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मुसलमानों का पिछड़ापन: 'सबका साथ, सबका विकास' को आईना दिखाती एक रिपोर्ट

'दस अल्पसंख्यक केंद्रित जिलों में मुसलमानों का पिछड़ापन: राजनीतिक विमर्श में समानता का प्रश्न वापस लाना' नाम से जारी की गई इस रिपोर्ट में देश में मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को उजागर करने की कोशिश की गई है।
SPECT Foundation

''पिछले आठ सालों से जब कहा जाता है कि इस मुल्क में मुसलमानों के साथ भेदभाव हो रहा है तो भेदभाव बहुत ही हल्का शब्द लगता है। जो हो रहा है उसको वर्णित करने के लिए भेदभाव जैसा शब्द मज़ाक़ लगता है, एक हिंसा का माहौल है जिससे मुसलमान की रोज़मर्रा की ज़िंदगी गुज़रती है, जबकि सरकार की तरफ से कहा जाता है कि जितनी भी सरकारी घोषणाएं हैं उनका बराबर का लाभ मुसलमानों को मिल रहा है, फिर वे सरकारी योजनाएं आवास योजना हो या फिर उज्जवला सबका फायदा मुसलमानों को हो रहा है।''

दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में SPECT Foundation की तरफ़ से एक सोशल ऑडिट की रिपोर्ट जारी करते वक़्त दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने ये बात कही।

मुसलमानों के हालात पर रिपोर्ट जारी

'दस अल्पसंख्यक केंद्रित जिलों में मुसलमानों का पिछड़ापन: राजनीतिक विमर्श में समानता का प्रश्न वापस लाना' नाम से जारी की गई रिपोर्ट में देश में मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को उजागर किया गया है। इस रिपोर्ट को रिलीज़ करते वक़्त प्रोफेसर अर्पूवानंद, इतिहासकार एस.इरफ़ान हबीब, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर, पत्रकार अनिल चमड़िया, प्रशांत टंडन और स्पेक्ट फाउंडेशन की तरफ से डॉ बनूज्योत्स्ना( Banojyotsna ) और डॉ. साजिद अली मौजूद रहे।

क्या है ये रिपोर्ट ?

मुसलमानों की स्थिति में सुधार के लिए सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006) द्वारा की गई 76 सिफारिशों में अल्पसंख्यक बहुल पहचान वाले पिछड़े जिलों में बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने और रोज़गार के अवसरों में सुधार के लिए एक बहु-क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम था। 11वीं पंचवर्षीय योजना (2008-09) में 25 % से अधिक अल्पसंख्यक आबादी वाले 136 ज़िलों में से 90 अल्पसंख्यक बहुल जिलों (एमसीडी-Minority concentration Districts ) को बहु-क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम (एमएसडीपी-Multi-sectoral Development Programme) के लिए चिन्हित किया गया था, जिसमें देश के 34% अल्पसंख्यक शामिल थे। यह एक क्षेत्र/स्थानिक विकास पहल थी, जिसमें सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा बनाकर और बुनियादी सुविधाएं प्रदान करके विकास की कमी को दूर करने के लिए जिलों, ब्लॉकों और कस्बों पर ध्यान केंद्रित किया गया था। यह डेवलपमेंट ऑडिट रिपोर्ट उस श्रृंखला का हिस्सा है जिसे SPECT Foundation ने इन जिलों की सामाजिक- आर्थिक स्थितियों पर प्रकाशित किया है।

ये डेवलपमेंट ऑडिट मुस्लिम बहुल 10 सीमावर्ती जिलों में सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन, वहां के मुस्लिम समुदायों पर पड़ने वाले प्रभाव पर बातचीत को फिर से शुरू करने का एक प्रयास है और यह उजागर करने के लिए है कि कैसे इन जिलों में बेहद अविकसित स्थिति पर बात करने की ज़रूरत है।

