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प्याज के किसानों की परेशानियाँ

प्याज की कीमत के कम होने का बड़ा कारण है प्याज का अत्यधिक उत्पादन है। इसकी पुष्टि कृषि मंत्रालय के आंकड़े भी करते हैं। मंत्रालय के अनुसार, 1978-89 में प्याज का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10.4 मीट्रिक टन था। 2017-18 में यह और बढ़ कर 17.9 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर पहुंच गया।
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महाराष्ट्र में एक किसान ने 750 किलो प्याज को महज 1064 रूपये में बेच दिया I यानी 100 किलो प्याज के लिए उसे डेढ़ रूपये से कम रूपये मिले I किसान ने विरोध दर्ज कराने के लिए प्याज से हुई सारी कमाई प्रधानमंत्री को भेज दी I यह खबर प्याज के किसानों की निराशा का परिचय देती है I इस खबर के मद्देनजर हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि आखिरकार प्याज के किसानों किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता हैI

हालिया स्थिति यह है कि पिछले कुछ समय से प्याज उपजाने वाले किसानों को बहुत अधिक परेशानी का सामना करना पड़ रहा है Iप्याज के दाम लगातार गिरते जा रहे हैं I कई बार तो दाम की गिरवाट और लागत में कई गुना फासला हो जाता हैI कई बार किसानों को अपनी परेशानियों के हल के तौर पर ख़ुदकुशी का रास्ता चुनना पड़ता हैI

पर्यावरण मसलों से जुड़ी पत्रिका डाउन टू अर्थ में ‘प्याज के दर्द’ नाम से एक रिपोर्ट छपी है. इस रिपोर्ट के तहत नासिक के उत्पादक धनंजय पाटिल बताते हैं कि एक किलो प्याज उगाने की लागत 10-11 रुपए बैठती है। कई जमीनों पर लागत 15 रुपए प्रति किलो तक पहुंच जाती है। वह बताते हैं कि प्याज उगाने वाला तब तक फायदे की स्थिति में नहीं होगा जब तक प्याज का भाव 1500 रुपए प्रति क्विंटल न हो। धनंजय ने अपने 3 एकड़ के खेत में प्याज लगाया था। मई के पहले सप्ताह में उन्होंने 500 रुपए प्रति क्विंटल के भाव से मंडी में बेच दिया। भाव कम होने पर धनंजय ने समझदारी दिखाते हुए प्याज पूरा का पूरा नहीं बेचा। उपज का महज 150 क्विंटल ही उन्होंने बेचा और बाकी का 450 क्विंटल का भंडारण कर लिया।

धनंजय बताते हैं कि सरकार प्याज भंडारघर बनाने के लिए महज 85,500 रुपए की मदद देती है जबकि लागत कम से कम 2.5 लाख रुपए आती है। जो किसान भंडारघर बनाने की स्थिति में नहीं है उन्हें कम दाम मिलने के बावजूद अपनी उपज बेचनी पड़ती है। संपन्न किसान चार से साढ़े चार महीने ही भंडारघर में प्याज  रख सकते हैं। इसके बाद बाजार भाव पर प्याज  बेचना ही पड़ता है चाहे दाम कम ही क्यों न हों। धनंजय के अनुसार, प्याज के दाम इसलिए इतने कम हो रहे हैं क्योंकि इस पर सरकारी नियंत्रण नहीं है और यह पूरी तरह व्यापारियों के हवाले हूं। 

यूं तो प्याज के चढ़ते भाव अक्सर चर्चा का विषय बनते हैं लेकिन 2016 से प्याज के थोक भाव में लगातार गिरावट जारी है। प्याज उपजाने वाले छोटे तबके के अलावा कहीं इस पर बात ही नहीं हो रही। नुकसान की आशंका के चलते दो साल से प्याज के रकबा में भी गिरावट दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2015-16 में 13,20,000 हेक्टेयर में प्याज को उगाया गया था जो 2016-17 में गिरकर 13,06,000 हेक्टेयर हो गया। अनुमान है कि 2017-18 में यह और घटकर 11,96,000 हेक्टेयर पहुंच जाएगा। 

राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ के किसान नेता भगवान मीणा रकबे में इस गिरावट का जिम्मेदार मंडी में उचित दाम न मिलने को बताते हैं। उनका कहना है कि इंदौर की मंडियों में इस साल मई में प्याज को 25 पैसे प्रति किलो और उससे भी कम भाव पर बेचा गया। पिछले साल जुलाई में सरकार ने 6 रुपए प्रति किलो के हिसाब से प्याज की खरीद की थी। कुछ महीनों बाद प्याज 100 रुपए किलो हो गया। वह बताते हैं कि किसान अपना स्टॉक जल्दी निकालने के चक्कर में प्याज  औने-पौने दाम पर बेच देते हैं जिसे व्यापारी जमा कर लेते हैं और महंगे दामों पर बेचते हैं। 

प्याज के दाम किस हद तक गिरे हैं,  इसका अंदाजा महाराष्ट्र की लासलगांव मंडी में प्याज के न्यूनतम भाव को देखकर लगाया जा सकता है। कृषि उत्पादों के क्रय-विक्रय का रिकॉर्ड रखने वाली सरकारी वेबसाइट एगमार्केट के अनुसार, एशिया की सबसे बड़ी इस मंडी में जनवरी 2018 में प्याज का न्यूनतम भाव 900-1500 रुपए प्रति क्विंटल था। फरवरी में यह भाव गिरकर 700-1200 रुपए प्रति क्विंटल हो गया। मार्च में 281-700 रुपए के न्यूनतम दाम के बीच किसानों ने प्याज को बेचना पड़ा।  प्याज का दाम गिरने का सिलसिला यहीं नहीं थमा। अप्रैल में 271-400 रुपए तक के न्यूनतम भाव पर किसानों को प्याज बेचने पर मजबूर होना पड़ा। मई में 300-400 और 14 जून तक 251-400 रुपए प्रति क्विंटल के बीच न्यूनतम भाव रहा। दूसरे शब्दों में कहें तो जून में प्याज बेचने वाले किसानों प्रति किलो ढाई से चार रुपए ही हासिल हुए। 

भारत में दुनिया के तमाम देशों के मुकाबले सर्वाधिक क्षेत्रफल प्याज उगाया जाता है। प्याज एक ऐसी फसल है जिस पर हम हमेशा निर्भर रहे हैं। इसलिए ऐसा कोई कारण नहीं है कि कहा जा सके कि प्याज फायदे का सौदा नहीं रहा। प्याज की मुख्यत: तीन किस्में हैं- लाल, पीली और हरी। प्याज  रबी और खरीफ दोनों मौसम की फसल है। खरीफ के बाद भी प्याज को उगाया जाने लगा है। खरीफ की प्याज फसल अक्टूबर-नवंबर में तैयार हो जाती है, बाकि रबी की फसल अप्रैल-मई में तैयार होती है। खरीफ के बाद की फसल जनवरी-फरवरी में तैयार होती है। रबी के मौसम में प्याज 60 प्रतिशत उत्पादन होता है जबकि अन्य दो मौसम में 20-20 प्रतिशत की हिस्सेदारी रहती है। 

फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के आंकड़े बताते हैं कि 2016 में भारत में प्याज को 11,99,850 हेक्टेयर क्षेत्र में उगाया गया। क्षेत्रफल के लिहाज से दूसरे नंबर पर चीन है, जहां 10,85,569 हेक्टेयर क्षेत्र में मेरी पैदावार हुई। प्रति हेक्टेयर प्याज की उत्पादकता दूसरे देशों के मुकाबले भारत में काफी कम है। जयपुर स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर मार्केटिंग (एनआईएएम) द्वारा 2012-13 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्याज प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 14.2 मीट्रिक टन थी।चीन में यह उत्पादकता 22 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर, ब्राजील में 23.1, टर्की में 30.3 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है। जहां तक वैश्विक उत्पादन में प्याज की हिस्सेदारी का सवाल है तो इसमें चीन सबसे आगे है। प्याज वैश्विक उत्पादन में चीन की हिस्सेदारी 26.99 प्रतिशत है। 19.90 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ भारत दूसरे पायदान पर है। 

