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श्रम मुद्दों पर भारतीय इतिहास और संविधान सभा के परिप्रेक्ष्य

प्रगतिशील तरीके से श्रम मुद्दों को उठाने का भारत का रिकॉर्ड मई दिवस 1 मई,1891 को अंतरराष्ट्रीय श्रम दिवस के रूप में मनाए जाने की शुरूआत से पहले का है।
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भारत में जनता के प्रति सरोकार जताने वाली एक ऐसी सरकार की दरकार है, जिसके ह्रदय में 19वीं शताब्दी के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अर्जित जीवनमूल्य एवं उसके बाद आजाद देश के संविधान के निर्माण के समय का श्रमिकों और भारत के सामान्य लोगों के हक-हकूक और उनकी पात्रता के लिए एक जगह हो। यह आलेख मई दिवस 2022 के अवसर पर हमारे विशेष अंक के आयोजन का एक हिस्सा है।

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प्रगतिशील तरीके से श्रम मुद्दों को उठाने का भारत का रिकॉर्ड मई दिवस 1 मई, 1891 से अंतरराष्ट्रीय श्रम दिवस मनाए जाने की शुरुआत किए जाने से पहले का है। 1891 में मई दिवस समारोह के शुरू होने से सात साल पहले, नारायण एम लोखंडे ने 1884 में भारत में श्रम आंदोलन की शुरुआत करते हुए मिल हैंड्स एसोसिएशन की स्थापना की थी। लोखंडे भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन के पिता के रूप में सम्मानित हैं। कामगारों के बचाव और सुरक्षा के लिए कोई उपाय-विधान न होने की स्थिति में, श्रमिकों को कठोर और अस्वास्थ्यकर वातावरण में काम करने के लिए मजबूर किया जाता था, और उन्हें अनेक अनकहे दुखों और शोषण का सामना करना पड़ता था। श्रमिकों की इस दुर्दशा से विचलित होकर, लोखंडे ने मिल मालिकों के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया था और उन पर उचित मजदूरी देने, कामकाज का एक स्वस्थ वातावरण बनाने और कामगारों के हक-हकूक और आजादी की हिफाजत के लिए उनकी जायज मांगों को मानने के लिए दबाव डाला था।

लोखंडे के आंदोलन का एक नतीजा यह निकला कि कारखाना मजदूर आयोग की स्थापना की गई और उन्हें भी इसका सदस्य बनाया गया। आयोग के सक्रिय होने की वजह से ही 1891 में कारखाना अधिनियम लागू किया गया था। इसने कुछ हद तक काम करने की स्थितियों को विनियमित भी किया, और बाल एवं महिला श्रमिकों को कुछ विशेष अधिकार दिए गए। लोखंडे ने इसके साथ ही, गैर-कामकाजी लोगों पर भी अपना ध्यान केंद्रित किया, जो किसी न किसी रूप में शोषण के शिकार थे। श्रमिकों के अधिकारों के लिए लोखंडे के नेतृत्व में चलाया गया आंदोलन काफी व्यापक था, क्योंकि उसमें महिलाओं के सरोकारों के साथ दलितों, अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों से संबंधित मुद्दों को भी शामिल किया गया था। यह याद रखना चाहिए कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम का एक निर्णायक पहलू हमारे तात्कालीन नेतृत्व द्वारा मजदूरों के अधिकारों का समर्थन करना भी था। इसका सबसे अच्छा उदाहरण महात्मा गांधी द्वारा 1931 में मूल अधिकारों पर तैयार किया गया एक प्रस्ताव है, जिसमें निम्नलिखित प्रावधान थे:

(a) औद्योगिक श्रमिकों के लिए एक जीवित मजदूरी, श्रम के सीमित घंटे, काम की बेहतर परिस्थिति, और वृद्धावस्था, बीमारी और बेरोजगारी के आर्थिक परिणामों के खिलाफ संरक्षण दिया जाए;

(b) श्रम को दासता या भूदासता की सीमा से लगी स्थितियों से मुक्त किया जाए;

(c) महिला श्रमिकों का संरक्षण, और मातृत्व अवधि के दौरान छुट्टी के लिए विशेष रूप से पर्याप्त प्रावधान किया जाए;

(d) स्कूल जाने की अवस्था वाले बच्चों के फैक्ट्री में काम पर रखने पर प्रतिबंध लगाया जाए; और

