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राष्ट्रीय आय बढ़ने के बावजूद जनता की स्थिति में नहीं हो रहा सुधार

अर्थव्यवस्था दोगुनी नहीं हुई है; असंगठित क्षेत्र में गिरावट के कारण 2016 के बाद से इसमें ठहराव आ गया या फिर इसमें गिरावट आई है, जिसे आधिकारिक रूप से दर्ज नहीं किया गया है। इसके अलावा, भारी असमानताओं के कारण, प्रति व्यक्ति आय ग़रीबों के सुधार की स्थिति को नहीं दर्शाती है।
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भारत की प्रति व्यक्ति आय, एक भारतीय नागरिक की औसत आय का प्रतिनिधित्व करती है, जो 2013-14 में 79,000 रुपये से बढ़कर 2022-23 में 1,71,000 रुपये हो गई है – यानि यह 116 प्रतिशत की वृद्धि है। इसलिए, कुछ का दावा है कि वर्तमान निज़ाम के सत्ता संभालने के बाद से भारत में आय दोगुनी से अधिक हो गई है। लेकिन इसकी गुत्थी यह है कि: ए) इसमें उस अवधि के दौरान हुई मूल्य वृद्धि शामिल है और इसलिए यह आय में वास्तविक वृद्धि को नहीं दर्शाती है, और बी) 2022-23 और पिछले दो वर्षों के लिए डेटा अंतिम नहीं है और अभी इसमें संशोधन होना है।

उपरोक्त चेतावनी के साथ प्रति व्यक्ति आय में वास्तविक वृद्धि, इस अवधि के दौरान 68,600 रुपये से 96,500 रुपये तक ही है, जो कि कुल 40.8 प्रतिशत की वृद्धि है। यह बुरी  नहीं है। हालाँकि, चूंकि इन दिनों हर चीज की तुलना 2004-05 से 2013-14 तक शासन में रहे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के शासन से की जाती है, इसलिए संख्याओं में कोई चापलूसी नहीं बरती गई है। महंगाई के संयोजन से यूपीए के कार्यकाल में यह वृद्धि 204.5 प्रतिशत थी, जबकि वास्तविक वृद्धि 50.3 प्रतिशत थी। ये राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी आंकड़ों के आधार पर आर्थिक सर्वेक्षण के आधिकारिक आंकड़े हैं – यह वह आधिकारिक एजेंसी है जो राष्ट्रीय आय और संबंधित मैक्रोइकॉनॉमिक भिन्नता पर डेटा का अनुमान लगाती है और उसका प्रकाशन करती है।

औसत भिन्नता को छुपाता है

इसके अलावा, औसत भी भारत में आय में अत्यधिक भिन्नता को विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों को छुपाता है। पुरुषों और महिलाओं द्वारा किए जाने वाले एक ही काम में दी जाने वाली  मजदूरी में भी अंतर होता है, साथ ही युवा और वृद्धों के बीच भी अंतर होता है। जहां एक असंगठित क्षेत्र का कर्मचारी एक लाख रुपये कमा सकता है, वहीं एक कंपनी का मालिक सौ करोड़ रुपये से अधिक कमा सकता है। महामारी से पहले 2019-20 में बिहार में औसत आय लगभग 44,000 रुपये थी, जबकि हरियाणा में यह 5.15 के अनुपात में 2,27,000 रुपये के करीब थी। यह गोवा जैसे छोटे राज्यों की गिनती नहीं करती है, जहां आय लगभग 4,68,000 रुपये थी।

असमानता, जिसे पारिवारिक आय के रूप में मापा जाता है, वह प्रति व्यक्ति आय में दिखाई गई व्यक्तिगत आय की तुलना में अधिक है।

यदि आय किसी व्यक्ति के कल्याण का प्रतिनिधित्व करती है, तो वह औसत आय के पिरामिड के निचले भाग में लोगों के कल्याण को प्रतिबिंबित नहीं करती है, विशेष रूप से यह देखते हुए कि बड़ी संख्या में लोग पिरामिड के नीचे होते हैं। असंगठित क्षेत्र, सभी अनुमानों के अनुसार, सभी श्रमिकों के 90 प्रतिशत से अधिक को कम मजदूरी पर रोजगार देता है। ईश्रम पोर्टल डेटा से पता चलता है कि असंगठित क्षेत्र के 94 प्रतिशत कर्मचारी प्रति माह 10,000 रुपये से भी कम कमाते हैं।

