Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

महामारी का बचाव पैकेज: बाइडन और मोदी का तुलनात्मक अध्ययन

बाइडेन का बचाव पैकेज अमरीका के जीडीपी के करीब 10 फीसद के बराबर बैठेगा। दूसरी ओर कुछ महीनों के लिए सभी परिवारों को 7,000 रु महीना की मदद देने की मांग पर मोदी सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी।
 बाइडन और मोदी

राष्ट्रपति पद संभालने से भी पहले ही, अमरीका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 19 खरब डालर के बचाव पैकेज का एलान कर दिया था। इसमें से 10 खरब डालर तो सीधे-सीधे मेहनतकश जनता के लिए हस्तांतरणों में ही लगाया जाएगा। चूंकि  2020 में अमरीका का जीडीपी 208 खरब डालर रहने का अनुमान है, बाइडेन का बचाव पैकेज अमरीका के जीडीपी के करीब 10 फीसद के बराबर बैठेगा। यह महामारी के संदर्भ में इससे कुछ ही अर्सा पहले पिछले राष्ट्रापति, ट्रम्प द्वारा घोषित, 10 फीसद के ही पैकेज के ऊपर से है। वास्तव में बाइडेन के पैकेज का मकसद ही, उस प्रत्यक्ष सहायता को आगे और कुछ समय तक जारी रखना है, जो इस समय अमरीका में मेहनतकश जनता को दी जा रही है। यह इसके बावजूद है कि अमरीकी अर्थव्यवस्था महामारी के चलते सिकुडक़र जितनी घट गयी थी, उससे उसने ऊपर उठना शुरू कर दिया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार अमरीका में बेरोजगारी की दर, दिसंबर में घटकर 6.7 फीसद पर आ गयी, जबकि अप्रैल में यही दर करीब 15 फीसद थी। (इस सबके आधार पर अमरीका में कंजर्वेटिव जरूर इसकी दलील देंगे कि इस तरह की सहायता की तो अब जरूरत ही नहीं रह गयी है।)

वैसे तो बाइडेन पैकेज का एलान कोविड-19 से बहाली के पैकेज के रूप में ही किया गया है, लेकिन साफ तौर पर यह उससे कुछ ज्यादा है। यह पैकेज, सामाजिक खर्चों में एक बड़ी छलांग को दिखाता है, जिसका दायरा महामारी के फौरी संदर्भ से कहीं आगे तक जाता है। इसके अलावा यह पैकेज, पिछले महीने अमरीकी कांग्रेस ने करदाताओं के लिए, 600 डालर की जिस नकदी राहत के पक्ष में वोट किया था, उसमें 1,400 डालर में और जोड़ देता है और इसे बढ़ाकर 2,000 डालर कर देता है। इसके पीछे इसकी कल्पना भी है कि 1 करोड़ 80 लाख अमरीकियों के लिए, जो इस समय बेरोजगारी लाभ पा रहे हैं, इस लाभ में सितंबर के आखिर तक के लिए बढ़ोतरी की जाए और उसे 300 डालर प्रति सप्ताह से बढ़ाकर 400 डालर प्रति सप्ताह किया जाए। इसके अलावा, न्यूनतम मजदूरी बढ़ाकर, 15 डालर प्रति घंटा की जा रही है। बेदखलियों पर जो देशव्यापी रोक लगायी गयी थी और जनवरी के आखिर में खत्म हो जाने वाली थी, उसे भी अब सितंबर के अंत तक के लिए बढ़ा दिया गया है। इस सब के अलावा भी इस पैकेज में बहुत सारे खर्चे हैं, जिनका संबंध टीके के वितरण, छोटे कारोबारों की मदद, शिक्षा संस्थाओं की मदद, आदि से है।

इन खर्चों से भी ज्यादा ध्यान खींचने वाला है, इस पैकेज के लिए वित्त जुटाने के लिए बाइडेन द्वारा प्रस्तावित तरीका। बुनियादी तौर पर यह तरीका है, आम लोगों पर कर लगाने के बजाए, अमीरों पर कर लगाना। अन्य कदमों में, आय के साथ-साथ पूंजी लाभों पर कर लगाने की बात है और आयकर की सबसे ऊंची दर बढ़ाकर, 40 फीसद करने की बात है। संक्षेप में यह कि बाइडेन की रणनीति, मेहनतकश जनता के लिए और ज्यादा हस्तांतरण करने के लिए, अमीरों पर कर लगाने की है। यही चीज है जिसकी वामपंथ लंबे अर्से से वकालत करता आ रहा था। वास्तव में, ज्यादातर टिप्पणीकारों ने बाइडेन के पैकेज को, उनके वामपंथ की ओर झुकने के ही संकेत के रूप में देखा है। और यह झुकाव कोई अचानक नहीं आ गया है। जैसा कि अनेक प्रमुख अमरीकी अखबारों तथा पत्रिकाओं ने दर्ज किया था, यह झुकाव राष्ट्रपति पद के लिए उनके पूरे चुनाव अभियान के दौरान ही देखने को मिल रहा था। बाइडेन ने तो सिर्फ इतना किया है कि वह अपने चुनावी वादों के प्रति वफादार बने रहे हैं, न कि चुने जाने के बाद अवसरवादी तरीके से अपने वादों को भुला दिया है।

