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एसआईटी  ने सिर्फ़ 'काम' किया, तहक़ीक़ात नहीं की: ज़किया जाफ़री एसएलपी में कपिल सिब्बल

एसआईटी न सिर्फ़ पुलिस अधिकारियों के अहम रिकॉर्ड छिपाने जैसे पहलुओं पर ग़ौर करने में नाकाम रही, बल्कि उसने आरोपियों के बयानों की 'सच्चाई का पता लगाये बिना' उनके बयानों को आसानी से स्वीकार कर लिया।
Zakia Jafri

11 नवंबर को जस्टिस ए.एम. खानविलकर, दिनेश माहेश्वरी और सीटी रविकुमार की सुप्रीम कोर्ट की बेंच के सामने ज़किया जाफ़री की स्पेशल लीव पिटीशन (SLP) यानी विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई जारी रही। याचिकाकर्ता दिवंगत कांग्रेस सांसद अहसान जाफ़री की विधवा ज़किया जाफ़री और सिटीजन फ़ॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) की नुमाइंदगी वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल कर रहे हैं।

इस व्यापक सुनवाई को ध्यान में रखते हुए 11 नवंबर को सिब्बल ने पीठ से संविधान के अनुच्छेद 21 को सुनने का अनुरोध करते हुए उसे पढ़कर सुनाना शुरू किया और उन्होंने इसे ज़ोर से पढ़ा। उन्होंने बताया कि इसका एक सकारात्मक अर्थ भी है कि किसी व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है, बशर्ते कि क़ानून से स्थापित प्रक्रिया का पालन किया जाये और व्यक्ति को दोषी ठहराया जाये। इसके साथ-साथ उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 157 और 172 को भी पढ़कर सुनाया।

जहां धारा 157 'जांच की प्रक्रिया' को निर्धारित करती है, वहीं धारा 172 'जांच में कार्यवाही के रोज़नामचे' को निर्धारित करती है। सिब्बल ने निवेदन करते हुए कहा, “सीआरपीसी को अनुच्छेद 21 से जोड़ने वाली यह गर्भनाल शुद्ध और निष्पक्ष जांच वाला ऐसा तत्व है, जिसके बिना अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है।”

फिर भी संविधान का ज़िक़्र करते हुए उन्होंने कहा कि बतौर परिघटना इंसाफ़ संविधान के अध्याय III के तहत उपलब्ध एक-एक अधिकार का एक ऐसा ही तत्व है और यह सभी मौलिक अधिकारों को समाहित करता है।

'तहक़ीक़ात' का मतलब क्या है ?

सिब्बल ने तहक़ीक़ात, यानी अंग्रेज़ी के इन्वेस्टिगेशन शब्द की व्युत्पत्ति को बताते हुए कहा कि इन्वेस्टिगेट (investigate) की उत्पत्ति लैटिन शब्द 'वेस्टिगारे'(vestigare) से हुई है, जिसका मतलब होता है- 'नज़र रखना/पता लगाना'। उन्होंने आगे इसे विस्तार से बताते हुए कहा कि तहक़ीक़ात करने का मतलब किसी गवाह के एक विशेष बयान की निशानदेही का पता लगाना होता है, "जो कि किसी जांच के केंद्र में होता है," और कहा, "अगर आप उस बयान को वैसे के वैसे ही स्वीकार कर लेते हैं, तब तो यह कोई तहक़ीक़ात नहीं है। "

यह बयान एसआईटी की ओर से उस मजिस्ट्रेट कोर्ट के सामने पेश किये जाने वाले क्लोज़र रिपोर्ट के सिलसिले में था, जहां एसआईटी ने कुछ आरोपियों के बयानों को तुरंत स्वीकार कर लिया था, जब उन्होंने कहा था कि तहलका स्टिंग ऑपरेशन में उन्होंने 'ऑपरेशन कलंक' नामक इक़बालिया बयान दिया था, जो उन्हें दी गई एक स्क्रिप्ट का हिस्सा था।

उन्होंने कहा, "एसआईटी तहक़ीक़ात नहीं, महज़ 'बैठकें' कर रही थी।"

