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राजस्थान विधानसभा चुनाव : क्या माकपा बन सकती है कांग्रेस और बीजेपी का विकल्प?

राज्य के इतिहास में शायद पहली बार कांग्रेस और बीजेपी के खिलाफ वामपंथ भी एक बड़ी ताक़त बनकर उभर सकती है। राजस्थान में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) 29 सीटों पर लड़ रही है और राज्य में माकपा के बड़े नेता अमरा राम को राजस्थान लोकतान्त्रिक मोर्चा (तीसरे मोर्चा) ने मुख़्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है।
CPI(M)

इस बार राजस्थान के चुनाव देखने लायक होंगे क्योंकि राज्य के इतिहास में शायद पहली बार कांग्रेस और बीजेपी के खिलाफ वामपंथ भी एक बड़ी ताक़त बनकर उभर सकती है। राजस्थान में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) 29 सीटों पर लड़ रही है और राज्य में माकपा के बड़े नेता अमरा राम को राजस्थान लोकतान्त्रिक मोर्चा (तीसरे मोर्चा) ने मुख़्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है। राज्य में कांग्रेस और बीजेपी को टक्कर देने के लिए राजस्थान लोकतान्त्रिक मोर्चा बनाया है जिसमें जनता दल (सेक्युलर), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी और एमसीपीआई (यू) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी शामिल हैं। 

यह राज्य के इतिहास में पहली बार हुआ है कि राज्य के चुनावों में वामदलों ने अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया है। इससे ये भी ज़ाहिर होता है कि राज्य के इतिहास में वाम आंदोलन कभी भी इतना ताक़तवर नहीं था। जानकार इसकी वजह सूबे में सामंतवाद के व्यापक प्रभाव को बताते हैं। बहरहाल माकपा की ताक़त राज्य में सबसे ज़्यादा सीकर, हनुमानगढ़, गंगानगर, बीकनेर और चूरू ज़िलों में बताई जा रही है। इसकी वजह इलाके में लगातार ज़ोर पकड़ते किसान आंदोलन है, जो माकपा से जुड़े किसान संगठन अखिल भारतीय किसान सभा के अगुवाई में चलाया जा रहा है। 

पार्टी ने इन्हीं क्षेत्रों में 29 सेटों पर लड़ने की घोषणा कर चुकी है जिसमें से 15 सेटों पर ज़ोरदार मुकाबले की उम्मीद है। यहाँ पार्टी सीकर में 6 सीटों पर, 3 चूरू, 3 हनुमानगढ़, 3 बीकानेर और 2 नागौर सेटों पर लड़ेगी। गौरतलब है कि 2008 के विधानसभा चुनावों में पार्टी इसी इलाके से 3 सीटों पर विजयी रही थी। इससे पहले 2003 के विधान सभा चुनावों में पार्टी को सिर्फ 1 सीट मिली थी। लेकिन 2013 में बीजेपी के लहर के चलते पार्टी को एक भी सीट प्राप्त नहीं हुई थी। 

राजस्थान में पार्टी का आंदोलन से जुड़ा इतिहास रहा है। इन्हीं आंदोलनों का नतीजा है कि आज पार्टी एक विकल्प बनकर उभर पायी है। 2008 में तीन सीटों पर जीत की वजह यह थी कि पार्टी और अखिल भारतीय किसान सभा का पानी और बिजली को लेकर आंदोलन चला। 2004 में यह आंदोलन गंगानगर, बिकानेर और हनुमानगढ़ ज़िले में हुआ था। हुआ यह था कि 2002  में कांग्रेस सरकार ने इंदिरा गाँधी नहर के पानी की सप्लाई किसानों के लिए कम करने का निर्णय लिया था जिसे लागू बीजेपी सरकार ने किया। 2004 में वसुंधरा राजे की बीजेपी सरकार ने उसको लागू किया। जहाँ पहले किसानों को प्रति हज़ार हेक्टेरयर 5.23 क्यूसेक पानी मिलता था वहीं हज़ार हेक्टेयर पर अब उन्हें 3.5 क्यूसेक पानी मिलने लगा। इसके खिलाफ किसान सभा ने आंदोलन किया कई लोग जेल गए और कइयों ने पुलिस दमन सहा। लेकिन आखिरकार बीजेपी सरकार को उनकी माँगे माननी पड़ी और फिर से उतना ही पानी मिलने लगा। 

इसी तरह 2000 में किसानों को दी जाने वाली बिजली को 6. 6 बिलियन से 3.8 बिलियन यूनिट्स कर दिया गया था। साथ ही बिजली की कीमतों में कांग्रेस सरकार ने लगातार बढ़ोत्तरी की। बीजेपी ने 2003 में सत्ता में आने से पहले कहा था कि वह बिजली के दाम कम करेगी और यूनिट्स को भी बढ़ाया जायेगा। लेकिन सत्ता में आने के बाद 1.10 रुपये प्रति यूनिट बिजली महंगी कर दी गयी और पहले जीतनी बिजली भी नहीं दी गयी। माकपा ने इसके खिलाफ भी लम्बा आंदोलन चलाया और आखिर सरकार को किसानों के सामने झुकना पड़ा। माकपा राज्य कमेटी के सदस्य गुरचरण मौर का कहना है कि इसके बाद से आज तक किसानों के लिए बिजली की कीमत नहीं बढ़ी हैं। यह किसान सभा के द्वारा किये गए आंदोलनों की ही सफलता थी। 

हालाँकि 2013 में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी। लेकिन 2017 से शेखावाटी इलाके में चल रहे किसान आंदोलन ने इस बार पार्टी की उम्मीदें बढ़ा दी हैं। इसकी मुख्य वजह है कि पिछले साल के किसान आंदोलन, जिनके सामने वसुंधरा राजे सरकार को झुकना पड़ा था। 

दरअसल केंद्र सरकारों की बाज़ार परस्त नीतियों की वजह से किसान लगातार कर्ज़ों में डूबते जा रहे हैं। इन्हीं नीतियों को राजस्थान में सरकारों ने भी आगे बढ़ाया है। यही वजह थी कि किसान पूर्ण कर्ज़ा माफ़ी ,लागत का डेढ़ गुना दाम, पेंशन,पशु व्यापार की दोबारा बहाली और दूसरी माँगों को लेकर आंदोलन कर रहे थे। नवंबर 2017 में इस आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा और 13 दिनों के लिए कई ज़िलों में चक्का जाम कर दिया। आखिरकार वसुंधरा सरकार ने किसानों की माँगे लिखित में मानी। लेकिन उन्हें ज़मीन पर नहीं लागू कियाI जिसके बाद किसानों ने आंदोलन को जयपुर तक ले जाने की बात की और राज्य भर में किसान नेताओं की गिरफ्तार किया गया। लेकिन आखिर जीत किसानों की हुई। सरकार ने उन किसानों के 50,000 रुपये तक के क़र्ज़ माफ़ किये जिनका खाता कॉर्पोरेटिव बैंकों में था। इस वजह से किसानों का 8 हज़ार करोड़ रुपये क़र्ज़ माफ़ हुए। हालाँकि पेंशन और दूसरी कई माँगों को अब भी लागू नहीं किया गया है। लेकिन फिर भी यह सूबे में वाम आंदोलन की सबसे ऐतिहासिक जीत है। 

इसी से उत्साहित पार्टी का यह दवा है कि इन विधानसभा चुनावों के बाद माकपा राज्य में एक बड़ी ताक़त बनकर उभरेगी। गुरचरण मौर का कहना है कि इस बार उम्मीद है राजस्थान में वो होगा जो इससे पहले दूसरे राज्य में नहीं हुआ। पार्टी सूत्रों का कहना है कि फिलहाल बीएसपी और आम आदमी पार्टी के लोगों से बात चल रही है। अगर यह दोनों भी इस मोर्चे में शामिल होते हैं तो पार्टी को उम्मीद है कि त्रिशंकू विधानसभा की सूरत में कर्णाटक चुनावों जैसे नतीजे आ सकते हैं। 

किसान आंदोलन के साथ ही माकपा और उससे जुड़े संगठन राज्य में लिंचिंग के खिलाफ भी पुरज़ोर तरीके से सामने आते रहे हैं। राजस्थान मॉब लिंचिंग का गढ़ बनकर उभरा है और एमनेस्टी इंटरनेशनल की हाल में आयी रिपोर्ट के हिसाब से वह हेट क्राइम में 3 नंबर का राज्य है। इन अपराधों का सबसे पुरज़ोर विरोध किसान सभा और अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति ने किया है। इसके साथ ही माकपा से जुड़ा स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफ़आई) भी राज्य में सरकारी स्कूलों के निजीकरण के खिलाफ लड़ता रहा है। जिसमें उसने जीत भी हासिल की है और फिलहाल सरकार ने सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में देने के काम को रोका है। हाल ही में हुए छात्र संघ के चुनावों में एसएफ़आई ने 27 कॉलेजों अध्यक्ष की सीट हासिल की है। 

इसके साथ ही एक और बात को रेखांकित करने की ज़रूरत है। अगर माकपा यहाँ अपनी ताक़त बढ़ाने में कामयाब होती है तो इससे न सिर्फ राज्य में बल्कि देश भर में वाम मोर्चे के तीसरी ताक़त की तरह उभरने का रास्ता मज़बूत हो सकता है। यह चुनाव 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों को मद्देनज़र और भी ज़रूरी हो जाते हैं। इसीलिए राजस्थान विधानसभा चुनावों में वामदलों और खासकर माकपा की चुनावी मुहीम पर नज़र रखी जानी चाहिए। 

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