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एक आस्‍था, एक ईश्‍वर का नज़रिया गणतंत्र में भारत के विचार को नुक़सान पहुंचाएगा 

ईश्वर या धर्म को राष्ट्रीयता के साथ जोड़ना, भारतीय गणतंत्र का धर्म के साथ संबंध और विचारों के संदर्भ में उसकी तटस्थता को नकारता है।
Constitution

धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र को, बहुसंख्यकवाद के नेतृत्व वाली राजनीति से विध्वंस अभियान का सामना क्यों करना पड़ रहा है?

26 जनवरी को देश ने गणतंत्र दिवस की 74वीं वर्षगांठ मनाई लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गणतंत्रीय मूल्यों पर केंद्रित हमारे देश की पहचान ने जो आकार लिया था, उस पर किसी और माध्‍यम से नहीं बल्कि सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणाओं के ज़रिए हमला हो रहा है। हाल ही में, उन्होंने "देव" या ईश्वर की तुलना "देश" से की, और हिंदू भगवान "श्री राम" की तुलना "राष्ट्र" से की। यह तब हुआ जब उन्होंने 22 जनवरी को उत्तर प्रदेश के अयोध्या में राम मंदिर में अभिषेक समारोह में भाग लिया था। उन्होंने गणतंत्र दिवस से ठीक चार दिन पहले ऐसा कियाइजो 26 जनवरी को मनाया जाता है। हमारे गणतंत्र के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ एक प्रधानमंत्री ने राम या किसी अन्य भगवान को देश का पर्याय बना दिया हो।

राम मंदिर की प्रतिष्ठा पर कैबिनेट का प्रस्ताव

ईश्वर या धर्म को राष्ट्रीयता के साथ जोड़ना धर्म के साथ राष्ट्र के संबंधों और विचारों के संदर्भ में भारतीय गणतंत्र की तटस्थता को नकारता है। न केवल प्रधानमंत्री बल्कि उनके मंत्रिमंडल ने भी गणतंत्र दिवस से दो दिन पहले 24 जनवरी को एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें उन्हें अयोध्या में अभिषेक समारोह में भाग लेने के लिए बधाई दी गई थी। जिसमें बड़ा ही असाधारण दावा किया गया कि "देश का शरीर 1947 में आज़ाद हुआ था लेकिन इसे आत्मा आज मिली है (22 जनवरी, 2024 को अयोध्या में राम मंदिर में आयोजित प्राण प्रतिष्ठा या अभिषेक समारोह के बाद उक्त बात कही गई)।"

गणतंत्र दिवस समारोह, हमें हमारे संविधान में दर्ज़ मूल्यों के प्रति जागरूक बनाता है और नागरिकों को इस बात की जांच करने में सशक्त बनाता है कि प्रधानमंत्री ने 22 जनवरी को क्या कहा था और क्या कैबिनेट ने जो प्रस्ताव पारित किया था वह संविधान और संवैधानिक नैतिकता के अनुरूप है या नहीं।

महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाष बोस और बीआर अंबेडकर यह देखकर हैरान रह जाते कि प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल जिस राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं वे खुद संविधान सभा के विधायी इरादे का इतना खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं जिसने स्पष्ट रूप से हमारे शासन और गणतंत्र को आकार देने के दैवीय अधिकार को खारिज कर दिया था।

गणतंत्र के बारे में गांधी का दृष्टिकोण

1895 की शुरुआत में ही, महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के बारे में गणतंत्र के सिद्धांतों को परिभाषित कर दिया था। 19 मार्च 1921 को उन्होंने साहसपूर्वक कहा था कि गणतंत्र की स्थापना करना भारतीयों का जन्मसिद्ध अधिकार है। ऐसा उन्होने आज़ादी के मतवालों के खिलाफ ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किए ज़ुल्म के बावजूद कहा था, जिन्होंने भारत को औपनिवेशिक निज़ाम से आज़ाद करने के बाद सरकार का एक गणतंत्र स्वरूप स्थापित करने का साहसपूर्वक दृष्टिकोण सामने रखा था।

गांधी के बयान में, कोई अभी भी लोकमान्य तिलक के उस स्पष्ट आह्वान की गूंज सुन सकता है जिसमें कहा गया था कि, "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।" उक्त जन्मसिद्ध अधिकार ने 26 जनवरी 1950 को ठोस आकार लिया था और ऊपर दिए गए मोदी के बयान और कैबिनेट के प्रस्ताव भारत के धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की स्थापना के संबंध में जो हासिल किया गया था उसके बिल्कुल विपरीत है। वे सब लोग जो 22 जनवरी को संविधान की प्रस्तावना पढ़ रहे थे जबकि प्रधानमंत्री ने राम की तुलना राष्ट्र से कर रहे थे, उनके विपरीत प्रस्तावना पढ़ने वाले नागरिक उन भारतीयों के अधिकारों की रक्षा कर रहे थे जो अपने गणतंत्र का जश्न मनाते हैं, जो बहुसंस्कृतिवाद में निहित है और जो सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करने की बात करता है। गांधी ने इस भावना को सबसे अच्छे ढंग से व्यक्त किया था जब उन्होंने 1927 में कहा था कि भारत के बारे में उनका दृष्टिकोण न तो पूरी तरह से हिंदू, न ही पूरी तरह से इस्लामी या ईसाई है बल्कि सभी धर्मों के सह-अस्तित्व के साथ पूरी तरह से सहिष्णु है।

नेहरू का दृष्टिकोण

भारत के पहले प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के प्रस्ताव को आगे बढ़ाते हुए, सत्ता के दैवीय अधिकार को खारिज कर दिया था और आम लोगों को भारत पर शासन करने के लिए पूरी ताक़त सत्ता और अधिकार का स्रोत घोषित किया था। दुख की बात है कि हमारे गणतंत्र के ऐसे मूलभूत आदर्शों को उन शक्तियों द्वारा नकारा जा रहा है जो आज हम भव्य गणतंत्र दिवस समारोहों के बावजूद देखते हैं।

अंबेडकर का दृष्टिकोण

अंबेडकर ने उद्देश्य-प्रस्ताव पर अपने भाषण में कहा था कि भारत के विचार के मूल में "गणतंत्र" और "स्वराज", या स्वतंत्रता शब्दों पर विवाद पैदा हुआ था। उस संदर्भ में, उन्होंने देखा कि गणतंत्र के बारे में बात करते समय, युद्ध के तरीकों से हिंदू-मुस्लिम मुद्दों के समाधान के बारे में बात करना खतरनाक होगा। उन्होंने आगाह किया कि उस मुद्दे को सुलझाने के लिए इस्तेमाल की गई भाषा मुसलमानों के खिलाफ युद्ध शुरू करने के समान है और चेतावनी दी कि ऐसा युद्ध कभी खत्म नहीं होगा और इसमें कोई भी विजेता नहीं बनेगा।

इसलिए उन्होंने उस समय के शासकों से आग्रह किया कि वे विधानसभा में हासिल बहुमत की ताकत पर गर्व न करें और राजनेता कौशल और बुद्धिमत्ता का इस्तेमाल करके काम करें। उन्होंने नेताओं से लोगों को डराने वाले नारों और शब्दों से दूर रहने और समाज के हर दल और वर्ग को साथ लेने का भी अनुरोध किया था।

उन्होंने कहा था कि, "बहुमत पाने वाले दल के लिए एक साथ चलना और उन लोगों के पूर्वाग्रहों को स्वीकार करना जो साथ चलने को तैयार नहीं हैं भी सबसे बड़ा काम होगा"।

आज भारत में, जब कुछ हिंदुत्ववादी संगठन बहुसंख्यक लोगों की आस्था के अनुरूप न होकर अन्य धर्मों को मानने वाले लोगों के इबादत स्थलों के ठीक सामने बहुत आक्रामक तरीके से 'जय श्री राम' का नारा लगाते हैं तो उन नारों से बचने के लिए अंबेडकर के ये शब्द कि भयभीत लोग अधिक तीव्रता से प्रतिक्रिया करते हैं याद आते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी सहित भाजपा नेताओं का दावा है कि कांग्रेस पार्टी के मुक़ाबले उन्होंने अंबेडकर के सम्मान के लिए अधिक प्रयास किए जबकि कम से कम गणतंत्र को बनाए रखने के लिए भाजपा को अंबेडकर के उन शब्दों पर ध्यान देना चाहिए।

नेताजी सुभाष बोस का दृष्टिकोण

उपरोक्त संदर्भ, 1947 में देश की आज़ादी और 22 जनवरी को होने वाली "उसकी आत्मा की प्राण प्रतिष्ठा" पर कैबिनेट प्रस्ताव के संबंध में है। क्या इसका मतलब यह है कि भारत का शरीर 1947 में मृत हो गया था? और जिन लोगों ने संविधान बनाकर और 26 जनवरी, 1950 को इसे लागू करके भारतीय गणराज्य की स्थापना की थी, उन्होंने इसे आत्मा से वंचित रखा? हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का मानना था कि सदियों के विदेशी शासन के बावजूद, भारत की आत्मा ज़िंदा और जीवंत बनी रही थी जो स्वतंत्रता सेनानियों की पीढ़ियों को आज़ादी और प्रगति की ओर मार्गदर्शन करती रही।

उक्त विचार का सबसे बेहतरीन प्रतिनिधित्व नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बयान में मिलता है, जिन्होंने 16 फरवरी, 1926 को कहा था कि "ब्रिटेन की ताकत को उन मूल्यों का संज्ञान लेना होगा जो भारत के लोगों को प्रिय हैं।" उन्होंने यह भी कहा था कि, "भारतीय इतिहास के पन्ने उन शहीदों के अमर उदाहरणों से भरे पड़े हैं जिन्होंने कष्ट सहे और शहीद हुए ...ताकि भारत ज़िंदा रह सके।"

उन्होंने फिर आगे कहा कि, "दुख और तकलीफ़ों के बावजूद, भारत अभी भी ज़िंदा है... क्योंकि उसकी आत्मा अमर है।"

इसलिए मंत्रीमंडल प्रस्ताव में यह दावा किया गया है कि भारत की आत्मा की प्राण-प्रतिष्ठा 22 जनवरी को की गई थी क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने अयोध्या में राम मंदिर में अभिषेक समारोह में भाग लिया था जो कि नेताजी सुभाष बोस उस दृष्टिकोण का उलंघन है जिसे उन्होने संवारा था और जिन्होंने माना था कि भारत की आत्मा अमर है।

गांधीजी के लिए गणतंत्र का अर्थ सह-अस्तित्व था

12 जून, 1947 को दिल्ली में एक प्रार्थना सभा में, महात्मा गांधी ने हमारे देश को एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य का नाम देने की नेहरू की पहल का उल्लेख किया और गणतंत्र का अर्थ समझाया। उन्होंने कहा कि गणतंत्र में, "सभी एक साथ रहेंगे"। उन्होंने ऐसा तब किया जब भारतीयों को देश के विभाजन के कारण गहरी पीड़ा का सामना करना पड़ रहा था जिसमें हजारों वर्षों से एक साथ रहने वाले सभी धार्मिक मतों के लाखों लोग विस्थापित हो गए और धर्म के नाम पर मारे गए थे।

इसलिए, जब देश आक्रामक धार्मिक उन्माद और मस्जिदों और चर्चों में तोड़फोड़ की घटनाओं के दौर से गुजर रहा हो तो गांधी की "गणतंत्र" के अर्थ की "सभी एक साथ रहेंगे" की व्याख्या स्थायी महत्व की है। अयोध्या में राम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह के बाद मस्जिदों और चर्चों पर भगवा झंडे फहराए जाने की खबरें मीडिया में आई हैं। ऐसी घटनाएं हमारे गणतंत्र को परिभाषित करने वाले आदर्शों का खंडन करती या उन्हे शर्मशार करती हैं जिन आदर्शों की हमें भारत की संवैधानिक दृष्टि को बनाए रखते हुए रक्षा करनी चाहिए और उन्हे बरकरार रखना चाहिए।

लेखक, भारत के राष्ट्रपति केआर नारायणन के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी रह चुके हैं, व्यक्त विचार निजी हैं।

मूल अंग्रेजी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

One Faith, One God to Consume Republic’s Idea of India

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