Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

धर्म को लेकर किये गये प्यू के सर्वे से पता चलता है कि हम भारतीय पाखंडी हैं

भारतीयों का दावा होता है कि वे सभी धर्मों का सम्मान करते हैं, मगर उनका यह दावा उन धार्मिक समुदायों के प्रति उनके नज़रिये से मेल नहीं खाता, जिनसे वे जुड़े हुए नहीं हैं।
धर्म को लेकर किये गये प्यू के सर्वे से पता चलता है कि हम भारतीय पाखंडी हैं

वाशिंगटन स्थित प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट, ‘रिलिजन इन इंडिया: टॉलरेंस एंड सेग्रीगेशन’(भारत में धर्म: सहिष्णुता और अलगाव) में सहिष्णु शब्द की मौजूदगी एकदम उपयुक्त इसलिए है क्योंकि इसके व्यापक सर्वेक्षण से पता चलता है कि धार्मिक समुदाय एक-दूसरे के क़रीब नहीं रहना चाहते। मगर, इसके बावजूद वे एक दूसरे को अपनी आस्था पर अमल करने देते हैं। यही वजह है कि प्यू सर्वेक्षण के 3, 000 जवाब देने वालों में से 91% लोग भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की उस मौजूदगी की पुष्टि करते हैं, जहां सहिष्णुता इसकी निर्धारित विशेषताओं के बीच इस तरह से मौजूद है, जिस पर विचार किये जाने की ज़रूरत है।

लेकिन, सहिष्णुता एक नकारात्मक शब्द है। इस शब्द को सकारात्मकता का गुण महज़ हमारे इस अहसास के चलते हासिल होता है कि हम कुछ और भी बदतर कर पाने में सक्षम हैं, मसलन, लोगों को उनकी धार्मिक पहचान के चलते परेशान करना या मारना, जैसा कि हम समय-समय पर करते रहते हैं।

प्यू की इस रिपोर्ट से पता चलता है कि भारतीयों की एक बड़ी तादाद (45%) उन लोगों को अपने पड़ोसी के रूप में पसंद नहीं करती है जो उनके धर्म से अलग किसी और धर्म को मानने वाले होते हैं। वे अलग-अलग धर्मों और अलग-अलग जातियों के बीच होने वाली शादियों के भी घोर विरोधी हैं। ग़ैर-मुसलमानों को लगता है कि भगवान में विश्वास करने से भी ज़्यादा अहम गोमांस का सेवन नहीं करना है। इसी तरह, मुसलमान को भी लगता है कि सूअर का मांस नहीं खाना अल्लाह में यक़ीन रखने से कहीं ज़्यादा अहम है। हिंदुओं के एक बड़े प्रतिशत वाली आबादी को लगता है कि अगर कोई व्यक्ति ईद मनाता है, तो वह हिंदू नहीं हो सकता। मुसलमानों को भी लगता है कि अगर वे दिवाली मनाते हैं, तो उनके बिरादरी के ऐसे लोग मुसलमान नहीं हो सकते।

लेकिन, इसके साथ ही 84% लोग मानते हैं कि दूसरे धर्मों के लिए "सम्मान" वास्तव में भारतीय होने के लिए बहुत ज़रूरी है। दूसरे 80% लोगों को लगता है कि सम्मान उनकी अपनी धार्मिक पहचान के लिए अहम है। हालांकि, प्यू की इस रिपोर्ट ने अपने सवालों के जवाब देने वालों से इस सम्मान शब्द को परिभाषित करने के लिए नहीं कहा गया था।

ऐसा लगता है कि जवाब देने वालों के पास सम्मान की एक बहुत ही अजीब-ओ-ग़रीब धारणा है क्योंकि वे अपने ख़ुद के अलावा दूसरे धार्मिक समुदायों की उसी तरह तारीफ़ नहीं करते हैं, जिस तरह उन समुदायों से अलग रहने की उनकी इच्छा में दिखायी पड़ती है, जिनसे वे सम्बन्धित नहीं हैं और जिनके धार्मिक त्योहारों में भाग लेना उन्हें गवारा नहीं हैं । तारीफ़ की शक़्लें इस सम्मान शब्द के सार को तय करती हैं।

