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फ़ेस्टिवल डायरी - गांधी ने आसिफ़ा से क्या कहा होता

2020 के भारत रंग महोत्सव में मॉब लिचिंग, लिंग, जाति पर आधारित नाटकों के साथ-साथ कुछ नुक्कड़ नाटक भी हो रहे हैं।
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नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में चल रहे ''भारत रंग महोत्सव'' में दूसरा हफ़्ता काफ़ी रोचक रहा। इस दौरान नुक्कड़ नाटक की प्रतियोगताएं भी हुईं। हालांकि छात्रों की लोगों से अपील के बावजूद महज़ 30 लोग ही यहां पहुंचे थे। लेकिन इससे भी छात्रों का उत्साह कम नहीं हुआ। उन्होंने पूरे जोश से वित्तीय साक्षरता और उच्च शिक्षा जैसे विषयों पर नाटकों की प्रस्तुति की। NSD में हर शाम को होने वाले नाटकों का जिस तरह से प्रचार-प्रसार होता है, इसी तरहNSD को नुक्कड़ नाटकों का विज्ञापन करना चाहिए।

डेढ़ घंटे लंबा एक विदेशी भाषा का नाटक देखने का भी अपना अनुभव रहा। महोत्सव में होने वाले अन्य विदेशी नाटकों से उलट, मात्रेना कोरनिलोवा के नाटक ''जिरिबिना-द वॉरियर वीमेन'' नाटक में नीचे सबटाइटल नहीं थे। पहले मैंने नाटक न देखने का मन बनाया, लेकिन अच्छा हुआ मैं वापस नहीं गई। नाटक के शब्द जब संदेश नहीं पहुंचा सके, तो चित्रों और डिज़ाइन ने बख़ूबी यह काम किया। नाटक में दिखाए गए लोक-कथाओं के इन साहसी योद्धाओं से हम पहले से परिचित थे। आखिर ऐसे किस्से सभ्यताओं और संस्कृतियों को पार कर ही जाते हैं। रूस के दूर-दराज में रहने वाले याकूत लोगों से संबंधित यह कहानी भी कुछ ऐसी ही है। स्टेज के बीच में एक घूमने वाली स्क्रीन थी, इससे नाटक के पात्र प्रकट होते थे। छत से 12 रस्सियां लटक रही थीं। यह घने जंगल का प्रतीक थीं, फिर निर्देशक की मर्जी पर कभी यह समुद्री लहरें या तो कभी एक जेल की तरह नज़र आने लगतीं। लेना ओलेनोवा ने जिरिबिना का मुख्य किरदार निभाया। नाटक में होने वाली जंगों में उनकी ऊर्जा देखने लायक थी।

भी किरदारों द्वारा बेहद सुरीली और मजबूत आवाज में डॉयलॉग गाये गए। न्यूरगूयाना मारकोवा और वेलेरी सेव्विनोव ने योद्धा के घोड़ों का किरदार निभाया। इन घोड़ों ने भी जंग में खूब हिस्सा लिया और दर्शकों के पसंदीदा किरदार बन गए।

स्पॉयलर एलर्ट: जिरिबिना ने राक्षस को हरा दिया। लेकिन नाटक दिल्ली के दर्शकों को बहुत ज्यादा समझ नहीं आ रहा था। आधा ऑडिटोरियम खाली था।

''भिखारीनामा'' देखने का अनुभव भी शानदार रहा। इसे युवा निर्देशक जैनेन्द्र दोस्त ने निर्देशित किया है। भिखारीनामा, एक कम मशहूर नाट्य कलाकार की कहानी है। इस नाटक की शुरुआत लोक संगीत से होती है। इस दौरान स्टेज के केंद्र में पार्श्व गायक होते हैं। एक खास बात यह रही कि निर्देशक ने दर्शकों पर पड़ने वाले लाइट को चालू रखा। इससे कलाकारों और दर्शकों का गहरा आपसी संबंध बनाने में मदद मिली। भिखारीनामा की प्रस्तृति से लोक परंपराओं का ''नाच'' दिल्ली के मंच तक पहुंचा है। दोस्त, कहानीकार भी हैं और वे भिखारी ठाकुर का किरदार भी अदा करते हैं। उनकी शिकायत है कि दिल्ली के पारंपरिक लोक संगीत महोत्सवों में उत्तरप्रदेश और बंगाल को खूब प्रतिनिधित्व मिलता है। लेकिन बिहार को ''जब लगावले लू लिपिस्टिक'' जैसे फिल्मी गानों से जाना जाता है। भिखारी ठाकुर जैसे प्रभावशाली कलाकार के गहन अर्थों वाले गीतों को नज़रअंदाज़कर दिया जाता है।

