Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

इस वक़्त रोज़गार की सुरक्षा और नई नौकरियां पैदा करना सबसे अहम मुद्दा है

देश में बड़े स्तर की बेरोज़गारी के आंकड़ों का परीक्षण करने के बाद, प्रकाश करात कहते हैं कि इस समस्या से निपटने के लिए जनता के नेतृत्व में आंदोलन की जरूरत है।
रोज़गार

देश में बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है। महामारी के विस्फोट और लॉकडाउन लगाने के बाद, उद्योग, छोटे धंधों, सेवा क्षेत्र और अनौपचारिक क्षेत्र में लगे लाखों लोग अपने काम-धंधे से हाथ धो चुके हैं।

कोरोना से पहले भी बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही थी।

नोटबंदी और उसके बाद गलत तरीके से लागू किए गए जीएसटी के चलते छोटे उत्पादकों और छोटे उद्यमों पर बहुत बुरा असर पड़ा है। नतीज़तन बेरोज़गारी में लगातार उछाल आता जा रहा है। 2017-18 के "पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS)", जिसके आंकड़ों को सरकार ने दबाने की कोशिश की थी, उसके मुताबिक़, बेरोज़गारी दर पिछले पांच दशकों के इतिहास में सबसे ज़्यादा तेजी से ऊपर चढ़ी है। 2018-19 के PLFS आंकड़ों में भी यही तस्वीर सामने आई।

लॉकडाउन उठाने और कुछ आर्थिक गतिविधियों के चालू होने के बाद भी ज़्यादातर लोगों को नौकरी वापस नहीं मिली है। कोरोना से पहले की तुलना में रोज़गार की स्थिति अभी बेहद नीचे हैं।

2019 में नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइज़ेशन (NSSO) ने भी एक सर्वे किया। लेकिन इस सर्वे के आंकड़े तो और भी स्याह हैं। 2019 में 15 से 59 साल के बीच की उम्र के लोगों में 67 फ़ीसदी ग्रामीण पुरुष, 21 फ़ीसदी ग्रामीण महिलाएं, 71 फ़ीसदी शहरी पुरुष और 19 फ़ीसदी शहरी महिलाओं ने पारिश्रमिक कार्यों में हिस्सेदारी ली।

रोज़गार के क्षेत्र में स्थिति मार्च के आखिरी हफ़्ते में लॉकडाउन लगाए जाने के बाद और भी ज़्यादा बदतर हो गर्ई। लॉकडाउन हटाने के बाद और कुछ आर्थिक गतिविधियां चालू होने के बाद भी ज़्यादातर नौकरियों पर पुरानी बहाली नहीं हो पाई है, कोरोना के पहले की तुलना में रोजग़ार की मौजूदा स्थिति बेहद नीचे है।

एक निजी शोध संगठन, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इक्नॉमी (CMIE) रोज़गार की स्थितियों पर राष्ट्रीय सर्वे कर रहा है। CMIE सर्वे के लिए जो सैंपल उपयोग किए जा रहे हैं, उनमें अनौपचारिक क्षेत्र के कामग़ारों का बहुत कम प्रतिनिधित्व शामिल है। परिणामस्वरू CMIE के सर्वे में बेरोज़गारी की समस्या का कम आंकलन किया गया है और लॉकडाउन हटने के बाद रिकवरी को ज़्यादा बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है।

इसके बावजूद हाल के CMIE मासिक आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण बेरोज़गारी दर 6.9 फ़ीसदी पर है, वहीं राष्ट्रीय बेरोज़गारी दर अक्टूबर में 6.89 फ़ीसदी रही। मनरेगा में शुरुआत में काम देने में जो उछाल था, वह लॉकडाउन हटने के बाद खत्म हो गया है। अक्टूबर में सिर्फ़ 17 करोड़ 30 लाख 'व्यक्ति-दिन (पर्सन-डेज़)' का काम दिया गया। जबकि सितंबर में यह आंकड़ा 26 करोड़ 50 लाख था।

बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी हजारों परिवारों के लिए तनाव बढ़ा रही है।