यह मुमकिन है कि इसके पीछे की वजह यह हो कि हमें लम्बे समय से तोते की तरह रटाकर हमारे भीतर बैठा दिया गया है कि कि एक सच्चा भारतीय वह है, जो दूसरे धर्मों का "सम्मान" करता है। हालांकि, हक़ीक़त यही है कि सम्मान से धार्मिक समुदायों के बीच के पारस्परिक व्यवहार तय नहीं होते। हम निश्चित तौर पर उस पर अमल नहीं करते, जिसकी हम शिक्षा देते हैं या जिस पर विश्वास करने का दावा करते हैं।

सही मायने में उन लोगों के ले लिए पाखंडी शब्द बिल्कुल सही है, जो उपदेश तो देते हैं, मगर जिन पर ख़ुद ही अमल नहीं करते हैं।

प्यू की इस रिपोर्ट में जो विवरण दिये गये हैं, उन पर बहुत बारीक़ नज़र डालने पर भारतीयों का यह पाखंड साफ़ तौर पर सामने आ जाता है। उदाहरण के लिए 85% हिंदू, 78% मुसलमान, 78% ईसाई, 81% सिख, 84% बौद्ध और 83% जैन मानते हैं कि अन्य धर्मों के लिए सम्मान सही मायने में भारतीय होने का एक अनिवार्य गुण है। इन आंकड़ों से यही पता चलता है कि भारत सांप्रदायिक सद्भाव वाला देश है। लेकिन, जैसा कि सालों से यह लगातार देखा गया है कि हम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के प्रति बेहद संवेदनशील रहे हैं।

हम बेहद संवेदनशील इसलिए हैं, क्योंकि हर एक धार्मिक समुदाय दूसरे समुदायों से अपने अलगाव को लेकर पूरी तरह जागरूक है। ज़रा इन आंकड़ों पर नज़र डालिये - 66 फ़ीसदी हिंदुओं को लगता है कि मुसलमान उनसे बहुत अलग हैं। इसी तरह, 64% मुसलमान को भी लगता है कि हिंदु उनसे बहुत अलग हैं। अलगाव की यह भावना सभी धार्मिक समुदायों में इस तरह से मौजूद है कि अपनी अलग-अलग विश्वास प्रणालियों के चलते एक दूसरे से बहुत अलग होना चाहिए।

लेकिन, चौंकाने वाली बात यह है कि भाईचारा जैसे मानवता के आम अहसास इस अलगाव के विचार के चलते पैदा होने वाली दरार को पाटने में नाकाम रहता है। आख़िर भारत के लोग अपने पड़ोसी के रूप में उन लोगों को क्यों नहीं चाहेते, जो लोग उनके धार्मिक समुदायों से जुड़े हुए नहीं हैं ?

हालांकि, अलग-अलग समुदायों में इसे लेकर जवाब भी अलग-अलग हैं और वे जवाब हैं - 36 प्रतिशत हिंदू अपने पड़ोसी के तौर पर मुसलमानों को नहीं पसंद करते, लेकिन सिर्फ़ 16% मुसलमान पड़ोसी के रूप में हिंदुओं को पसंद नहीं करते; 31% हिंदू नहीं चाहते कि उनके बगल में कोई ईसाई रहे, लेकिन इन इसाइयों में से महज़ 11% ही नहीं चाहते कि हिंदु उनके पड़ोसी नहीं हों; 28% हिंदू अपने पड़ोस में सिखों को नहीं चाहते हैं, लेकिन सिर्फ़ 18% सिख यह चाहते हैं हिंदुओं के साथ उनकी दीवारें नहीं लगी हों।

इस बात को समझना आसान है कि मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदुओं के साथ रहने में कोई आपत्ति क्यों नहीं है। ये दोनों धार्मिक अल्पसंख्यक बड़े पैमाने पर ग़रीब हैं। उनमें से जिन लोगों ने कुछ हद तक संपन्नता हासिल कर ली है, वे पृथक सामुदायिक बस्ती से बाहर निकलना चाहते हैं। उनकी इसी इच्छा का तकाज़ा है कि मुसलमान और ईसाई अपने पूर्वाग्रहों को दरकिनार करते हुए उन क्षेत्रों में रहने के लिए चले जाते हैं, जहां जनसांख्यिकी के लिहाज़ से बड़ी संख्या में हिंदू रहते हैं।

कम से कम 27% हिंदू नहीं चाहते कि जैन तक उनके पड़ोसी हों, यह एक हैरान करने वाली बात इसलिए है, क्योंकि दोनों समुदाय अपने खाने की आदतों और आर्थिक स्थिति, दोनों ही लिहाज़ से तक़रीबन एक जैसे हैं। सिर्फ़ 3% जैन ही नहीं चाहते कि उनके बगल वाला कोई हिंदू हो। ये तुलनात्मक आंकड़े बताते हैं कि हिंदू आवासीय एकरूपता पसंद करते हैं।

हाल के सालों में जिस तरह से दो धर्मों के बीच में शादी को लेकर राजनीतिक विवाद हुए हैं, उसे देखते हुए अपने-अपने धार्मिक समुदायों से बाहर शादी करने वाले पुरुषों और महिलाओं के प्रति लगभग सार्वभौमिक विरोध बिल्कुल भी हैरान नहीं करता है। 67% हिंदू, 80% मुस्लिम, 59% सिख, 46% बौद्ध और 66% जैन अपने समुदाय की महिलाओं के अन्य धर्मों के पुरुषों से शादी करने के विरोध में हैं। कमोबेश इतनी ही संख्या में पुरुषों के अपने समुदायों से बाहर शादी करने का विरोध है।

ईसाइ बहुत कम प्रतिशत (37%) में अंतर्धार्मिक शादियों का विरोध करते हैं।ऐसा क्यों है, इस सवाल का जवाब शायद प्यू के ही निष्कर्षों में छुपा है और वह यह कि जो ईसाई शहर में रहते हैं और जिनके पास उच्च शिक्षा है, वे धार्मिक पालन के लिहाज़ से "कुछ हद तक कम आस्थावान" दिखते हैं।

दूसरी ओर, अंतर्धार्मिक विवाह का मुसलमानों की ओर से होने वाले बड़े विरोध के पीछे की वजह वह इस्लामी फ़रमान है, जिसके मुताबिक़ मुस्लिम पुरुष यहूदी और ईसाई महिलाओं से शादी कर सकते हैं। हालांकि, मुस्लिम महिलाओं को यहूदियों और ईसाइयों को जीवन-साथी के रूप में चुनने से प्रतिबंधित किया गया है। पितृसत्ता का यह जीता जागता उदाहरण है ! मुस्लिम पुरुष और महिलायें उन लोगों से शादी नहीं कर सकते, बाक़ियों के लिए बिना धर्मांतरण से गुज़रे मुमकिन नहीं है। इसके बावजूद, प्यू की इस रिपोर्ट से पता चलता है सभी समुदायों में इस तरह के धर्मांतरण का मामला नगण्य ही है।

भारतीयों का पाखंड अविश्वसनीय स्तर पर उस समय पहुंचता दिखता है, जब उनकी इस समझ का आकलन किया जाता है कि कि असली हिंदू या असली मुस्लिम कौन लोग हैं। इसके जवाब में 72% हिंदुओं का कहना है कि अगर कोई व्यक्ति गोमांस खाता है, तो वह हिंदू नहीं हो सकता; उनमें से 63 फ़ीसदी का कहना है कि जो हिंदू ईद मनाते हैं, वे हिंदू नहीं हो सकते। इसके उलट, सिर्फ़ 49% लोग ही कहते हैं कि जो व्यक्ति भगवान को नहीं मानता, वह हिंदू नहीं हो सकता।

इसी तरह, 58% मुसलमानों का कहना है कि जो लोग दिवाली मनाते हैं, वे मुसलमान नहीं हो सकते, और उनमें से 77% कहते हैं कि सूअर का मांस खाने वाला मुसलमान नहीं हो सकता। हालांकि, 60% मुसलमानों का कहना है कि नास्तिक व्यक्ति मुसलमान नहीं हो सकता।

