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क्या यह एपीएमसी मंडियों को बंद करने का सही वक़्त है?

वर्तमान कोविड-19 के चलते इस लॉकडाउन वाले संकट के दौर में कॉर्पोरेट संचालित विकेंद्रीकृत कृषि-उपज की ख़रीद-बिक्री वाली व्यवस्था पूरी तरह से विफल साबित हो रही है।
 कोविड-19
विलेज मॉल, बंगलौर में विप्रो गेस्ट हाउस के पास/शम्भू घटक

पिछले एक हफ़्ते के आस-पास में देखने में आ रहा है कि विशेषज्ञों ने कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) की बाजार में एकाधिकार को खत्म करने को लेकर कागज काले कर डाले हैं - संक्षेप में इन्हें हम पीएमसी मंडियों के नाम से जानते हैं। इस सम्बन्ध में दो लेख, एक 27 मार्च, 2020 को फाइनेंशियल एक्सप्रेस में और दूसरा 30 मार्च, 2020 को द हिंदू बिजनेस लाइन में लिखे गए लेखों पर (साथ ही इनसे सम्बद्ध प्रमुख हितधारकों का ध्यान) हमारे द्वारा तत्काल ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।

इसमें से कुछ तर्क उनकी ओर से रखे जा रहे हैं जो चाहते हैं कि एपीएमसी मंडियों के एकाधिकारी ताकत को (वास्तव में यह एक भ्रामक नामकरण है, कायदे से इसे एकछत्र एकाधिकार कहना ठीक होगा) जो कि मुख्यतया अनाज, सब्जियों और फलों की खरीद-बिक्री से सम्बद्ध है, को खत्म किये जाने के पक्षधर हैं, जो इस प्रकार से हैं:

1. यदि किसानों या उत्पादकों द्वारा अपने खुदरा खाद्य पदार्थों की बिकवाली सीधे कॉर्पोरेट संस्थाओं, या निजी रूप से ग्राहकों को, किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ), स्वंय सेवी समूहों (SHGs), कोआपरेटिव इत्यादि के साथ हो जाती है तो इसके जरिये उन्हें इन वस्तुओं की बिक्री और व्यापार से पहले से कहीं अधिक फायदा पहुँचेगा। ऐसा इसलिये हो सकेगा क्योंकि इस नवीनतम सुविचारित कृषि-व्यापार की व्यवस्था में से बिचौलिए (जैसे कि आढ़तिये) स्वतः समाप्त हो जाते हैं।

2. इस तरह की स्थिति में जब एपीएमसी मंडियां अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रही हैं, तो ऐसे में कृषि उपज विपणन पर उन्हें जो विशेषाधिकार हासिल हैं, उनपर कटौती किये जाने की जरूरत है। यदि एपीएमसी प्रावधानों को निरस्त कर दिया जाता है तो मंडी शुल्क वसूलने की प्रक्रिया स्वतः समाप्त हो जायेगी, जिसके चलते लेनदेन में लगने वाली लागत में भी कमी हो सकती है। और हम उम्मीद कर सकते हैं कि इसका लाभांश खुदरा विक्रेताओं से लेकर इन वस्तुओं के अंतिम खरीदारों तक को हासिल हो सकेगा।

3. एक ऐसे समय में जब एपीएमसी मंडियां अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रही हैं, हमें किसानों की उपज की खरीद के लिए e-NAM प्लेटफॉर्म जैसे ऑनलाइन ट्रेडिंग का उपयोग करते हुए इसके बिचौलियों (जैसे छोटे और मझौले उद्यमों, एफपीओ, सहकारी समितियों, स्वयं सहायता समूह, सहकारी संस्थाओं इत्यादि) को ऑनलाइन व्यापार को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।