इस रिपोर्ट को जारी करते वक्त SPECT फाउंडेशन से जुड़ी और इस रिपोर्ट पर काम करने वाली डॉ बनूज्योत्स्ना( Banojyotsna ) ने कहा कि, ''ये रिपोर्ट उस सीरीज का पहला हिस्सा है जिसके और हिस्से भी आएंगे, राजिंदर सच्चर की रिपोर्ट आने पर सबने इस पर बात की थी फिर वो पक्ष हो या विपक्ष, जिस भी तरह से हो लेकिन इस पर बात हुई थी। बाद में अमिताभ कुंडू समिति ( 2014 ) भी बनी लेकिन 2014 के बाद से कैसा माहौल है, बढ़ते राजनीतिक बंदी, बुलडोज़र चलाने की कार्रवाई और भी तमाम बातें, इन सब के बीच हमने एक छोटी सी कोशिश की है। सच्चर कमेटी ने जो शुरुआत की थी हम उसे आगे बढ़ाना चाहते हैं, हमारा काम बहुत ही छोटे स्तर पर है लेकिन हमने कोशिश की है कि एक बार फिर से मुसलमानों के हालात पर बातचीत शुरू की जाए।''

क्या उद्देश्य है इस रिपोर्ट का?

SPECT फाउंडेशन के मुताबिक़ पिछले 8 से 10 सालों में मुस्लिम समुदाय के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के साथ-साथ अल्पसंख्यक बहुल जिलों ( MCDs) में प्रणालीगत विकास न होने के बारे में बातचीत सार्वजनिक डोमेन से काफी हद तक गायब हो गई है। सच्चर समिति की रिपोर्ट के चौंकाने वाले खुलासे के बाद अमिताभ कुंडू समिति ( 2014 ) द्वारा किए गए और खुलासे ने भारत के मुस्लिम समुदाय को पीड़ित सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए एक लक्षित और कार्यक्रम संबंधी दृष्टिकोण की आवश्यकता बताई। लेकिन मौजूदा सत्तारूढ़ व्यवस्था ने मुस्लिम-विरोधी पूर्वाग्रह प्रदर्शित करते हुए ''मुस्लिम तुष्टिकरण'' के निराधार विचार को आगे बढ़ाते हुए पूरे विमर्श को ही बदल दिया है। मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के दुखद इतिहास को कई तरह के मनगढ़ंत आख्यानों से बदल दिया गया है जो भारत के मुस्लिम समुदाय को कलंकित, रूढ़िबद्ध या अपराधी बनाने की कोशिश करते हैं। ये रिपोर्ट एक अतिदेय तथ्यात्मक सुधारात्मक प्रदान करती है।

किन जिलों से जुड़ी है ये रिपोर्ट?

SPECT फाउंडेशन की इस पहली रिपोर्ट में चार सीमावर्ती राज्यों के 10 जिलों में सामाजिक-आर्थिक मापदंडों का आकलन किया है जो चिन्हित एमसीडी ( अल्पसंख्यक बहुल जिलों ) का हिस्सा हैं।

- बिहार (अररिया, पूर्णिया, किशनगंज, कटिहार)

- असम (धुबरी, कोकराझार)

- उत्तर प्रदेश (श्रावस्ती, बलरामपुर)

- पश्चिम बंगाल (मालदा, मुर्शिदाबाद)

इन जिलों को क्यों चुना गया?

SPECT फाउंडेशन के मुताबिक इन दस जिलों को पहले दौर में इसलिए भी चुना गया था क्योंकि वे हाल के वर्षों में कथित जनसंख्या विस्फोट और पड़ोसी देशों से ''अवैध घुसपैठ'' समेत विभिन्न कारणों से बीजेपी उसके सहयोगियों के द्वारा निशाने पर रहे। जिस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता वे यह कि हर साल बाढ़ से प्रभावित ये जिले गरीबी और संसाधनों की कमी से जूझते रहते हैं। इन जिलों के लोगों के पास आजीविका के अवसर कम हैं, इनमें से अधिकांश जिलों में आंकड़े बताते हैं कि विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय बुनियादी संसाधनों से और भी अधिक कटा हुआ है। 'मुसलमानों के तुष्टिकरण' का मिथक जो नियमित रूप से एक प्रचार तंत्र द्वारा फैलाया जा रहा है स्पष्ट रूप से पूरी तरह से झूठ पर आधारित है।

