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भागवत का भाषण: डेमेज कंट्रोल के साथ हताश समर्थकों को बहलाने का उपक्रम

“दरअसल कोरोना की चुनौती से निबटने के मोर्चे पर सरकार की लापरवाही और नाकामी को लेकर आम जनता ही नहीं, बल्कि संघ और भाजपा से हमदर्दी रखने वाले लोग भी बडी संख्या में हलकान और निराश हैं।” वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन का विश्लेषण
भागवत
फोटो साभार : द हिन्दू

भारत में कोरोना महामारी की आड़ में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ जारी सुनियोजित नफरत-अभियान और सरकार की शह पर चल रहे मुसलमानों के मीडिया ट्रायल की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीखी प्रतिक्रिया हो रही है। इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की ओर से की जा रही डेमेज कंट्रोल की कोशिशों के बीच ही रविवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत को भी कहना पडा कि कुछ लोगों की गलती के लिए पूरे समुदाय को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

भागवत ने यह बात संघ के स्वयंसेवकों को ऑनलाइन संबोधित करते हुए कही। उन्होंने कहा, ''कोरोना महामारी से निबटने के कोशिशों के दौरान किसी एक समूह की गलती के लिए हम उस पूरे समुदाय के प्रति दुर्भावना नहीं रख सकते।’’ हालांकि इस सिलसिले में संघ सुप्रीमो ने किसी का नाम नहीं लिया, पर समझा जा सकता है कि उनका इशारा तबलीगी जमात की ओर ही रहा और इस इशारे का आशय भी साफ है कि वे देश में कोरोना का संक्रमण फैलाने के लिए तबलीगी जमात को ही खास तौर पर जिम्मेदार मानते हैं।

गौरतलब है कि पिछले महीने यानी मार्च की 13 से 15 तारीख तक दिल्ली में तबलीगी जमात का एक जलसा हुआ था, जिसमें शिरकत करने वाले कुछ लोगों में कोरोना का संक्रमण पाया गया था। उसके बाद से ही भारतीय जनता पार्टी का कॉडर और मीडिया का एक बडा हिस्सा पूरे मुस्लिम समुदाय को कोरोना फैलाने का जिम्मेदार बताने का अभियान छेड़े हुए हैं। इस अभियान में केंद्र सरकार के कुछ मंत्री और भाजपा के तमाम प्रवक्ता भी शामिल हैं। यही वजह है कि कुछ दिनों पहले भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को भी अपनी पार्टी के नेताओं से अपील करनी पड़ी थी कि वे कोरोना महामारी को लेकर सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले बयान देने से परहेज बरतें।

हकीकत यह भी है कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के अध्यक्ष भले ही औपचारिक तौर पर चाहे जो कहे, मगर कोरोना को लेकर सरकार की ओर से सांप्रदायिक आधार पर काम करने से कोई परहेज नहीं किया जा रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल रोजाना की प्रेस ब्रीफिंग में जमात का नाम लेकर अलग से कोरोना मरीजों के आंकड़े नहीं बताते, गुजरात में कोरोना मरीजों के इलाज के लिए हिंदू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग वार्ड नहीं बनाए जाते और पुलिस लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर निकले लोगों का नाम पूछ कर पिटाई नहीं करती।

एक ओर जहां सरकार और प्रशासन के स्तर पर यह सब हो रहा है तो और सत्तारुढ़ पार्टी और उसके सहयोगी संगठन भी अपने राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए महामारी की इस चुनौती को एक अवसर के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो भाजपा और उसके अन्य संगठनों से जुड़े कार्यकर्ता गली, मोहल्लों और कॉलोनियों में फल-सब्जी बेचने वाले मुसलमानों के बहिष्कार का अभियान नहीं चलाते, जरूरतमंद गरीबों को सरकार की ओर से बांटी जाने वाली राहत सामग्री, भोजन के पैकेट और गमछों पर प्रधानमंत्री की तस्वीर और भाजपा का चुनाव चिह्न नहीं छपा होता, भाजपा का आईटी सेल अस्पतालों में भर्ती तबलीगी जमात के लोगों को बदनाम करने के लिए डॉक्टरों पर थूकने वाले फर्जी वीडियो और खबरें सोशल मीडिया में वायरल नहीं करता और खुद प्रधानमंत्री लॉकडाउन के दौरान लोगों से एकजुटता दिखाने के नाम पर थाली, घंटा, शंख आदि बजाने और दीया-मोमबत्ती जलाने जैसी धार्मिक प्रतीकों वाली अपील जारी नहीं करते। मगर यह सब हुआ है और अभी भी हो रहा है, बगैर यह सोचे कि इसका खाड़ी के देशों में रह रहे करोड़ों भारतीयों के जीवन पर क्या प्रतिकूल असर हो सकता है।

कुछ दिनों पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कोरोना की महामारी को किसी धर्म, संप्रदाय या नस्ल से जोडे के अभियान को बंद करने की अपील की थी। यूरोपीय देशों के मीडिया में भी भारत की इन घटनाओं की खूब रिपोर्टिंग हो रही है और हाल में खाडी के देशों में भी सख्त प्रतिक्रिया शुरू हो गई है। पिछले सप्ताह ही कुवैत सरकार की एक मंत्री की ओर से एक के बाद एक चार ट्वीट करते हुए भारत में कोरोना महामारी फैलने के लिए मुस्लिम समुदाय को जिम्मेदार ठहराने और मुसलमानों को प्रताड़ित किए जाने की घटनाओं पर चेतावनी देने के अंदाज में चिंता जताई गई थी।

इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) ने भी भारत में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए जारी अभियान और उन्हें प्रताडित किए जाने की कडी निंदा की है, जिस पर संयुक्त अरब अमीरात में भारतीय राजदूत पवन कपूर को ट्वीट करके सफाई देनी पडी है। इतने पर भी बात नहीं बनी तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस. जयशंकर को मोर्चा संभालना पड़ा।

मोदी ने खाड़ी के देशों और बाकी इस्लामिक देशों के नेताओं से भी बात की। इसके बाद जयशंकर ने फिलिस्तीन के विदेश मंत्री रियाद अल मलिकी, संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्री शेख अब्दुल्लाह बिन जायद से बात की। उन्होंने कतर और ओमान के विदेश मंत्रियों से भी संपर्क साधा। इसी सिलसिले में अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी से भी बयान दिलवाया गया कि भारत मुसलमानों के लिए स्वर्ग है और उनके अधिकार इस देश में पूरी तरह सुरक्षित हैं।

अब मोहन भागवत के बयान को भी डेमेज कंट्रोल की इसी मुहिम से जोड़कर देखा जा रहा है। उन्होंने अपने बयान में कहा कि कोई डर कर या गुस्से में आकर कुछ उलटा-सीधा कर देता है तो पूरे समुदाय को उसमें लपेटकर उससे दूरी बना लेना ठीक नहीं है। उन्होंने कहा, ''कोरोना से लड़ाई में सब अपने हैं। हम मनुष्यों में भेद नहीं करते।’’ इसी क्रम में उन्होंने अपने चिर-परिचित जुमले को भी दोहराया है कि सभी 130 करोड़ देशवासी भारत माता की संतान हैं। यह वह जुमला है जो भागवत अपने भाषणों में अक्सर दोहराते हैं, लेकिन उनके संगठन में आस्था रखने वाले लोग इसके ठीक उलट आचरण करते हैं। ऐसा नहीं हैं कि भागवत अपने इस कथन की निरर्थकता और उसके उडने वाले मखौल से अनजान हो, लेकिन फिर भी वे इसे बार-बार सोची-समझी रणनीति के तहत दोहराते हैं और उसी रणनीति के तहत उनके उनके संगठन के मुरीद लोग उसका मखौल उड़ाते हैं।

देश में कोरोना महामारी फैलने के लिए संघ सुप्रीमो ने नाम लिए बगैर तबलीगी जमात को तो खास तौर पर जिम्मेदार ठहरा दिया, जिसका कार्यक्रम मार्च के दूसरे सप्ताह में हुआ था। लेकिन वे इस सिलसिले में फरवरी के महीने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारी-भरकम लवाजमे के साथ हुई भारत यात्रा को भूल गए। उस यात्रा के दौरान ट्रंप का मुख्य कार्यक्रम उस अहमदाबाद में था, जहां लाखों लोगों को उनके सम्मान में जुटाया गया था। वह अहमदाबाद आज कोरोना के मामले में चीन का वुहान शहर बनने जा रहा है। ट्रंप अपनी यात्रा के दौरान आगरा भी गए थे और आगरा के हालात भी अहमदाबाद जैसे हो रहे हैं। वे अपनी यात्रा के अंतिम चरण में दिल्ली भी आए थे और दिल्ली में भी कोरोना संक्रमितों की तादाद लगातार बढती जा रही है।

