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रोमिला थापर का सी.वी. किसे चाहिए?

थापर ने भारतीय इतिहास के उन साम्राज्यवादी संस्करणों पर सवाल उठाए थे, जिसे हिंदुत्व ब्रिगेड आज भी मानती है।
romila thapar

... एक इतिहासकार जो बिना किसी थकान के ज्ञान की खोज़ में रहती है और जिनके काम का प्रकाशन काफी विपुल है, और जो सत्य के सभी समर्पित पक्ष से ऊपर है। ...देश का प्रारंभिक इतिहास प्रोफेसर थापर द्वारा लिखा/प्रकाशित किया गया है, जिन्हें मैं अब पेश करता हूं, लगभग किसी भी अन्य विद्वान से कहीं अधिक। उस दौर के इतिहासकार जो गंभीरता से स्वीकार की गई कल्पनाओं का खंडन करना चाहते हैं और सामान्य अंधेरे को दूर करना चाहते हैं, उन्हें कई उच्च गुणों की आवश्यकता होगी। (2002 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा रोमिला थापर को उनके काम के लिए मानद डॉक्टरेट की उपाधि/ प्रशस्ति पत्र प्रदान करते हुए)

यह 1960 का साल था, जब रोमिला थापर एक युवा इतिहासकार ने, अशोक और मौर्य शासन के पतन पर 400 से अधिक पेज का मोनोग्राफ लिखा था। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के अनुसार, उन्होंने इसे 2017 में प्रकाशित किया था, इस मोनोग्राफ के जरिए "भारतीय इतिहास के लगभग पूरे दौर का पता लगाने" की कोशिश की गई थी। उस मोनोग्राफ को आज एक क्लासिक माना जाता है।

थापर की एक विद्वतापूर्ण/स्कॉलर वाली यात्रा 88 साल की उम्र में आज़ भी जारी है। वे दुनिया के अग्रणी बुद्धिजीवियों में से एक हैं, जिन्हें भारतीय प्राचीन इतिहास पर बेजोड़ काम के लिए जाना जाता है, जिसे यह साक्षात्कार स्वीकार भी करता है। निस्संदेह, उनके काम ने इतिहास के छात्रों की कम से कम तीन पीढ़ियों को शिक्षित किया और प्रेरित किया है।

इसका शायद ही उल्लेख किया जाना चाहिए कि थापर ने न जाने कितनी पुस्तकों और अकादमिक पेपरों को प्रकाशित किया है। उन्होंने दो बार, पद्म भूषण को अस्वीकार कर दिया, जो सरकार द्वारा दिए जाने वाले सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार में से एक है।

अब थापर फिर से, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) प्रशासन द्वारा एक अजीब जानकारी मांगने की वजह से चर्चा में हैं, यह ऐसी जगह है जहाँ उन्होंने लगभग तीन दशकों से शिक्षण और प्रशासनिक पदों पर कार्य किया है। जेएनयू के आधुनिक इतिहास के प्रतिष्ठित विभाग की स्थापना में थापर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह वह विभाग है जिससे वे1993 में सेवानिवृत्त होने के बाद भी प्रोफेसर एमेरिटस के रूप में जुड़ी रही हैं। अब विश्वविद्यालय उनसे सीवी यानी करिकुलम वाइटे चाहता है, ताकि एक मानद एमिरिटस प्रोफेसर के योगदान की "समीक्षा" की जा सके।

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अकादमिक सर्किल इसके खिलाफ विद्रोही तेवर में है, क्योंकि वे इसे "जेएनयू के शिक्षण और सीखने की परंपराओं को बदनाम करने" का एक ओर कदम मानते हैं और साथ ही थापर को भी बदनाम करने की कोशिश के रूप में देखते हैं। एक एमेरिटस प्रोफेसरशिप केवल एक मानद उपाधि है, जिससे एक विद्वान को या मूल्यवान संस्थान को नवाज़ा जाता है। JNU शिक्षक संघ (JNUTA) ने कहा है कि यह निर्विवाद रूप से विश्वविद्यालय के लिए सम्मान की बात है कि थापर जैसे विद्वान/स्कॉलर इससे जुड़े हुए हैं।

थापर को अपना सीवी भेजने के लिए कहने से पहले, जेएनयू के प्रशासन (बाद में कहा गया कि 11 अन्य को भी इसी तरह के पत्र भेजे गए थे) को अमेरिकी दार्शनिक सोसाइटी उनके बारे में क्या कहती है उस पर नज़र डाल लेनी चाहिए थी, जिसे संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) में विद्वानों की सबसे बड़ी सोसाइटी में से एक माना जाता है, वह उनके काम को मानती है। 276 साल पहले अमेरिका के संस्थापक पिता बेंजामिन फ्रैंकलिन ने इसे स्थापित किया था, इस सोसाइटी ने जून में थापर को इसके सदस्य के रूप में चुना था।

2008 में, थापर को मानवतावाद के अध्ययन के लिए 10 लाख डॉलर के क्लूज पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था, उन्हे यह पुरस्कार इतिहासकार पीटर ब्राउन के साथ नवाज़ा गया था, जो प्रिंसटन विश्वविद्यालय में एक उभरते प्रोफेसर हैं। जेएनयू के प्रशासकों की जानकारी के लिए बता दें, कि इस पुरस्कार को नोबेल के रूप में माना जाता है, जो नोबेल पुरस्कारों से जुड़े विषयों को सम्मानित करता है। सौभाग्य से, जब भारत में प्रचलित चर्चा में ‘बुद्धिजीवी - को एक अपमानजनक व्यक्ति घोषित किए जाने की संभावना है – तब भी क्लूज पुरस्कार के प्रशासकों को इस बात ने परेशान नहीं किया था।

जेएनयू के कस्टोडियन, अपनी बौद्धिक-विरोधी छवि को उजागर करते हुए, थापर और अन्य विद्वानों को संदेश देना चाहते हैं कि शिक्षाविदों से परे उनके काम (थापर ने एक सार्वजनिक बौद्धिक व्यक्ति के रूप में एक शानदार भूमिका निभाई है, जो कभी भी सत्ता के मुहँ पर सच बोलने से नहीं कतराई हैं। न ही वर्तमान राजनीति को स्वीकार किया है।

इस साल के संसदीय चुनावों से ठीक पहले एक साक्षात्कार में, थापर ने साहसपूर्वक कहा था कि अल्पसंख्यकों को लगता है कि वे [प्रधानमंत्री नरेंद्र] मोदी के शासन में अलग-थलग पड़ गए हैं। उन्होंने यह भी टिप्पणी की थी कि भारत की शासक पार्टी अपनी हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा को सही ठहराने के लिए कैसे इतिहास का पुनर्लेखन कर रही है। यह उनकी स्पष्ट स्थिति है, न कि उनकी सीवी में सूचीबद्ध उपलब्धियां, जो कि जेएनयू के लिए प्रशासन के लिए असली रुकावट हैं।

थापर के अकादमिक कार्यों को हिंदुत्व धड़े ने हमेशा से ‘विवादास्पद’ माना है, क्योंकि उनका शोध संस्कृत के ग्रंथों की एक्सट्रपलेशन विधि के आधार पर हिंदू चरमपंथियों के पालतू सिद्धांतों के बजाय जांच के पेशेवर तरीकों के आधार पर रहा है। थापर द्वारा प्रारंभिक भारत का दस्तावेज़ीकरण हिंदुत्व के साथ रूढ़िवादी अतीत के मिथक से मेल नहीं खाता हैं। उनके लिए, भारत एक विशुद्ध हिंदू सभ्यता है; और इस दृष्टिकोण के राजनीतिक लाभों को शायद ही समकालीन भारत में विस्तृत करने की आवश्यकता है। दक्षिणपंथ उम्मीद करता है कि प्रतिगामी कदम, मूल्यवान अनुसंधान और छात्रवृत्ति को किनारे लगा उसकी कीमत पर अपनी लोकप्रिय स्थिति को मजबूत करेगा।

थापर दशकों से हिंदुत्व ब्रिगेड द्वारा उजागर किए गए ऐतिहासिक सिद्धांतों पर सवाल उठाती रही हैं। 1969 में पॉपुलर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कम्युनलिज्म एंड द राईटीन्ग ऑफ एनसिऐंट इंडियन हिस्टरी ने दक्षिणपंथ की 19 वीं सदी के औपनिवेशिक इतिहास-लेखन की तारीखों के बारे में मान्यताओं की त्रुटिपूर्ण निर्भरता को उजागर किया है। फिर, फरवरी 2003 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अतहर अली मेमोरियल व्याख्यान देते हुए, थापर ने स्पष्ट किया कि हिंदुत्व ब्रिगेड उसे क्यों नापसंद करती है।

इसका कारण इतिहास की औपनिवेशिक व्याख्या है, जिसे 19 वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने रचनात्मक रूप से तैयार किया और प्रचारित किया था। यह वह इतिहास है जिसे हिंदुत्व ब्रिगेड अभी भी और आसानी से स्वीकार कर लेती है, और इसलिए वे थापर और आधुनिक इतिहास लेखन के अन्य लेखकों को नापसंद कराते हैं।

जैसा कि थापर ने कहा, 1823 तक, जेम्स मिल द्वारा लिखित ब्रिटिश इंडिया का इतिहास उपलब्ध था और भारत में व्यापक रूप से पढ़ा जाता था और जो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का एक मानक पाठ बन गया था। इसमें, मिल ने भारतीय इतिहास को तीन — अवधियों में विभाजित किया- हिंदू सभ्यता, मुस्लिम सभ्यता और ब्रिटिश काल। 19वीं शताब्दी (1836 में मिल की मृत्यु) के बाद भारत में इस इतिहास को बड़े पैमाने पर बिना कोई प्रश्न किए स्वीकार कर लिया गया था।

इस प्रकार इस पुस्तक का प्रभाव 200 वर्षों तक भारतीय इतिहासलेखन और शोध पर रहा। मिल ने तर्क दिया था कि ‘हिंदू सभ्यता’ स्थिर और पिछड़ी हुई थी, 'मुस्लिम' युग केवल मामूली रूप से बेहतर था और यह ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्ति थी जो भारत की प्रगति की एक प्रगतिशील एजेंसी बन गई थी।

भारतीय इतिहास का हिंदुत्व संस्करण, दुखद रूप से, इस कालखंड को आज भी स्वीकार करता है। जैसा कि थापर ने कहा है, कि हिंदू दक्षिणपंथ ने इनके प्रत्येक चरण के रंग को ही बदल दिया है: इसने हिंदू काल को स्वर्ण युग बता दिया, मुस्लिम काल को अत्याचारी और उत्पीड़न का काल बताया और औपनिवेशिक काल को धुंधला काल यानी कम महत्व का काल करार दिया।

जेएनयू द्वारा जो किया जा रहा है, वह किसी भी तरह से थापर के साथ हिंदुत्ववादियों का पहला टकराव नहीं है। न ही उनके द्वारा अपमान करने की कोशिश वाली एकमात्र विद्वान हैं। दो दशक पहले, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने केंद्र में सत्ता संभाली थी और उस वक़्त भी शैक्षिक पाठ्यक्रम को फिर से लिखने के बारे में तय किया गया था, जिससे इसे वे अपने स्वयं के रूढ़िवादी स्वाद में ढाल सके। जैसे-जैसे यह परियोजना आगे बढ़ी, वैसे वैसे ही बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों का संघ परिवार के इतिहास के बारे में टकराव हुआ। फिर, उस समय भी उनके जीवन को कठिन बनाने या उन्हें अपमानित करने के लिए विभिन्न हथकंडों का उपयोग किया गया।

इसने इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च- द्वारा जारी टूवार्ड्स फ्रीडम प्रोजेक्ट को रोक दिया, जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय के सुमित सरकार और जेएनयू के केएन पणिक्कर द्वारा संपादित किया जा रहा था। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद ने भी इतिहास से उन सभी पाठ को हटा दिया जिन्हे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रमुख केएस सुदर्शन- ने "हिंदू विरोधी यूरो-भारतीयों" कहा था।

2001 में, जब NCERT इस आधार पर स्कूल की पाठ्यपुस्तकों से पैसेज निकाल रहा था कि वे एक समुदाय या उनकी भावनाओं को आहत करते हैं, तो आर्य समाजियों का एक प्रतिनिधिमंडल मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी से मिला और उन्होंने थापर और दिल्ली विश्वविद्यालय के आरएस शर्मा इतिहासकारों और एनसीईआरटी के अर्जुन देव की गिरफ्तारी की मांग की। जोशी ने फिर से अपनी थीसिस (मान्यता) को दोहराया कि "अकादमिक आतंकवादी" सशस्त्र आतंकवाद से अधिक खतरनाक हैं।

विवाद को गढ़ने के लिए, जैसे कि थापर की सीवी की मांग करना, भारतीय डायस्पोरा में हिंदुत्व के एक घटिया अभियान की भी याद दिलाता है, उस वक़्त 2002 में यूएस लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस मे थापर को सम्मानित किया था। पुस्तकालय उन्हे ‘दक्षिण की संस्कृतियों के देश’ की पहली क्लूग चेयर घोषित करना चहता था।

जबकि इतिहास के गंभीर छात्रों द्वारा इस सम्मान का स्वागत किया गया था, दक्षिणपंथी/राइट-विंगर्स ने इसे "एक महान गलती" बताया था और 2,000 से अधिक हस्ताक्षर इकट्ठा कर इसे रद्द करने की मांग की थी। राजनीतिक टिप्पणीकार, दिवंगत प्रफुल्ल बिदवई ने उस समय तर्क दिया था कि यह अभियान "मैकार्थीवाद के पुनर्जन्म" का प्रतिनिधित्व करता है।

1950 के अमेरिका और वर्तमान भारत में राजनीतिक परिस्थितियों का मैट्रिक्स (और भारतीय डायस्पोरा में कई का दृष्टिकोण) समान है। भारत और विदेशों दोनों में हिंदू राष्ट्रवादी, दुनिया में भारत की स्थिति को लेकर संवेदनशील हैं और खुद को ‘खतरनाक’ तत्वों के खिलाफ भारतीय राष्ट्र के उग्र रक्षकों के रूप में देखते हैं, आमतौर पर मुस्लिम को या फिर कम्युनिस्ट/मार्क्सवादी को वे ‘खतरनाक’ तत्व मानते हैं।”

बिदवई ने इस मामले में एक बढ़िया मिसाल पेश की कि, जब अमेरिकी रूढ़िवादियों ने अपने राजनीतिक और वैचारिक विरोधी वाम-पंथी विचारधाराओं को अपमानित करने के लिए गहरे धर्म-आधारित संदेह को बढ़ावा दिया था, वह एक उपयुक्त तुलना थी। उन्होंने अमेरिका में राष्ट्रवाद के एक शक्तिशाली और खतरनाक कॉकटेल को उज़ागर किया था, जो तथाकथित ईसाई मूल्यों पर आधारित था, जिसकी पहचान को रूढ़िवाद और इसके राजनीतिक प्रतिबिंबों और संस्थानों के लिए निर्विवाद रूप से समर्थन हासिल था।

स्पष्ट रूप से, जितनी अधिक चीजें बदलती हैं, वे उतना ही समान रहती हैं।

सुभाष गताडे एक सामजिक कार्यकर्ता और विद्वान हैं। लेख में विचार व्यक्तिगत हैं।

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