इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज द्वारा बहुसंख्यकों का अल्पसंख्यकों पर शासन के समर्थन में की गई बात भ्रामक है
न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव की टिप्पणियों ने विवाद पैदा कर दिया है - इसलिए नहीं कि वे असाधारण हैं, बल्कि इसलिए कि वे अत्यंत सामान्य हैं।
8 दिसंबर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के विधिक प्रकोष्ठ में दिया गया उनका भाषण केवल एक व्यक्ति का विश्वदृष्टिकोण नहीं है, बल्कि यह न्यायपालिका की सड़ती हुई मिलीभगत की झलक है, जिसमें वह बहुसंख्यकवादी प्रभुत्व को बढ़ावा देते हुए न्याय की देवी (वह कौन हैं?) की प्रतिमाओं का पुनर्निर्माण कर रही है।
विवाद सिर्फ़ उनके शब्दों में नहीं है, बल्कि न्यायपालिका के साथ उनके तालमेल में भी है, जो राष्ट्रीय सिद्धांत के रूप में बहुसंख्यकवाद को सामान्य बनाने पर आमादा है। उनका भाषण बहुसंख्यकवादी कल्पना और उसके कानूनी ढांचे, दोनों का प्रदर्शन था।
न्यायमूर्ति शेखर यादव द्वारा समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को महिलाओं के अधिकारों के लिए एक प्रगतिशील ढांचे के रूप में और “हिंदुओं” के राष्ट्र के लिए एक एकीकृत कानून के रूप में समर्थन करना, चाहे उनका धर्म फिर कुछ भी हो, और उनका कहना कि जब तक वे “अपनी मातृभूमि से प्रेम करते हैं”, राष्ट्रीय एकता को एक विलक्षण सांस्कृतिक पहचान के समानार्थी के रूप में प्रस्तुत करता है, जो प्रभावी रूप से संविधान में निहित बहुलवाद और विविधता को मिटा देता है।
बहुसंख्यकवादी ढांचे के तहत समान नागरिक संहिता सांस्कृतिक समरूपता का एक साधन है, जो देश भर में महिलाओं और वंचित समुदायों के जीवन को आकार देने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों की उपेक्षा करता है।
उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में 180 साल पुरानी नूरी मस्जिद का एक हिस्सा अतिक्रमण विरोधी अभियान के दौरान ढहा दिया गया। बताया जा रहा है कि मस्जिद उस सड़क से भी पुरानी है जिस पर यह अतिक्रमण’ हुआ है। मस्जिद समिति ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय से राहत मांगी थी, जिस पर 13 दिसंबर को सुनवाई होनी है।
जब न्याय बोलता है
इस बीच, उसी न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने खुले तौर पर "राम लला की जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए पूर्वजों के संघर्ष" को सराहा।
यादव ने कहा कि बाहरी लोग "हिंदू" शब्द को गलत समझते हैं। उनके अनुसार, हिंदू धर्म केवल अनुष्ठान, प्रार्थना या धार्मिक चिह्नों का मामला नहीं है। बल्कि यह एक व्यापक पहचान है जिसमें इस भूमि पर रहने वाले सभी लोग शामिल हैं, जो इसे अपनी मातृभूमि कहते हैं और इसके लिए बलिदान देने को तैयार हैं।
उन्होंने कहा कि, ''इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कुरान या बाइबिल को मानते हैं - वे भी हिंदू हैं।'' हालांकि यह सतह पर बहुलवादी लगता है, लेकिन यह समावेश के नाम पर आत्मसात करने की कोशिश है – जो हिंदुत्व की एक जानी-पहचानी चाल है।
लेकिन यादव हिंदू की परिभाषा पर ही नहीं रुके। उनका सबसे बड़ा बयान था: “हिंदुस्तान बहुमत के आधार पर चलेगा।” यही सार है - यह जुबान फिसलने की बात नहीं है, बल्कि बहुसंख्यक शासन की खुली घोषणा है।