बिना नियमित आय के वे लोग स्वास्थ्य सेवाएं नहीं ले सकते, अपने बच्चों को स्कूल भेजने या परिवार के खाने का तक इंतजाम नहीं कर सकते। NCRB के आंकड़ों के मुताबिक़, दैनिक मज़दूरी करने वालों की आत्महत्या दर 2019 में बढ़ी है। 2020 में नौकरियां जाने से यह समस्या और तेज हो गई।

लेकिन मोदी सरकार इस समस्या का समाधान करने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही है, उसे परवाह ही नहीं है।

बहुत थोड़े मौद्रिक राहत पैकेज से आजीविका दोबारा सुचारू होने में नाकामयाब रही है और ना ही नौकरियां पैदा हो रही हैं। जिन लोगों को आजीविका का नुकसान हुआ, सरकार उन्हें मदद के तौर पर नगदी के हस्तांतरण में नाकामयाब रही। सरकारी और अर्द्धसरकारी संस्थाओं में लाखों रिक्तियां हैं, जिन्हें भरा नहीं जा रहा है।

मौजूदा बिहार चुनाव के कैंपेन ने बताया है कि लोगों के लिए रोज़गार कितनी अहमियत रखती है। महागठबंधन द्वारा 10 लाख नौकरियों का वायदा किया गया, जिसे जातियों और समुदायों के परे जाकर बहुत सराहना मिली, खासकुर युवा वर्ग ने इस वायदे को सर-आंखों पर लिया।

बिना नियमित आय के वे लोग स्वास्थ्य सेवाएं नहीं ले सकते, अपने बच्चों को स्कूल या परिवार के खाने का तक इंतजाम नहीं कर सकते।

चाहे चुनावों के नतीज़े जो भी हों, बिहार चुनाव कैंपेन ने रोजगार श्रृजन पर सबका ध्यान केंद्रित करवाया है।

इसलिए जरूरी है कि बेरोज़गारी के खिलाफ़ संघर्ष को अब प्राथमिकता बनाया जाए।

रोज़गार के आंदोलन में युवा आंदोलन की बड़ी अहमियत होगी। लेकिन अब यह ज़्यादा विस्तृत अहम मुद्दा है, जिसमें दूसरे कामग़ार लोगों के संगठनों, ट्रेड यूनियनों, कृषि कामग़ारों और ग्रामीण कामग़ार संगठनों, छात्र और महिला आंदलनों का शामिल होना जरूरी है।

यह याद रखा जाना जरूरी है कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में बेरोज़गार लोगों की बड़ी संख्या कामग़ार वर्ग से आती है। उन्हें इकट्ठा किया जाना चाहिए।

रोज़गार के लिए संघर्ष महिलाओं का मुद्दा भी है, क्योंकि इनमें एक बड़ा हिस्सा इस वक़्त बेरोज़गार है।

पढ़े-लिखे युवा इस वक़्त स्याह भविष्य की ओर देख रहे हैं। इस सभी वर्गों को रोज़गार के संघर्ष में शामिल करना होगा।

इस मिले जुले संघर्ष में ध्यान इस बात पर केंद्रित होना चाहिए कि बेरोज़गार लोगों को राज्य बेरोज़गारी भत्ता मुहैया कराए।

रोज़गार आंदोलन में युवा आंदोलन एक अहम भूमिका अदा करेगा।

आयकर स्लैब में ना आने वाले लोगों के लिए 7,500 रुपये प्रति महीने की आय की मदद की मांग, सभी को जोड़ने वाला एक बड़ा मुद्दा है। एक शहरी रोज़गार गारंटी योजना जरूर होनी चाहिए। मनरेगा को विस्तार देकर उसमें एक साल में बढ़े हुए भत्ते के साथ 200 दिनों का काम देना चाहिए।

बड़े खाद्यान्न भंडारों को देखते हुए, नवंबर के बाद भी नि:शुल्क खाद्यान्नों का वितरण होना चाहिए।

कृषि और इंफ्रास्ट्रक्चर में रोजग़ार पैदा करने के लिए ज़्यादा सार्वजनिक निवेश किया जाना चाहिए। आखिर में, केंद्र और राज्य सरकारों को अलग-अलग विभागों और राज्य उद्यमों में खाली रिक्तियों को युद्ध स्तर पर भरना चाहिए।

(प्रकाश करात CPI(M) के नेता हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

यह लेख मुख्यत: द लीफ़लेट पर प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Protecting Employment and Creating Jobs Matters the Most

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest