संविधान की प्रस्तावना में संशोधन के लिहाज़ से प्राइवेट मेंबर बिल: एक व्याख्या
राज्यसभा के भाजपा सदस्य केजे अल्फ़ोंस ने संविधान की प्रस्तावना में संशोधन को लेकर एक प्राइवेट बिल पेश करने की मांग की है। उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह ने इस बिल के पेश किये जाने की मंज़ूरी दे दी है, हालांकि दो सदस्यों-राष्ट्रीय जनता दल के सांसद, मनोज झा और मारुमलार्ची द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के वाइको ने यह कहते हुए इसका विरोध किया है कि इस तरह के मसौदा क़ानून के लिए राष्ट्रपति की पूर्व सहमति की ज़रूरत होती है। झा के मुताबिक़, संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा होने के नाते प्रस्तावना में संशोधन नहीं किया जा सकता है।
हालांकि, संसदीय मामलों के राज्य मंत्री वी.मुरलीधरन के सुझाव को स्वीकार करते हुए उपसभापति ने अपना फ़ैसला सुरक्षित रखने और बाद में फ़ैसला दिये जाने पर सहमति जता दी है। द लीफ़लेट के इस आलेख में प्रस्तुत है इस विवाद से जुड़े विभिन्न पहलुओं की व्याख्या।
प्राइवेट मेंबर बिल क्या होते हैं और इन्हें कैसे पेश किया जाता है ?
जिस संसद सदस्य की ओर से यह बिल पेश किया जाता है,वह कोई मंत्री नहीं होता, बल्कि निजी सदस्य होता है। सरकार की तरफ़ से पेश किये गये बिल को सरकारी बिल के रूप में जाना जाता है, जिसे मंत्रिपरिषद का कोई मंत्री पेश करता है। सरकारी विधेयकों को ग़ैर-सरकारी सदस्यों के बिलों के बनिस्पत सदन की ओर से स्वीकार किये जाने की संभावना ज़्यादा होती है।
ग़ैर-सरकारी सदस्य उस विधायी प्रस्ताव या उस बिल को पेश कर सकते हैं, जिसे वह क़ानून की किताब में शामिल करने के लिहाज़ से मुनासिब समझता है। वह सदस्य ख़ुद के तैयार उस बिल के विषय के साथ अपने उस बिल की सूचना दे सकता है, क्योंकि सचिवालय किसी ग़ैर-सरकारी सदस्य की ओर से पेश किये जाने वाले बिल का मसौदा तैयार करने में सिर्फ़ तकनीकी सलाह दे सकता है, और वह भी तब,जब वह ग़ैर-सरकारी सदस्य ऐसा चाहता है। ग़ैर-सरकारी सदस्यों के बिलों के सिलसिले में सदस्यों की पहुंच विशेषज्ञ सलाह तक नहीं हो सकती, और ग़ैर-सरकारी सदस्यों के बिलों पर विचार को विनियमित करने की कुछ प्रक्रियायें होती हैं।
किसी भी बिल के मामले में पहली और सबसे अहम ज़रूरत यह होती है कि यह संसद की विधायी शक्ति के भीतर होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, विधेयक का विषय भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची में निहित संघ या समवर्ती सूची में शामिल विषयों से जुड़ा होना चाहिए।
दूसरी बात कि बिलों की सूचनाओं के अलावे बिल के विषयों की प्रतियों के साथ-साथ उनके उद्देश्य और कारणों का विवरण, नोटिस देने वाले सदस्य से विधिवत हस्ताक्षरित होना ज़रूरी है।
तीसरी बात कि उद्देश्यों और कारणों के विवरण के अलावा, भारत की संचित निधि से व्यय को शामिल करने वाले किसी बिल के साथ एक वित्तीय ज्ञापन भी होना चाहिए, जिसमें ख़र्च से सम्बन्धित खंडों पर विशेष ध्यान आकर्षित किया गया हो और आवर्ती और अनावर्ती व्यय का अनुमान भी दिया गया हो,जिनका उस बिल के क़ानून में पारित होने की स्थिति में शामिल होने की संभावना हो।
चौथी बात कि किसी कार्यकारी प्राधिकारी को विधायी शक्ति के प्रत्यायोजन (delegation of legislative power) के प्रस्तावों को शामिल करने वाले विधेयक के साथ एक ज्ञापन होना चाहिए, जिसमें ऐसे प्रस्तावों की व्याख्या की गयी हो और उनके दायरे की ओर ध्यान आकर्षित किया गया हो, और यह भी बताया गया हो कि उनकी प्रकृति मामूली या ग़ैर-मामूली,किस तरह की है।
पांचवीं बात कि अगर वह बिल ऐसा बिल है, जिसे संविधान के तहत राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी या सिफारिश के बिना (संविधान के अनुच्छेद 3 और 274) पेश नहीं किया जा सकता, तो बिल के प्रभारी सदस्य को नोटिस के साथ ऐसी मंज़ूरी या सिफ़ारिश की एक प्रति संलग्न करनी चाहिए, क्योंकि नोटिस तब तक वैध नहीं होगा,जब तक कि इस आवश्यकता का अनुपालन नहीं किया जाता है। जहां अनुच्छेद 3 नये राज्यों के गठन या मौजूदा राज्यों के नामों या सीमाओं के बदलाव से सम्बन्धित है, वहीं अनुच्छेद 274 कराधान को प्रभावित करने वाले बिलों से सम्बन्धित है,जिसमें सरकार की दिलचस्पी होती है।
छठी बात कि कोई बिल, अगर अधिनियमित किया जाता है, जिसमें भारत की संचित निधि से ख़र्च भी शामिल हो, तो तब तक उस पर विचार नहीं किया जा सकता या उसे किसी प्रवर/संयुक्त समिति को नहीं भेजा जा सकता, जब तक कि प्रभारी सदस्य इस विधेयक पर विचार करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 117(3) के तहत राष्ट्रपति की ज़रूरी सिफ़ारिश हासिल नहीं कर लेता है। । ऐसे बिलों के मामले में प्रभारी सदस्यों को राष्ट्रपति की सिफ़ारिश पहले ही हासिल कर लेनी चाहिए, ताकि वे उस बिल को आगे बढ़ा सकें।
इस उद्देश के लिए वह सदस्य राष्ट्रपति की सिफ़ारिश हासिल करने के लिए सचिवालय को अपना अनुरोध भेज देता है। सदस्य का वह अनुरोध सम्बन्धित मंत्रालय को भेज दिया जाता है, इसके बाद वह अनुरोध राष्ट्रपति के आदेश प्राप्त करता है और सचिवालय को इसकी सूचना दे दी जाती है। मंत्रालय के ज़रिये राष्ट्रपति के इस आदेश को लेकर सूचना मिलने पर उस सदस्य को सूचित कर दिया जाता है और सचिवालय उसे बुलेटिन में प्रकाशित कर देता है।
ग़ैर-सरकारी सदस्यों के ऐसे विधेयकों की कामयाब होने की संभावना कितनी होती है?
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक़, 1970 के बाद से संसद से कोई भी ग़ैर-सरकारी सदस्य बिल पारित नहीं किया गया है। 14वीं लोकसभा में पेश किये गये 328 ग़ैर-सरकारी सदस्यों के बिलों में से मुश्किल से चार फ़ीसदी पर ही चर्चा हो पायी थी, जबकि 96 फ़ीसदी बिना किसी चर्चा के ही ख़त्म हो गये थे। जहां 14वीं लोकसभा में महज़ 67 सांसदों ने प्राइवेट बिल पेश किये थे, वहीं औसत रूप से कांग्रेस सांसदों ने अपने भाजपा समकक्षों के बनिस्पत ज़्यादा बिल पेश किये।
द्रमुक सांसद तिरुचि शिवा की ओर से पेश किया गया ट्रांसजेंडर व्यक्तियों का अधिकार बिल, 2014, 2015 में राज्यसभा से पारित कर दिया गया था, लेकिन लोकसभा में गिर गया था। सरकार ने तब अपने ख़ुद का विधेयक पेश किया, और शिवा के विधेयक की मुख्य विशेषताओं को शामिल किये बिना ही इसे पारित करा लिया था, जिसमें इस समुदाय के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग की तर्ज पर एक वैधानिक आयोग बनाने की मांग की गयी थी। शिवा के उस विधेयक में ट्रांसपर्सन के लिए नौकरियों और शिक्षा में दो फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया था, लेकिन सरकारी विधेयक में इसका कोई प्रावधान नहीं किया गया।
अल्फ़ोंस के बिल का मक़सद क्या है?