इस तरह के प्रभुत्व का खुलेआम दावा करने की हिम्मत सिर्फ़ उनकी ही नहीं है, यह उस व्यवस्था से उपजी है जो इस तरह की बयानबाजी को बढ़ावा देती है और उसे पुरस्कृत करती है। इसीलिए उन्होंने अपना भाषण खुलेआम दिया और इसे इंटरनेट पर प्रसारित होने दिया ताकि हर कोई इसे देख सके और सुन सके। ठीक उसी तरह जैसे पूर्व मुख्य न्याधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ गणेश पूजा की थी, जिसे कि जानबूझकर ध्यान आकर्षित करने के लिए किया गया था।
विवाद केवल उनके शब्दों में नहीं है, बल्कि न्यायपालिका के साथ उनके पूर्ण तालमेल में है, जो बहुसंख्यकवाद को राष्ट्रीय सिद्धांत के रूप में सामान्य बनाने पर आमादा है।
अपने भाषण में, न्यायमूर्ति यादव ने अपमानजनक शब्द “कठमुल्ला” (कटा हुआ मुल्ला, मुसलमानों के खिलाफ़ एक गाली जो उनके खतने का संकेत देती है) का इस्तेमाल किया, जबकि उन्होंने जोर देकर कहा कि पशु वध के कारण पले-बढ़े मुस्लिम बच्चों में दया या सहिष्णुता नहीं होती है। ये टिप्पणियाँ न केवल अपनी अशिष्टता के लिए बल्कि उनके कट्टर सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के मामले में भी परेशान करने वाली हैं, जो उनके न्यायिक आचरण में निष्पक्षता पर सवाल उठाती हैं।
यह पक्षपात उनके विवादास्पद न्यायिक आदेशों में स्पष्ट भी झलकता है, जिसमें उत्तर प्रदेश राज्य बनाम जावेद केस भी शामिल है, जिसमें न्यायमूर्ति यादव ने गोहत्या के आरोपी मुस्लिम व्यक्ति को जमानत देने से इनकार कर दिया था। इस आदेश में न्यायमूर्ति यादव का तर्क कानूनी विश्लेषण से परे था। उन्होंने कहा कि गायों को भारत का राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाना चाहिए।
हिंदी में लिखे उनके आदेश में वैज्ञानिक रूप से निराधार दावे शामिल थे, जैसे कि “वैज्ञानिकों का मानना है कि गाय ही एकमात्र ऐसा जानवर है जो ऑक्सीजन लेता और छोड़ता है”। उन्होंने पंचगव्य (गाय के गोबर, मूत्र, दूध दही और घी से बना मिश्रण) के गुणों की प्रशंसा करते हुए दावा किया था कि इससे असाध्य रोग ठीक हो सकते हैं और गाय के मांस को खाने को अपराध घोषित करने के लिए कानून बनाने की मांग की।
उनका कथन कि "जब गाय का कल्याण होगा, तभी देश का कल्याण होगा" स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि कैसे उनकी व्यक्तिगत मान्यताएं न्यायिक निर्णयों का आधार बनती हैं।
जावेद अंसारी बनाम यूपी राज्य (2021) में, न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणियों ने मुस्लिम विरोधी भावनाओं को उजागर किया, जिसमें धर्म परिवर्तन, विशेष रूप से इस्लाम में, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताया गया था।
‘लव जिहाद’ का हवाला देकर उन्होंने मुस्लिम पुरुषों को शैतान बताया और धर्मांतरण तथा अंतरधार्मिक संबंधों को धार्मिक वर्चस्व के रूप में पेश किया। उनके बयानों ने न केवल मुसलमानों को निशाना बनाया, बल्कि धार्मिक धर्मांतरण तथा अंतरधार्मिक प्रेम संबंधों को भी प्रतिबंधित किया, जिससे हानिकारक रूढ़िवादिता को बल मिला तथा असहिष्णुता को बढ़ावा मिला।
बहुसंख्यकवादी ढांचे के तहत समान नागरिक संहिता सांस्कृतिक समरूपता का एक साधन है, जो देश भर में महिलाओं और वंचित समुदायों के जीवन को आकार देने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों की उपेक्षा करता है।
यह दृष्टिकोण न केवल धार्मिक आज़ादी के लिए संवैधानिक सुरक्षा की अनदेखी करता है बल्कि व्यक्तिगत कामों को सामूहिक सांप्रदायिक पहचान के साथ जोड़ता है। यह कथन स्पष्ट रूप से धार्मिक धर्मांतरण, विशेष रूप से इस्लाम में धर्मांतरण को राष्ट्र को कमजोर करने के साथ जोड़ता है, जो 'हम बनाम वे' की विभाजनकारी कहानी को सामने लाता है।
