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रफाल सौदाः सुप्रीम कोर्ट को सौंपे जवाब में पीएम मोदी के दोष को छिपाने की एक कोशिश!

16 पेज का ये जवाब कई सवालों पर ख़ामोश है लेकिन इससे अधिक जो बात संदेह पैदा करती है वह ये कि यह जवाब बिना तारीख़ का और अहस्ताक्षरित है। साथ ही केंद्र ने इस बात का खुलासा नहीं किया कि जवाब सौंपने वाली अथॉरिटी कौन है।
Rafale Deal

फ्रांस से 36 रफाल विमान की ख़रीद प्रक्रिया के विवरण के संबंध में जानकारी मांगने वाली याचिका के जवाब में सोमवार को नरेंद्र मोदी सरकार ने 16 पेज का दस्तावेज़ सुप्रीम कोर्ट को सौंपा। इस दस्तावेज़ में दिए गए जवाब से ज़्यादा सवाल ही खड़े हुए। यह निश्चित रूप से इस बात पर प्रकाश नहीं डालता कि यह देश इस सौदे के लिए सरकारी ख़ज़ाने से इतना ज़्यादा ख़र्च क्यों कर रहा है।

याचिकाकर्ताओं, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी तथा यशवंत सिन्हा और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण को दिए गए मोदी सरकार के जवाब से लगता है कि प्रधानमंत्री की भूमिका को छिपाने का प्रयास है और उनके हस्तक्षेप के चलते अन्य मंत्रालयों द्वारा इन प्रक्रियाओं में उल्लंघन किया गया।

जो तथ्य अधिक संदेह पैदा करता है वह यह कि दिए गए जवाब में तारीख़ नहीं है और अहस्ताक्षरित है, साथ ही केंद्र ने यह खुलासा नहीं किया है कि अदालत को जवाब सौंपने वाली अथॉरिटी कौन है।

10 अप्रैल 2015 को पेरिस में पीएम मोदी द्वारा किए गए विवादास्पद सरकार से सरकारी ख़रीद की इस घोषणा ने कई सवाल उठाए थे। अपने जवाब में सरकार ने अपनाए गए प्रक्रिया के विवरण में उन सवालों में से किसी का जवाब नहीं दिया है।

सुप्रीम कोर्ट को सौंपे अपने जवाब में सरकार ने स्पष्ट किया है उसने 36 रफाल विमान की ख़रीद के लिए इंटर गवर्नमेंट अग्रीमेंट (IGA) मार्ग को अपनाया है जिसका उल्लेख रक्षा खरीद प्रक्रिया, 2013 (डीपीपी 2013) में है।

इस अधिग्रहण प्रक्रिया में 11 प्रक्रिया कार्य शामिल हैं: सर्विसेज़ क्वालिटेटिव रिक्वायर्मेंट (एसक्यूआर); एक्सेप्टेंस ऑफ नेसेसिटी (एओएन);सॉलिसिटेशन ऑफ ऑफर; इवैल्यूएशन ऑफ टेक्निकल ऑफर्स बाई द टेक्निकल इवैल्यूएशन कमेटी (टीईसी); फील्ड इवैल्यूएशन; स्टाफ इवैल्यूएशन;ओवरसाइट बाई द टेक्निकल ओवरसाइट कमेटी (टीओसी) फॉर एक्विजिशन एबव 300 करोड़; कमर्शियल नेगोशिएशन बाई द कॉन्ट्रैक्ट नोगोशिएशन कमेटी (सीएनसी) ; अप्रूवल ऑफ द कम्पिटेंट फाइनांशियल अथॉरिटी (सीएफए) ; अवॉर्ड ऑफ कॉन्ट्रैक्ट / सप्लाई ऑर्डर (एसओ) ; तथा कॉन्ट्रैक्ट एडमिनिस्ट्रैशन एंड पोस्ट-कॉन्ट्रैक्ट मैनेजमेंट।

संयोग से पेज 3 पर दिए गए जवाब के पैरा 8 में डीपीपी 2013 के पैरा 71 में दर्ज निर्णय-निर्माण प्रक्रिया को उद्धृत करता है। हैरानी की बात यह है कि, इसने पूर्व-शर्तों को हटा दिया है जिसके तहत आईजीए मार्ग अपनाया जाना है।

एसक्यूआर दोबारा कब जमा किया गया था?