(e) श्रम संबंधी विवादों के मध्यस्थता के जरिए निपटान को लेकर उपयुक्त तंत्र बनाने के साथ मजदूरों को अपने हितों की रक्षा करने के लिए यूनियन बनाने का अधिकार होना चाहिए।

श्रम के अधिकारों के लिए लोखंडे के नेतृत्व में चलाए गए आंदोलन का दायरा काफी व्यापक था, क्योंकि उसमें महिलाओं के सरोकारों के साथ दलितों, अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों से संबंधित मुद्दों को शामिल किया गया था।

श्रम मुद्दों पर संविधान सभा की बहस

19वीं शताब्दी के बाद से श्रम करने की ऐसी गौरवशाली विरासत के साथ, भारतीय नेतृत्व ने एक प्रगतिशील दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व किया था। जब देश ने अपने संविधान बनाने और राष्ट्र निर्माण के चुनौतीपूर्ण कार्य की शुरुआत की थी, तब श्रम संबंधी प्रगतिशील मूल्यों को आगे बढ़ाने की अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्टता रेखांकित किया था।

अनुच्छेद 43 (संविधान के प्रारूप में इससे संबंधित अनुच्छेद 34 है) राज्य नीति-निर्देशक तत्व ये निर्धारित करते हैं कि राज्य अपने यहां सभी श्रमिकों को काम देगा, उन्हें निर्वाह लायक उचित मजदूरी का भुगतान करेगा, एक सभ्य जीवन स्तर बनाए रखने के लिए काम की स्थिति तय करेगा, और उन्हें अवकाश तथा सामाजिक-सांस्कृतिक अवसरों का पूरा-पूरा लाभ उठाने देगा। जब 23 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में इस अनुच्छेद पर चर्चा की जा रही थी, तब एच.वी. कामथ ने सुझाव दिया था कि "सरकार इस अनुच्छेद का लाभ उठाएगी और इस पर कार्य करेगी और देखेगी कि अनुच्छेद की शर्तों के अनुसार, सभी श्रमिकों, औद्योगिक या अन्य क्षेत्रों में काम करने वालों को काम की गारंटी मिल रहा है, उन्हें निर्वाह हो सकने लायक मजदूरी (जिसमें कोई मजदूर भोजन, वस्त्र एवं अन्य आवश्यक आवश्यकताओं हो जाए) मिल रही है और वे एक सभ्य जीवन स्तर जी रहे हैं।”

वास्तव में, अनुच्छेद के प्रारूप में, "सभी श्रमिक, औद्योगिक हों या अन्य" शब्द का उपयोग किया गया था। एस.नागप्पा ने बाद में एक संशोधन पेश कर सुझाव दिया कि “सभी श्रमिकों, औद्योगिक या अन्य” शब्द के बाद, “कृषि” शब्द जोड़ा जा सकता है। डॉ बी आर अम्बेडकर ने कहा कि “श्री नागप्पा का सुझाव कि कृषि श्रम औद्योगिक श्रम की तरह ही महत्त्वपूर्ण है और इसलिए इसे केवल ‘अन्य' शब्द से संदर्भित नहीं किया जाना चाहिए, तो उनके इस सुझाव में सार है”। इसलिए उन्होंने इस संशोधन को स्वीकार कर लिया और इस तरह औद्योगिक श्रम के साथ कृषि श्रम के लिए समान रूप से व्यवहार किया जाने लगा। श्रम के विचार को समावेशी बनाने के लिए निजी सदस्यों की स्पष्ट और निश्चित संवेदनशीलता, और इस तरह के विचारों को संविधान में अंतिम समावेशन के लिए स्वीकार करना संविधान निर्माताओं के प्रगतिशील दृष्टिकोण को रेखांकित करता है।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 23 मानव तस्करी और बंधुआ मजदूरी पर प्रतिबंध लगाता है। इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल करने के लिए 3 दिसंबर,1948 को चर्चा की गई और बाद में उसे अपनाया गया। इसके लगभग एक साल बाद 1दिसंबर, 1949 को, डॉ.एम.एम.दास ने श्रम मंत्री जगजीवन राम से जबरिया श्रम को रोकने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में संविधान सभा (विधायिका) में एक सवाल पूछा था। मंत्री ने जवाब दिया कि मामले का अध्ययन करने और कानून में व्याप्त खामियों के बारे में बताने और बुराई को खत्म करने के उपायों का सुझाव देने के लिए एक अधिकारी को इस विशेष काम के लिए नियुक्त किया गया है।

बाद में, 16 दिसंबर, 1949 को, संविधान सभा के एक सदस्य आर.के.सिधवा ने एक निजी विधेयक “बेगार या जबरन या अनिवार्य श्रम रोकथाम” पेश किया। विधेयक पेश करते हुए उन्होंने कहा कि संविधान के मसौदे में पहले से ही जबरन श्रम को समाप्त करने के लिए एक प्रावधान किया गया था, पर मुफ्त में या जबरिया श्रम कराने वाले को दिए जाने वाले दंड के विवरण के लिए एक अलग कानून की आवश्यकता होगी। श्रम मंत्री जगजीवन राम ने अपने जवाब में सिद्धवा को आश्वस्त किया कि सरकार इस गलत रिवाज को खत्म कर रही है। उन्होंने सिधवा से अपने विधेयक वापस लेने का अनुरोध किया था। सिधवा ने यह भी कहा कि एक मात्र संवैधानिक प्रावधान बनाने या कानून लाने से जबरन श्रम का अभिशाप समाप्त नहीं होगा। उनका कहना था कि इस बुराई को जड़ से खत्म करने के लिए “पहले तो उन लोगों के बीच एक मजबूत सामाजिक चेतना जगानी होगी, जिनसे जबरिया काम लिया जाता है और उन लोगों के बीच भी जो जबरन या बेगार काम कराते हैं।” आखिरकार सिधवा ने बिल वापस ले लिया।

यहां एक उपयोगी सूचना है कि सिद्धवा ने 16 दिसंबर, 1949 को निजी सदस्य की हैसियत से एक और विधेयक-श्रमिक भविष्य निधि-भी पेश किया था। इसे पेश करते हुए उन्होंने जोरदार तरीके से अनुरोध किया था कि मौजूदा भविष्य निधि अधिनियम का क्षेत्र सीमित है,लिहाजा इसके दायरे को और व्यापक करने की जरूरत है। इसलिए ऐसा कोई भी श्रमिक जिसकी मासिक आय 20 रुपये है, उसे भी भविष्य निधि सुविधा पाने का हकदार बनाया जाए,जिसमें कर्मचारी और नियोक्ता दोनों का योगदान होगा। उन्होंने तर्क दिया कि भविष्य निधि की सुविधाओं को केवल सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसके अंतर्गत सोसाइटियों में, धर्मार्थ संस्थानों में, कारखानों, दुकानों, आवासीय होटलों में, रेस्तरां, मनोरंजन के स्थानों, वाणिज्यिक फर्मों में, गोदी, घाट, ट्रामवे इत्यादि क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिकों को भी शामिल करना चाहिए। उन्होंने पूछा, 'क्या यह उचित है कि ये लोग 30 या 35 साल तक लगातार मेहनत करते रहें और उन्हें रिटायरमेंट के बाद अपनी सेवा का कोई लाभ या फायदा न मिले?” उन्होंने श्रमिकों के लिए पेंशन का मुद्दा भी उठाया ताकि वे अपने सेवानिवृत्त जीवन में सुरक्षित रह सकें।

निजी सदस्यों द्वारा श्रम के विचार को स्पष्ट और स्पष्ट रूप से समावेशी बनाने के लिए प्रदर्शित की गई ऐसी संवेदनशीलता, और संविधान में अंतिम रूप से शामिल करने के लिए ऐसे विचारों की स्वीकृति संविधान निर्माताओं के प्रगतिशील दृष्टिकोण के बारे में बहुत कुछ खुलासा करती है।

मंत्री जगजीवन राम ने विधेयक के मूल प्रावधानों से सहमति जताई और सिधवा से इसे वापस लेने का अनुरोध किया क्योंकि सरकार सभी क्षेत्रों के मजदूरों के लिए भविष्य निधि का प्रावधान करने के लिए व्यापक कानून बनाने की योजना बना रही है। आखिरकार, श्रम मंत्री के रूप में जगजीवन राम भविष्य निधि अधिनियम, 1952 के वह वास्तुकार थे, जिसका फलक अपने आप में बहुत व्यापक था और जो विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत श्रम के बड़े वर्गों को लाभान्वित करता था।

संविधान सभा (विधायी) की बहस के इन दो उदाहरणों से पता चलता है कि निजी सदस्यों द्वारा श्रम मुद्दों से संबंधित विधेयक पेश करके सरकार को इसके प्रति संवेदनशील बनाने की पहलों का ही नतीजा है कि आखिरकार सरकार ने इसके लिए व्यापक कानून बनाए।

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 जैसे कई अन्य कानून संविधान सभा में उन कानूनों से संबंधित विधेयकों को अपनाने के बाद अधिनियमित किए गए थे।

भविष्य निधि अधिनियम जैसे कानून के पीछे की मंशा को कमजोर कर दिया गया है और अब नव-उदारवादी युग में, श्रम बल बाजार तंत्र की दया पर निर्भर है, जो शोषक और अमानवीय हैं। यहां तक कि संगठित क्षेत्र के सभी वर्गों में कामगारों को लगातार नुकसान पहुंचाते हुए उनके पेंशन प्रावधान भी काफी हद तक कम कर दिए गए हैं। असंगठित क्षेत्र में श्रम बल की स्थिति तो और बदतर है।

श्रम-पूंजीपति विवाद के हल के लिए गांधी ट्रस्टीशिप

श्रम किसी भी समाज और देश के उत्थान और प्रगति का मूल है। हम केवल अपने जोखिम पर श्रम की उपेक्षा कर सकते हैं। महात्मा गांधी ने श्रम को प्रधानता दी। दक्षिण अफ्रीका में अपना पहला सत्याग्रह शुरू करने से पहले, उन्होंने भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक याचिका तैयार की थी और ऐसा करने के पहले उन्होंने मजदूरों से परामर्श किया था। जब उनसे पूछा गया कि वे इस बारे में मजदूरों से सलाह-मशविरा कर रहे हैं, तो उन्होंने कहा था कि उन्हें अपने दिमाग का उपयोग करने का उतना ही अधिकार है, जितना किसी और को। गांधी का यह कथन काफी प्रसिद्ध है।

महात्मा गांधी ने यह सुनिश्चित करने के लिए ट्रस्टीशिप के विचार की वकालत की कि जिनके पास धन है या धन के उपार्जन का ज्ञान था, वे उस धन के ट्रस्टी के रूप में कार्य करेंगे, और अपने जीवन के लिए कुछ धन रखने के बाद, शेष धन को समाज के लिए उपयोग करेंगे। उन्होंने घोषणा की कि ट्रस्टीशिप के विचार का उद्देश्य पूंजी और श्रम के बीच विरोधाभास को हल करना है।

अब, श्रम और पूंजी के बीच विरोधाभास तेज हो गया है। फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिक्टी ने अपनी पुस्तक 'Capital in Twenty First Century' में वर्तमान दुनिया में आय असमानताओं के बड़े पैमाने पर स्तर को रेखांकित किया है; ये असमानताएं पूंजी और श्रम के बीच बढ़ते विरोधाभासों का संकेत हैं। ऐसे समय में जब श्रम को कुचल दिया जा रहा है, गांधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप (trusteeship) का विचार महत्वपूर्ण है।

यह दुखद है कि अब भारत के शासक नेताओं ने अपने श्रमिक वर्ग को विफल कर दिया है और अन्य कई प्रगतिशील श्रम कानूनों बनाने के अपने प्रयासों के माध्यम से इसके श्रमिक वर्ग के सदस्यों को समान मनुष्य के रूप में व्यवहार न कर उनके साथ धोखा किया है।

देखभाल करने वाली सरकार

कोविड-19 महामारी के कारण पैदा हुए आर्थिक असंतुलन और अनियोजित राष्ट्रीय लॉकडाउन के कारण मजदूरों को आजीविका के लिए गंभीर दुष्परिणाम झेलने पड़े हैं। इन परिस्थितियों को देखते हुए अब कानूनों के माध्यम से श्रम के बचाव और सुरक्षा की गारंटी प्रदान करके अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार का एक नया ढांचा तैयार किया गया है। हाल ही में, कई राज्यों में अधिकतर श्रम नियमों में हाल ही में ढील दिया जाना जबरिया मजदूरी के रिवाज को फिर से शुरू करने जैसा है, जिसे संविधान द्वारा समाप्त कर दिया गया है और इसके खिलाफ संविधान सभा के सदस्य सिधवा ने विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश किया था।

भारत में जनता के प्रति सरोकार जताने वाली एक ऐसी सरकार की दरकार है,जिसके ह्रदय में 19वीं शताब्दी के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अर्जित जीवनमूल्य एवं फिर उसके बाद आजाद देश के संविधान के निर्माण के समय का श्रमिकों और भारत के सामान्य लोगों के हक-हकूक और उनकी पात्रता के बारे एक साफ नजरिया अब भी बदस्तूर हो।

सौजन्य: दि लीफ्लेट

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

Perspectives From Indian History and Constituent Assembly on Labour Issues

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