आकाश जाटव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने (एक बार फिर) कई विवादास्पद टिप्पणियां कीं, जिससे संवैधानिक सिद्धांतों के अनुप्रयोग पर सवाल उठे। यह मामला सूर्य प्रकाश जाटव की जमानत याचिका से जुड़ा था, जिस पर फेसबुक पर भगवान राम और भगवान कृष्ण के खिलाफ अश्लील टिप्पणी करने का आरोप था, जिसे अदालत ने बहुसंख्यकों की आस्था का अपमान और सामाजिक सद्भाव के लिए हानिकारक माना था।
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भगवान राम और कृष्ण “भारतीयों के दिल में बसते हैं” और किसी को भी अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर दूसरों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने की इज़ाजत नहीं दी जानी चाहिए। उन्होंने ईद के दौरान गोहत्या पर प्रतिबंध जैसे उदाहरणों का हवाला देते हुए कहा कि यह अन्य धर्मों की आस्था की रक्षा करता है, ऐसे प्रतिबंधों को सामाजिक सद्भाव के लिए आवश्यक माना जाता है।
यह कथन आज़ाद अभिव्यक्ति के व्यापक संवैधानिक सिद्धांतों के साथ टकराव करता है, जो व्यक्तियों को धार्मिक विश्वासों की आलोचना करने या उन पर सवाल उठाने की इज़ाजत देता है। भगवान राम और कृष्ण जैसे व्यक्तियों का ‘सम्मान’ करने वाले कानूनों की उनकी मांग और सोशल मीडिया टिप्पणियों की तुलना आपराधिक अपराधों से करने के मामले में तार्किक आधार का अभाव है, जो उनकी खुद की कट्टरता को उजागर करता है।
विश्वासियों के बीच
यह तर्क देना सुविधाजनक होगा कि इस तरह की बयानबाजी कानूनी रूप से अनुचित है, जो धर्म और कानून के बीच की रेखाओं को धुंधला कर देती है। फिर भी, भारतीय कानूनी ढांचे ने लंबे समय से ऐसे उदाहरण स्थापित किए हैं जो इस विलय को सामान्य बनाते हैं, जो बहुसंख्यक विचारधारा के साथ एक व्यवस्थित जुड़ाव को दर्शाता है। बहुसंख्यक ज्यादतियों पर अंकुश लगाने के बजाय, न्यायपालिका बहिष्कार प्रथाओं को सामान्य बनाने में भागीदार बन गई है।
अयोध्या मामले के फैसले से लेकर, जहां बाबरी मस्जिद के विध्वंस की अवैधता को स्वीकार करने के बावजूद विवादित भूमि बहुसंख्यकों को दे दी गई, तथा पुलिस थानों के भीतर मंदिर बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति तक, न्याय प्रणाली अक्सर बहुसंख्यकों के सांस्कृतिक प्रभुत्व को प्रतिबिंबित करती है।
ये घटनाक्रम न्यायपालिका की एक ऐसी छवि को दर्शाते हैं जो बहुसंख्यकवाद का विरोध करने के बजाय उसे मजबूत करती है। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के आसपास के समारोह इसी जुड़ाव का उदाहरण हैं।
क्षेत्रीय और जिला बार एसोसिएशनों ने, कई उच्च न्यायालयों के साथ, इस अवसर पर छुट्टियाँ मनाईं या न्यायिक गतिविधियों को रोका। उदाहरण के लिए, गुजरात उच्च न्यायालय बार ने उत्सव में राम धुन का जाप किया।
हिंदी में लिखे उनके आदेश में वैज्ञानिक रूप से निराधार दावे शामिल थे, जैसे: “वैज्ञानिकों का मानना है कि गाय ही एकमात्र ऐसा जानवर है जो ऑक्सीजन लेती और छोड़ती है।”
ये तमाशे न्यायपालिका की उस सांस्कृतिक नेरेटिव को समर्थन देने का संकेत देते हैं जो बहुसंख्यक भावनाओं को प्राथमिकता देता है। इसी तरह, पुलिस थानों के भीतर मंदिरों का निर्माण गंभीर सवाल उठाता है: जब राज्य सत्ता बहुसंख्यकों के धार्मिक प्रतीकों के साथ स्पष्ट रूप से जुड़ी हुई है, तो कानून किसके लिए सुलभ है?
