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हिंदुत्ववादीकरण का खेड़ा मॉडल-आत्मनिर्भरता भी जरूरी है!

लिंचिंग-विंचिंग से लेकर, खेड़ा या उना मॉडल तक और टैंक पर न सही बुलडोज़र पर ही चढक़र सही, हमारे यहां भी तालिबाननुमा मॉडल अपने खेल करता रहता है, पर कानून-वानून कभी खतरे में नहीं पड़ता। हां! अपोजीशन वालों की सरकार हो तो बात ही दूसरी है।
mob lynching

लीजिए, अब सवा बुद्धि वालों ने इसमें भी पंख लगा दी। कहते हैं कि गुजरात मॉडल में खेड़ा जिले में मुसलमानों को खंभे से बांध कर, लाठी-डंडों से पिटाई की जो सजा पब्लिक को जुटाकर और भारत माता के जैकारे लगाकर दी गयी है, उसे मोदी जी के राज में भारत का तालिबानीकरण चाहे कोई कह भी ले, पर हिंदुत्ववादीकरण नहीं कह सकते! पर क्यों भाई क्यों? हिंदुत्ववादीकरण कहने में प्राब्लम क्या है। माना कि गुजरात मॉडल के अंदर जो ताजा खेड़ा मॉडल बना है, वह किसी तरह तालिबान मॉडल से घटकर नहीं है। तालिबान वहां पब्लिक में ऐसी ही सजाएं देते थे, ये भारत में वैसी ही सजाएं दे रहे हैं। पब्लिक ऐसे ही वहां भी नारे लगाती थी, सीटियां बजाती थी, सजा देने वालों का हौसला बढ़ाती थी, यहां भी बढ़ाती है। वहां भी किसी न किसी तरह कमजोर ही ऐसी सजाओं का निशाना बनते थे, यहां भी बन रहे हैं। वहां भी पुलिस, वकील, जज, सब खुद तालिबानी ही होते थे, यहां भी हैं। वहां भी सजा देने वाले कायदे-कानून सब पर हंसते हैं, यहां भी हंसते हैं। वहां भी कोई राज-वाज उनके बीच में नहीं आता था, यहां भी नहीं आता है। यानी सब कुछ वैसा ही है और खेड़ा मॉडल, सचमुच तालिबानी मॉडल का ही भाई है। तब भी है तो भाई ही। बेशक, दोनों का डीएनए कमोबेश एक है। इसलिए, खेड़ा मॉडल को तालिबानीकरण का मामला कहने में भी गलती नहीं होगी? पर भाई हैं तब भी हैं तो अलग। हमशक्त जुड़वां भाई तक अलग होते हैं--राम और श्याम। तब खेड़ा मॉडल को तालिबानीकरण कहने की ही जिद क्यों? हम भारत वाले उसे हिंदुत्ववादीकरण का मॉडल क्यों नहीं कह सकते!

वैसे भी दोनों में इतनी समानताएं होने का मतलब यह नहीं है कि दोनों मॉडलों में कोई अंतर ही नहीं है। ज्यादा बड़े न सही, पर दोनों में अंतर भी हैं और एकाध नहीं, कई-कई अंतर हैं। एक तो यही कि तालिबान की सजा अक्सर उन्हें मिलती है, जो कहते हैं कि हम भी उसी अल्लाह पर ईमान रखते हैं, पर तालिबान कहते हैं कि उनका ईमान सच्चा नहीं है या कच्चा है या झूठा है, वगैरह। पर अपने खेड़ा मॉडल का मामला आसान है, सजा देने वालों का धर्म अलग, सजा पाने वालों का धर्म अलग। यानी किसी कन्फ्यूजन या दुविधा की गुंजाइश ही नहीं। और जब से मोदी जी ने कपड़े देखकर दूर से ही पहचानने का गुर दिया है, तब से तो कोई खास मेहनत करने की भी जरूरत नहीं रह गयी है। इसी तरह, तालिबान के मॉडल में टेक्रोलॉजी ज्यादा है। सजा में वे पत्थर-वत्थर भी मार लेते हैं और मैगजीन वाली बंदूकों का भी इस्तेमाल कर लेते हैं। पर अपने खेड़ा मॉडल में तकनीक खंभे से बांधकर, लाठी-डंडों से पीटने से आगे नहीं बढ़ी है। यानी परंपरा की पूरी तरह से रक्षा की जा रही है, बिना किसी मिलावट के। बाकी सबसे ज्यादा उन्नत टेक्नोलॉजी तो उस खंभे में है, जिससे पिटने वालों को बांधा गया था। और हां! जो राष्ट्रभक्ति हमारे यहां ऐसे मौकों पर दिए जाने वाले भारत माता के जैकारों से पैदा होती है, वो बात तालिबान के अल्लाहू... के नारों में कहाँ !