ईश्वर सभी धर्मों की धुरी है, हालांकि ज़रूरी नहीं कि यह धूरी अध्यात्मवाद वाली हो। लेकिन, हिंदुओं और मुसलमानों का एक बड़ी संख्या ऐसा सोचती है कि गोमांस और सूअर का मांस खाना और त्योहार मनाना भगवान में विश्वास रखने के मुक़ाबले उनके धार्मिक होने की कहीं ज़्यादा बड़ी निशानी हैं। इससे तो यही पता चलता है कि हमारे समय की सियासत ने धर्म को एक विचारधारा में तब्दील कर दिया है, और समुदायों की आस्था प्रणाली में ईश्वर की केंद्रीयता शायद रोज़मर्रे की राजनीति के विवादास्पद मुद्दों में बदल दिये गये चलन के अधीन हो जायेगी।

प्यू की यह रिपोर्ट दो अन्य मामलों में भारतीय मानस को आंकने में मदद करती है। सिर्फ़ 20% भारतीय कहते हैं कि भारत में जाति-आधारित भेदभाव है, हालांकि 27% दलितों सोचते हैं कि जाति-आधारित भेदभाव है। उत्तर भारत (22%) और मध्य भारत (13%) की तुलना में दक्षिण भारत के ज़्यादा लोगों (30%) का सोचना है कि जाति के आधार पर भेदभाव मौजूद है।

एक ऐसा देश, जहां लोग तनी हुई मूंछें रखने या मोटरसाइकिल या घोड़ी की सवारी करने पर मार दिये जाते हों, वहां जाति-आधारित भेदभाव के कम उदाहरण को लेकर प्यू का यह निष्कर्ष हैरत में डालता है। यहां इस तथ्य पर ध्यान देना ज़रूरी है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो में लगातार इस बात को दर्ज किया जा रहा है कि सालों से दलितों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा में बढ़ोत्तरी हो रही है।

जातिगत विचारधारा का आधिपत्य ही प्यू के इन निष्कर्षों की व्याख्या कर सकता है कि लोग सोचते हैं कि उनके साथ भेदभाव सामान्य या उचित है। उत्तर या मध्य भारत के मुक़ाबले दक्षिण भारत के ज़्यादा लोगों ने इस बात की पुष्टि की है कि भेदभाव मौजूद है। इसकी बड़ी वजह यह है कि भारत में कहीं और के मुक़ाबले दक्षिण भारत में जातिगत ग़ैर-बराबरी का विरोध कहीं ज़्यादा सख़्ती से किया जाता है, इस तरह ज़्यादा से ज़्यादा लोग भेदभाव को लेकर जागरूक हो रहे हैं।

प्यू की इस रिपोर्ट का सबसे विवादास्पद पहलू इसका यह निष्कर्ष है कि 64% हिंदू सोचते हैं कि भारतीय होने के लिए हिंदू होना वास्तव में अहम है। दूसरी बात कि 59 फ़ीसदी लोगों का मानना है कि हिंदी बोलना ही सच्चे भारतीय होने को परिभाषित करता है। ये दो प्रकार के हिंदू दक्षिण भारत (42% और 27%) के मुक़ाबले मध्य भारत (83% और 87%) और उत्तर भारत (69% और 71%) में बड़े पैमाने पर मौजूद हैं। भाजपा को वोट देने वाले तक़रीबन 30% हिंदुओं (2019 के चुनावों में सभी हिंदुओं में से 49%) को लगता है कि हिंदू होना और हिंदी बोलना, दोनों ही सही मायने में भारतीय होने के लिए बहुत अहम हैं।

यह निष्कर्ष धार्मिक समुदायों, ख़ास तौर पर हिंदुओं की एक साथ रहने की अनिच्छा; जो धार्मिक त्योहार उनके नहीं हैं, उन्हें मनाये जाने का उनका विरोध, अंतर्धार्मिक और अंतर्जातीय शादियों को लेकर उनका बैर, और खाने की आदतों के प्रति उनके तिरस्कार के साथ बहुत अच्छी तरह से गुंथा हुआ है। फिर हम कैसे समझें कि बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव असली भारतीय और असली धार्मिक होने का सार है? इसकी वजह हमारा पाखंड है, जिसके ज़द में हमारे सभी समुदाय हैं।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Pew Survey on Religion Shows Indians are Hypocrites

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest