पीयूडीआर की ताज़ा रिपोर्ट : पुलिस फिर कठघरे में
पीपल यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) साल 1989 से पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों पर रिपोर्ट प्रकाशित कर कर रही है। इस रिपोर्ट में यह संस्था पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों की जांच और उनका ब्योरा प्रकाशित करती आ रही है। इस रिपोर्ट की जांच से यह जानकारी मिलती है कि हिरासत में रखे गए अभियुक्तों को मारने का कोई इरादा तो नहीं होता लेकिन उनके साथ लगातार होने वाले पुलिस टार्चर यानी पुलिस उत्पीड़न से वह दम तोड़ देते हैं।
पिछले कुछ सालों में पीयूडीआर ने इस रिपोर्ट को प्रकाशित करना बंद कर दिया था। यह रिपोर्टें बड़े पैमाने पर लोक मानस का हिस्सा बनती जा रही थी। मीडिया में भी इन रिपोर्टों पर गंभीर चर्चा हो रही थी। मानव अधिकार आयोग ने इन रिपोटों का संज्ञान लेना शुरू कर दिया था। इससे ऐसा लगा था कि इंसाफ भी होते चलेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अभी हाल में 22 मार्च को पीयूडीआर ने साल 2016 से लेकर 2018 तक दिल्ली में पुलिस हिरासत में मौत पर रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट का नाम ‘Continuing Impunity: Deaths in Police Custody in Delhi, 2016-2018’ है। और इस रिपोर्ट का निष्कर्ष भी पुराना ही है। यानी पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों के कारण में पुरानी तरह की परेशानियां और सवाल ही हैं। इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है।
इस बार की रिपोर्ट में पीयूडीआर ने पुलिस हिरासत में होने वाली साल 2017 की 7 और साल 2018 की 3 मौत की घटनाओं की छानबीन की है। इन मौतों की घटनाओं का सारा ब्योरा पीयूडीआर ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से आरटीआई के जरिये और मीडिया में जारी रिपोर्टों से हासिल किया। पुलिस की तरफ़ से इनमें से ज्यादातर मौतों का कारण या तो आत्महत्या या अभियुक्तों की भागने की कोशिश बताई गयी। जबकि अभियुक्तों से जुड़ी रिपोर्टों की छानबीन करने से इन कारणों पर संदेह पैदा होता है। जैसे कि अभियुक्त दलबीर सिंह के मामले में मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की छानबीन कहती है कि पुलिस की दलबीर सिंह की भागने की कोशिश करने वाली कहानी मनगढंत है, झूठी है। साथ में यह भी आदेश देती है कि इस मामले पर पुलिस के खिलाफ एफआईआर दायर की जानी चाहिए। लेकिन यह भी अपवाद की तरह है। ऐसे मामलों में यह मुश्किल से होता है कि मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट पुलिस के खिलाफ एक्शन लेने का फैसला ले। यह भी मुश्किल से होता है कि हिरासत में होने वाली मौतों के खिलाफ कोई ऐसा गवाह आये जिसका सम्बन्ध पुलिस से न हो। साथ में ऐसी मौतों की पुलिस से अलग स्वतंत्र छानबीन करने की कोई व्यवस्था भी नहीं है।
दंड प्रक्रिया संहिंता की धारा 176 के तहत केवल मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की संस्था ही ऐसे मामलें में छानबीन करती है। इनकी छानबीन की रिपोर्टों को पढ़ने के बाद यह निष्कर्ष कम ही निकलता है कि इनके द्वारा मामले की स्वतंत्र छानबीन की गयी है। साथ में इनके द्वारा मामलों की छानबीन होने की कोई तय समय सीमा नहीं होती है। इसलिए पीड़ित के परिवार वालों को एक समय सीमा के भीतर इंसाफ मिलने की गुंजाइश भी कम ही होती है।
