दिसम्बर की शायरी, शायरी का दिसम्बर
उर्दू शायरी में महीने के तौर पर दिसम्बर को ख़ासी अहमियत दी गई है। कहीं ये महीना सर्दी में गर्म धूप दे कर सुकून देता है, तो कहीं इस पर पूरे साल की कठिनाइयों का बोझ लाड़ दिया जाता है। तमाम शायरों ने अपने हिसाब से दिसम्बर को कभी बुरा लिखा तो कभी अच्छा लिखा। साल ख़त्म होने का झटका और नए साल की शुरूआत की आहट मिर्ज़ा ग़ालिब की याद दिलाती है-
देखिये पाते हैं उश्शाक बुतों से क्या फ़ैज़,
इक बिरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है
तो वहीं कोई शायर दिसम्बर को इस नज़र से देखता है,
गुज़र जाता है सारा साल यूं तो,
नहीं कटता मगर तन्हा दिसम्बर
आज इतवार की कविता में पढ़िये दिसम्बर महीने पर लिखे अशआर और नज़्में।
कभी जो टूट के बरसा दिसम्बर,
लगा अपना बहुत अपना दिसम्बर
गुज़र जाता है सारा साल यूं तो,
नहीं कटता मगर तन्हा दिसम्बर
भला बारिश से क्या सैराब होगा,
तुम्हारे वस्ल का प्यासा दिसम्बर
यहीं पूंजी है मेरी उम्र भर की,
मेरी तन्हाई और मेरा दिसम्बर
वो कब बिछड़ा नहीं अब याद लेकिन,
बस इतना याद है कि था दिसम्बर
- अज्ञात
दिसम्बर मुझे रास आता नहीं : मोहसिन नक़वी
कई साल गुज़रे
कई साल बीते
शब-ओ-रोज़ की गर्दिशों का तसलसुल
दिल-ओ-जान में साँसों की परतें उल्टे हुए
ज़लज़लों की तरह हाँफता है
चटख़्ते हुए ख़्वाब
आँखों की नाज़ुक रगें छीलते हैं
मगर मैं इक साल की गोद में जागती सुब्ह को
बे-कराँ चाहतों से अटी ज़िंदगी की दुआ दे कर
अब तक वही जुस्तुजू का सफ़र कर रहा हूँ
गुज़रता हुआ साल जैसा भी गुज़रा
मगर साल के आख़िरी दिन
निहायत कठिन हैं
मिरे मिलने वालो
नए साल की मुस्कुराती हुई सुब्ह गर हाथ आए
तो मिलना
कि जाते हुए साल की साअ'तों में
ये बुझता हुआ दिल
धड़कता तो है मुस्कुराता नहीं
दिसम्बर मुझे रास आता नहीं
कुछ मुख़्तलिफ़ अशआर -
हर दिसम्बर इसी वहशत में गुज़ारा कि कहीं
फिर से आँखों में तिरे ख़्वाब न आने लग जाएँ
'अल्वी' ये मो'जिज़ा है दिसम्बर की धूप का
सारे मकान शहर के धोए हुए से हैं
मोहम्मद अल्वी
दिसम्बर की शब-ए-आख़िर न पूछो किस तरह गुज़री
यही लगता था हर दम वो हमें कुछ फूल भेजेगा
अज्ञात
मई और जून की गर्मी बदन से जब टपकती है
नवम्बर याद आता है दिसम्बर याद आता है
आलोक श्रीवास्तव
उम्मीद कर चुका था नए साल से बहुत
इक और ज़ख़्म दे के दिसम्बर चला गया
ख़ान जांबाज़
निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर
हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ
अकबर इलाहाबादी
ये साल भी उदासियाँ दे कर चला गया
तुम से मिले बग़ैर दिसम्बर चला गया
अज्ञात
गले मिला था कभी दुख भरे दिसम्बर से
मिरे वजूद के अंदर भी धुँद छाई थी
तहज़ीब हाफ़ी
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