इसके अलावा, आधिकारिक आंकड़ों में काली आय को शामिल नहीं किया गया है, जो आय कुछ उच्च धनी लोगों के हाथों में केंद्रित होती है। परिभाषा के अनुसार, गरीब टैक्स वाले ढांचे से बाहर होते हैं, इसलिए वे काली आय पैदा नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार, असंगठित क्षेत्र में बड़ा पैसा कमाने वाले और औसत श्रमिक के बीच आय का अनुपात 10,000 गुना होगा।

फिलहाल, विश्लेषण में काली आय को छोड़ देते हैं और सरकार द्वारा घोषित सफेद आय पर ध्यान देते हैं।

पारिवारिक आय व्यक्तिगत आय से अधिक महत्वपूर्ण है। धनी लोग करों में बचत करने के लिए आय को परिवार के सदस्यों के बीच विभाजित कर देते हैं। इसके अलावा, उनके पास बहुत अधिक धन है, जो ब्याज़/प्रतिफल देता है और जो काम से उनकी आय को बढ़ाता है।

असंगठित क्षेत्र के लोग अधिकतर बड़े पैमाने की बेरोज़गारी का सामना करते हैं या उन्हे अल्प-रोज़गार मिलता है, इसलिए आय कम होती है और शायद ही कोई धन उनके पास जमा हो पाता है। इसके अलावा, प्रत्येक कमाने वाले सदस्य को परिवार के दो-तीन अन्य सदस्यों का आर्थिक रूप से समर्थन करना होता है। इसका परिणाम यह होता है कि भले ही व्यक्तिगत आय गरीबी रेखा से ऊपर हो, प्रति व्यक्ति आय कम होती है, और पूरा परिवार गरीबी रेखा से नीचे चला जाता है। इस प्रकार, असमानता, जिसे पारिवारिक आय के रूप में मापा जाता है, वह प्रति व्यक्ति आय द्वारा दी गई व्यक्तिगत आय के मुक़ाबले अधिक होती है।

आय, कल्याण और सामाजिक तबाही 

आय, व्यक्ति और परिवार के कल्याण का एक संकेत है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह है कि आय जितनी अधिक होगी, कल्याण भी उतना ही अधिक होगा। लेकिन ऐसा तब होता है जब बाकी सब कुछ वैसा ही रहता है। झुग्गी में रहने वाले किसी गरीब व्यक्ति के परिवार में बीमारियाँ अधिक होंगी, क्योंकि वे असभ्य परिस्थितियों में रहने पर मजबूर होते हैं। उचित पोषण की कमी और अस्वास्थ्यकर भोजन खाने से बीमारियाँ बढ़ जाती हैं। इसके अलावा, वे जो भोजन खरीदते हैं वह खराब गुणवत्ता का हो सकता है और अक्सर मिलावटी होता है। हो सकता है कि वे जो पानी पीते हैं वह पीने योग्य न हो और आस-पास की हवा भी जहरीली हो। यह सब उन्हें बीमारी के प्रति अधिक प्रवण बनाता है, इस तथ्य के बावजूद कि उनका स्वास्थ्य अधिक कठोर हो सकता है।

इस प्रकार, लगातार पारिवारिक बीमारी आय को कम कर देती है, यदि ऐसा नहीं होता तो वह आय उनके कल्याण में सुधार करने में मदद कर सकती थी। परिवार में कोई भी बड़ी बीमारी उन्हें गरीबी में धकेल देती है क्योंकि उन्हें इलाज के लिए उधार लेना पड़ता है, और उस पर वे मोटा मासिक ब्याज देते हैं। इसके अलावा, उत्पादन में लगे लोग अक्सर अनौपचारिक मुद्रा बाजारों/शाहुकारों से उधार लेते हैं जहां ब्याज दर अक्सर ऊंची होती है। अक्सर, उन्हें अपने काम/व्यवसाय को चालू रखने के लिए आधिकारिक तंत्र को रिश्वत देनी पड़ती है। इन दो कारको की वजह से उनकी आय कम हो जाती है और इसे प्रति व्यक्ति आय के आधिकारिक आंकड़ों में दर्ज़ नहीं किया जाता है। गरीबों में मादक पेय और मादक दवाओं की खपत बढ़ रही है। इसके परिणामस्वरूप भोजन और शिक्षा जैसी कल्याणकारी गतिविधियों पर परिवार के खर्च में कमी आ रही है।