बहरहाल, राष्ट्रपति पद के ही उम्मीदवार, बर्नी सेंडर्स के विपरीत, जिन्हें हराकर ही बाइडेन ने डैमोक्रेटिक पार्टी की ओर से उम्मीदवारी जीती थी, बाइडेन वामपंथी नहीं हैं। वास्तव में, बाइडेन ने कभी अपने वामपंथी होने का दावा भी नहीं किया। बराक ओबामा के साथ उपराष्ट्रपति रहे बाइडेन का विचारधारात्मक रंग वही था, जो ओबामा का था और वे रंग वामपंथी किसी भी तरह से नहीं थे। तो बाइडेन के इस नये रुख की हम कैसे व्याख्या कर सकते हैं? जाहिर है कि यह सिर्फ चुनाव जीतने के लिए अवसरवादी दिखावे का मामला नहीं था, वरना चुनाव जीतने के बाद वह चुपचाप खिसक कर मध्यममार्गी रुख पर चले गए होते।

बाइडेन का बदला हुआ रुख वास्तव में उन हालात को दिखाता है, जिन हालात के बीच में आज वह वास्तव में हैं। और ये हालात हैं, पूंजीवादी संकट के हालात। इस संकट को अनदेखा करना, ऐसा दिखाने की कोशिश करना जैसे संकट हो ही नहीं, पूरी तरह से निरर्थक साबित होगा। इस संकट को अनदेखा करने का रुख, अमरीका के ही इससे पहले वाले चुनाव में हिलेरी क्लिंटन ने अपनाया था। उनका यह रुख इतना निरर्थक साबित हुआ कि वह चुनाव में हार ही गयीं और ट्रम्प राष्ट्रपति पद पर पहुंच गए। ट्रम्प के चुनाव में जीतने की वजह यह नहीं थी कि अमरीकी मतदाता अचानक सब के सब दक्षिणपंथी हो गए थे। उसके जीतने की वजह यह थी कि अर्थव्यवस्था संकट की गिरफ्त में थी, जिससे मेहनतकश जनता को भारी बदहाली झेलनी पड़ रही थी। लेकिन उदारपंथी पूंजीवादी प्रतिष्ठान, इस बदहाली को दूर करना तो दूर, उसे पहचान तक नहीं रहा था। इसके विपरीत, बाइडेन इस सचाई को पहचान रहे हैं कि यह संकट वास्तविक तथा गंभीर है और यह संकट महामारी से पहले से चल रहा है, जिसे महामारी ने बेशक बहुत बढ़ा दिया है।

साफ है कि इसके संबंध में कुछ करना ही पड़ेगा। और यह तो ज्यादातर लोगों के लिए स्वत:स्पष्ट ही है कि पूंजीपतियों की तथाकथित ‘पशु भावनाओं’ को और बढ़ाने के लिए कार्पोरेटपरस्त नीतियों पर ही और आगे चलते जाने से, काम नहीं बनने वाला है। चूंकि यह संकट सकल मांग की तंगी से पैदा हुआ है, इससे उबरने के लिए जरूरी है कि अर्थव्यवस्था में मांग को लाया जाए और जाहिर है कि ऐसा करने का स्वत:स्पष्टï तरीका, खासतौर पर महामारी की पृष्ठïभूमि में मेहनतकश जनता के पक्ष में हस्तांतरण करना यानी पुनर्वितरण के वामपंथी एजेंडा को अपनाया जाना है। यही सचाई है जिसने बाइडेन को, खुद अपने मध्यपंथी विचारधारात्मक रुझान के बावजूद, वामपंथ की ओर झुकने को मजबूर किया है।

जाहिर है कि बाइडेन का यह पैकेज अमरीका के कार्पोरेट हलकों को पसंद नहीं आएगा। और वित्तीय पूंजी निश्चित रूप से इस पर अपनी नाराजगी जताएगी। बेशक, दुनिया का सबसे आग्रणी पूंजीवादी देश होने के चलते अमरीका को, जिसकी मुद्रा को ‘सोने जैसी अच्छी’ समझा जाता है, वित्तीय पूंजी के सामने एक हद तक स्वतंत्रता हासिल है। अन्य देशों को और यहां तक कि अन्य प्रमुख पूंजीवादी देशों को भी ऐसी स्वतंत्रता हासिल नहीं है। लेकिन, अगर नीतियों की मौजूदा दिशा बनी रहती है, तो अमरीका की यह खास हैसियत भी ज्यादा समय तक उसके काम नहीं आएगी और उस मुकाम पर बाइडेन को एक चुनाव करना होगा कि या तो इसी रास्ते पर चलते रहें तथा इस तरह वामपंथ की ओर अपने झुकाव का और पुख्ता करें या फिर पूंजी के, खासतौर पर वैश्वीकृत वित्त के फरमानों के आगे समर्पण कर दें।

अब बाइडेन की इस रणनीति को, भारत में मोदी सरकार की रणनीति के सामने रखकर देखें। भारत में मोदी, जनता के प्रति घोर निष्ठुरता की नीति पर चलते रहे हैं। और तो और, जनता को राहत देने के ऐसे छोटे-छोटे कदमों तक से बचा गया है, जिनसे संपत्तिशाली वर्गों के विशेषाधिकारों पर कोई गंभीर खरोंच तक नहीं आने वाली थी। महामारी के हालात को तो सभी असामान्य हालात मानते हैं और कम से कम इन हालात की पृष्ठभूमि में तो सरकार मेहनतकश जनता को मदद देने के लिए कदम उठा ही सकती थी, जिनका वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी ने भी विरोध नहीं किया होता, जो सामान्य रूप से ऐसे कदमों का विरोध करती है। लेकिन, मोदी सरकार की निष्ठुरता का यह आलम है कि उसने इस तरह के कदम भी उठाने की भी मंजूरी नहीं दी। और यह सरकार अब भी जनता की कीमत पर कार्पोरेट-वित्तीय अल्पतंत्र के एजेंडा को ही आगे बढ़ाने में लगी हुई है, जबकि यह एजेंडा देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए उतना ही बेअसर है, जितना यह जनता के लिए नुकसानदेह है। तभी तो जनता का सबसे बड़ा हिस्सा, जिसमें किसान आते हैं, इस हाड़ कंपने वाली सर्दी में, दिल्ली के बार्डरों पर आंदोलन कर रहे हैं।

मोदी सरकार ने सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर पूर्ण लॉकडाउन का ही एलान नहीं किया था, ट्रम्प के भी विपरीत उन्होनें बेदखलियों पर रोक तक नहीं लगायी, जिसका नतीजा यह हुआ कि न केवल करोड़ों प्रवासी मजदूरों को एक ही झटके में न सिर्फ रोजगारहीन तथा आयहीन कर दिया गया बल्कि बेघर भी कर दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें फिर से सिर पर छत पाने के लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल-पैदल चलकर अपने गांवों के लिए वापस जाना पड़ा। पुन: ट्रम्प तक ने जो किया था उसके विपरीत, मेहनतकश जनता को कोई उल्लेखनीय राजकोषीय सहायता नहीं दी गयी। राजनीतिक पार्टियों, सिविल सोसाइटी ग्रुपों तथा बुद्घिजीवी वर्ग के सदस्यों के बार-बार इसकी मांग करने के बावजूद कि कुछ महीनों के लिए सभी परिवारों को 7,000 महीना की मदद दी जाए, सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी।

आखिरकार, जब दो किस्तों में ‘बचाव पैकेज’ आया भी, वह बहुत हद तक खिड़कियों की साज-सजग जैसा ही मामला निकला। यह कई ऐसी योजनाओं को मिला कर बनाया गया था जो महामारी के आने से पहले से ही बजट में शामिल थी। इसके अलावा ऋणों का प्रावधान करने आदि के कदम थे। कुल 20 लाख करोड़ रु का जो बचाव पैकेज घोषित किया गया था, उसमें से राजकोषीय सहायता का हिस्सा ही जनता के लिए राहत में गिना जा सकता था और यह हिस्सा 1.9 लाख करोड़ रु से ज्यादा नहीं था, जो कि जीडीपी के एक फीसद के बराबर ही बैठता है। याद रहे कि कुछ अनुमानों के अनुसार, यह हिस्सा 1.65 लाख करोड़ रु ही बैठेगा।

इतना ही नहीं, सचाई यह है कि इतना भी वास्तव में खर्च नहीं किया गया है। 2020 के अप्रैल से नवंबर के बीच, केंद्र सरकार का कुल खर्चा, 2019 की इसी अवधि के मुकाबले में सिर्फ 4.7 फीसद बढ़ा था। लेकिन, इसी अवधि में, एक वर्ष पहले की तुलना में मुद्रास्फीति की दर, 6 फीसद से ज्यादा रही थी। इसका मतलब यह हुआ कि महामारी जब अपने जोर पर थी और जब केंद्र सरकार के खर्चों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी होनी चाहिए थी, वास्तविक मूल्य के लिहाज से, उसके खर्चों में वास्तव में कमी ही की जा रही थी।

लेकिन, मोदी सरकार अपने खर्चों में खुद कमी करने से भी संतुष्ट नहीं हुई। इसके साथ ही केंद्र सरकार ने राज्यों को, जीएसटी क्षतिपूर्ति के रूप में बनने वाली उनकी लेनदारी से भी वंचित कर दिया। इस सब का नतीजा यह हुआ कि भारत शायद दुनिया के उन गिने-चुने देशों में होगा, जहां महामारी के दौरान कुल सरकारी खर्चों में, वास्तविक मूल्य के लिहाज से सच में कमी ही हुई है। इस नीति की अविचारपूर्णता की तुलना, इसकी घोर निष्ठुरता से ही की जा सकती है। इसीलिए, जो बाइडेन, नरेंद्र मोदी के मुकाबले में तो देवदूत जैसे ही नजर आते हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Pandemic Rescue Package: Biden and Modi – a Study in Contrast

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest