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राजस्थान: 'भाजपा का असफल मॉडल'

बदनाम आर्थिक नीतियों, कल्याणकारी योजनाओं में कटौती और कृषि की अत्याधिक उपेक्षा के मेल ने राजस्थान की जनता को बीजेपी की अगुवाई वाली राजे सरकार के खिलाफ खड़ा कर दिया है।

वसुंधरा राजे
Image Courtesy: Financial Express

राजस्थान में बीजेपी के लिए यह सबसे अच्छा समय रहा: उन्होंने दिसंबर 2013 में विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की और 200 सदस्यीय विधानसभा में 163 सीटों पर जीत दर्ज की, जिसके चलते कांग्रेस को 21 सीट मिली और अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा था। कुछ महीनों के भीतर ही मोदी ने भाजपा को केंद्र की सत्ता में जीत का नेतृत्व किया। कोई इससे ज़्यादा क्या चाह सकते हैं?

इन पांच साल के बीजेपी शासन के नतीज़े के रुप में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे राज्य में एक हार की लड़ाई लड़ रही हैं। विभिन्न रिपोर्ट और चुनाव पूर्व सर्वेक्षण यह इंगित करते हैं कि बीजेपी सत्ता से बाहर जा रही है। इसके संकेत इससे मिलते हैं कि राजे राज्य के दौरे के प्रति उदासीनता दिखाई दी, मोदी की रैली के लिए भी पहले जैसा उत्साह नहीं है, अमित शाह की मास्टर रणनीति भी यहां ठोकरें खा रही है। पैसा पानी की तरह बह रहा है, पूरा राज्य बीजेपी की होर्डिंग और झंडे से पटा हुआ है, लेकिन ऊर्जा नहीं है क्योंकि लोग नाराज़ और असंतुष्ट हैं।

तो चूक कहाँ हुई?

यह मीडिया कमेंटेटर और चुनाव विश्लेषकों की परंपरा रही है कि वे जाति, व्यक्तिगत लोकप्रियता (या अन्यथा), विद्रोह और गुटवाद आदि जैसी चीज़ोंके आधार पर चुनावी उतार-चढ़ाव को देखते हैं। इसे चुनाव विश्लेषण की शाही या महल द्वारा रची साज़िश की विधि कहा जा सकता है। "राजे चुनाव हार रही हैं क्योंकि वह रात के आठ बजे के बाद उपलब्ध नहीं है"। "पद्मावत की वजह से राजपूत गुस्से में हैं"। "खराब टिकट वितरण के कारण भाजपा कई सीटों को खो रही है"। और इसी तरह की जुमलेबाज़ी की जा रही है।

ऐसे विश्लेषक गहरे कारणों की तलाश करने के विपरीत काम करते हैं क्योंकि कुछ हद तक विचारधारात्मक शत्रुता के कारण और आंशिक रूप सेक्योंकि ऐसा करने में काफी मेहनत की ज़रूरत होती है I और फिर, यह एक चक्र बन जाता है - हर कोई यही लिखता है या कहता है कि जाति समीकरण राजे को नुकसान पहुंचा रहे हैं, और वे एक दूसरे के हवाले से ही अपनी बात कहते रहते हैं जिससे एक 'सत्य' बन जाता है।

राजस्थान में, राजे सरकार द्वारा लागू की गयी उन आक्रामक आर्थिक नीतियों के खिलाफ क्रोध है, जिसे दिल्ली में मोदी और उनके याचिकाकर्ताओं द्वारा सराहना की जाती है। इन नीतियों की कुछ प्रमुख विशेषताएं यहां दी गई हैं।

किसानों की उपेक्षा: राजे सरकार ने किसानों के बीच पहले से मौजूद बिजली, डीजल, बीज, उर्वरक, कीटनाशक इत्यादि जैसे आवश्यक की कीमतों को बढ़ने से रोकने में नाकाम रही और उसकी वजह से लागत में इज़ाफे से असंतुलन को बढ़ा दिया। इसने न्यूनतम समर्थन मूल्यों (एमएसपी) में बढ़ोतरी (या उसमें लागत जोड़ने) को मना कर दिया है या व्यापक रूप से खरीद केंद्र स्थापित करने से इंकार कर दिया है। नतीजतन, बड़े किसान और अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि बड़े व्यापारियों ने कीमतों को कम कर अपनी मर्ज़ी से छोटे किसानों को लूट लिया है। यहां पूरी एमएसपी प्रणाली व्यावहारिक रूप से ध्वस्त हो गई है। मिसाल के तौर पर, इस साल अक्टूबर में 2,340 रुपये के एमएसपी की तुलना में किसानों को ज्वार के लिए मात्र 1,829 रुपये प्रति क्विंटल की औसत दर ही मिली। न्यूज़क्लिक द्वारा पहले बताया गया था कि उरद दाल को 5,600 रुपये की एमएसपी की तुलना में 2,904 रुपये प्रति क्विंटल औसत कीमत पर बेचा गया था।

नतीजतन, किसानों के बीच व्यापक असंतोष पैदा हुआ जो बेहतर कीमतों के लिए बड़े संघर्ष के रूप में बार-बार टूट पड़ा। 2017 में, राज्य सरकार मांगों के आगे झुकने लगी, लेकिन फिर पीछे हट गई, और वास्तव में, प्रदर्शनकारियों पर हमला किया गया, उनके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और किसानों को जयपुर जाने से रोक दिया गया। इस विश्वासघात ने किसानों के क्रोध में बढ़ा दिया।

ग्रामीण मज़दूरी में ठहराव: श्रम ब्यूरो के मुताबिक, जनवरी 2015 और अगस्त 2018 के बीच, कृषि श्रमिकों की मदूरी प्रति दिन 278.67 रुपये से बढ़कर 291.25 रुपये हो गई और महिलाओं की 202.73 रुपये से 254.00 रुपये प्रति दिन हो गई। यह तीन साल और आठ महीने में लगभग 4.5प्रतिशत की वृद्धि है। मुद्रास्फीति दर प्रतिवर्ष लगभग 4-5 प्रतिशत है। दूसरे शब्दों में, राजस्थान में बीजेपी शासन के तहत वास्तविक मदूरी में कमी आई है। कृषि मज़दूरी में यह ठहराव राज्य में बड़ी संख्या में कृषि श्रमिकों के बीच गुस्सा के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक है।

औद्योगिक मज़दूरों का गुस्सा: राज्य के औद्योगिक मज़दूरों को राजे सरकार के हमले का सामना करना पड़ रहा है। श्रम कानूनों को बड़े पैमाने पर कमज़ोर कर दिया गया है, जिसे मोदी सरकार ने पूरे देश के स्तर पर करने की हिम्मत की है, उससे कहीं ज़्यादा यहां किया गया है, और मज़दूरी कम कर दी गयी है, जो इस तथ्य परिलक्षित होता है कि राजस्थान में न्यूनतम मज़दूरी देश में सबसे कम है। 2018 में नवीनतम अधिसूचना के अनुसार, 'अकुशल' श्रमिकों के लिए न्यूनतम मासिक मज़दूरी दर 5,538 रुपये, 'अर्द्ध कुशल' श्रमिकों के लिए 5,798 रुपये, 'कुशल' श्रमिकों के लिए 6,058रुपये और 'अत्यधिक कुशल' श्रमिकों के लिए 7,358 रुपये है। इस पर ध्यान दें कि न्यूनतम मज़दूरी की गणना दर्शाती है कि 18,000 रुपये एक परिवार के लिए न्यूनतम आवश्यकता है, और केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए यह सिफारिश की जाती है। यह उद्योग अधिनियमों और कारखानों अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधानों को कम करके श्रमिकों को मज़दूरी पर जब चाहे लेने और जब चाहे हटा देने के लिए खुली छूट दी गई है जिसने श्रमिकों को तबाही के कगार पर धकेल दिया है। वे राजे सरकार के खिलाफ गुस्से से भरे हुए हैं।

बेरोगारी: इस साल सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के मुताबिक, राजस्थान में युवा (20-29साल के) में बेरोगारी दर अभूतपूर्व स्तर 55 प्रतिशत तक पहुंच गई है, जो देश में सबसे ज़्यादा है। यहां तक कि स्नातकों के बीच भी, बेरोगारी 21प्रतिशत पर बढ़ रही है। महिलाओं में, यह 53 प्रतिशत है। राज्य में खेती में नुकसान, कृषि और औद्योगिक श्रमिकों के लिए मज़दूरी की कम दरों,सार्वजनिक व्यय और निवेश में कमी ने इस स्थिति को और खराब कर दिया है, क्योंकि तथ्य यह है कि ग्रामीण नौकरियों की गारंटी कार्यक्रम आदि जैसे उपायों को ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है। इस बढ़ते संकट के प्रति राजे सरकार मूक दर्शक बन गई है। इसने लोगों के बीच विशेष रूप से युवाओं के बीच गहरा और निर्बाध क्रोध पैदा किया है। यह याद रखना चाहिए कि युवाओं ने बड़ी संख्या में 2014 में हर साल 1 करोड़ लोगों को रोगार देने के मोदी के वादे पर इन्हें जिताया था। राजस्थान में भी, 2013 के विधानसभा चुनावों के अभियान में, राजे और अन्य लोगों द्वारा समान राज्य स्तरीय वादे किए गए थे। इसलिए, विश्वासघात की भावना काफी अधिक बढ़ी है।

इसके अलावा, राज्य सरकार के पर आरबीआई के अनुसार भारी मात्रा में कर्ज बढ़ा है - जीएसडीपी का 33.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी है मुकाबले2014 में 23.3 प्रतिशत के जब राजे सरकार ने चार्ज किया था। इनमें से अधिकांश कर्ज़ बैंकों का है। और, बढ़ी देनदारियों का यह मतलब नहीं है कि सरकार ने लोगों के कल्याण पर अधिक पैसा खर्च किया है। वास्तव में, कुल व्यय के हिस्से के तौर पर विकास के खर्च में कमी आई है।

राजस्थान में राजे सरकार के हारने के ये कुछ असली कारण हैं। और, यह मोदी के लिए भी एक सबक होगा - क्योंकि उनकी सरकार पूरे देश में इसी तरह की नीतियों का पालन कर रही है।

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