर्फ जयपुर में ही 60,000 से 70,000 निर्माण मज़दूरों को काम मिलता था। लेकिन नोटबंदी के बाद में यह काम बिलकुल ख़तम हो गया था, इससे लाखों मज़दूर बेरोज़गार हो गए हैं। अब जाकर बाज़ार इससे थोड़ा बहुत उभरने लगा है लेकिन अभी भी उतना काम नहीं मिलता जितना पहले मिला करता था। 

राजस्थान में खदानों, पत्थर तोड़ने की फैक्टरियों और सीमेंट फैक्ट्री मज़दूरों में सिलिकोसिस की बीमारी भी लगातार फैली है। इसपर संकल्प पत्र में कोई बात नहीं की गयी। 8 अगस्त 2018 को करीब 1000 सिलिकोसिस से पीड़ित मज़दूरों ने मुआवज़ा न मिलने और इस समस्या का निदान न किये जाने के खिलाफ जयपुर में प्रदर्शन किया था। दरअसल सिलिकोसिस एक फेफड़े की बीमारी है जो खदानों, पत्थर तोड़ने की फैक्टरियों, सीमेंट फैक्ट्री के मज़दूरों और मूर्तियाँ बनाने वाले मज़दूरों को बड़े पैमाने पर होती है। इसकी वजह है कि इन सब कामों से निकलने वाली धूल साँस के ज़रिये उनके फेफड़ों में चली जाती है। एक बार हो जाने के बाद इसका कोई इलाज नहीं है और इससे मौत हो जाती है। मज़दूर किसान शक्ति संगठन के निखिल डे के अनुसार राजस्थान भर में 20,000 से 25,000 मज़दूर हैं जिनके पास सिलिकोसिस से ग्रसित होने का प्रमाण पत्र है। लेकिन न तो इसके बचाव के लिए पानी के छिड़काव और मास्क जैसी सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं और न ही इन्हे मुआवज़ा समय पर मिल रहा है। 

इन हालातों को देखकर लगता है कि बीजेपी का संकल्प पत्र उनके भाषणों की तरह कोरी जुमलेबाज़ी है। वे मज़दूर जो इस देश और प्रदेश को बनाते हैं उनकी स्थिति पहले से भी ज़्यादा खराब हुई है। इस स्थिति की ज़िम्मेदार सरकार अगर इस काम पर 'गौरव' जताये तो इससे भद्दा मज़ाक कुछ नहीं हो सकता। 

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