अपने जवाब में सरकार ने कहा है कि उसने ऊपर वर्णित सभी प्रक्रियाओं का पालन किया क्योंकि वे 126 विमानों के लिए एमएमआरसीए (मीडियम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट) सौदे की चयन प्रक्रिया में पहले किए गए थे।

हालांकि, एक बार जब एसक्यूआर तैयार कर ली जाती है तो एओएन को इसे जमा करने से पहले किए गए कोई भी संशोधन और जटिल मामले(अप्रत्याशित स्थितियों) में इस मामले को पुनःवैध करने के लिए फिर से प्रस्तुत की जानी चाहिए।

डीपीपी 2013 के पैरा 17 में "एसक्यूआर पैरामीटर्स की छूट" के लिए विस्तार से बताया गया है: "इस योजना के लिए एओएन की तलाश करने से पहले एसक्यूआर को सर्वथा अंतिम रूप दिया जाएगा। संबंधित एसक्यू अधिकारियों द्वारा विधिवत अनुमोदित एसक्यूआर की एक प्रति एओएन की मांग के लिए 'केस स्टेटमेंट' के साथ जमा की जाएगी। उसके बाद एसक्यूआर में कोई संशोधन उचित नहीं है। एक अप्रत्याशित स्थिति में जहां एओएन की सहमति के बाद एसक्यूआर में संशोधन आवश्यक हो जाता है, ऐसे मामले को पहले एओएन को फिर से वैध करने के लिए पुनःजमा किया जाना चाहिए।"

यह एक और दिलचस्प सवाल खड़ा करता है। मोदी सरकार ने फिर से वैध करने के लिए एसक्यूआर दोबारा कब जमा किया था? सरकार ने अदालत में जमा किए गए दस्तावेज़ में इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया।

मानदंडों के अनुसार, सर्विस हेडक्वार्टर (एसएचक्यू) को एओएन की तलाश करने के लिए किसी निश्चित प्रारूप में मामले का बयान तैयार करना चाहिए। डीपीपी आवश्यक अनुमोदन की श्रृंखला की इस तरह व्याख्या करता है:

"इस मामले का वक्तव्य संबंधित उपयोगकर्ता/योजना निदेशालय/ सेवाओं के समकक्ष के प्रमुख द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा। ख़रीद के प्रस्ताव को न्यायसंगत बनाने के मामले की वक्तव्य की चार प्रतियां तैयार की जाएंगी। डीडीपी, डीआरडीओ, एमओडी (वित्त) और एमओडी की प्रशासनिक शाखा को एक-एक प्रति भेजी जाएगी। इस मामले के वक्तव्य में आवश्यक कुल मात्रा शामिल होगीपांच साल की योजनाओं पर आधारित संबंध विच्छेद और अगले दो वर्षों में ख़रीदी जाने वाली मात्रा शामिल होगी। एमओडी (वित्त) के परामर्श से प्रशासनिक शाखा द्वारा मात्रा पुनरीक्षण की सिफारिश की जाएगी। प्रस्ताव पर अन्य टिप्पणियों के साथ विधिवत जांच की गई मात्रा को डीओडी और एमओडी (वित्त) द्वारा एसओक्यू को वापस भेजा जाएगा।डीआरडीओ और डीडीपी अपनी टिप्पणियों को सर्विस एचक्यू को भी भेजेगा जो सभी टिप्पणियों को संकलित करेगा और अपना अंतिम विचार देगा। सभी टिप्पणियों के साथ मामले का वक्तव्य फिर एचक्यू आईडीएस को भेजा जाएगा जो इन तीन सेवाओं के लिए अंतःक्रियाशीलता और उपकरणों की समानता के पहलुओं की जांच करेगा। मामले का वक्तव्य तब वर्गीकरण समिति के विचार के लिए रखा जाएगा।"

आईएएफ ने रफाल की संख्या कम करने के लिए अनुरोध कब भेजा था?

मोदी सरकार को अभी बताना बाकी है कि 126 रफाल के लिए डासॉल्ट विमानन के साथ क़रीब 95% पूरी हुई बातचीत की संख्या की समीक्षा करने और संख्या कम करके 36 करने के लिए भारतीय वायु सेना (आईएएफ) ने कब अनुरोध भेजा था? रक्षा मंत्रालय (एमओडी) की प्रशासनिक शाखा ने कब तय किया कि विमान की संख्या 126 के बजाय केवल 36 होनी चाहिए?

सरकार के जवाब के 14 पैरा में 126 एमएमआरसीए की ख़रीद के लिए पूर्ववर्ती कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा अपनाए गए इस प्रक्रिया के टाइमलाइन को दिया गया है। फरवरी 2012 में डसॉल्ट के साथ अनुबंध वार्ता के प्रारंभ करने के लिए यह विवरण 28अप्रैल, 2008 को छह विक्रेताओं से प्रस्ताव जमा करने के ठीक बाद उल्लेख करता है। हालांकि, इस जवाब में एक शब्द भी शामिल नहीं किया गया है कि किस तरह मोदी ने निष्कर्ष निकाला कि आईएफ को केवल 36 विमान की आवश्यकता है। और यह इस पर भी ख़ामोश है कि पीएम को किसने सलाह दी, आईएएफ को विमान की आवश्यक संख्या का पता लगाने के लिए किस प्रक्रिया का पालन किया गया था, और ऐसी समितियां कौन सी हैं जो इस तरह के फैसले को मंजूरी दे दी हैं।

एंटनी और एचएएल पर दोषारोपण

दिए गए जवाब के पैरा 15 में कहा गया है कि तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने सबसे कम बोली लगाने वाले को सुनिश्चित करने के लिए सीएनसी द्वारा अपनाई गई दृष्टिकोण तथा पद्धति की फिर से मूल्यांकन के लिए रक्षा मंत्रालय से कहा था और साथ ही यह पता लगाने के लिए कहा था कि यह "उचित, उपयुक्त और निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार" है।

पैरा 16 के अनुसार: "उपरोक्त के अलावा ये अनुबंध वार्ता भारत में निर्मित होने के लिए 108 विमान से संबंधित अनसुलझे मुद्दों के चलते मुख्य रूप से अंतिम रूप तय नहीं कर सका। ये मुद्दे निम्नलिखित पर एचएएल तथा डसॉल्ट एविएशन के बीच सामान्य समझ की कमी से संबंधित हैंः1) मैन-आवर्स (मानव-घंटे) जिसकी आवश्यकता भारत में विमान के उत्पादन के लिए होगी: भारत में रफाल विमान के निर्माण के लिए फ्रांस की तुलना में एचएएल को 2.7 गुणा अधिक मैन-आवर्स की आवश्यकता पड़ेगी। 2) विक्रेता के रूप में डसॉल्ट एविएशन को आरएफपी आवश्यकता के अनुसार 126 विमान (18 डायरेक्ट फ्लाई-अवे और 108 भारत में निर्मित) के लिए आवश्यक संविदात्मक बाध्यता की आवश्यकता है। भारत में निर्मित 108 विमानों के लिए संविदात्मक बाध्यता और ज़िम्मेदारी से संबंधित मुद्दे के हल नहीं किए जा सकते हैं।"

और पैरा 17 में सरकार ने कहा है कि उपरोक्त उल्लिखित मुद्दे अनसुलझे हैं और यही वजह है कि क़ीमत में वृद्धि हुई है।

मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) पर समझौते पूरा करने में सक्षम न होने के लिए आरोप लगा रही है जो निम्न कारणों से दिखावटी लगता है:

(i) मार्च 2014 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के समय में यह बताया गया कि एचएएल द्वारा निर्मित अंतिम उत्पाद पर एचएएल और डसॉल्ट के बीच समस्या का समाधान कर लिया गया था और दोनों कंपनियां कार्य हिस्सेदारी समझौते पर हस्ताक्षर कर रही थी जिसमें एचएएल70% के लिए उत्तरदायी था और शेष कार्य डसॉल्ट द्वारा किया जाना था।

(iiतत्कालीन एचएएल प्रमुख ने यही कहा और फाइल को सामने लाने के लिए तत्कालीन रक्षा मंत्री को हिम्मत दी जो फाइल उन्होंने एचएएल तथा डसॉल्ट के बीच हस्ताक्षरित कार्य साझा समझौते के साथ जमा किया था।

(iii) डसॉल्ट एविएशन के सीईओ और अध्यक्ष एरिक ट्रैपियर ने मार्च 2015 के दूसरे सप्ताह में इस बात की पुष्टि कि वे कार्य में हिस्सेदारी और गारंटी से संबंधित मुद्दे पर एचएएल के साथ आम सहमति के मुद्दों पर पहुंच गए थे तथा इस तरह समझौते पर हस्ताक्षर किया।

मूल्य वृद्धि के दावे के संबंध में 19 फरवरी 2015 को एयरो इंडिया के शो से इतर बैंगलुरु में - कम से कम दो महीने पहले फ्रांस से मोदी की घोषणा करने से पहले - ट्रैपियर ने रिपोर्टर को बताया कि वह क़ीमत जिसको आरएफपी में डसॉल्ट ने उद्धृत किया कभी नहीं बदला। उन्होंने इसी साल अक्टूबर में एक भारतीय टीवी चैनल और एक समाचार पत्र के साक्षात्कार में इसी बात को दोहराया। इस साक्षात्कार में ट्रैपियर ने कहा डॉलर के मुकाबले कमज़ोर यूरो के कारण, रफाल की क़ीमत 2012 की तुलना में अब वास्तव में कम थी।

इसलिए, इस समझौते पर हस्ताक्षर करने में देरी के कारण लागत बढ़ने के सरकार के दावे अपने स्वयं के कार्य को छिपाने का प्रयास है। ट्रैपियर ने ये भी कहा कि डसॉल्ट एचएएल के साथ काम करने को लेकर खुश था जिसके साथ इसका लंबे समय से कार्य करने का अनुभव था। इसलिए एचएएल के साथ काम करने के डसॉल्ट की अनिच्छा के संबंध में मोदी सरकार का दावा आरएफपी बातचीत की विफलता के लिए एक कारण के रूप में है जो प्रभावहीन है।

आरएफपी समस्या

पैरा 18 में सरकार ने कहा है कि पैरा 16 तथा 17 में वर्णित कारणों के चलते ये वार्ता "गतिरोध" तक पहुंच गया जिसने मार्च 2015 में अंततः इसी वर्ष जून में इसकी वापसी से पहले आरएफपी वापसी की प्रक्रिया शुरू करने को मजबूर किया।

यह एक और झूठा दावा है, 25 मार्च 2015 को ट्रैपियर लगभग भारत के साथ बहुत जल्दी 126 विमान का सौदा होने को लेकर आश्वस्त थे। इस दावे को मार्च 2015 में कई अवसरों पर उन्होंने बार बार दोहराया। किसी परेशानी के बिना यदि डसॉल्ट इस सौदे के होने को लेकर आश्वस्त था तो भारत की तरफ से आखिर क्या गलत हुआ था? सरकार को इस विवरण में इसकी व्याख्या करने की ज़रूरत है।

पैरा 19 में कहा गया है कि किस तरह भारत के "प्रतिद्वंद्वी" आगे बढ़े और पांचवें पीढ़ी के लड़ाकू जेट सहित 400 से अधिक विमान को शामिल किया। इससे भारत की स्थिति और कमज़ोर हुई। लेकिन सरकार ने अभी तक नहीं बताया है कि विमानों की संख्या 126 से 36 तक कम करने से देश को इस असंतुलन का सामना करने में मदद कैसे मिलेगी? इसके अलावा, राजकोष से लाखों डॉलर खर्च करने के बाद पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू जेट कार्यक्रम के विकास में रूस के साथ भारत के संयुक्त उद्यम को क्यों रद्द कर दिया?

जून 2014 को मेल ऑनलाइन इंडिया ने एमओडी सूत्रों के हवाले से बताया कि: "ये अनुबंध वार्ता चार उप समितियों के द्वारा सामने आई जो ऑफ-सेट,प्रौद्योगिकी हस्तानांतरणतकनीकी मुद्द और लागत की व्याख्या करता है। तीन उप-समितियां - ऑफ-सेट, प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण और रखरखाव जैसे तकनीकी मुद्दों पर- चिंतित रहींजिसका अर्थ है कि वार्ता का एक बड़ा हिस्सा समाप्त हो गया। अब लागत पर विचार-विमर्श पूरा होने के लिए अब से कम से कम तीन महीने का समय लगेगा।इसे "वार्ता 95% पूरा" होने के ट्रैपियर के दावे और 95% पूरी हुआ आरएफपी से वापस लेने के मोदी सरकार के निर्णय के बीच तुलना करने से और पेचीदगी पैदा हो जाती है।

पैरा 26 में, सरकार ने स्वीकार किया है कि 36रफाल विमानों की ख़रीद प्रक्रिया के फैसले को 28अगसत 2015 को डीएसी के समक्ष रखा गया था जो सामान्य परिस्थितियों में रक्षा अधिग्रहण समिति (डीएसी) से अनुमोदन के बाद लिया गया है। मोदी की सरकार से सरकार समझौते की घोषणा के साढ़े चार महीने के बाद डीएसी के समक्ष रखा गया। और यह आगे शामिल करता है कि सरकार ने डीएसी को ये मामला सौंपने के तीन महीने पहले फ्रांस के साथ वार्ता शुरू की थी। इससे नियम पुस्तिका का उल्लंघन और भी गंभीर होता है।

इसी पैरा में, मोदी सरकार ने दावा किया है कि अगस्त 2016 में, निरस्त आरएफपी वार्ताओं की तुलना में मूल्य निर्धारण, रखरखाव और वितरण पर बेहतर शर्तों के साथ बातचीत पूरी की गई थी। लेकिन बिजनेस स्टैंडर्ड, जिसके पास डसॉल्ट द्वारा सौंपे गए मूल आरएफपी है, ने बताया कि मोदी का 36 रफाल सौदा रखरखाव, हथियार, प्रशिक्षण, सेवा तथा कल पुरजों की उपलब्धता, कार्य संवर्द्धन और आईएएफ द्वारा भारत-विशिष्ट परिवर्तन की इच्छा के बिना तुलनात्मक रूप से 40% महंगा था। इसलिए, जब मोदी सरकार कहती है कि उसने मूल्य निर्धारण के मामले में बेहतर सौदा किया है तो यह पूछना चाहिए कि ये बेहतर मूल्य निर्धारण किसके लिए है? निश्चित रूप से देश के लिए तो नहीं!

निर्णय लेने के लिए मोदी को किसने अधिकृत किया?

पैरा 27 मेंसौंपे गए दस्तावेज़ ने स्वीकार किया है कि सरकार ने 24 अगस्त 2016 को कैबिनेट कमेटी ऑफ सिक्योरिटी (सीसीएस) की मंजूरी के लिएमामले को रखा था जो फ्रांस से मोदी की घोषणा के 16 महीने बाद का समय था। तब यह समझौता वित्त मंत्रालय के समक्ष पहली बार रखा गया था।

ये दावा और अधिक स्पष्ट करता है कि प्रधानमंत्री ने इस सौदा की घोषणा करके एकतरफा काम किया जिसमें राजकोष से हजारों करोड़ों रुपये का ख़र्च शामिल है। सरकार को अभी जवाब देना बाकी है कि मोदी को ऐसा निर्णय लेने के लिए अधिकृत किसने किया?

14 मार्च, 2016 को कानून मंत्रालय से प्राप्त एक नोट के आधार पर द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिपोर्ट मोदी के निर्णय के पृष्ठभूमि के रहस्य को गहरा करती है। इसने इंगित किया कि, तय मानदंडों के विपरीत मोदी सरकार बिना किसी वास्तविक वितरण के अग्रिम तौर पर बड़ी राशि का भुगतान करने पर सहमत हुई।

भले ही यह एक अंतर सरकारी समझौता (आईजीए) है, रिपोर्ट में बताया गया है कि, "सप्लाई प्रोटोकॉल के तहत फ्रांसीसी कंपनियों द्वारा समझौताउल्लंघन के मामले मेंभारतीय पक्ष फ्रांसीसी सरकार के शामिल हुए बिना इन कंपनियों के खिलाफ कानूनी रास्ते का सहारा लेगा।"

एक अन्य खंड मध्यस्थता का स्थान है जो आईजीए में जेनेवा है। यह फिर डीपीपी 2013 का उल्लंघन है, परिशिष्ट एच से अनुसूची 1 तक, पैरा2.5, जिसमें में कहा गयाः "आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल की नई दिल्ली या भारत में ऐसी अन्य जगह होगी जहां मध्यस्थ द्वारा तय किया जा सकता है"। इसके अलावा, 2.6 मे कहा गया "मध्यस्थता कार्यवाही भारतीय मध्यस्थता तथा समझौता अधिनियम, 1996 के तहत भारत में की जाएगी और इस तरह के मध्यस्थता न्यायाधिकरण के निर्णय केवल भारतीय न्यायालयों में प्रवर्तनीय होंगे।"

इकोनॉमिक टाइम्स की इस साल 14 जुलाई को अपडेट एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार ने कानून मंत्रालय के लाल निशान को नज़रअंदाज़ कर दिया है। एक पार्टी जो रोज़ाना राष्ट्रवाद और सशस्त्र बलों से प्रेम का राग अलापती उसकी सरकार ने ऐसे मानदंडों का उल्लंघन क्यों किया?इसकी व्याख्या करने की ज़रूरत है।

पैरा 29 में, सरकार ने कहा है कि उसने ऑफसेट पर किसी भी प्रोटोकॉल का उल्लंघन नहीं किया है। पिछले महीना दो भाग की श्रृंखला में न्यूज़़क्लिक द्वारा इस झूठ का खुलासा किया गया था, (भाग 1 और भाग 2) सरकार द्वारा इस नीति के उल्लंघन के एक और विस्तृत विवरण को यहां पढ़ा जा सकता है।

ऑफसेट दायित्वों पर सरकार द्वारा अपनाए गए प्रक्रियाओं का विवरण प्रस्तुत करते हुए, सौंपे गए दस्तावेज़ के पैरा 6 में कहा गया है: "हालांकि डीपीपी की परिमाण के प्रावधानों के अनुसार, अगर विक्रेता ऑफसेट अनुबंध से पहले ऑफ़सेट प्रस्ताव जमा करने के समय आईओपी (भारतीय ऑफसेट पार्टनर) का विवरण प्रदान करने में असमर्थ है तो उसे या तो ऑफसेट क्रेडिट की मांग के समय या ऑफसेट दायित्व के निर्वहन से एक साल पहले अपने आईओपी का विवरण प्रदान करने की अनुमति है।"

दिलचस्प बात यह है कि ये खंड डीपीपी 2013 में नहीं था और फ्रांस से सौदा की घोषणा के चार महीने बाद 5 अगस्त 2015 को जोड़ा गया था। इसके अलावा, यह बताना बेहद शर्मनाक है कि उस समय तक डसॉल्ट अपने आईओपी की पहचान करने में सक्षम नहीं था। डसॉल्ट की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि उसने अप्रैल 2015 में अनिल अंबानी समूह की कंपनी रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड के साथ एक संयुक्त उद्यम बनाया था। और कारवां पत्रिका प्रकाशित किया था कि सूचना का अधिकार में सरकार से मिले जबाब में कहा गया है कि डसॉल्ट और और रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड के बीच संयुक्त उद्यम के समझौते पर उसी तारीख को हस्ताक्षर हुआ था जिस तारीख को भारत और फ्रांस के बीच आईजीए पर हस्ताक्षर हुआ!

'गुप्त खंड' को छिपाना

वर्ष 2008 में भारत और फ्रांस के बीच हस्ताक्षरित गुप्त समझौते का हवाला देते हुए वाणिज्यिक विवरणों के खुलासा के लिए सरकार का तर्क इसी तरह बेतुका लगता है। न्यूजक्लिक को प्राप्त इस समझौते की एक प्रति में स्पष्ट है कि गोपनीयता केवल उन मुद्दों पर ही रखी जानी चाहिए जिनसे राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रभाव पड़ता है। रक्षा के वाणिज्यिक पहलू को प्रकट करने से राष्ट्रीय सुरक्षा पर किसी भी तरह का प्रभाव नहीं पड़ेगा।

संक्षेप में, याचिकाकर्ताओं को मोदी सरकार का जबाब रक्षा ख़रीद के लिए प्रक्रियाओं के उल्लंघन में प्रधानमंत्री की भूमिका को छिपाना एक दोषपूर्ण प्रयास की तरह लगता है।

अंतत: यह जनता का धन है और भारत अभी भी एक लोकतंत्र है। इसलिए, सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी है।

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