इस दौरान भिखारी ठाकुर के साथ काम कर चुके अदाकार और संगीतकार भी मंच पर पहुंचे, जहां उन्होंने ठाकुर के गाने भी गाए। यह चीज हमें याद दिलाती है कि ''कला, कलाकार के मरने के बाद भी जिंदा रहती है।" इस नाटक से समझ आता है कि कैसे जाति ने भिखारी ठाकुर की जिंदगी को प्रभावित किया और कैसे यह आज भी हमारे समाज को गंदा कर रही है। ठाकुर का जन्म नाई जाति में हुआ था। ''नाच''के ज़रिए अपनी पहचान बनाने के पहले तक भिखारी ठाकुर बेगारी करते थे। दर्शकों का इस नाटक में बिदेशिया, गोबर घिचोर और बेटी बेचवा से भी परिचय हुआ। बिदेशिया लिंग,गोबर घिचोर भेदभाव और बेटी बेचवा शराबखोरी से संबंधित हैं।

माया राव के नाटक आमतौर पर अतिवादी लगते हैं। कई लोगों को उनकी प्रस्तुति बेहद उच्च स्तर की समझ आती है, जो बेहद कठिन लगती है। वहीं दूसरे लोग उन्हें सृजनशील निपुण व्यक्तित्व के तौर पर मानते हैं। शक है कि शायद ही सभी दर्शक, राव की प्रस्तुति के हर हिस्से को समझ पाए हों। लेकिन तीक्ष्ण चित्रों वाली यह प्रस्तुति हमारी कल्पनाओं को उड़ान देती है। वह हमें अपने वातावरण पर दोबारा सोचने के लिए मजबूर करती है।

''लूज़ वीमेन''- मौजूदा राजनीति पर माया राव का स्वपनिल हस्तक्षेप है। इसमें एक गिटार बजाने वाला संगीतकार, एक तालवादक और लाइटिंग-स्क्रीन प्रोजेक्शन देखने वाले दो स्टेज मैनेजर टीम का हिस्सा हैं। दर्शकों का ध्यान बनाए रखने के लिए राव बेहद ''ग़ैर-पारंपरिक प्रयोग'' करती नज़र आती हैं। प्रस्तुति की पृष्ठभूमि में कुछ चित्र चलते रहते हैं। जैसे- एक व्यस्त शहर में कठपुतली लिए एक महिला, शाहीन बाग पर प्रदर्शन करतीं महिलाएं।

एक विवाहित महिला हर सुबह उठकर मशीनी तरीके से काम पर लग जाती है। उसे अचानक महसूस होता है कि अब यह सब करने की दरअसल कोई जरूरत नहीं है। यह किरदार कुछ देर के लिए भावुकता के साथ उसकी''मां'' के आस-पास घूमता है। इसके बाद राव दर्शकों से महिलाओं की पैदल चाल की कल्पना करने को कहती हैं, जिसमें एक पैर के पंजे को दूसरे के बिलकुल सामने रखा जाता है। मैं यकीन के साथ कह सकती हूं कि इस मौके पर कई महिलाओं को हंसी आई होगी और वे उन्होनें अपना जुड़ाव महसूस किया होगा।

ठीक इसी वक्त मॉब लिंचिंग का तीखा विषय आ जाता है। राव ऊंची आवाज में पहलू खान, तबरेज़ अंसारी, मोहम्मद अखलाक, जुनैद और दूसरे पीड़ितों का नाम पुकारती हैं। अचानक प्रस्तुति दोबारा मां पर लौट आती है, जिसमें महिला, उसकी मां को साड़ी वापस नहीं लौटा सकती, क्योंकि उस पर धब्बे लग चुके हैं। मतलब साड़ी के धागों पर बेगुनाह लोगों के खून के धब्बे लगे हुए हैं।

राव, एक नौ साल की असमिया बच्ची से बातचीत की कल्पना भी करती हैं। बच्ची को इस बात की चिंता है कि जल्द ही उसे और उसके परिवार को CAA के तहत अवैध नागरिक घोषित कर दिया जाएगा।

राव प्रस्तुति में कल्पना करती हैं कि महात्मा गांधी दंगो से प्रभावित शहरों में दौरा कर रहे हैं। आखिर में गांधी कठुआ रेप पीड़िता आसिफ़ा से मिलते हैं। गांधी आसिफ़ा से कहते हैं, ''यह ज़मीन तुम्हारी है।''

आज की धार्मिक-लैंगिक हिंसा और नागरिकता विवाद के विषय को जिस तरीके से माया राव की प्रस्तुति अमन और इंसानियत से जोड़ती है,वह बेहद बुद्धिमानी भरा काम नज़र आता है।

महोत्सव इस हफ़्ते खत्म हो जाएगा। अब कुछ शानदार नाटकों को देखने से चूकिए मत! यहां कुछ नाटकों को देखने की सलाह दे रहा हूँ।

महिषासुर मर्दिनी (पुरुलिया छऊ)

18 फ़रवरी, शाम 6 बजे

ओपन लॉन्स, नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा

निर्देशक- परेश प्रसाद परित

 

समूह- पुरुलिया छऊ डांस एकेडमी, झारखंड

 

भाषा- बंगाली

 

अगर आप छऊ नहीं जानते, तो आपको वहां जरूर जाना चाहिए। यह सरायकेला और मयूरभंज स्टाइल से बहुत अलग है। पुरूलिया छऊ में बेहद सुंदर बड़े नकाबों और पोशाकों का इस्तेमाल होता है। आप कलाकारों को नृत्य के दौरान बहुत सारे करतब करते हुए भी पाएंगे।

 

थूथुकुड़ी नरसंहार 13

 

18 फ़रवरी, शाम 8:30 बजे

 

अभिमंच ऑडिटोरियम

 

निर्देशक- बालासुब्रमण्यन जी

 

समूह: NSD डिप्लोमा प्रोडक्शन, नई दिल्ली,

 

भाषा- हिंदी

 

यह नाटक तमिलनाडु में 2018 में हुए तूतीकोरिन नरसंहार के बारे में है। इसमें पुलिस और सेना के अतिवादी गतिविधियों को बताया गया है। यह आज के समय में बेहद प्रासंगिक है।

 

19 फ़रवरी, शाम 5:30

 

श्रीराम सेंटर

 

नाटक लेखन- अगस्ट स्ट्रिंडबर्ग एडाप्टर

 

निर्देशक- इशिता मुखोपाध्याय

 

समूह- उशनीक, कोलकाता

 

भाषा- बांग्ला

 

यह नाटक स्ट्रिंडबर्ग के ''द फादर'' का पुनर्निमाण है। जिस तरह से मौजूदा नाट्य निर्माता, पुराने या शास्त्रीय नाटकों को अपनाते हैं, वह बेहद दिलचस्प होता है।

 

 

 

''अ केस ऑफ क्लेयरवोयांस'' या ''एक्जीक्यूटिंग मिस k''

 

20 फ़रवरी, शाम 8:30 बजे

 

अभिमंच ऑडिटोरियम

 

लेखक- गोदावर और श्रुति

 

निर्देशक- श्रुति

 

समूह- NSD स्टूडेंट डिप्लोमा प्रोडक्शन, नई दिल्ली

 

भाषा- हिंदी

 

यह नाटक मार्टिन मैकडोनॉग के ''द पिलोमैन'',फ्रैंज काफ्का के ''द ट्रॉयल'', जोर्ज लुईस बोर्ज्स के काम और आम लोक धारणाओं-जीवन से प्रेरित होने का दावा करता है। इस नाटक के केंद्र में समलैंगिक किरदार हैं। इसलिए यह इस महोत्सव का एक अहम नाटक है।

 

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं और एक्टिविस्ट हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

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