हां! इस सबसे कोई यह नहीं समझे कि हमारा मॉडल इतना ही अहिंसक है कि लाठी-डंडों से पिटाई से आगे ही नहीं गया है। अखलाक से लेकर पहलू खान तक, हमारे यहां भी मॉब लिंचिंग का चलन खूब चल पड़ा है। और इज्जत बचाने के लिए जानें लेने का भी। फिर भी मैगजीन वाली बंदूकों के बिना कानून वगैरह खतरे में पडऩे वाली हिंसा कहां? इसीलिए तो, लिंचिंग-विंचिंग से लेकर, खेड़ा या उना मॉडल तक और टैंक पर न सही बुलडोजर पर ही चढक़र सही, हमारे यहां भी तालिबाननुमा मॉडल अपने खेल करता रहता है, पर कानून-वानून कभी खतरे में नहीं पड़ता। हां! अपोजीशन वालों की सरकार हो तो बात ही दूसरी है। और इससे याद आया उनके और हमारे बीच का सबसे बड़ा अंतर। तालिबान मॉडल ने अपने असली रंग तब दिखाए थे, जब तालिबान के पास राज नहीं था। पर जब से तालिबान दोबारा राज में आए हैं, तब से उनके सुर कुछ बदले-बदले से हैं। पर हमारे यहां वाले अपना असली रंग तब दिखा रहे हैं जब वे राज में हैं बल्कि डबल इंजन वाले राज में हैं। और जब से हमारे यहां वाले दोबारा राज में आए हैं, तब से हमारी तो पूछो ही मत। और जो चुनाव आस-पास हो, तब तो सोने में सुहागा ही हो जाता है। तभी तो गुजरात में पिछले चुनाव से पहले उना मॉडल था, इस बार चुनाव से पहले खेड़ा मॉडल। और वक्त-जरूरत पर याद दिलाने के लिए, 2002 का मोदी जी का ‘‘राजधर्म’’ मॉडल तो खैर है ही। सुनते हैं कि पीएम वाजपेयी ने जब ज्यादा किच-किच की थी, तो सीएम मोदी ने उन्हें इसका ज्ञान देकर निरुत्तर कर दिया था कि उनके गुजरात में तो, इसी को ‘‘राजधर्म’’ कहते हैं।

फिर भी, हम सिर्फ इन भिन्नताओं की वजह से इसका आग्रह नहीं कर रहे हैं कि हमारे खेड़ा मॉडल को हिंदुत्ववादीकरण के मॉडल के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए; तालिबानीकरण के ही आम खाते में डालकर नहीं छोड़ दिया जाए। हमारे आग्रह की वजहें कहीं ज्यादा गहरी, ज्यादा बुनियादी हैं। मोदी जी भारत को विश्व गुरु बनाने के मिशन में लगे हुए हैं। ताजातरीन खेड़ा मॉडल हो या पुराना उना मॉडल या चाहे अखलाक, पहलू खान वगैरह वाला ही मॉडल हो; ये सभी विश्व गुरु भारत के  खास गुर हैं। ऐसे अनोखे गुर सीखने के लिए ही दुनिया भर  से   राज करने वाले हमारे गुरुकुल में शिक्षा लेने आएंगे। और अपने-अपने देश में लौटकर, सफलता के साथ ये गुर आजमाएंगे! लेकिन, विश्व गुरु का भारत का ब्रांड हमारे अपने, देसी ब्रांड नाम के बिना कैसे कामयाब हो सकता है? उधारी के तालिबान के ब्रांड नाम के सहारे, विश्व गुरु की दौड़ में हम कितने कदम दौड़ पाएंगे! देखा नहीं कैसे बेचारे आरएसएस वालों को आज तक हिटलर-मुसोलिनी के आइडिया उठाने और सावरकर की हिंदुत्ववाली किताब उड़ाने के लिए, न जाने किस-किस से क्या-क्या सुनना पड़ता है। पर अब और नहीं। दूसरों के मॉडल का अनुकरण और नहीं। तालिबानीकरण-तालिबानीकरण करना, भारत के आगे बढऩे की मुद्रा में, तेजी से पीछे खिसकने की सचाई को ढांपने के लिए बहुत काम का हो तब भी नहीं। अब हमें अपने एकदम खास, हिंदुत्ववादीकरण मॉडल के साथ दुनिया के सामने जाने से कोई नहीं रोक सकता है। फिर, आत्मनिर्भरता भी जरूरी है। मोदी जी तो कब से कह रहे हैं।

(इस व्यंग्य आलेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

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