ये प्रवृत्तियाँ सोवियत कानूनी विद्वान एव्जेनी पाशुकानिस के उस कथन का उदाहरण हैं, जो कानून के प्रति मार्क्सवादी दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं, विशेष रूप से अपने जनरल थ्योरी ऑफ लॉ एंड मार्क्सिज्म (1924) में उन्होंने सामाजिक संबंधों को कानूनी रूपों में बदलने के रूप में वर्णित किया था, जो प्रमुख वर्ग की सेवा करते हैं, उनकी विचारधारा को प्राकृतिक और न्यायसंगत के रूप में वैधता प्रदान करते हैं।
शासक वर्ग के एक हथियार के रूप में कानून की पशुकनीस की आलोचना यहाँ शिक्षाप्रद है। द जनरल थ्योरी ऑफ़ लॉ एंड मार्क्सिज्म में, उन्होंने तर्क दिया कि कानूनी मानदंड प्रमुख वर्ग के भौतिक और वैचारिक हितों को दर्शाते हैं।
न्यायमूर्ति यादव की कोरी बयानबाजी और इसकी संस्थागत स्वीकृति इस बात का उदाहरण है कि कैसे कानून का इस्तेमाल बहुसंख्यक वर्चस्व को कायम रखने के लिए किया जाता है। जैसा कि पशुकानिस ने बताया था कि, कानून विरोधी सामाजिक संबंधों को औपचारिक संरचनाओं में बदल देता है जो उनकी वर्गीय सामग्री को छिपा देते हैं। गुम्पलोविच का हवाला देते हुए पशुकानिस ने इस आलोचना में एक और परत जोड़ते हुए तर्क दिया था कि कानूनी मानदंड संघर्ष से उत्पन्न होते हैं, एकता से नहीं।
इस संदर्भ में, न्यायमूर्ति यादव द्वारा समान नागरिक संहिता को एक एकीकृत शक्ति के रूप में प्रस्तुत करना विडंबनापूर्ण है - यह असमानता को समाप्त करने की आड़ में एकरूपता थोपने का प्रयास करता है, तथा इससे पैदा होने वाले अंतर्निहित विरोधों को नजरअंदाज करता है।
यह तथ्य कि इस देश को मस्जिद को ध्वस्त करके मंदिर बनाने के तमाशे पर फिर से परिभाषित किया जा रहा है, अपने आप में इतना दयनीय है कि यह समझा जा सकता है कि जस्टिस शेखर यादव और उनकी अभद्र भाषा केवल एक सड़ी हुई समझ का लक्षण है। यह तमाशा केवल प्रतीकात्मक नहीं है, यह व्यवस्थित है और यह एक ऐसे देश की वास्तविकता को उजागर करता है जहाँ ऐसे कृत्यों को सांस्कृतिक पुनरुद्धार के मील के पत्थर के रूप में मानता है।
जब राज्य का प्राधिकार स्पष्ट रूप से बहुसंख्यकों के धार्मिक प्रतीकों के साथ जुड़ा हुआ है, तो कानून किसके साथ खड़ा नज़र आता है?
हालांकि उनका आरोप लगाने वाला और असभ्य लहजा भयावह लग सकता है (और सही भी है), लेकिन बहुसंख्यकवादी कट्टरता की उनकी ‘विनम्र’ घोषणाएं, विशेष रूप से मुसलमानों के प्रति निर्देशित घृणा, इस देश की वर्तमान स्थिति का प्रतिबिंब हैं।
जब कोई व्यवस्था इतनी गहराई से नफरत करने वाले को बड़ी ताकत का इस्तेमाल करने की इजाजत देती है, तो किसी एक व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करके इस बीमारी को ठीक नहीं किया जा सकता है। न्यायाधीश के तौर पर जस्टिस यादव के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की मांग करना आसान है, लेकिन न्यायपालिका, अदालतों, वकीलों और विधायकों का क्या, जो इन लोकतंत्र विरोधी ‘तत्वों’ को जन्म देते हैं?
कानून को लागू करने या बनाए रखने का दावा करने वाले न्यायिक तर्क की एक प्रयोगसिद्ध सीमा होती है। यह न्याय के मामले में अदालत का कोई भी तात्कालिक सहारा लेने को धुंधला कर देता है। जबकि जस्टिस यादव नागरिकता के नाम पर अपनी कट्टरता की वास्तविकता पर जोर देते हैं, आबादी के एक हिस्से को बलि का बकरा बनाने और उत्पीड़न करने की व्यवस्था शोर में गायब हो जाती है।
नागरिकता का सवाल - जिसके कारण कुछ समय पहले ही लोग सड़कों पर उतर आए थे - अभी भी मुह बाए खड़ा हुआ है, लेकिन केवल उन लोगों के लिए जिन्हें बार-बार अपना अस्तित्व साबित करने के लिए मजबूर किया गया है। हिंदू उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यादव जैसे व्यक्ति के लिए कानून के बहुमत के आदेश को समाज का स्वाभाविक क्रम मानना आसान है। यह स्पष्ट है कि क्यों: क्योंकि उनकी नागरिक होने उनसे पूछताछ करना जरूरी नहीं है।
फिर, घर वापसी, लव जिहाद जैसी भाषा है। शब्दों का चयन ही एक 'अन्य' का निर्माण करता है, खाने की आदतों से लेकर दिखने के तरीके, किससे प्यार करते हैं से लेकर कहां इबादत करते हैं तक के बीच विभाजन करता है। यह अंतर्निहित अन्यीकरण है, जो न केवल अलग करता है बल्कि अमानवीय बनाता है। और यह भाषा आकस्मिक नहीं है- बल्कि जानबूझकर अपनाई गई है। यह एक पदानुक्रम को सीमांकित करती है, नियंत्रित करती है और लागू करती है जिसमें केवल बहुमत ही वैधता का दावा कर सकता है।
जस्टिस यादव का भाषण सिर्फ़ एक व्यक्ति का प्रतिबिंब नहीं है- यह न्यायपालिका की असलियत है। यह लोकतंत्र के कामकाज का दिखावा करने का तमाशा है जबकि इसके नीचे का पूरे का पूरा ढांचा सड़ रहा है। उनका भाषण लोकतंत्र की उस अक्षमता या अनिच्छा का लक्षण है जो बहुलतावाद को कायम रखने में असमर्थ है।
न्यायमूर्ति यादव जैसे हिंदू उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिए, कानून के बहुमत के आदेश को समाज का स्वाभाविक क्रम बताना सहज है।
जिस दिन न्यायमूर्ति यादव भारत में वंचित अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैला रहे थे, उसी दिन युद्धग्रस्त सीरिया में एक वरिष्ठ विद्रोही कमांडर अनस सलखादी दमिश्क के विद्रोहियों के हाथों में जाने के कुछ घंटों बाद राज्य टीवी पर प्रकट हुए और उन्होंने घोषणा की, "सीरिया के सभी संप्रदायों के लिए हमारा संदेश यह है कि हम उन्हें बताएं कि सीरिया सभी के लिए है।"
जब पूर्व में इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) और अलकायदा (और 'कठमुल्ला'!) से जुड़े लोग दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में संवैधानिक न्यायालय के कार्यरत न्यायाधीश की तुलना में अधिक सहिष्णु और कानून के शासन के प्रति सजग दिखाई देते हैं, तो क्या इससे अधिक स्पष्ट संकेत हो सकता है कि भारत में अल्पसंख्यकों को एक अंधकारमय भविष्य का सामना करना पड़ेगा?
सौजन्य: द लीफ़लेट
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