4. चूंकि सामाजिक दूरी (जबकि इसके लिए शारीरिक दूरी शब्द कहीं बेहतर है) बनाये रखना COVID-19 के तेजी से प्रसार को नियंत्रित करने के लिए अति आवश्यक है, इसके लिए यही बेहतर होगा कि एपीएमसी मंडियों में, जहां व्यपार करने के लिए बिचौलियों की जुटान होती है, उस पर रोक लगनी चाहिए। ऐसा करना फायदेमंद रहेगा जो कि हमारे चारों ओर हो रहा है बशर्ते जो लोग इसके हितधारक हैं वे इस तकनीकी व्यवधान को अपनाते हैं और इसके प्रति खुद को अनुकूल बना लेते हैं।

5. आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसीए) सम्बन्धी सम्बद्ध स्थिति को हटाया जाना चाहिए ताकि बड़े व्यवसायी समूहों, प्रोसेसर, खुदरा विक्रेताओं और अन्य के पास वर्तमान निर्धारित सीमा से अधिक मात्रा में माल का स्टॉक करने की सुविधा हो सके।

6. कमीशन एजेंटों पर निर्भर रहने के बजाय यदि एकत्रीकरण का काम एफपीओ द्वारा किया जाता है और एपीएमसी मंडियों द्वारा गुणवत्ता की जांच की गारंटी दी जाती है, तो एपीएमसी मंडियों में फुटफॉल्स को काफी हद तक कम किया जा सकता है और सामाजिक दूरी को सुनिश्चित किया जा सकता है। इसमें शर्त सिर्फ यह है कि e-NAM मंच को राज्यों द्वारा खुले मन से अपना लिया गया हो।

7. यदि कमीशन एजेंटों (अर्थात आढ़तिया) वाली व्यवस्था (एक तथाकथित शक्तिशाली लॉबी जिसके जरिये एपीएमसी मंडियां संचालित हो रही हैं) को दरकिनार कर इसके बदले में हम ऑनलाइन ट्रेडिंग सिस्टम को अपना लेते हैं (जहां बड़े कॉर्पोरेट्स समूह एफपीओ से खरीदारी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं) तो यह महत्वपूर्ण उपलब्धि साबित होगी। इसके जरिये व्यापार में उचित प्रोत्साहन से लेकर, प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने, एपीएमसी की एकाधिकारी शक्ति को कम करने और निजी निवेश को प्रोत्साहन मिलने से न सिर्फ किसानों को फायदा होने जा रहा है बल्कि इसका लाभ अंतिम उपभोक्ताओं तक पहुँच सकेगा।

इस सिलसिले में कहना चाहूँगा कि व्यक्तिगत अनुभव भी उतना ही मायने रखता है जितना कि विशेषज्ञों द्वारा अकादमिक बैठकों, सम्मेलनों, पुस्तकों, लेखों, समाचार पत्रों के कॉलम आदि में साझा करने से हासिल होता है। इसे अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ के एक लेख 'साक्ष्य, नीति और राजनीति' (3 अगस्त, 2018) में बेहद बखूबी चित्रित किया गया है। इसलिये मैं चाहूँगा कि मैं पहले अपने व्यक्तिगत अनुभव साझा करूँ।

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ग़ाज़ीपुर सब्ज़ी मंडी, आनंद विहार-कौशाम्बी के समीप/शम्भू घटक

ग़ाज़ीपुर मंडी

आनंद विहार-कौशाम्बी के समीप स्थित गाज़ीपुर सब्जी मंडी (जिसे भोवापुर गाँव वाले 'सब्ज़ी मंडी' के नाम से जानते हैं) मेरे मकान से बिल्कुल नजदीक में ही है। आम दिनों में यह मंडी 5.00-5.30 बजे सुबह से ही खुल जाया करती है। मंडी में इतनी चहल पहल रहती है कि यदि कोई मुहँ-अँधेरे में आधी नींद में भी हों तो भी वह इसे सुने बिना नहीं रह सकता।

दिल्ली एनसीआर (गाजियाबाद और नोएडा सहित) जैसे शहरों में, खाद्य आपूर्ति की कड़ी में एक समुदाय के रूप में सब्जी विक्रेता इसके प्रमुख हितधारक हैं। हालाँकि जब कभी विशेषज्ञ मौजूदा आपूर्ति श्रृंखला में सुधार के बारे में अपने पालिसी वाले विमर्श साझा करते हैं तो ऐसे में ये फल सब्जी विक्रेता बेहद आसानी से नजरअंदाज कर दिए जाते हैं। दिल्ली और गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) दोनों ही से विभिन्न आर्थिक हैसियत वाले सब्जी विक्रेताओं द्वारा गाजीपुर मंडी से अपनी दैनिक जरूरतों जैसे कि सब्जियाँ (जिसमें डेयरी उत्पाद जैसे पनीर और हरी मटर जैसी फ्रोजेन सब्जियों के साथ-साथ वनस्पति घी इत्यादि) की खरीद होती है।

वे तमाम छोटे खुदरा विक्रेता जो ठेले पर सब्जियाँ उसके अंतिम ग्राहकों तक पहुंचाते हैं, वे भी अपनी खरीदारी यहीं से करते हैं। इन फुटकर विक्रेताओं के पास आईटीसी, ब्रिटानिया, नेस्ले, बिग बास्केट, कारगिल इंडिया, पतंजलि और अडानी समूह जैसे बड़े कॉरपोरेट घरानों से खरीदारी करने लायक न तो पूँजी ही होती है और ना ही इन्हें कोई तकनीकी जानकारी ही हासिल है। आख़िरकार देश में डिजिटल विभाजन एक कड़वी सच्चाई है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जबकि गाजीपुर सब्ज़ी मंडी में नकदी लेन-देन का चलन काफी धडल्ले से है।

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कौशाम्बी के शुक्र बाज़ार में फल और सब्ज़ी विक्रेता/शम्भू घटक

हालांकि सड़कों पर फल-सब्जी बेचने वालों के पास दैनिक खरीद के लिए पूँजी काफ़ी सीमित मात्रा में ही होती है, लेकिन आपूर्ति-मांग के समीकरण को ये लोग अच्छी तरह से बूझते हैं। इसकी एक वजह उनके चुनिन्दा हाउसिंग सोसायटी/इलाकों के लोगों के साथ होने वाली नियमित बातचीत के चलते संभव हो सकी है। इसके जरिये उन्हें भली-भांति पता होता है कि किसकी दैनिक जरूरतें क्या हैं, और उसके अनुरूप किस गुणवत्ता वाली चीजें किस मात्रा में और किन मूल्यों पर खरीद की जानी चाहिए, जिससे उन्हें आसानी से रोजाना खपाया जा सके।

चूँकि उनके पास न तो अपनी खरीद के लिए समुचित भंडारण की सुविधा होती है और न ही किराये पर उपलब्ध जगह के लिए आवश्यक जमा-पूंजी ही, इसलिये वे थोक खरीदारी नहीं करते। इसके बावजूद इन रेहड़ी ठेले वालों के द्वारा बेचीं जाने वाली सब्जियाँ (बड़े दुकानों पर हमें जो मिलता है) की तुलना में ताजा होती हैं और मध्य वर्ग के उपभोक्ताओं की पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त हैं।

होम डिलीवरी

24 मार्च 2020 को कोरोनावायरस कोविद-19 के चलते लॉकडाउन की घोषणा के बाद से मेरे घर के पास स्थित ईस्ट डेल्ही मॉल (ईडीएम) के बिग बाजार से होम डिलीवरी के लिए सब्जियां और फल अनुपलब्ध हैं। 29 मार्च से 1 अप्रैल 2020 के बीच में ईडीएम मॉल बंद कर दिया गया था। 1 अप्रैल की शाम से फिर खुल गया है।

