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धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

केंद्र ने कश्मीरी पंडितों की वापसी को अपनी कश्मीर नीति का केंद्र बिंदु बना लिया था और इसलिए धारा 370 को समाप्त कर दिया गया था। अब इसके नतीजे सब भुगत रहे हैं।
Security
अनुच्छेद 370 हटाए जाने की दूसरी बरसी पर बंद पड़े बाज़ारों में पहरा देते सुरक्षाकर्मी

गर्मियां अक्सर कई पर्यटकों को कश्मीर की शांत घाटी में खींच लाती है। लेकिन तीन सुस्त वर्षों के बाद जैसे ही पर्यटन अपने चरम पर पहुंचा, वैसे ही घाटी में संकट के मजबूत संकेत दिखाई देने लगे हैं। गुरुवार को, कुलगाम में रहने वाले एक अन्य कश्मीरी पंडित-बैंक मैनेजर विजय कुमार की हत्या की खबर ने पूरे समुदाय में दहशत की लहर पैदा कर दी है। यह मई के बाद से कश्मीर में आठवीं लक्षित हत्या है, और एक गैर-मुस्लिम सरकारी कर्मचारी की तीसरी हत्या है।

जब पर्यटकों की आमद होती है - और अधिकांश होटल जून में बुक हो जाते हैं- तो केंद्र शासित प्रदेश में स्थिति को सामान्य स्थिति के रूप में पेश किया जाता है, लेकिन हत्याओं का यह चक्र इस स्थिति इसे भ्रामक साबित कर रहा है।

दरअसल, हाल के महीनों में ऐसे संकेत मिले हैं कि केंद्र शासित प्रदेश जल्द ही पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल कर सकता है। परिसीमन खत्म होने के साथ ही चुनाव होना भी लगभग तय लग रहा है। हालाँकि, यदि आप घाटी के पर्यटन स्थलों से थोड़ा बाहर निकलते हैं तो इन उम्मीदों को गंभीर चुनौती मिलती दिखाई देती है।

कुछ दिन पहले, कुलगाम इलाके के एक सुदूर गाँव में एक हिंदू (दलित) शिक्षक रजनी बाला की हत्या कर दी गई थी, जिसके खिलाफ कश्मीर के विभिन्न हिस्सों में कश्मीरी पंडितों ने विरोध प्रदर्शन किए थे। इसके बाद कश्मीरी पंडितों ने सांबा जिले में धरना दिया और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जम्मू-कश्मीर इकाई के अध्यक्ष रविंदर रैना से नाराज़गी जताते हुए उनके खिलाफ नारेबाजी की।

प्रदर्शनकारियों ने श्रीनगर में हवाई अड्डे की ओर जाने वाली सड़क को कई घंटों तक जाम कर दिया था। पर्यटकों की प्राथमिकता वाले गंतव्य पहलगाम के मार्ग को बिजबेहरा की ओर मोड़ना पड़ा था। दिलचस्प बात यह है कि सुरक्षा खतरों के चलते कुछ दिन पहले इस मार्ग को पर्यटकों के लिए बंद कर दिया गया था। प्रसिद्ध अवंतीपोरा और मट्टन खंडहर सहित दक्षिण कश्मीर के सभी मंदिर भी पर्यटकों के लिए बंद कर दिए गए थे। डाउन टाउन और अन्य रिहायशी इलाकों में, एक असहज शांति सी महसूस होती है जो पर्यटकों की आमद को ढ़क लेती है।

लक्षित हत्याएं: याद दिलाती नब्बे के दशक की भयावह यादें 

एक पर्यटक होने के नाते, घाटी सामान्य दिखती है। दुकानें खुली हैं और सड़कों पर वाहनों की भरमार है। नब्बे के दशक के विपरीत, बंदूकधारी उग्रवादी कहीं दिखाई नहीं देते हैं। पूर्व आतंकवादी यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा दिए जाने के बाद भी शहर शांत रहा (खुद के द्वारा 24 घंटे बाजार बंद के अलावा)। पथराव नहीं होता है, बड़े पैमाने पर रैलियां नदारद हैं, और शहर का जीवन सामान्य लगता है। दूसरे शब्दों में, लक्षित हत्याओं को छोड़कर, उग्रवाद अस्तित्वहीन लगता है।

लेकिन इन हत्याओं का मज़ाक नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि आज भी, वे घाटी में आतंकवाद के शुरुआती युग की याद दिलाती हैं। 2020 के पंचायत चुनावों के तुरंत बाद, कश्मीरी पंडितों सहित कई पंच और सरपंच पदों पर कब्जा करने वाले लोगों की हत्याएँ कर दी गई थी, जिसने सूक्ष्म दिखने वाले अल्पसंख्यक समुदाय में सदमे की लहरें पैदा कर दी थी। पंडितों ने किसी तरह से नब्बे के दशक के बुरे सपने को पीछे छोड़ दिया था। इसके बाद और हत्याएं हुईं, जैसे कि जाने-माने रसायनज्ञ माखनलाल बिंदू, जिन्होंने अपने समुदाय के बड़े पैमाने पर प्रवास के बावजूद घाटी में रहने का फैसला किया था।

राहुल भट और रजनी बाला की हत्याओं और गुरुवार को कुलगाम में की गई विजय कुमार की हत्या ने हमलों के चल रहे दौर में एक नया आयाम जोड़ दिया है। भट, बाला और कुमार पिछली केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर में प्रवासी पंडित समुदाय की वापसी को सुलभ बनाने के लिए  डिज़ाइन किए गए प्रधानमंत्री के पैकेज के लाभार्थी थे।

इन हत्याओं की जिम्मेदारी एक नए संगठन द रेसिस्टेंस फ्रंट (TRF) ने ली है। हाल के अपने बयानों में, उन्होंने कहा है कि वे पीएम पैकेज के लाभार्थियों, निवासी कश्मीरी पंडितों और घाटी में अन्य हिंदू समुदायों को मारने का इरादा रखते हैं। उन्होंने उन्हें घाटी छोड़ने या परिणाम भुगतने की चेतावनी दी है। नब्बे के दशक की रणनीति को दोहराते हुए, उग्रवादियों ने कश्मीरी पंडित निवासियों को भारत सरकार का "सहयोगी" करार दिया है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कश्मीरी पंडितों के एक संगठन केपीएसएस ने (ट्विटर पर भी) घोषणा की है कि मट्टन में पीएम पैकेज के लाभार्थी शुक्रवार को घाटी छोड़ देंगे और यात्रा के दौरान सरकार से उन्हे सुरक्षा मिलनी चाहिए। 

बेशक, कश्मीर में हिंसा कश्मीरी पंडितों या हिंदू निवासियों तक सीमित नहीं है। हाल के दिनों में कई मुस्लिम नागरिक भी मारे गए हैं। टीवी और सोशल मीडिया स्टार अंबरीन भट और एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी, एक अस्थायी बल) मुदासिर अहमद, राहुल भट की हत्या के तुरंत बाद मारे गए हैं। शोपियां के कीगाम इलाके के रहने वाले फारूक अहमद शेख पर भी 1 जून को आतंकियों ने हमला किया था। हालांकि किसी भी संगठन ने इन हत्याओं की जिम्मेदारी नहीं ली है, लेकिन इसे व्यापक रूप से कुछ छोटे संगठनों की करतूत के रूप में माना जा रहा है। अन्य एसपीओ और सुरक्षा बल के जवान भी हाल ही में मारे गए हैं।

आतंकवादियों ने हाल ही में जिन गुरिल्ला जैसी तकनीकों को अपनाया है, उन्हें नियंत्रित करना आसान नहीं है, खासकर कश्मीर में नई सामाजिक-राजनीतिक और प्रशासनिक परिस्थितियों में तो ऐसा करना कठिन है। मौजूदा हालात ने, स्वाभाविक रूप से, कश्मीरी पंडित समुदाय के भीतर दहशत पैदा कर दी है। पिछले बीस दिनों से वे प्रभावी सुरक्षा कवर की मांग को लेकर विरोध कर रहे हैं या फिर मांग कर रहे हैं कि उन्हें सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित कर दिया जाए। कई लोग घाटी से पलायन करने के रास्ते और साधन तलाश रहे हैं। ट्वीट्स की एक श्रृंखला में, केपीएसएस ने कश्मीरी पंडितों की हालिया हत्या के लिए वर्तमान शासन द्वारा अपनाई गई नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है।

अति सक्रियता, नीति पक्षाघात की ओर ले जाती है

भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने हमेशा कश्मीर समस्या को सांप्रदायिक और कानून-व्यवस्था का मुद्दा माना है। एक बार जब 2019 में संसद में इसे पूर्ण बहुमत मिल गया, तो इसने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) सरकार को गिरा दिया और कश्मीर पर नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया था, और धारा 370 को निरस्त कर दिया, तो ऐसा कर कश्मीर के प्रति दोतरफा नीति का पालन किया। एक ओर, इसने असहमति को लोहे के हाथ से कुचल दिया।  साथ ही उसने गैर-कश्मीरियों या बाहरी लोगों को नियुक्त करके कश्मीर के प्रशासन को नियंत्रित करने की कोशिश की है। लगभग हर महत्वपूर्ण प्रशासनिक विभाग में, कश्मीरी अधिकारियों की जगह गैर-कश्मीरियों ने ले ली है। कश्मीर में पुलिस पर गैर-कश्मीरी अधिकारियों का भी दबदबा है। अधिकांश कश्मीरी इसे पूर्व राज्य की धार्मिक जनसांख्यिकी को बदलने के प्रयासों में पहला कदम मानते हैं।

लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार की अनुपस्थिति में, सशस्त्र बलों की भारी उपस्थिति, और मोटे तौर पर गैर-कश्मीरी प्रशासनिक और पुलिस ढांचे ने एक अजीबोगरीब स्थिति पैदा कर दी है। प्रशासनिक तंत्र का स्थानीय आबादी से संपर्क टूट गया है। परिणाम मानव बुद्धि का लगभग पूर्ण अभाव, वरिष्ठ और अनुभवी अधिकारियों के बीच असंतोष और कनिष्ठ और अधीनस्थ अधिकारियों के बीच बेचैनी की भावना है। याद रखें कि नब्बे के दशक के दौरान आशिक बुखारी, अल्लाह बख्श और एएम वटाली जैसे कश्मीरी पुलिस अधिकारियों ने उग्रवाद को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

जबकि पुलिस और प्रशासन की भाषा का, स्थानीय परंपराओं और स्थलाकृति से परिचित होना उग्रवाद से लड़ने में महत्वपूर्ण है, पूर्व राज्य में एक प्रतिनिधि सरकार की उपस्थिति भी एक बफर के रूप में काम कर रहे है। हालांकि मौजूदा सरकार इसे मानने से इंकार कर रही है। स्थानीय आबादी के प्रति उनकी उदासीनता और एक राजनीतिक समस्या के प्रति सांप्रदायिक दृष्टिकोण ने एक खतरनाक स्थिति पैदा कर दी है।

मुख्यधारा और सोशल मीडिया में कश्मीरी मुसलमानों के खिलाफ लगातार नफरत फैलाने वाले प्रचार ने भी कश्मीरी समाज के भारत समर्थक और शांति चाहने वाले वर्ग को पीछे धकेल दिया है। जबकि सभी कश्मीरियों को मुख्यधारा के भारतीय मीडिया और आईटी-सेल योद्धाओं द्वारा खलनायक के रूप में चित्रित किया जा रहा है, घाटी में यह धारणा अब हावी हो गई है कि न केवल दिल्ली की सरकार और उसके सुरक्षा बल बल्कि भारत का अधिकांश हिस्सा कश्मीरियों के खिलाफ है। देश के विभिन्न हिस्सों में कश्मीरी छात्रों पर हमले, होटल में कमरा देने से इनकार करना और वरिष्ठ नेताओं द्वारा धारा 370 को निरस्त करने से इस धारणा को और अधिक बल मिला है।

द कश्मीर फाइल्स फिल्म की रिलीज - और राजनीतिक वर्ग और सामाजिक हलकों में इसका स्वागत - ताबूत में अंतिम कील थी। भरोसा लगभग खत्म हो गया है। कश्मीर फाइल्स फिल्म ने घाटी में भारतीय विरोधी ताकतों को एक नया उत्साह दिया है, और यह स्पष्ट है कि वे कश्मीर में भाड़े के सैनिकों और सहानुभूति रखने वालों पर जीत हासिल करने में सक्षम हैं।

वापसी भूल जाओ; पंडित अब घाटी छोड़ना चाहते हैं 

कश्मीरी पंडितों की वापसी हमेशा से भाजपा की पसंदीदा चाल रही है। पार्टी ने दावा किया था कि धारा 370 हट गई है, अब उनकी वापसी के रास्ते में आने वाली सभी बाधाएं दूर हो जाएंगी। इसने पंडितों की वापसी के नाम पर कई निरंकुश उपायों का बचाव किया, और यह मुद्दा 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से कई विधानसभा चुनावों पर हावी रहा है।

विस्थापित कश्मीरी पंडितों के एक वर्ग ने भी इन कदमों का समर्थन किया था, तब जब  अगस्त 2019 के बाद, धारा 370 को वापस लिया गया था। हालांकि, जोरदार वादों, सांप्रदायिक नफरत वाले अभियानों और प्रशासनिक-राजनीतिक स्पेस पर पूरी तरह से कब्जा जमाने के बाद भी उनकी वापसी को सुनिश्चित करने के लिए कोई व्यवहारिक नीति सामने नहीं आई थी। यह माना जा रहा था कि एक बार जब उग्रवाद को कुचल दिया जाएगा और जम्मू का प्रभुत्व कश्मीर की जगह ले लेगा तो न केवल पंडित लौट आएंगे, बल्कि अन्य हिंदू भी वहां बस जाएंगे (50,000 मंदिरों की स्थापना जैसी योजनाओं की मदद से!)।

घाटी की जनसांख्यिकी को बदलने की योजना की घोषणा कभी नहीं की गई थी, लेकिन आपको इस इरादे के पर्याप्त संकेत मिलते हैं। लक्षित हत्याओं से, ऐसा लगता है कि यह कार्यक्रम विफल हो गया है, पंडितों की वापसी या हिंदुओं को बसाने की बात तो भूल ही जाइए- यहां तक कि घाटी में रहने वाले लोग भी घाटी छोड़ने के लिए जबरदस्त मनोवैज्ञानिक दबाव में हैं।

जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब पीएम पैकेज को लागू किया गया था, जिसका उद्देश्य प्रवासी कश्मीरी पंडितों को नौकरी और आश्रय प्रदान कर, उनका पुनर्वास करना था। लेकिन अब, टीआरएफ ने इस पैकेज के लाभार्थियों को केंद्र का "सहयोगी" बताते हुए उनका सफाया करने की अपनी मंशा घोषित कर दी है। कश्मीर में अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि पैकेज से लाभान्वित होने वाले पंडितों को कश्मीरी मुसलमानों की कीमत पर प्रशासनिक तंत्र में महत्वपूर्ण निर्णय लेने वाले पदों पर रखा जा रहा है। इस पैकेज के तहत प्रदान की गई नौकरियों का प्रोफाइल इन दावों का समर्थन नहीं करता है। हालांकि, घाटी में अफवाहें फैल रही हैं और असंतोष पैदा कर रही है।

पैकेज के लाभार्थियों, जो अलग-अलग पारगमन शिविरों में रहते हैं, और बहुसंख्यक समुदाय के बीच एक जैविक संवाद की अनुपस्थिति ने केवल चीजों को और अधिक कठिन बना दिया है। एक बार जब हत्याएं शुरू हो गईं, तो पंडितों ने सड़कों पर उतरकर विरोध किया और सुरक्षित स्थानों, यानी घाटी से बाहर, अधिमानतः जम्मू में स्थानांतरित करने की मांग की है। हालांकि, इस तरह का कोई भी कदम योजना के उद्देश्य के खिलाफ जाएगा। यह केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन और उसके आकाओं को दिल्ली में एक बहुत ही अजीब स्थिति में डाल देगा। इसलिए ट्रांजिट कैंप के गेट बंद कर दिए गए हैं और उपराज्यपाल गृह मंत्री अमित शाह के साथ स्थिति पर चर्चा करने के लिए दिल्ली के लिए उड़ान भर रहे हैं।

टीआरएफ के कुछ बयानों ने निवासी पंडित समुदाय में खलबली मचा दी है। ध्यान दें कि बड़े पैमाने पर पलायन के बाद भी लगभग 800 पंडित परिवारों ने कभी घाटी नहीं छोड़ी थी। यह छोटी सी आबादी घाटी के ग्रामीण और शहरी स्थानों में लगभग अदृश्य अस्तित्व में रहती है। कुछ समय पहले तक, वे कभी भी खबरों में नहीं आते थे। जब मैंने 2015-16 में उनका साक्षात्कार लिया था, तो उनमें से अधिकांश के सामने सुरक्षा कोई चिंता का विषय नहीं था। लेकिन तब से चीजें गंभीर रूप से बदल गई हैं, जिससे उन्हें पुनर्विचार करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। समुदाय के कुछ सदस्यों ने कहा है कि उन्होंने वैकल्पिक आवास की तलाश शुरू कर दी है, और अगर चीजें नहीं सुधरती हैं, तो वे पूरी तरह से घाटी छोड़ने पर विचार कर सकते हैं। वे इसके लिए सुरक्षा खतरों और राजनीतिक वर्ग द्वारा उनकी शिकायतों को गंभीरता से नहीं लेने का हवाला देते हैं।

इसमें कोई शक नहीं है कि ताजा घटनाक्रम से समुदाय के रूप में कश्मीरी पंडितों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। हमले वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के उच्च-डेसिबल दावों के खोखलेपन और एक जटिल राजनीतिक समस्या से निपटने में उनकी अक्षमता को भी दर्शाते हैं। इसका संकीर्ण सांप्रदायिक दृष्टिकोण कश्मीर की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति के लिए हानिकारक और घाटी के अल्पसंख्यक समुदाय के लिए प्रतिकूल साबित हुआ है। अमरनाथ यात्रा जल्द होने वाली है, ऐसे में ये घटनाक्रम घाटी और अन्य जगहों पर कानून-व्यवस्था की स्थिति को बिगाड़ देंगे। संवाद और लोकतंत्र के माध्यम से एक राजनीतिक समाधान की तत्काल जरूरत है, लेकिन केंद्र सरकार के अड़ियल रवैये के चलते यह शायद ही संभव लगता है।

अशोक कुमार पांडे कई पुस्तकों के लेखक और एक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Revoking Art. 370: A Central Strategy that Keeps on Backfiring

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