रिपोर्ट में इन 10 जिलों में जो असमानता दिखती है उसके कुछ उदाहरण ये हैं :

- बिहार के जिलों अररिया, कटिहार, किशनगंज और पूर्णिया में प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के वितरण में अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ व्यवस्थित भेदभाव के साक्ष्य हैं। 2016-17 से 2021-22 के बीच केवल 31.20 % लाभार्थी अल्पसंख्यक वर्ग से थे जो इन चार जिलों में मुस्लिम आबादी के कुल औसत (48.5%) से 17.5 % कम है।

- वहीं उत्तर प्रदेश के जिले श्रावस्ती और बलरामपुर में अगर स्वास्थ्य अवसंरचना की बात करें तो यूपी के 75 जिलों में से श्रावस्ती में सबसे खराब स्वास्थ्य ढांचा है। यहां कोई अनुमंडलीय अस्पताल नहीं है और केवल 1 जिला अस्पताल है। जिसकी तुलना अगर प्रयागराज जैसे जिले से की जाए तो वहां 5 जिला अस्पताल हैं।

इस रिपोर्ट को रिलीज़ करते वक्त प्रो. अपूर्वानंद ने कहा कि, ''अभी हमारी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि चूंकि मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है, तो पता चल रहा है कि मुसलमान ख़ुशहाल हैं, चूंकि मुसलमानों के यहां बच्चे पैदा हो रहे हैं इसलिए मुसलमान खुशहाल हैं, इस तर्क का क्या उत्तर दिया जाए किसी भी सभ्य समाज में?

लेकिन ये रिपोर्ट (SPECT Foundation की) सरकार के इस दावे की कलई खोलती है कि आप जिसे सरकारी योजना कहते हैं उन सरकारी योजनाओं में मुसलमानों को बराबर का हिस्सा नहीं मिल रहा है। सवाल बराबर का हिस्सा मिलने का नहीं है, जब सच्चर कमेटी (2005-06) नियुक्त हुई थी उससे पहले एक बहस हुई थी, वे बहस ये थी कि मुसलमानों की भारतीय राजनीति में, भारतीय समाज में क्या हिस्सेदारी है? ये कहा जाता था कि मुसलमानों को दरअसल सिर्फ सांस्कृतिक इकाई के तौर पर देखा जाता है, मुसलमान की बात होती है, तो कब्रिस्तान, वक्फ बोर्ड, मस्जिद के बाबत। मुसलमान विकास की इकाई नहीं है, तो उसको आप देखेंगे कैसे? यानी उनको बैंक का कर्ज कितना मिलता है? वे जिन इलाकों में रहते हैं वहां सड़कें कितनी है? वहां सफाई कितनी होती है? जिनकी जांच की जाए तो पता चलेगा असली हालात क्या हैं? और तब पता चलेगा उस संरचना का और उस structural discriminatory approach का जो मुसलमान झेल रहे हैं। तब उन्हें (सच्चर को) पता चला कि ऐसे पूरे के पूरे इलाक़े हैं जो बैंकों के लिए रेड एरिया हैं यानी जहां वे न तो कर्जा देंगे न ही कुछ और करेंगे और वे मुसलमान बहुल इलाक़े हैं तो सच्चर कमेटी ने पहली बार एक सच्चाई उजागर कर दी थी कि मुसलमानों का जीवन किस प्रकार विपन्न होता जा रहा है। कैसे एक राष्ट्र एक बिरादरी है जिसमें सबको एक साथ लेकर चलते हैं, सबको समान अवसर मिलते हैं लेकिन मुसलमान को मुसलमान होने के कारण कितने अवसर नहीं मिलते और कितनी जगह वे नहीं पहुंच सकते।

सच्चर कमेटी के बाद अमिताभ कुंडू कमेटी 2014 में आई और 2014 के बाद से मुसलमानों के लिए सबसे महत्वपूर्ण विषय सुरक्षा का मामला बन गया, वे सोचने लगे कि जिंदा रहेंगे कि नहीं? वे निश्चिंतता के साथ कुछ कर सकते हैं कि नहीं, वहीं इसी के समानांतर दूसरी चीजें चलती रहीं, मुसलमानों की भागीदारी कितनी कम की जा सकती है ये किया जाने लगा, मौलाना आज़ाद फेलोशिप बंद कर दी गई, दसवीं से पहले की जो स्कॉलरशिप थी उसे बंद कर दिया गया और समय-समय पर आ रही रिपोर्ट्स से साफ़ ज़ाहिर था कि इन सबका मतलब मुसलमानों को कोने में धकेला जाना है। हाल ही में कर्नाटक में चार प्रतिशत आरक्षण खुले आम ले लिया गया और वे ऐसे समुदायों को दे दिया गया जो काफी लाभकारी स्थिति में हैं''।

प्रो. अपूर्वानंद मुसलमानों को हाशिए पर धकेलने के लिए जिन मुख्य कोशिशों को देखते हैं वे हैं:

- क़ानून के द्वारा (CAA ( Citizen Amendment Act ) तीन तलाक़

- सड़क की हिंसा के द्वारा (लिंचिंग)

- नीति और योजना के स्तर पर

इसे भी पढ़ें: एमपी, यूपी में मुसलमानों के खिलाफ नफरत, असहिष्णुता और हिंसा की घटनाएं

जिस वक़्त प्रो. अपूर्वानंद वित्त मंत्री के भारत में मुसलमानों की खुशहाली पर दिए बयान का ज़िक्र कर रहे थे और उनकी बढ़ती आबादी का ज़िक्र कर रहे थे। हमने SPECT Foundation की रिपोर्ट के कुछ पन्ने पलट लिए और इसमें दिए गए बिहार के जिले अररिया, कटिहार, किशनगंज और पूर्णिया के दिए उन आंकड़ों को देखा जिसमें बताया गया गया था कि, ''जनगणना में डीपीजी (दशकीय जनसंख्या वृद्धि) डेटा से पता चला है कि सभी चार ज़िलों ने 1991-2001 और 2001-11 के बीच जनसंख्या वृद्धि में महत्वपूर्ण गिरावट दर्ज की गई है। पूर्णिया और कटिहार जिलों में गिरावट क्रमश: 6.9% और 2.56% रही है।''

वहीं वित्त मंत्री के इस बयान के बाद बीबीसी हिंदी पर छपी एक रिपोर्ट में भी इस बयान के दावे की पड़ताल की गई है।

बात अगर मुसलमानों की बढ़ती आबादी की करें तो इस रिपोर्ट की रिलीज़ के वक़्त मौजूद इतिहासकार एस.इरफ़ान हबीब ने इसी पर एक सवाल खड़े करते हुए कहा कि, ''मुसलमानों की जनसंख्या की बात हम सबको पता है कि कितनी राजनीति से प्रेरित है, हमें समझ नहीं आता कि मुसलमानों की आबादी में अगर कहीं कुछ बढ़ोत्तरी देखते हैं, पहली बात तो ऐसा है नहीं, लेकिन अगर है भी तो वे भी तो इसी मुल्क के नागरिक हैं न, वे कोई विदेशी तो नहीं कि अगर उनकी आबादी बढ़ गई तो क्या देश के अस्तित्व (existence) को ख़तरा हो जाएगा। लेकिन मुसलमानों की बढ़ती आबादी का झूठ एक ख़तरे के तौर पर देखा जाता है, जो बिल्कुल ग़लत है, वे फैक्ट पर आधारित है ही नहीं, ये पूरा मुद्दा राजनीति पर आधारित है।''

SPECT Foundation की रिपोर्ट में कुछ और बातें हैं जो बहुत ही हैरान करती हैं जैसे कि इस रिपोर्ट में असम के धुबरी और कोकराझार जिलों में शिक्षा के बुरे हाल का जिक्र है।

ये रिपोर्ट बताती है कि :

- शिक्षा के क्षेत्र में कोकराझार में कार्यात्मक निम्न प्राथमिक विद्यालयों की संख्या में गिरावट आई है। 200 से अधिक स्कूल (संभवत:) बंद हो गए हैं।

- जिले में सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले कोकराझार के गोसाईगांव प्रखंड में निम्न प्राथमिक विद्यालयों की संख्या सबसे कम है।

- उच्च शिक्षा के छात्रों की ड्रॉप आउट दर भी चिंताजनक है।

- जिले में केवल 12 कॉलेज हैं ।

- कोकराझार में एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। कॉलेज शिक्षा और उच्च अध्ययन के लिए पलायन ही एकमात्र विकल्प है।

- धुबरी में भी महामारी के बाद प्राथमिक विद्यालयों की संख्या में भारी गिरावट देखी गई और उच्च शिक्षा से ड्रॉप आउट दर ख़तरनाक रूप से अधिक है। धुबरी में केवल 14 कॉलेज हैं और कोई विश्वविद्यालय नहीं है।

देश के दूर-दराज के मुस्लिम इलाकों में अगर एक भी विश्वविद्यालय न हो तो उसे कैसे देखा जाए? कैसे कह दिया जाए कि देश का ''मुसलमान ख़ुशहाल है'' ?

देश की राजनीति में जब मुसलमान वोट बैंक भी न रहे तो क्या कहा जा सकता है। मनमोहन सिंह सरकार ने मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और शिक्षा की स्थिति को समझने के लिए 2005 में जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में समिति का गठन किया था। 2006 में कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी। रिपोर्ट लोकसभा में पेश की गई और उसकी चर्चा भी हुई, भारत के मुसलमानों पर किए गए काम का ये एक अहम दस्तावेज बन गया लेकिन उसका असर क्या हुआ?

2006 में जिस बात की शुरुआत हुई थी 2023 में वो कहां तक पहुंची?

सच्चर कमेटी ने अपना काम बखूबी किया लेकिन क्या उसका फायदा मुसलमानों को हुआ। ये सवाल आज भी बना हुआ है। SPECT फाउंडेशन से जुड़ी रिपोर्ट पर काम करने वाले डॉक्टर साजिद अली कहते हैं कि, ''इस तरह की रिपोर्ट के लिए सबसे अहम होता है डेटा लेकिन सरकार की तरफ से तो डेटा रिलीज़ ही नहीं हो रहे, ख़ासतौर से अगर हम मुसलमानों से जुड़े डेटा की बात करें तो मुसलमानों के लिए तो कोई डेटा उपलब्ध ही नहीं है। सबसे पहले गोपाल सिंह कमिटी (1983) और उसके बाद सच्चर कमिटी ने एक विस्तृत स्तर पर मैपिंग की, इसके बाद हमें पब्लिक डोमेन में डेटा नहीं मिलता फिर भी हमने कोशिश की है।''

इस रिपोर्ट में मुस्लिम बहुल इन 10 जिलों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, मनरेगा, प्रधानमंत्री आवास योजना में मुसलमानों को क्या मिल रहा है और कितना मिल रहा है इसपर भी चर्चा की गई है। और जो निष्कर्ष निकाला गया वे नीचे दिए गए हैं।

रिपोर्ट का निष्कर्ष

बीजेपी द्वारा मुसलमानों के खिलाफ़ पक्षपात अब जगजाहिर है। उनकी राजनीति नफ़रत के एक आख्यान (कहानी) का प्रचार करने पर पनपती है, जो मुसलमानों के लिए किसी भी विकास को ''तुष्टिकरण'' का काम मानती है। इस बात की संभावना कम ही लगती है कि बीजेपी सरकार चाहे राज्यों में हो या केंद्र में अपने दम पर कार्रवाई करेगी और अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाएंगी। मुसलमानों के साथ ही हाशिए पर पड़े समुदायों के विकास के लिए केंद्र सरकार से मांगों को उठाने की जिम्मेदारी अब स्पष्ट रूप से धर्मनिरपेक्ष दलों और संगठनों पर आ गई है। हालांकि कई धर्मनिरपेक्ष दल, बीजेपी द्वारा उठाए गए पूर्वाग्रह से प्रेरित और प्रेरित 'तुष्टिकरण' के हौवे के आगे झुक गए हैं और मुस्लिमों के हाशिए पर जाने के मुद्दों को संबोधित करने या यहां तक उठाने के लिए अनिच्छुक हो गए हैं, ऐसा न हो कि उनके बहुसंख्यक वोट शेयर को खतरे में डाल दें।