इन मौतों की निगरानी पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग खुद अपने दिशानिर्देशों को लागू करने और मुआवजा दिलवाने में भी असफल रहा है।
तथ्य यह है कि पीयूडीआर की जानकारी के अनुसार इनमें किसी भी मामले में कोई मुआवजा नहीं है, और इन मामलों में 10 पीड़ितों में से 8 ऐसे परिवारों से आए हैं, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित वर्गों से ताल्लुक रखते हैं। उनके लिए लंबे समय तक टिकना मुश्किल हो जाता है। इंसाफ का इंतज़ार करना मुश्किल हो जाता है। जैसा कि एक अभियुक्त सोमपाल के मामले में पुलिस द्वारा परिवार को दी गयी धमकी और दबाव ने न्याय की संभावना को खत्म कर दिया। साथ में उन्हें मुआवजा भी नहीं मिला,जिसकी वजह से उनकी परेशानी और बढ़ गयी। इन सभी कारणों से पुलिस की हिरासत में मौतें होती रहती है। इस पर पीयूडीआर की मांग है कि
(1) सीआरपीसी की धारा 176 के तहत हिरासत में हुई मौतों की इन सभी घटनाओं की मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी चाहिए।
(2) इन मामलों में फंसे सभी पुलिस कर्मियों को स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच के बाद गिरफ्तार किया जाना चाहिए और उन पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए।
(3) राज्य को हिरासत में मारे गए सभी लोगों के परिवारों को मुआवजा देना चाहिए। हिरासत में मौत के सभी मामलों में राज्य द्वारा मुआवजा देने का प्रावधान जल्द से जल्द बनाना चाहिए।
इन सारी बातों के बाद इस मुद्दे की गंभीरता समझने के लिए दलबीर सिंह की हिरासत में हुई मौत की घटना को समझने की कोशिश करते हैं। 54 साल के दलबीर सिंह को जाली दवाई की पर्ची पर आर्मी कैंटीन से छूट पर दवाई खरीदने के मामले में 20फरवरी 2018 को गिरफ्तार किया गया था। 21 फरवरी, 2018 में दलबीर की पुलिस हिरासत में मौत हो गयी। पुलिस की तरफ से यह कहा गया कि दलबीर भागने की कोशिश रहा था और इस कोशिश में दलबीर की मौत हो गयी। पुलिस के मुताबिक मौत के वक्त की घटनाएं ऐसी हैं कि दलबीर को भूख लगी थी और उसे खाने के लिए नारायणा पुलिस थाने के सेकंड फ्लोर पर ले जाया गया। यहां पर दलबीर ने कांस्टेबल को धक्का दिया और भागने की कोशिश की। जिसमें उसकी जान चली गयी। इस पर पीयूडीआर की टीम ने जो सवाल बनाएं हैं वह यह हैं कि कोई भी चश्मदीद गवाह नहीं है जिसने ये सब अपनी आंखों से देखा हो कि दलबीर भागने की कोशिश कर रहा था, जबकि थाने के दूसरे और तीसरे तल पर कई कमरे हैं और वहां पर कई पदाधिकार मौजूद रहे होंगे। ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई भागने की कोशिश कर रहा था और किसी को पता ही नहीं चला। उस समय की सीसीटीवी फुटेज कहाँ हैं? दलबीर सिंह का मामला इतना गंभीर नहीं है कि कोई छूट पर दवाई खरीदने की सज़ा के डर से भागने की कोशिश करे। परिवार वालों को दलबीर सिंह का शव क्यों नहीं सौंपा गया? ऐसा क्या हुआ कि शव की स्वतंत्र तौर पर फोटोग्राफी नहीं की गयी।
इस दुखद मामलें की अच्छी बात यह है कि मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने भागने की पूरी कहानी को झूठा माना है और पुलिस वालों पर एफआईआर करने का आदेश दिया है। इस एक मामले से उन कई मामलों की सच्चाई का अनुमान लगया जा सकता है जिनमें किसी अभियुक्त की पुलिस हिरासत में मौत हो जाती है।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।