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भारतीय संविधान के पहले संशोधन पर फिर से एक नज़र

सिद्धार्थ नारायण उन ऐतिहासिक परिस्थितियों पर बारीक़ी से नज़र डालते हैं जिनके कारण भारतीय संविधान में पहला संशोधन हुआ था।
भारतीय संविधान के पहले संशोधन पर फिर से एक नज़र

संविधान (प्रथम संशोधन अधिनियम), 1951 भारतीय संविधान में बेहद विवादित बदलावों में से एक है। पहले संशोधन पर 16 दिनों तक बहस हुई थी और यह संशोधन भारतीय संविधान को अपनाये जाने के बमुश्किल तक़रीबन 16 महीने बाद किया गया था।

यह संशोधन इस मायने में अनूठा था कि इसे तात्कालिक रूप से काम कर रहे उस संसद ने अंजाम दिया था, जिनके सदस्यों ने संवैधानिक सभा के हिस्से के रूप में संविधान का मसौदा तैयार करने का काम कुछ दिन पहले ही समाप्त किया था।

भारतीय स्वतंत्रता के संक्रमण कालीन में भी इस संविधान सभा ने डोमिनियन संसद के रूप में भी कार्य किया था। 1950 में संविधान को अपनाने के बाद संविधान सभा को भंग कर दिया गया था और उन्हीं सदस्यों के साथ उस डोमिनियन संसद का नाम बदलकर अनंतिम संसद यानी तात्कालिक संसद कर दिया गया था।

भारतीय संविधान में पहला संशोधन कांग्रेस पार्टी के सदस्यों के दबदबे और अंतरिम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई वाली अंतरिम सरकार की तरफ़ से किया गया था। चूंकि ये संशोधन पहले संसदीय चुनावों से एक साल से भी कम समय पहले हुए थे, इसलिए बहस में कोई औपचारिक विपक्षी दल शामिल नहीं थे।

ये संशोधन सार्वजनिक व्यवस्था, किसी अपराध के लिए उकसाना और किसी बाहरी देश के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध जैसे विषयों पर थे। लेकिन, उनमें से सबसे विवादास्पद संशोधन वे थे, जो भारतीय संविधान के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दी गयी गारंटी की सीमाओं से जुड़े बदलाव थे। [2] अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत जो गारंटी दी गयी थी, उनमें किये गये ये बदलाव अनुच्छेद 19(2) में प्रदान की गयी प्रतिबंधों की सूची के अधीन थे। [3]

कार्यवाहक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई वाली अंतरिम सरकार की ओर से प्रस्तावित अनुच्छेद 19 (2) में किये गये बदलाव ने 'सार्वजनिक व्यवस्था', 'अपराध के लिए उकसाने' और 'किसी बाहरी देश के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों' के आधार पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं को जोड़ दिया था। व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित करने और समकालीन भारत में भाषण की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने वाली मनमानी सरकारी कार्रवाई को आधार देने वाले इन बदलावों की व्यापक रूप से आलोचना की गयी थी [4], लेकिन इसका बचाव उस समय के राजनीतिक संदर्भ के प्रति ज़िम्मेदार होने के रूप में किया गया। [5]

उन संशोधनों के पीछे का तात्कालिक कारण सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के फ़ैसलों की एक श्रृंखला थी, जिन्होंने सार्वजनिक सुरक्षा क़ानूनों, प्रेस से जुड़े क़ानूनों और आपराधिक क़ानूनो के उन प्रावधानों को खारिज कर दिया था, जिन्हें बोलने की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार के साथ असंगत माना गया था।

इस विधेयक का विरोध करने वाले सदस्य विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्य थे, जिनमें थे-समाजवादी, हिंदू दक्षिणपंथी और अल्पसंख्यक समूहों के प्रतिनिधि।

अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा से आने वाले अनंतिम संसद के सदस्य ख़ास तौर पर इस बात को लेकर चिंतित थे कि ये संशोधन भारतीय दंड संहिता की विवादास्पद 124A (देशद्रोह) और धारा 153A (समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना) जैसी उन धाराओं को बहाल कर देंगे, जिनका इस्तेमाल ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों की ओर से भारतीय राष्ट्रवादियों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने के लिए किया जाता था और इसके ज़रिये सार्वजनिक सुरक्षा क़ानूनों के उस मॉडल को पुनर्जीवित किया जायेगा, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान असंतोष को दबाने के लिए प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया जाता था। [6]

इन संशोधनों का विरोध करने वालों को इस बात की भी गहरी चिंता थी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सार्वजनिक व्यवस्था के अपवाद को लागू करने से कार्यपालिका को व्यापक और मनमानी शक्तियां मिल जायेंगी, जिनका इस्तेमाल सभी राजनीतिक विरोधों को दबाने के लिए किया जा सकता है। [7]

कांग्रेस की अंतरिम सरकार के सदस्यों ने भीड़ को स्वतंत्रता के बाद के भारतीय राज्य की स्थिरता और व्यवहार्यता और भारत और विश्व स्तर पर राजनीतिक स्थिति की अस्थिरता के लिए एक ख़तरे के तौर पर चित्रित किया था।

नेहरू जिन किये जा रहे बदलावों से बंधे थे,उनमें से एक संशोधन ख़ास तौर पर सार्वजनिक व्यवस्था से सम्बन्धित था,और जिसे विभाजन से पैदा हुई सांप्रदायिक हिंसा और तेलंगाना में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समर्थित वामपंथी सशस्त्र किसान विद्रोह की प्रतिक्रिया के रूप में लाया गया था।

ऐसा पहली बार नहीं था, जब ये संदर्भ दिये गये हों। इस पहले संशोधन के स्वतंत्र भाषण से जुड़े पहलुओं पर होने वाली संसदीय बहस में तत्कालीन अंतरिम प्रधान मंत्री नेहरू ने कार्यपालिका को भाषण को सीमित करने के लिए स्पष्ट और व्यापक पुलिस अधिकार दिये जाने के औचित्य के तौर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा समर्थित सशस्त्र किसान तेलंगाना विद्रोह[8] और विभाजन से सम्बन्धित हिंसा [9], दोनों पर ज़ोर दिया था।

इन संशोधनों का विरोध करने वालों की नज़र में तेलंगाना में विभाजन के चलते हुए दंगे और सशस्त्र विद्रोह पूरे भारत की स्थिति की प्रतिनिधि घटनायें नहीं थे। हिंदू महासभा से जुड़े और विभाजन के ज़बरदस्त आलोचक श्यामप्रसाद मुखर्जी ने दलील दी थी कि भीड़ तो एक वैध लोकतांत्रिक आकांक्षा के  मनोवेग का प्रतिनिधित्व करती है और इस लिहाज़ से कलकत्ता में तेलंगाना और विभाजन से जुड़े दंगे आदर्श के बजाय अपवाद थे।

मुखर्जी ने तब कहा था कि इन स्थितियों से सरकार अपनी मौजूदा आपातकालीन शक्तियों और निवारक निरोध की शक्तियों के ज़रिये निपट सकती थी और उन्हें बोलने की स्वतंत्रता के अनुच्छेद को उस तरह से प्रतिबंधित करने की ज़रूरत नहीं थी, जिस व्यापक रूप में इसे तैयार किया गया है।

भोजन के लिए दंगे और सार्वजनिक व्यवस्था

अनंतिम संसद में उस पहले संशोधन का विरोध करने वाले मुखर्जी और अन्य प्रतिनिधियों ने बार-बार भोजन के लिए कूच-बिहार हुए दंगों [10] और राजस्थान में अनिवार्य खाद्य लेवी के सिलसिले में की गयी पुलिस फ़ायरिंग से हुई मौतों पर ध्यान दिलाया था। [11]

उन्होंने मद्रास के सैदापेट इलाक़े में सूत की मांग करने वाले बुनकरों पर पुलिस की तरफ़ से किये गये लाठीचार्ज की ख़बरों की ओर भी इशारा किया। [12]

पहले संशोधन पर हुई संसदीय बहस में अपने-अपने हस्तक्षेप में संशोधन का विरोध करने वालों ने इन दंगों को अंतरिम सरकार की नीतियों के नतीजे के रूप में देखा था।उनका मानना था कि ये नीतियां देश में भोजन, कपड़े और आवास की उस कमी से निपटने में नाकाफ़ी है,जिसका सामना उस समय देश कर रहा है।

कूच-बिहार में भोजन की ज़बरदस्त कमी के संकट के चलते दंगा करने वाली भीड़ पर पुलिस ने गोली चला दी थी। खाने को लेकर हुए ये दंगे 1940 के दशक में बंगाल के अकाल और द्वितीय विश्व युद्ध की औपनिवेशिक ब्रिटिश नीतियों के चलते हुई भोजन की ज़बरदस्त कमी का नतीजा थे। [13] अंतरिम सरकार को राशन व्यवस्था और भोजन के नियंत्रण पर मौजूदा नीतियों को जारी रखने को लेकर कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था। [14]

भारतीय स्वतंत्रता खाद्य नीति की पूर्व संध्या पर खाने के दंगे भड़क उठे थे।[15] इस मुद्दे की जांच के लिए एक समिति गठित की गयी। इस समिति में भारतीय उद्योगपतियों का वर्चस्व था।समिति की सिफ़ारिश थी कि खाद्यान्न नियंत्रण हटा दिया जाये और मुक्त बाज़ार से इस समस्या का समाधान हो जायेगा। [16]

गांधी ने इस क़दम का यह दलील देते हुए समर्थन किया था कि भारत में भोजन की कमी की समस्या सरकारी नियंत्रणों को हटा देने से हल हो जायेगी। [17]

ख़राब फ़सल और खाद्यान्न की भारी कमी के बावजूद राशन व्यवस्था और नियंत्रण योजनाओं को हटा देने के अंतरिम सरकार के उस फ़ैसले से बड़े पैमाने पर श्रमिक उपद्रव हुए और क़ीमतों में 250 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गयी। आज़ाद भारत के संक्षिप्त इतिहास में इसका ज़िक़्र सबसे विनाशकारी और महंगे प्रयोगों में से एक के रूप में किये जाने के बाद सरकार को अपने फ़ैसले को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। [18]

आम लोगों की बेचैनी और संस्थागत औचित्य का सवाल

पहले संशोधन पर हुए वाद-विवाद के सिलसिले का यह पहलू पहले संशोधन को लेकर लिखे गये मौजूदा साहित्य में ग़ायब है। आज़ादी के वक़्त देश में अशांति के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं और मजबूरियों को समझ  लेने से इस विशेष ऐतिहासिक क्षण को लेकर हमारी समझ बढ़ेगी।

हालांकि, नये-नये स्वतंत्र हुए भारतीय राज्य की मजबूरियां और वैचारिक झुकाव बहुत अलग हो सकते हैं, लेकिन उस समय के उस मुद्दे पर उठे सवालों और विवादों से अहम सबक लेना अब भी बाक़ी है। इस समय विरोधों के ज़रिये लोगों की व्यक्त की जा रही बेचैनी का प्रश्न उसी संस्थागत वैधता के प्रश्न से जुड़ा हुआ है, जिस पर पहले संशोधन पर बहस के दौरान चर्चा की गयी थी।

सदस्यों ने पहले संशोधन में भाषण-सम्बन्धी बदलावों के विरोध में जो दलील दी थी,उनमें से एक दलील यह थी कि अंतरिम सरकार को संविधान में संशोधन करने से पहले चुनाव का इंतज़ार करना चाहिए था।

उस पहले संशोधन का विरोध करने वालों ने उस अनिर्वाचित निकाय द्वारा किय गये संशोधनों की नैतिक और क़ानूनी वैधता पर सवाल उठाया था,जिसने अभी-अभी संविधान पर चर्चा की थी और फिर संविधान का निर्माण किया था।[19] नेहरू ने उस दलील का जवाब देते हुए दलील दी थी कि संविधान में संशोधन करने के लिए अनंतिम संसद की नैतिक वैधता है, क्योंकि संविधान सभा और अनंतिम संसद की सदस्यता,दोनों एक ही बात है। [20]

नेहरू ने यह भी दलील दी थी कि संसद लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है, और अंतरिम सरकार जो भी कार्रवाई कर रही है, वह भारतीयों की भावी पीढ़ियों की ओर से की जा रही है। [21] जहां एक ओर नेहरू उस पहले संशोधन में भाषण से जुड़े उन परिवर्तनों के तर्क को संसद पर लोगों की वैध आवाज के रूप में भरोसा करने के रूप में बता  रहे थे,वहीं इन बदलावों का विरोध करने वाले सदस्य अंतरिम सरकार के मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों को आगे बढ़ाने को लेकर लोगों की बुद्धि पर भरोसा नहीं करने के सवाल को फिर से नये सिरे से सामने रख रहे थे। [22]

पहले संशोधन में भाषण की आज़ादी से जुड़े बदलावों का विरोध करने वालों ने अंतरिम सरकार से कहा था कि वे "लोगों के सर पर ख़ून सवार होने" के पीछे के उनके अपने डर पर विचार करें, और इसके जवाब में सख़्ती अपनाने के बजाय लोगों की इस बेचैनी के कारणों का हल ढूंढ़ें।[23]

हालांकि, पहले संशोधन पर एक बहुत ही अलग राजनीतिक संदर्भ में हुई बहस आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि इस समय भारत का लोकतंत्र बेशुमार लहरों से होकर गुज़र रहा है। स्टेन स्वामी की हिरासत में मौत, और विपक्षी नेताओं, वकीलों और मानवाधिकार रक्षकों के ख़िलाफ़ पेगासस निगरानी स्पाइवेयर के दुरुपयोग को लेकर हुए हालिया ख़ुलासे इस बात पर रौशनी डालते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिहाज़ से संस्थागत सुरक्षा उपायों को आख़िर क्यों सुरक्षित और मजबूत बनाया जाना चाहिए।

आज़ादी के 74 साल बाद उस पहले संशोधन की बहस पर दुबारा ग़ौर करना इस दिशा में एक क़दम हो सकता है।

(सिद्धार्थ नारायण सिडनी स्थित न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी (UNSW) के फ़ैकल्टी ऑफ़ लॉ एंड जस्टिस से पीएचडी कर रहे हैं। इनके विचार निजी हैं।)

संदर्भ

1.पहले संशोधन पर सबसे हालिया रचना त्रिपुरदमन सिंह की किताब, ‘सिक्सटीन स्टॉर्मी डेज़’ है, इस किताब में उस समय का संदर्भ है, जिस समय संशोधन पर बहस हुई थी। त्रिपुरदमन सिंह, ‘सिक्सटीन स्टॉर्मी डेज़: द स्टोरी ऑफ़ दी फ़र्स्ट अमेंडमेंट ऑफ़ द इंडियन कंस्टिट्यूशन’(विंटेज, पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया, 2020), (सिंह, सिक्सटीन स्टॉर्मी डेज़)।

2. पहले संशोधन में ज़मींदारी के उन्मूलन के सिलसिले में संपत्ति के अधिकार से जुड़े बदलाव और पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई शामिल थी, जिसकी मैं यहां चर्चा नहीं कर रहा हूं। निवेदिता मेनन ने दलील दी है कि इन बदलावों को आधुनिकीकरण की दिशा में प्रोत्साहन और भारतीय अभिजात वर्ग की राष्ट्र-निर्माण परियोजना के रूप में एक साथ समझा जाना चाहिए। "सिटिजनशिप एंड द पैसिव रिवॉल्यूशन: इंटरपीटिंग द फ़र्स्ट एमेंडमेंट" (2004) 39 (18) इकोनॉमिक एंड पॉलिटकल विकली 1812-19।

3. आज इन प्रावधानों में जो कुछ प्रावधा है, वह इस तरह है:

अनुच्छेद 19: भाषण की स्वतंत्रता आदि के संबंध में कुछ अधिकारों का संरक्षण:

(1) यह अधिकार सभी नागरिकों के पास होगा

(a) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए;

(2) जहां तक कि ऐसा कानून भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के हितों में या अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिए उकसाने के सम्बन्ध मेंउक्त उप खंड द्वारा प्रदत्त अधिकार के प्रयोग पर उचित प्रतिबंध लगाता है, खंड (1) के उपखंड (a) में कुछ भी मौजूदा क़ानून के संचालन को प्रभावित नहीं करेगा, या राज्य को कोई क़ानून बनाने से नहीं रोकेगा ।

4. उदाहरण के लिए देखें, पी.के. त्रिपाठी, 'इंडियाज एक्सपेरिमेंट इन फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच: द फ़र्स्ट अमेंडमेंट एंड देयरआफ़्टर', स्पॉटलाइट्स ऑन कंस्टिट्युशनल इंटरप्रिटेशन (एन.एम.त्रिपाठी, 1972) 255-90, 57-8 18 एस.सी.जे से पुनर्मुद्रित। 106 (1955), सिंह,  ‘सिक्सटीन स्टॉर्मी डेज़’ (एन 1), प्रताप भानु मेहता, "द क्रुक्ड लाइव्स ऑफ़ फ्री स्पीच",ओपनदमैगज़ीन डॉट कॉम,29 जनवरी 2015,

5. अरुद्र बर्रा, 'फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच इन द अर्ली कंस्टिट्युशन: अ स्टडी ऑफ़ द कंस्टिट्येंट असेंबली (फ़र्स्ट अमेंडमेंड) बिल' (संस्करण),उदि भाटिया(संस्करण),इंडियन कंस्टिट्येंट असेंबली: डेलीबरेशन्स ऑन डेमोक्रेसी (रूटलेज, 2018), (बर्रा, फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच इन द अर्ली कंस्टिट्युशन')।

6. उदाहरण के लिए देखें, ठाकुरदास भार्गव, संसदीय बहस, 16 मई, 1951,कॉलम 8875

7. उदाहरण के लिए देखें, कामेश्वर प्रसाद, संसदीय बहस, 16 मई 1951, कॉलम 8876

8. जवाहरलाल नेहरू, संसदीय बहस, 16 मई 1951, कॉलम 8829-30

9. जवाहरलाल नेहरू, संसदीय बहस, 29 मई 1951, कॉलम 9628

10. एस.पी. मुखर्जी, संसदीय बहस, 16 मई 1951, कॉलम 8844, सारंगदार दास, पार्लियामेंटरी डिबेट्स, 18 मई 1951, कॉलम 9036

11. सारंगदार दास, संसदीय बहस, 18 मई 1951, कॉलम 9036

12. एच.वी. कामथ, संसदीय बहस, 17 मई 1951, कॉलम 8922

13. बेंजामिन रॉबर्ट सीगल, हंग्री नेशन: फ़ूड, फ़ेमाइन एंड द मेकिंग ऑफ़ मॉडर्न इंडिया (कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 2018)।

14. इसी किताब की पृष्ठ संख्या 126

15. इसी किताब की पृष्ठ संख्या 127-128

16. सोवनी, पोस्ट वॉर इन्फ़्लेशन इन इंडिया: ए सर्वे, पृष्ठ संख्या 130

17. कामेश्वर प्रसाद, संसदीय बहस, 16 मई 1951, कॉलम 8865

18. जवाहरलाल नेहरू, संसदीय वाद-विवाद, 16 मई 1951, कॉलम 8825

19. जवाहरलाल नेहरू, संसदीय वाद-विवाद, 31 मई 1951, कॉलम 9800

20. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, संसदीय वाद-विवाद, 16 मई, 1951, कॉलम 8838, देशबंधु गुप्ता, संसदीय वाद-विवाद, 17 मई 1951, कॉलम 8949। फ़ादर डी सूजा के हस्तक्षेप में "लोगों" की परिपक्वता का अविश्वास भी स्पष्ट होता है, जहां उन्होंने "विशाल और अशिक्षित जनता के मन पर सरकार की सत्ता के प्रभाव को स्थापित करने की आवश्यकता का संदर्भ दिया था", फ़ादर डी सूज़ा, संसदीय बहस, 30 मई 1951 , कॉलम 9693। इसी तरह, पंजाबराव शामराव देशमुख ने अपने हस्तक्षेप में अंतरिम सरकार की मंशा में ज़्यादा विश्वास के लिए दलील दी थी, संसदीय वाद-विवाद, 31 मई, 1951, कॉलम 9777

21. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, संसदीय वाद-विवाद, 16 मई 1951, कॉलम 8844

22. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, संसदीय वाद-विवाद, 16 मई, 1951, कॉलम 8838, देशबंधु गुप्ता, संसदीय वाद-विवाद, 17 मई 1951, कॉलम 8949। 

23. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, संसदीय वाद-विवाद, 16 मई 1951, कॉलम 8844।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Revisiting the First Amendment to the Indian Constitution

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