यह भी तथ्य है कि उत्पादन के बाद प्याज का 25 से 30 हिस्सा नष्ट हो जाता है। धूप, भंडारण और बीमारियों के कारण मुख्यत: ऐसा होता है। विदेशों से प्याज को आयात किया जाता है। यहां तक कि दुश्मन समझे जाने वाले पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से भी प्याज की बड़ी खेप मंगा ली जाती है। वहीं दूसरी तरफ सरकार द्वारा निर्यात पर रोक लगा दी जाती है और प्याज के जमाखोरों के खिलाफ छोपेमारी जैसी कार्रवाईयां की जाती हैं, ताकि बाजार में प्याज की आवक बढ़ जाए और दाम नियंत्रण से बाहर न हों। इसके अलावा सरकार के पास कोई अन्य ठोस नीति नहीं है।

किसान नेता लीलाधर सिंह बताते हैं कि प्याज की कीमत के कम होने का बड़ा कारण है प्याज का  अत्यधिक उत्पादन है। इसकी पुष्टि कृषि मंत्रालय के आंकड़े भी करते हैं। मंत्रालय के अनुसार, 1978-89 में प्याज का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10.4 मीट्रिक टन था। 2017-18 में यह और बढ़ कर 17.9 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर पहुंच गया। यह हैरान करने वाली बात होती है कि अधिक उत्पादन के बाद भी किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल रहा है।

दिल्ली के फुटकर बाजार में अब भी प्याज का भाव 35-40 रुपए प्रति किलो है लेकिन किसानों को महज 1 रुपए ही नसीब हुए हैं। लीलाधर कहते हैं कि इसका कारण प्याज का कृत्रिम अभाव है। उपज तैयार होने पर किसान मंडी में प्याज को सस्ते में बेच आते हैं और बिचौलिए प्याज का भंडारण करके कृत्रिम अभाव पैदा कर देते हैं। इससे प्याज का भाव बढ़ जाता है और बिचौलियों को फायदा मिलता है. इस तरह बंपर उत्पादन का जो फायदा उपभोक्ताओं और किसानों को मिलना चाहिए, वह बिचौलियों को मिलता है।

डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार कर्नाटक और महाराष्ट्र के प्रमुख बाजारों का अध्ययन करने के बाद सीसीआई के शोधकर्ताओं ने पाया कि उत्पादन, आवक और प्याज के भाव के बीच कोई संबंध नहीं है। उन्होंने पाया कि कुछ महीनों में प्याज की आवक सर्वाधिक होने के बाद भी प्याज के भाव अधिकतम होते हैं। नीति निर्माताओं के लिए यह सिरदर्दी वाली बात है जिसे सीसीआई पैराडॉक्सीकल कहता है। 

प्याज के उत्पादक छोटी जोत वाले हैं, इसलिए वे प्याज कम जमीन पर उपजते हैं। जलवायु परिवर्तन, अप्रत्याशित मौसम के इस दौर में अक्सर प्याज नुकसान पहुंचता है। यही वजह है कि प्याज  उपजाने वाले अधिक समय तक प्याज का भंडारण नहीं कर सकते और बाजार में ऊंचे दाम का इंतजार नहीं कर सकते। अत: प्याज के उत्पादक इस स्थिति में नहीं हैं कि बाजार के भाव को प्रभावित कर पाएं।

इस तरह से प्याज की कीमतों में आई कमी की  परेशानी से निकला गुस्सा इतना अधिक तो है कि किसान औने पौने दाम पर अपनी उपज बेचकर विरोध दर्ज कराने के लिए अपनी सारी कमाई प्रधानमंत्री को भेज दे I लेकिन प्याज से जुड़ा पूरा कृषि ढांचा इतना जटिल है कि इस जटिलता को खत्म करने के लिए सरकार को तातकालिक समाधान की बजाए दीर्घकालिक समाधान की तरफ देखना होगा I

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