इस बाजार का एक अन्य खिलाड़ी बिग बास्केट तो ग्राहकों को होम डिलीवरी स्लॉट तक उपलब्ध करा पाने में असमर्थ रहा है। यह तो केवल बिग बास्केट डेली ही है जो रोजाना सुबह-सुबह आपके दरवाजे तक दूध की आपूर्ति करा पा रहा है। हालांकि यदि किसी को यह सुविधा लेनी हो तो उसे सबसे पहले BB डेली ऐप डाउनलोड करने के लिए स्मार्टफोन चाहिए और फिर घर बैठे दूध की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रीपेड रीचार्ज कराना पड़ेगा।

हालाँकि गाजियाबाद में कौशाम्बी, वैशाली, इंदिरापुरम और वसुंधरा जैसी जगहों के विभिन्न अपार्टमेंट मालिकों के संगठनों (AoAs) और रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (RWAs) के पास घर बैठे सब्जी/फल और राशन मँगवाने के लिए किराने की दुकानों और फल/सब्जी विक्रेताओं की सूची जारी की गई है। लेकिन इनमें से अधिकतर फोन लाइनें अक्सर लोगों के घबराहट के चलते व्यस्त चल रही हैं।

इन विक्रेताओं की जो सूची एओए और आरडब्ल्यूए के बीच जारी की गई हैं, उनमें से मुट्ठी भर ही कुछ ऐसे बड़े खुदरा कारोबारी हैं जो होम डिलीवरी कर पा रहे हैं। ये मुट्ठी भर लोग ही इअसे इस काम के लिए चुने गए, इसकी कोई खबर नहीं। कोरोनोवायरस के डर के मारे और कुछ प्रशासन के चलते भी अधिकांश मॉम-एंड-पॉप जैसी किराने की दुकानें भी बंद हो चुकी हैं।

घरेलू सामान के साथ-साथ फल और सब्जियों की होम डिलीवरी करने वाले इन बड़े स्टोरों से सामान की डिलीवरी इसी शर्त पर संभव है यदि इसका भुगतान नेट बैंकिंग या पेटीएम के माध्यम से ऑनलाइन किया जाये। यदि होम डिलीवरी सुनिश्चित करनी है तो इसके लिए न्यूनतम खरीदारी करनी ही होगी। वर्ना इन स्टोर्स से आपको होम डिलीवरी नहीं होने जा रही। ऐसे में जिन उपभोक्ताओं का सीमित परिवार है या जिनके पास पर्याप्त मात्रा में खरीद सकने के आर्थिक हालात नहीं है, जैसा कि भोवापुर के ग्रामवासी हैं तो ऐसी स्थिति में इन बड़े स्टोरों पर उनकी जिन्दगी टिकी नहीं रह सकती।

इन अधिकतर बड़े व्यावसायिक समूहों के फल और सब्जी पहुँचा सकने की अक्षमता के चलते इस संकट की घड़ी में लोगों की निर्भरता इन फल व सब्जी के ठेलेवालों पर पहले से बढ़ चुकी है। हालाँकि इस तालाबंदी के समय सड़कों पर घूम-घूम कर माल बेचने वाले इन विक्रेताओं को, नजर आने पर पुलिस और प्रशासन के प्रकोप का भी सामना करना पड़ रहा है, लेकिन वे इन बाधाओं का सामना कर अपनी आजीविका चलाने के लिए मजबूर हैं। आम तौर पर सोसाइटी में रहने वाले लोगों के पास यदि इन विक्रेताओं के फोन नंबर होते हैं तो उनसे घर पर ही सब्जी और फल पहुँचा देने के लिए फोन करते हैं। हालाँकि इसके लिए उन्हें आम दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक खर्च करना पड़ता है, लेकिन मध्य वर्ग के लिए इसे वहन करना खास मुश्किल नहीं है।

अगर स्थिति यही बनी रही तो चीजों के दाम बढ़ सकते हैं, विशेष रूप से भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुओं के दामों में। उदाहरण के लिए जो रेट लिस्ट MKC एग्रो फ्रेश लिमिटेड द्वारा पकड़ाई गई है, जो कि AoAs और RWAs को दी गई सूची में एक रिटेलर है, और जिसे गाजियाबाद के कौशाम्बी, वैशाली, इंदिरापुरम और वसुंधरा में ग्राहकों के लिए जारी किया गया है। 28 से 30 मार्च की अवधि में जहाँ बैगन की कीमत 40 रूपये प्रति किलो तय थी। वहीँ 1 से 4 अप्रैल की अवधि के लिए यह दर बढ़कर अब 60 रूपये प्रति किलो की हो गई है। यदि होम डिलीवरी चाहिए तो कम से कम 600 रूपये की खरीदारी करनी होगी। भुगतान के लिए वे पेटीएम के विकल्प को तरजीह देते हैं।

यहाँ पर यह बात भी जोड़ देना ठीक रहेगा कि देश भर में रिटेल चेन के जरिये धंधा करने वाले ज्यादातर बड़े स्टोर लॉकडाउन के दौरान वस्तुओं की होम डिलीवरी कर पाने में बुरी तरह से फ्लॉप सिद्ध हुए हैं। जबकि वे गरीब जो ठेले पर सड़कों पर माल बेचते हैं, रोजाना सुबह-सुबह सब्जी और फल खरीदने के लिए एपीएमसी मंडियों में जाने का जोखिम उठाते हैं।  अभी भी दिल्ली एनसीआर में अधिकांश उपभोक्ताओं के बीच ये विक्रेता इन बड़े स्टोरों की तुलना में कहीं अधिक पसन्द किये जा रहे हैं।

लॉकडाउन काल में एपीएमसी को ख़त्म करने विचार

अब मैं उन कुछ बिंदुओं का खंडन करना चाहूँगा जिन्हें एपीएमसी मंडियों के खात्मे के पक्ष में तर्क के रूप में पेश किया गया है। इसमें सबसा पहला है किसानों को उचित पारिश्रमिक मूल्य मिलने की गारण्टी का, जिसकी कोई गारण्टी इस नई व्यवस्था में भी नहीं होने जा रही है। कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) जो APMC मंडियों में कृषि उपज बेचने के लिए निर्धारित की जाती है उससे अधिक मूल्य पर ही वस्तुओं की बिक्री की जाती है। और जो तथ्य APMC के लिए सत्य हैं वहीँ सच eNAM के माध्यम से एफपीओ या किसी बड़ी कंपनी द्वारा उपज बेचे जाने को लेकर भी है। साफ़ तौर पर किसान इन दोनों ही व्यवस्थाओं में बाजार मूल्य में उतार-चढ़ाव (फॉरवर्ड / वायदा बाजार के अपवाद के साथ) के तहत पूरी तरह से असहाय हैं।

चूंकि भारत में लोकतंत्र है, इसलिये जरूरत इस बात की है कि एपीएमसी प्रावधानों को समाप्त करने से पहले सभी प्रमुख हितधारकों से इस विषय में परामर्श किया जाये, जिसमें आढ़तिये, माल ढुलाई वाले, क्लीनर, ड्राइवर, छोटे, मझौले और बड़े खुदरा विक्रेता, उपभोक्ता आदि शामिल हैं। लॉकडाउन के रूप में जिस सामाजिक या शारीरिक दूरी की नीति को कार्यान्वित करने पर जोर दिया जा रहा है, उसके चलते भी इस खास दौर में इस प्रकार के विचार-विमर्श की गुंजाइश नहीं है।

एक संघीय ढ़ांचे में सबसे पहली जरूरत होती है कि राज्यों से परामर्श लिया जाये और उन्हें विश्वास में लिया जाये। इस बात को हम पहले से ही देख रहे हैं कि प्रमुख हितधारकों के साथ बिना किसी सलाह मशविरे के अचानक से और बिना सोचे-विचारे लॉकडाउन के कार्यान्वयन ने प्रवासी और असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों के पलायन को किस प्रकार से अंजाम दिया है।

हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि देश आर्थिक मंदी से गुजर रहा है। देश भर की मण्डियों में कार्यरत हाथ से काम करने वाले श्रमिकों और मौजूदा खाद्य आपूर्ति की कड़ी से सम्बद्ध अन्य एजेंटों की बड़े पैमाने पर बेरोजगारी से अर्थव्यवस्था में समग्र प्रभावी मांग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है, जो आर्थिक तबाही को और बढ़ाने वाली साबित हो सकती है। जिस तरह से शारीरिक श्रम से जुड़े श्रमिकों (लाइसेंस प्राप्त हमाली करने वाले और ठेला गाड़ी खींचने वाले लोगों सहित) की जगह पर (जैसे कि मनरेगा के तहत ग्रामीण स्तर पर रोजगार गारण्टी योजना) को लाने का कोई मतलब नहीं, उसी प्रकार से मौजूदा कमीशन एजेंट-आधारित सिस्टम को कॉर्पोरेट संचालित, विकेंद्रीकृत कृषि-उत्पाद के जरिये विपणन प्रणाली के स्थानापन्न करने से भी कोई फर्क नहीं पड़ने जा रहा है। नई व्यवस्था जिसकी हमारे विशेषज्ञ लागू कराने की इच्छा रखते हैं- उसकी प्रकृति अधिकाधिक पूंजीनिवेश की माँग वाली है और वह ऐसी प्रौद्योगिकी को लागू कर सकती है जो विशेष रूप से ब्लू-कॉलर श्रमिकों के लिए नौकरियों के संकुचन की कीमत पर हो।

सोचिये यदि एकाधिकारी प्रवित्ति के समूह (जैसे कि एपीएमसी मंडियों वाले) को दूसरे समूह के नए खिलाडियों (जैसे कुछ कॉर्पोरेट इकाई या कुछ एफपीओ) द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है, जो बाद में जाकर पहले वाले की ही तरह व्यवहार करने लगें, तो आवश्यक सुधार के जो भी उपाय सुझाए गए हैं वे बेमानी साबित हो जाते हैं। क्योंकि अंततः पूंजीवाद का इतिहास हमें बताता है कि अपने विकासक्रम में यह खुद किस प्रकार के विभिन्न चरणों से गुजरा है - प्रतिस्पर्धी दौर से एकाधिकारी पूंजीवाद और वहाँ से वित्तीय पूँजीवाद की ओर गमन।

यदि हम हर चीज को राजनीतिक अर्थव्यवस्था के ढांचे से देखें, तो हमें इसके प्रत्येक एजेंट के बाजार के व्यवहार के पीछे छिपे आर्थिक हित को समझने की जरूरत होनी चाहिए। किसी रायशुमारी में जुटे लेखक के लेख के अंत में एक अस्वीकरण भी यह जानने के लिए होना चाहिए कि उस इन्सान के लिए नीति निर्धारण को रखते समय किसी ख़ास विचार को बढ़ावा देने के पीछे उसका कोई निहित स्वार्थ है या नहीं। और इस प्रकार हमें स्पष्ट तौर पर यह जानने की जरूरत है कि वे कौन लोग हैं जो एपीएमसी के ढाँचे में बदलाव चाहते हैं और इस सबसे वे खुद के लिए कितना लाभ कमाने जा रहे हैं।

लेखक इंक्लूसिव मीडिया फ़ॉर चेंज, कॉमन कॉज़ से सम्बद्ध वरिष्ठ एसोसिएट फ़ेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

Is This the Right Time to Close Down APMC Mandis Sans Consulting All Stakeholders?

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