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कश्मीरी पंडितों के लिए पीएम जॉब पैकेज में कोई सुरक्षित आवास, पदोन्नति नहीं 

पिछले सात वर्षों में कश्मीरी पंडितों के लिए प्रस्तावित आवास में से केवल 17% का ही निर्माण पूरा किया जा सका है।
kashmiri pandit
प्रतीकात्मक चित्र। साभार: हिंदुस्तान टाइम्स 

कमल और उनका परिवार उन 44,167 परिवारों में से एक है, जिनमें 39, 782 हिन्दुओं सहित लगभग सभी अन्य कश्मीरी पंडित शामिल हैं, जिन्हें 90 के दशक में उन्हें उग्रवादियों के द्वारा लक्षित हमलों की वजह से कश्मीर घाटी छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था। 1947 के बाद से यह सबसे बड़ा विस्थापन था जिसमें 1,50,000 से अधिक लोगों ने शरणार्थी शिविरों में पनाह ली थी। 

कमल की उम्र उस समय 1.5 साल की थी जब उन्हें और उनके परिवार को, जिन्होंने पहले से ही उग्रवाद के उभार को देख रखा था, को भी आखिरकार घाटी को अलविदा कहना पड़ा। 1991 में जब पलायन अपने चरम पर था, तो उन्हें याद है कि कैसे उनका परिवार उस दौरान भी हालात के सामान्य होने की उम्मीद में घाटी छोड़ने वालों में से अंतिम लोगों में से था।

अपने परिवार के साथ कमल ने बट्टल बालियाँ में करीब 17 साल बिताये।

पहले तीन दिनों तक उन्हें वहां पर कोई घर नहीं मिल पाया। चौथे दिन जाकर उन्हें किसी तरह एक छोटा सा तंबू नसीब हो सका। कमल उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “मुझे आज भी याद है कि किस प्रकार से परिवार का प्रत्येक सदस्य तंबू को उड़ने से रोकने के लिए उसके एक सिरे को पकड़ कर रखा करता था। हम हमेशा अपने बर्तनों पर निगाह बनाए रखा करते थे जिससे कि वे अन्य परिवारों के बर्तनों के साथ न मिक्स हो जायें। 

बाद के वर्षों में, कमल के परिवार को घाटी के अपने तीन-मंजिला मकान को औने-पौने दामों में निपटाना पड़ा क्योंकि दरवाजों और खिडकियों को उखाड़कर नष्ट कर दिया गया था, ऐसे में न तो इसे पट्टे पर दिया जा सकता था और न ही किराए पर देने लायक रह गया था। 

कमल, जिन्हें कश्मीरी पंडितों के लिए 2008 के पीएम विशेष रोजगार पैकेज के तहत शिक्षा क्षेत्र में नौकरी प्राप्त हुई थी, से जब इस बारे में सवाल किया गया कि वे कश्मीर में वापस क्यों लौटे तो उनका कहना था, “हम कश्मीर में अपनी जड़ों को तलाशने, अपने मकान और अपने गाँव को देखने के लिए वापस आये थे।” उनका कहना था “भले ही आपको विदेश में नौकरी मिल जाये, लेकिन आपकी मिट्टी आख़िरकार आपको अपनी ओर खींच लेती है।” इसके साथ ही उन्होंने अपनी बात में जोड़ा कि जम्मू में वे अपने परिवार के ठीक-ठाक कमाई कर रहे थे और 2017 के पहले तक सुरक्षित थे।

सरकारी आश्वासनों के बावजूद इस समुदाय के लिए सुरक्षा का पहलू एक प्रमुख चिंता की वजह बनी हुई है। बडगाम में इस माह की शुरुआत में उग्रावादियों के हाथों बिल्कुल पास से उनके कार्यालय में गोली मारकर हत्या कर दिये जाने वाले राहुल भट्ट को भी विशेष रोजगार पैकेज के तहत ही नौकरी पर नियुक्त किया गया था।

द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, इस योजना के तहत कुल 6,000 पदों में से 5,928 पदों को भरा जा चुका है, लेकिन सिर्फ 1,037 कर्मचारियों के पास ही सुरक्षित ठिकाना है जबकि बाकी के लोगों को सुरक्षा क्षेत्र के बाहर किराए के मकानों या कमरों में रहना पड़ रहा है।

हालाँकि, कमल दावा करते हैं कि “सुरक्षित आवास” के तहत केवल अस्थाई आधार पर निर्मित घर ही उपलब्ध कराए जाते हैं।” कमल, जो कि पांच वर्षों से भी अधिक समय से अपने परिवार के साथ किराए के मकान में रह रहे हैं, ने बताया, “ये मकान इतने कमजोर हैं कि एक पत्थर से भी क्षतिग्रस्त हो सकते हैं। अब, नए कर्मचारी भी किराए के मकानों में रह रहे हैं।” सुरक्षा के अभाव के अलावा वेतन में अक्सर कई महीनों की देरी देखने को मिलती है। उन्होंने आगे कहा, “मैंने 2017 में यहाँ पर नौकरी ज्वाइन कर ली थी, लेकिन डेढ़ साल बाद जाकर भुगतान मिल पाया था।”

कमल ऑटोमोबाइल सेक्टर में अपनी पहले की नौकरी को याद करते हैं, जहाँ उन्हें अच्छी तनख्वाह के साथ-साथ सुरक्षा को लेकर भी आश्वस्ति थी। जम्मू या दिल्ली में इससे बेहतर और सुरक्षित जिंदगी के उपर उन्होंने कश्मीर को क्यों चुना, के बारे में वे बताते हैं, “मुझे दिल्ली तक से नौकरी के प्रस्ताव प्राप्त हुए थे, लेकिन मैंने हर चीज के उपर अपनी जड़ों को वरीयता दी।”

नरेंद्र मोदी सरकार ने कश्मीरी प्रवासियों को मिलने वाली वित्तीय सहायता को बढ़ाकर 13,000 रूपये प्रति परिवार कर दिया है। हालाँकि, कुछ कर्मचारियों का दावा है कि उनमें से कई लोगों को यह बढ़ी हुई सहायता नहीं प्राप्त हुई है।

कमल के अनुसार, कई कर्मचारियों को कई वर्षों यहाँ तक कि दशकों से नौकरी करने के बावजूद पदोन्नत नहीं किया गया है। पंडितों का दावा है कि उनसे नौ साल की सेवा पूरी करने के बाद पदोन्नत करने का वादा किया गया था।

कई सालों तक पदोन्नति से वंचित किये जाने के बाद, कमल कहते हैं कि उन्हें अब उन लोगों को रिपोर्ट करना पड़ता है जो कभी उनसे जूनियर थे और वे “अपमानित” महसूस करते हैं। “हम बंधुआ मजदूर बनकर रह गये हैं। यह यूपीए सरकार की गलती थी।”

पीडब्ल्यूडी आरएनबी विभाग में एक कनिष्ठ अभियंता के तौर पर कार्यरत, अमित जो सेवा में 2010 में शामिल हुए थे, को न तो पदोन्नत किया गया है और न ही उनके वेतन में ही कोई वृद्धि की गई है। इस बारे में उनका कहना था, “हमें पदोन्नत करने के बजाए, हमरे विभाग ने उन कर्मचारियों को पदोन्नत किया है जो हमसे तीन साल जूनियर होने के साथ-साथ उम्र में छोटे हैं। हम उन्हें सर कह कर संबोधित करते हैं; यह सब बेहद दुखदायी है। यह एक प्रकार से हमारी धीमी मौत है।”

शिक्षा विभाग में कार्यरत एक अन्य पंडित का आरोप था कि हमरे समुदाय के सदस्यों को प्रत्येक विभाग में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

कश्मीर में बिगड़ते हालात के साथ-साथ कई अन्य वजहों से कर्मचारियों के परिवार जम्मे में रहते हैं। इसके अलावा, अधिकांश कमर्चारियों के पास समुचित आवास की व्यवस्था या रहने का कोई सुरक्षित ठिकाना नहीं है। अमित का दावा है कि यदि किसी कर्मचारी ने अपने परिवार को यहाँ पर लाना चाहा भी तो, मकान मालिक या भूस्वामी उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं देता है या अतिरिक्त पैसे की मांग करता है।

कई कर्मचारियों ने अपनी पहचान को गुप्त रखे जाने की शर्त पर दावा किया कि उनसे जिला स्तर पर पोस्टिंग का वादा किया गया था, लेकिन उनमें से अधिकांश को अपने कार्यालयों तक पहुँचने के लिए 25 से लेकर 50 किमी तक का सफर तय करना पड़ता है।

नीरू भट्ट, जो एक सुरक्षित आवास में रहती हैं और 2010 से शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं, ने बताया, “मुझे अपने स्कूल तक पहुँचने के लिए 50 किमी से भी अधिक दूरी का सफर तय करना पड़ता है। इस बात में कोई शक नहीं कि अपने घर के अंदर मैं सुरक्षित हूँ, लेकिन स्कूल तक पहुँचने के लिए जितनी दूरी को मुझे तय करना पड़ता है, उसका क्या?” ऐसे में उनके पास आने-जाने के लिए कार खरीदने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।

एक अन्य पंडित का कहना था, “हम दूर-दराज के इलाकों में तैनात हैं। हमसे जिला स्तर पर तैनाती का वादा किया गया था लेकिन सच्चाई यह है कि अपने कार्यालय तक पहुँचने के लिए हमें कई किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है।”

अप्रैल में गृह मंत्रालय द्वारा राज्य सभा में पेश किये गये आंकड़े के मुताबिक, अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त किये जाने के बाद से घाटी में अब तक 14 कश्मीरी पंडित और हिन्दु मारे जा चुके हैं। अमित का कहना है, “आये-दिन होने वाली हत्याओं को देखना और अनुभव करना वस्तव में बेहद  हृदय-विदारक है।”

पंडितों को वापस घाटी में की ओर आकर्षित करने के उद्येश्य से दिया गया पैकेज, विफल होता जान पड़ता है। केंद्र के अनुसार, पिछले सात वर्षों में पंडितों के लिए प्रस्तावित आवास में से सिर्फ 17% ही पूरे हो पाए हैं। 2015 में, जम्मू-कश्मीर सरकार ने 920 करोड़ रूपये की लागत से इन कर्मचारियों के लिए 6,000 आवासीय इकाइयों को प्रदान किये जाने की घोषणा की थी।

हालाँकि, द हिन्दू की खबर के मुताबिक फरवरी तक सिर्फ 1,025 ईकाइयों को ही आशिंक रूप से या पूरी तरह से पूर्ण किया जा सका था।

अमित के अनुसार, करीब 1,100 कर्मचारी ही सुरक्षित आवासों में रहते हैं और बाकी के 4,000 किराये के मकानों या एक-कमरे के मकानों में रहते हैं। उन्होंने बताया कि शिविरों में सिलखड़ी की छतें हैं, जिनकी उम्र छह माह तक की ही होती है। उनका दावा था कि पिछले 11-12 सालों से भी अधिक समय से भीषण ठंड में भी परिवार ऐसी छतों के नीचे बिना किसी मरम्मत के रह रहे हैं।

इंटरनेट कनेक्टिविटी की स्थिति कुछ शिविरों में इतनी खराब है कि लोगों को अपने परिवारों के साथ कनेक्ट हो पाने में काफी दिक्कतें पेश आती हैं। दूसरा बड़ा मुद्दा साफ़-सफाई का है। कुछ शिविरों में लोगों को पानी के लिए 10 किमी तक का सफर तय करना पड़ता है।

अमित पूछते हैं, “क्या इस प्रकार की सुरक्षा का हमसे वादा किया गया था?” वे कहते हैं, “मोदी जी के पास पूरे देश भर में नल का पानी प्रदान करने की नीति है, लेकिन ऐसा लगता है कि ये नीतियां कश्मीरियों पर लागू नहीं होती हैं।”

एक पंडित ने इस बारे में इंगित किया कि कैसे समुदाय अपने धर्म का पालन करने से डरता है क्योंकि लोग अक्सर पंडितों को घूरते रहते हैं। वे कहते हैं, “उन्हें उग्रावादियों द्वारा पहचान लिए जाने का भय बना रहता है। यदि मैं टीका लगाता हूँ, तो मुझसे सवाल किया जाता है।” “मेरी पत्नी को बिंदी और उसकी पोशाक को लेकर टोकाटाकी की जाती है।”

लेखिका ओडिशा स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। आप शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीति से संबंधित मुद्दों पर लिखती हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

PM Jobs Package for Kashmiri Pandits: No Secure Houses, Promotion

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