संविधान (संशोधन) विधेयक, 2021 शीर्षक वाले इस बिल की कोशिश संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी" शब्द की जगह "न्यायसंगत" शब्द को लाना है।
इस बिल का दूसरा मक़सद, "स्थिति और अवसर की समानता" शब्दों की जगह यह बिल निम्नलिखित शब्दों को लाना चाहता है:
"स्थिति और जन्म,पोषण, शिक्षित होने, नौकरी पाने और सम्मान के साथ व्यवहार किये जाने के अवसर की समानता,
जाति, पंथ, सामाजिक स्थिति या आय का ख़्याल किये बिना सूचना प्रौद्योगिकी और इसके सभी पहलुओं तक पहुंच;
तीसरा बदलाव यह कि "व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता" शब्दों की जगह पर यह बिल निम्नलिखित को लाना करना चाहता है : -
"व्यक्ति और समुदाय की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता"
आनंद, एक उच्च सकल घरेलू आनंद का आश्वासन"।
क्या संविधान की प्रस्तावना में पहले भी संशोधन किया गया था?
आपातकाल के दौरान संविधान के 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के ज़रिये "समाजवादी धर्मनिर्पेक्ष" शब्द को "संप्रभु" शब्द के बाद और "लोकतांत्रिक गणराज्य " शब्दों से पहले प्रस्तावना में डाला गया था। संशोधित वाक्यांश को अब "हम, भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में गठित करने और अपने सभी नागरिकों को सुरक्षित करने..." के रूप में पढ़ा जाता है।
इसी संशोधन में "एकता" और "राष्ट्र" शब्दों के बीच "और अखंडता" शब्द भी डाला गया है। मौजूदा संशोधित वाक्यांश इस तरह है:
"व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता";
इंदिरा गांधी सरकार की ओर से एक सरकारी विधेयक के ज़रिये इन संशोधनों को पेश किये जाने के बाद आयी जनता पार्टी की सरकार ने इन बदलावों को रद्द करने की कोशिश नहीं की, हालांकि बाद में आपातकाल के दौरान संविधान में किये गये ज़्यादातर सख़्त संशोधनों को रद्द कर दिया गया।
क्या अल्फ़ोंस के इस बिल को राष्ट्रपति की सिफ़ारिश की ज़रूरत होगी?
चूंकि इस बिल का मक़सद नौकरी की गारंटी और सूचना प्रौद्योगिकी तक पहुंच के अलावा, जन्म, पोषण और शिक्षित होने की स्थिति और अवसर की समानता हासिल करना है, ऐसे में इस तरह का सुझाव आना मुमकिन है कि इसमें भारत की संचित निधि से ख़र्च शामिल होगा, और इसलिए, संविधान के अनुच्छेद 117(3) के तहत राष्ट्रपति की सिफ़ारिश की ज़रूरत है। यह भी सुझाव दिया जा सकता है कि प्रस्तावना के इन वादों में कराधान के ज़रिये राजस्व जुटाना भी शामिल होगा, और इसलिए, संघीय ढांचे में राज्यों के हित प्रभावित होंगे। इसलिए, ऐसे बिल के पेश किये जाने की राह में अनुच्छेद 274 की सख़्ती एक बाध बन सकती है।
(मूल रूप से लीफ़लेट में प्रकाशित)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
Private Member’s Bill to Amend the Preamble of the Constitution: An Explainer
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