आंदोलन के 200 दिन पूरे; किसानों ने कहा मोदी नहीं, जनता ही जनार्दन है
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसानों के प्रदर्शन ने सोमवार को अपना 200वां दिन पूरा कर लिया। यह भारत की आजादी के बाद के इतिहास में एक नायाब मिसाल है, जब केंद्र सरकार से विवादास्पद तीन कृषि-कानूनों को निरस्त करने एवं कृषि-पैदावारों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की वैधानिक गारंटी सुनिश्चित करने के एकमात्र एजेंडे को लेकर किसान इतने बड़े पैमाने पर और इतने लंबे समय तक के लिए लामबंद हुए हैं।
केंद्र सरकार और संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम)जो किसान संगठनों का एक संयुक्त मंच है, इनके बीच बातचीत 22 जनवरी को कडवाहट में टूट गई। किसान नेता मानते हैं कि जबकि उनके आंदोलन ने लोगों को, खासकर किसानों को जागरूक तो किया है, इसके साथ ही देश के आम नागरिक भी उनकी जायज मांगों से परिचित हो गए हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों में होने वाले चुनावों के मद्देनजर आंदोलन का आगे का रास्ता चुनौतीपूर्ण बना हुआ है।
अखिल भारतीय किसान सभा के नेता पवन दुग्गल ने न्यूजक्लिक से बातचीत में कहा कि किसानों ने इन 200 दिनों में आंदोलन की ताकत का इज़हार किया है। उन्होंने दिखाया कि किसान अपनी मांगों के लिए हाड़ कंप-कंपाती ठंड और चिलचिलाती धूप में भी डिगे नहीं हैं, और अब वे बादलों की गरज और मेघ की बौछारों का भी सामना करने के लिए तैयार हैं क्योंकि यह मुद्दा उनके लिए जीवन-मरण का सवाल है। उन्होंने कहा, “सीमाओं पर प्रदर्शन के 200 दिन गुजारने के बाद, अब एक चीज तो तय हो गई है कि किसान खाली हाथ नहीं लौटेंगे। लोकतंत्र के लिए यह कैसा बुरा दिन है कि लोग-बाग अपनी वाजिब मांगों को लेकर सड़कों पर उतर पड़ते हैं और यहां तक कि इन सड़कों को विवशतावश लड़ाई का मैदान बना देते हैं, तब भी देश की एक चुनी हुई सरकार गूंगी और बहरी बनी रहती है।”
दुग्गल ने किसानों के मौजूदा प्रदर्शन की वृहत् राजनीतिक प्रासंगिकता पर टिप्पणी करते हुए कहा, “अगर इस मसले की मैं बड़ी तस्वीर को देखूं तो, मैं कह सकता हूं कि इस आंदोलन ने मजदूरों और किसानों में अभूतपूर्व एकता कायम की है। हमने इस दरम्यान ‘किसान-मजदूर एकता जिंदाबाद’ के नारे के असली मर्म को महसूस किया है। यह हमीं लोग हैं जिन्होंने देश को बताया था कि धार्मिक घृणा से परे भी कुछ मसले हैं, जिन से सबको मिल कर लड़ने की जरूरत है। यह वह आंदोलन है, जब हरियाणा और पंजाब के लोग पानी-बंटवारे के पुराने विवाद को भुला कर एक मंच पर आए हैं। इस लिहाज से हमने इस आंदोलन के दौरान बहुत कुछ हासिल किया है।”
यह पूछे जाने पर कि किसानों की मांगें मानने के लिए सरकार पर पर्याप्त दबाव क्यों नहीं बनाया जा सका, दुग्गल ने कहा कि यह कहना गलत होगा कि किसान केंद्र सरकार पर अपेक्षित जोर डालने में कामयाब नहीं हुए हैं। उन्होंने कहा, “हमने उन्हें ठेल कर ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है, जहां से वे सच में नहीं जानते कि इसका रास्ता क्या है। वे आईसीयू में हैं। यहां तक कि उनके पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी लोगों के गुस्से का डर सता रहा है और वे अब इसका हल निकालने के लिए लगातार बैठक पर बैठक कर रहे हैं।”
किसान नेता दुग्गल ने जोर देकर कहा कि इस आंदोलन के तहत राजस्थान में व्यापक अभियान छिड़ा हुआ है और वहां के लोग किसान मोर्चा के एक बड़े प्रतिरोध के आह्वान का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। वे आगे कहते हैं, “हम संयुक्त किसान मोर्चा की तरफ से किए जाने वाले बड़े आह्वान का इंतजार कर रहे हैं और उन्हीं के मुताबिक अपना काम करेंगे। उन लोगों के लिए जो इस आंदोलन के दायरे को अब भी शक-शुबह की नजर से देखते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि कोई भी एैरा-गैरा बिना किसी समर्थन-सहयोग के राजधानी की सीमाओं पर अकेले नहीं बैठ सकता। जब भी हमारा कैंप आंधी-तूफानों और भारी बरसात से उजड़ जाता है, हमें पहले से भी अधिक मजबूत टेंट के लिए धन आदि सरंजाम जुटाने में 48 घंटे से भी कम समय लगता है। कोई व्यक्ति इस काम में अपना एक धेला भी क्यों देना चाहेगा, अगर उसे उठाए जाने वाले मुद्दों पर भरोसा नहीं होगा!”
किसानों को मिल रहे प्रचंड जनसमर्थन के बारे में हरियाणा किसान सभा के अनुभवी नेता इंद्रजीत सिंह ने न्यूजक्लिक से कहा कि सात महीने से चले आ रहे लंबे आंदोलन ने लोगों को सरकार के वर्ग-चरित्र को पहचानने में बड़ी मदद की है। उन्होंने कहा, “किसानों का एकमात्र नुकसान प्रदर्शन के दौरान शहीद हुए हमारे भाई एवं बहन हैं, जो सड़क के बजाय आराम से अपने घरों में यह देह छोड़ कर जा सकते थे। पर इसका एक दूसरा और अच्छा पहलू यह है कि हमने इस तथ्य को स्थापित किया कि इस सरकार को चुनौती दी जा सकती है और यह कोई बड़ी बात नहीं है। अगर लोगों में फूट न हो, वे एकजुट रहें तो यह मुमकिन हैं।” इंद्रजीत सिंह ने आगे कहा, “सबसे महत्वपूर्ण बात मैं यह मानता हूं कि किसान-आंदोलन ने समाज के जातिवादी ढांचों पर एक जबर्दस्त तमाचा मारा है। यह इसी आंदोलन में संभव हुआ है कि गैर-कृषक समुदायों ने भी इस बात को समझा है कि कृषि कानून सभी के लिए खतरनाक होंगे। आज हम हिसार के किसानों के साथ मार्च निकाल रहे हैं और उनमें अधिकतर वाल्मीकि एवं नाई समुदायों से ताल्लुक रखते हैं। आपने ऐसी एकता इसके पहले कब देखी थी?”
यह पूछने पर कि इन समुदायों ने आंदोलन के दौरान उनसे क्या कहा, उन्होंने बताया कि इस बात के पर्याप्त उदाहरण हैं जिनके जरिए वे अपनी आर्थिक संकट के असल कारणों को समझ रहे हैं। “खाद्य तेल अब 200 रुपये प्रति किलो बिक रहा है। हमने पाया है कि कम खरीद के दौरान अधिकांश सरसों को निजी कंपनियों को बेची गई। जब यह महंगा तेल बाजार में उतारा गया, तब सरकार ने जन वितरण प्रणाली की दुकानों के माध्यम से वितरित की जाने वाली वस्तुओं की सूची से इसे अचानक हटा लिया। यह एक अत्यावश्यक वस्तु है, जिसके बिना रसोई में कोई काम नहीं हो सकता है। इसलिए अब जा कर उन्हें आंदोलन की अहमियत का अहसास होने लगा है।” सिंह ने आगे कहा कि वे अब इसे दूर-दराज के इलाकों तक फैला कर जनआंदोलन का रूप देने की योजना बना रहे हैं और अब गैर-किसान समुदायों पर भी फोकस किया जाएगा। किसान नेता ने कहा कि “प्रदर्शन स्थलों एवं टोल प्लाजा पर विषम परिस्थितियों में आंदोलनरत रहना, हमारे लिए अहम उपलब्धि है और हम इसे अब व्यापक करेंगे।”
भारतीय किसान यूनियन एकता उग्रहण की महिला शाखा की मुखिया हरिन्दर बिंदू का भी किसानों के 200 दिनों के संघर्ष पूरे होने पर एक अलग आकलन है। न्यूजक्लिक से बातचीत में बिंदू ने कहा,“हालांकि हम सब लंबे समय से महिलाओं को विभिन्न मसलों पर लामबंद करते रहे हैं, पर हमको जरा भी भान नहीं हुआ कि उनकी तादाद हमारी उम्मीदों को पार कर जाएगी। यह पहली बार है जब महिलाओं ने न केवल इसमें भागीदारी निभाई बल्कि यह कहते हुए आंदोलन की अगुवाई की कि लोग मोदी से अधिक महत्वपूर्ण हैं। आप जरा गौर करें कि यह उस प्रदेश में हुआ जहां लोग पानी के वितरण में जानें गंवाते रहे हैं और इस सवाल पर मर-मिटते रहे हैं कि चंडीगढ़ उनके पास रहेगा या नहीं। मैं 1500 गांवों में चलाए गए अपने अभियान के दौरान मिले अनुभवों के आधार पर कह सकती हूं कि आंदोलन जितना लंबा हो रहा है, उतनी ही तादाद में महिलाओं की भागीदारी हो रही है। महिलाएं अब भी रिलायंस शापिंग माल्स और अदानी के सिलो के समक्ष प्रदर्शन पर डटी हुई हैं। और यह केवल मजबूत होता जा रहा है।”
केंद्र सरकार के शत्रुतापूर्ण व्यवहार और प्रतिकूल स्वास्थ्य एवं मौसम की परिस्थितियों के बीच ये किसान नेता इस बात पर एक सहमत हैं कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को चुनाव संभावित राज्यों में “वोट की चोट” सहन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। उत्तराखंड के टेरी क्षेत्र के तेज-तर्रार किसान नेता जगतार सिंह बाजवा ने न्यूजक्लिक से कहा कि राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं पर युवा किसानों की भागीदारी में रणनीतिक कमी की गई है ताकि वे घर जा कर इन कृषि-कानूनों के बारे में अभियान चला सकें औऱ लोगों को भाजपा को वोट न देने के लिए राजी कर सकें। बाजवा ने कहा, “हमने इस मुकाम तक पहुंचने में लंबा रास्ता तय किया है। जहां हमें खालिस्तानी, नक्सली, माओवादी बता कर बदनाम किया गया और यहां तक कि प्रदर्शनकारियों को एक प्रदेश का बता कर आंदोलन को खारिज किया गया था। पर केंद्र सरकार यह समझने में विफल रही कि किसानों का यह आंदोलन स्वत:स्फूर्त है, जिसको संभालना किसी संगठन या व्यक्ति के बूते से बाहर है। हम इस पर भी दृढ़ हैं कि यह आंदोलन शांतिपूर्ण चलता रहे। हम चुनावों के पहले और बाद भी अपने असंतोषों को लोकतांत्रिक माध्यमों से प्रकट करेंगे। हमने 26 जून को राजभवनों के सामने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन का आह्वान किया हुआ है। यह हमारी ताकत का प्रदर्शन होगा।”
भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के नेता धर्मेंद्र मलिक ने न्यूज क्लिक से कहा किे आंदोलन ने एमएसपी की गारंटी को एक देशव्यापी मुद्दा बना दिया है। “इस आंदोलन का अनोखा हिस्सा यह है कि प्रदर्शन के आह्वान पर वे लोग भी इसमें शिरकत करने आते रहे हैं, जिनका इस मसले से सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं है।” चुनाव संभावित उत्तर प्रदेश में आंदोलन के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि किसानों के पास अपने अस्तित्व को बचाने के लिए भाजपा को वोट नहीं देना ही एकमात्र विकल्प रह गया है। मलिक ने कहा, “आप क्या कर सकते हैं, जब लोकतंत्र में एक निरंकुश हुकूमत अपने लोगों की जायज बातों को भी सुनना बंद कर दे। अपने प्रतिनिधियों को बुलाने का हमारे पास अधिकार नहीं है। इसलिए, लोगों को जब भी मौका मिलता है, वे अपने गुस्से का इजहार करते रहते हैं। यह अभी हालिया हुए पंचायत चुनाव में देखने को मिला है, जब भाजपा मुश्किल से 18 फीसद सीटें ही जीत पाई है।”
किसान आंदोलन के सामाजिक प्रभाव के बारे में पूछे जाने पर मलिक ने जोर दिया कि इसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों और जाटों को मुजफ्फरनगर दंगे के बाद संबंधों में आई कड़वाहट को भुलाकर एकसाथ ला दिया है। इसी तरह से, राजस्थान में, जाट और गुर्जर समुदाय एक साथ हो गए हैं।
भारतीय किसान यूनियन (डकोंडा) के जगमोहन सिंह ने कहा कि मोर्चा उत्तरप्रदेश में वही दोहराने का प्रयास कर रहा था, जो अब तक पंजाब और हरियाणा में होता रहा है। जहां भाजपा के नेताओं का पूरी तरह से सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया है। “मैं समझता हूं कि यह हमारे लिए भी कठिन होने जा रहा है, किंतु इसके अलावा, अब हमारे पास कोई चारा भी नहीं रह गया है। इतनी इज्जत और समर्थन मिलने के बाद अब हम बिना जीते हुए अपने गांव नहीं लौट सकते हैं। हमने 26 जून को राजभवनों के समक्ष ‘कृषि बचाओ, लोकतंत्र बचाओ’ दिवस मनाने का आह्वान किया है। अब इसका दारोमदार सरकार की समझदारी पर है कि वह इन विधानसभा चुनावों के पहले कोई सम्मानजनक समझौता चाहती भी है या नहीं।”
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।
https://www.newsclick.in/people-more-important-modi-farmers-200-day-agitation
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