सवाल है कि क्या भागवत ने अपने उत्सवधर्मी प्रधान स्वयंसेवक को ट्रंप दौरा रद्द करने की सलाह दी थी या इस संबंध में उनसे कभी पूछा कि जब जनवरी महीने में ही कोरोना भारत और अमेरिका में दस्तक दे चुका था तो ऐसे में ट्रंप को भारत बुलाने का क्या औचित्य था? हकीकत तो यह भी है कि ट्रंप की यात्रा के बाद जब हालात तेजी से बिगड़ने लगे तब भी प्रधानमंत्री ने देश में लॉकडाउन लागू करने का फैसला नहीं किया। क्योंकि वे मध्य प्रदेश को कांग्रेस मुक्त करने के अभियान के संपन्न होने का इंतजार करते रहे थे और उनके संघ तथा भाजपा के सहयोगी संगठन के लोग गोबर और गोमूत्र से कोरोना की रोकथाम करने का सुझाव दे रहे थे। याद नहीं आता कि उस दौरान देश में कोरोना महामारी के बढ़ते कदमों पर भागवत ने कभी चिंता जताई हो।

भागवत ने अपने भाषण में महाराष्ट्र के पालघर में पिछले दिनों दो साधुओं के मॉब लिचिंग का शिकार होने का जिक्र भी किया और इस घटना के लिए महाराष्ट्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया। दो निर्दोष साधुओं का मारा जाना निश्चित ही बेहद दुखद और निंदनीय है, लेकिन इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं है। मॉब लिंचिंग का घृणित और खौफनाक सिलसिला पिछले छह सालों देश भर में तेज़ी से चल रहा है। इन दो साधुओं की तरह कई लोग मारे गए हैं। सवाल है कि अगर भागवत सभी देशवासियों को भारत माता की संतान मानते हैं तो फिर वे उन घटनाओं पर खामोश क्यों रहे? वे सिर्फ उन घटनाओं पर ही खामोश नहीं रहे बल्कि ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों का जब संघ से संस्कारित केंद्रीय मंत्रियों ने माला पहना कर स्वागत किया तब भी वे शर्मनाक चुप्पी साधे रहे।

संघ प्रमुख ने अपने भाषण में कोरोना महामारी से उत्पन्न चुनौतियों को अवसर में बदलने और नया भारत गढ़ने की बात भी कही। इस सिलसिले में उन्होंने विदेशी उत्पादों पर निर्भरता कम करने और क्वालिटी वाले स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने की बात कही। स्वदेशी और स्वावलंबन का यह गांधीवादी विचार बेशक बहुत अच्छा है, लेकिन यह मानने की कोई वजह नहीं कि भागवत अपनी इस बात के प्रति जरा भी गंभीर होंगे। क्योंकि मौजूदा सरकार ने पिछले छह सालों में इस विचार के सरासर विपरीत काम किया है और याद नहीं आता कि संघ प्रमुख ने एक बार भी सरकार से असहमति जताई हो। 1990 के दशक में स्वदेशी जागरण मंच नामक संगठन का जन्म संघ की कोख से ही हुआ था लेकिन पिछले छह सालों के दौरान उस संगठन का भी कभी नाम ही सुनने में नहीं आया।

दरअसल कोरोना की चुनौती से निबटने के मोर्चे पर सरकार की लापरवाही और नाकामी को लेकर आम जनता ही नहीं, बल्कि संघ और भाजपा से हमदर्दी रखने वाले लोग भी बडी संख्या में हलकान और निराश हैं। संघ सुप्रीमो भागवत का भाषण महज ऐसे लोगों को बहलाने का उपक्रम ही था। अपने इस उपक्रम के जरिये भागवत ने सरकार की नाकामियों को भी उपलब्धियों की तरह पेश किया और अपने समर्थक वर्ग को यह दिलासा देने की कोशिश की कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार पूरी गंभीरता से कोरोना की चुनौती का सामना करने में जुटी है। लेकिन यह मानना बेमानी है कि कोरोना महामारी की आड़ में भाजपा की ओर से अपनी सांप्रदायिक वासना की पूर्ति के लिए मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने का जो अभियान चलाया जा रहा है, वह अब भागवत के भाषण के बाद थम जाएगा या विदेशों में भारत की छवि पर लगा दाग मिट जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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