मुसलमानों का सामाजिक-आर्थिक हाशियाकरण समुदाय के उत्पीड़न की बड़ी प्रक्रिया का हिस्सा है। यह लोकतंत्र के मूल लोकाचार (व्यवहार) के भी खिलाफ है अगर किसी समुदाय को व्यवस्थित रूप से अविकसित छोड़ दिया जाता है और उसके सामाजिक कल्याण के लिए सकारात्मक कार्यों को जानबूझकर और बदले की भावना से बाधित किया जाता है। इसलिए देश में मुस्लिम समुदाय की दयनीय स्थिति अकेले एक समुदाय के लिए अलग-थलग समस्या नहीं है। यह देश के समग्र विकास सूचकांकों पर ख़राब प्रदर्शन करता है। जब हम इन जिलों सार्वजनिक शिक्षा या सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को प्रदर्शित करते हैं तो यह सार्वजनिक संसाधनों के समग्र पतन को भी दर्शाता है। लोकतंत्र के समग्र विकास के लिए, पर्याप्त मुस्लिम आबादी वाले इन समग्र अविकसित स्थिति को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाए जाने चाहिए।

इसके साथ ही ये रिपोर्ट कुछ सिफारिशें भी करती हैं जो इस तरह है :

- रंगनाथ मिश्रा आयोग और अमिताभ कुंडू समिति की सिफारिशों को लागू करना।

- अल्पसंख्यकों की लक्षित पहुंच के लिए सच्चर समिति द्वारा अनुशंसित स्थानिक दृष्टिकोण को ब्लॉक और ग्राम स्तर पर लागू करने की आवश्यकता है, क्योंकि जिलों के भीतर ही संसाधन असमान रूप से वितरित किए जाते हैं और कई स्तरों पर विकासात्मक कमी मौजूद होती है।

- सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद से बदलाव, सुधार या गिरावट को समझने के लिए केंद्र सरकार और नीति आयोग को अल्पसंख्यक आबादी, ख़ासकर मुसलमानों की स्थितियों का आकलन करने के लिए नए सिरे से सर्वेक्षण करना चाहिए।

- विपक्षी दलों को मुस्लिम समुदाय के व्यवस्थित सामाजिक-आर्थिक हाशियाकरण के बारे में अधिक मुखर होना चाहिए और केंद्र सरकार और भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों को ठोस कार्रवाई करने के लिए मजबूर करना चाहिए।

- धर्मनिरपेक्ष विपक्षी दलों को मुसलमानों को एक बड़े वोट बैंक के रूप में देखना बंद करना चाहिए और इसके बजाय उन राज्यों में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए ठोस कार्रवाई करने में अधिक सक्रिय होना चाहिए जहां वे सत्ता में हैं।

- विपक्ष को ''मुस्लिम तुष्टिकरण'' के मिथक का भंडाफोड़ करने के लिए और अधिक मुखर होना चाहिए न कि भ्रामक, पूर्वाग्रही और प्रेरित कथा के सामने झुकना चाहिए।

सच्चर कमेटी के पेश हुए क़रीब डेढ़ दशक से भी ज़्यादा का वक़्त हो गया है, इस बीच कुंडू समिति (2014) भी आई लेकिन 2014 के बाद से क्या हुआ? जिस तरह से खुले आम मुसलमानों के साथ भेदभाव हो रहा है, उनके खिलाफ़ हेट स्पीच दी जा रही है, उनका सामाजिक बहिष्कार करने की कोशिश हो रही है, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश हो रही है ऐसे में इस दौर में ये रिपोर्ट भले ही छोटी कोशिश हो लेकिन मौजूदा हालात में सरकार के उस वादे को आईना दिखाती है जो 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' का नारा लगाती है।

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