ऐसी कई रोज़गार गतिविधियाँ हैं जिनके परिणामस्वरूप 'सामाजिक बर्बादी' होती है जो व्यक्तियों के कल्याण में वृद्धि नहीं करती हैं। वे गड्ढों को खोदकर भरने के समान हैं। वे रोज़गार और आय देते हैं लेकिन भविष्य में अधिक उत्पादन करने में समाज की क्षमता में वृद्धि नहीं करते हैं जिससे कल्याण में वृद्धि हो सकती है। ऐसी गतिविधियाँ उत्पादन में उच्च मूल्यह्रास के समान हैं जो शुद्ध उत्पादन को कम करती है। इसी तरह, सामाजिक तबाही कल्याण के रास्ते की बाधा है। सार्वजनिक वस्तुएँ कल्याण को बढ़ाती हैं लेकिन भारत में वे गरीबों की जरूरतों की तुलना में बहुत कम हैं। इसलिए, अन्य बातों के अलावा, सामाजिक तबाही और प्रदूषण के कारण होने वाले नुकसान की तुलना में उनका मामूली प्रभाव पड़ता है।

जीडीपी के आंकड़े ग़लत हैं

उपरोक्त चर्चा इस धारणा पर आधारित है कि प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े सही हैं। इसे  जनसंख्या द्वारा अर्थव्यवस्था की शुद्ध आय को विभाजित करके हासिल किया जाता है। चूंकि अर्थव्यवस्था की शुद्ध आय केवल एक मोटा अनुमान है, इसलिए वास्तविक आय कम होने की संभावना होती है और इसलिए प्रति व्यक्ति आय भी कम होती है। तदनुसार, लोगों का कल्याण भी कम होता है।

आय का अधिक अनुमान इसले भी लगाया जाता है क्योंकि असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों का स्वतंत्र रूप से अनुमान नहीं लगाया जाता है। मोटे तौर पर, यह माना जाता है कि यह क्षेत्र संगठित क्षेत्र की समान दर से बढ़ रहा है। यह 2016 में नोटबंदी से पहले का सच हो सकता है, लेकिन उसके बाद का नहीं और आज की सच भी नहीं है।

आधिकारिक आय के आंकड़े बड़े पैमाने पर संगठित क्षेत्र और कृषि क्षेत्र से लिए गए हैं।  इसलिए, अर्थव्यवस्था का आकार आधिकारिक रूप से दिए गए आकार से बहुत कम है और इसलिए प्रति व्यक्ति आय भी कम है।

असंगठित क्षेत्र को असफलताओं की एक श्रृंखला का सामना करना पड़ा है - संरचनात्मक रूप से दोषपूर्ण माल और सेवा कर, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का संकट, जबरन डिजिटलीकरण और अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने के प्रयास, और अंत में, 2020 के अचानक राष्ट्रीय लॉकडाउन ने इस क्षेत्र को तबाह कर दिया है। रिपोर्टों से पता चलता है कि संगठित क्षेत्र पिछले सात वर्षों में असंगठित क्षेत्र की कीमत पर बढ़ा है। खुदरा व्यापार, तेजी से बढ़ते उपभोक्ता सामान, चमड़े के सामान, कपड़ा, गूड्स उद्योग, प्रेशर कुकर आदि के मामले में मांग असंगठित से संगठित की तरफ चली गई है।

दूसरे शब्दों में, असंगठित क्षेत्र वह डूबता हुआ क्षेत्र है जो अर्थव्यवस्था का लगभग 31 प्रतिशत है, जिसे अनुमान में बढ़ता क्षेत्र बताया गया है। आधिकारिक आय के आंकड़े बड़े पैमाने पर संगठित क्षेत्र और कृषि से लिए गए हैं। इसलिए, अर्थव्यवस्था का आकार आधिकारिक रूप से दिए गए आकार से बहुत कम है और तदनुसार, प्रति व्यक्ति आय भी कम है।

इसके अलावा, क्योंकि गरीबों की आय बहुत कम है, इसलिए असमानता आधिकारिक आंकड़ों से कहीं अधिक है।

संक्षेप में, न तो अर्थव्यवस्था दोगुनी हुई है, असंगठित क्षेत्र में गिरावट के कारण 2016 के बाद से इसमें या तो ठहराव आ गया है या फिर गिरावट आई है, जिसे आधिकारिक तौर पर दर्ज नहीं किया गया है। इसके अलावा, भारी असमानताओं के कारण, प्रति व्यक्ति आय गरीबों के कल्याण को नहीं दर्शाती है। इतना ही नहीं, बढ़ती सामाजिक तबाही, कल्याण को और कम कर देती है। इस प्रकार, गरीबों को सरकार से मिलने वाले मामूली समर्थन से कहीं अधिक का नुकसान हो रहा है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Rising National Income But Declining Welfare of People

Courtesy: The Leaflet

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