इसके बाद उन्होंने एसआईटी के गठित किये जाने के मक़सद पर ज़ोर दिया, क्योंकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को प्रक्रिया की शुद्धता को दूषित किये बिना स्वतंत्र जांच करने वाले स्थानीय पुलिस पर भरोसा नहीं था।

सिब्बल ने कहा कि एक आपराधिक मुकदमे में पीड़ितों को इंसाफ़ दिलाने के लिए सरकार को पीड़ितों के स्थान पर खड़ा होना चाहिए। जांच एजेंसी तो अपनी शक्ति के दायरे में कुछ भी करने के लिए बाध्य है, ताकि पीड़ित कम से कम इस बात से संतुष्ट हो कि क़ानून के शासन का सम्मान तो किया गया है। सिब्बल ने निवेदित किया, “अगर इसका उल्लंघन किया जाता है, तो पीड़ित को दोहरा निशाना बनाया जाता है; पहली बार आरोपी की ओर से और दूसरी बार जांच एजेंसी की ओर से।”

सिब्बल जब यह कह रहे थे कि जांच के दौरान किस तरह उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, तो पीठ ने सवाल किया कि जब दंगों के दौरान अधिकारियों की निष्क्रियता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, तो साज़िश को साबित करने के लिए अपराध की जांच किस तरह प्रासंगिक है। सिब्बल ने इसका जवाब देते हुए कहा कि प्रक्रिया के मुताबिक़ तहक़ीक़ात नहीं कर पाना भी साज़िश का एक हिस्सा होता है।

पुलिस की मिलीभगत

मजिस्ट्रेट के साथ-साथ गुजरात हाई कोर्ट के सामने याचिकाकर्ताओं की ओर से दायर की गयी विरोध याचिका में कहा गया है कि पूर्व पुलिस आयुक्त पीसी पांडे के ख़िलाफ़ किसी कार्रवाई की सिफ़ारिश नहीं की गयी, जिन्होंने पहले तो सबूत छुपाये थे, और फिर बाद में 2011 में इसे पेश कर दिया था...ये दोनों ही कार्य आईपीसी के तहत गंभीर दंडनीय अपराध हैं। पीसीआर अहमदाबाद की 27 फ़रवरी, 2002 की वायरलेस मैसेज बुक 15 मार्च, 2011 के बाद ही जांच एजेंसी को उपलब्ध करायी गयी थी। पांडे ने अचानक स्कैन किये गये इन संदेशों के 3,500 पृष्ठों को पेश कर दिया था, जिन्हें पहले  उन्होंने रोक लिया था।

एसआईटी की नियुक्ति के 5 दिनों बाद ही सरकार ने यह दावा करते हुए इन रिकॉर्ड को नष्ट कर दिया था कि यह नियमित प्रक्रिया है। फिर भी ये रिकॉर्ड 2011 में पांडे के पास थे! ऐसे में यह सवाल बना रह जाता है कि अगर सभी रिकॉर्ड को नियमित प्रक्रिया के भाग के रूप में नष्ट कर दिया गया था, तो ये रिकॉर्ड क्यों और कैसे नष्ट होने से रह गये? और अगर पांडे के पास ये थे, तो उन्होंने इन रिकॉर्ड को पहले क्यों रोके रखा था?

पांडे ने एसआईटी से यहां तक कहा था कि अहमदाबाद में अंतिम संस्कार के जुलूस "शांतिपूर्ण" थे, लेकिन जैसा कि सिब्बल ने विरोध याचिका में उल्लेख किया है कि यह सच्चाई से बहुत दूर है। नरोदा के पास रामोल में 5,000 से 6,000 से ज़्यादा की संख्या में शोक संतप्त लोगों की एक विशाल अंतिम संस्कार रैली शवों को हाटकेश्वर श्मशान ले गयी थी। इस सिलसिले में एक पीसीआर संदेश भेजा गया था कि हिंदू भीड़ हिंसक हो गयी है और एक वाहन को आग लगा दी गयी है और राजमार्ग पर आगजनी हो रही है।

उस सोला सिविल अस्पताल के कर्मचारियों को सुरक्षा मुहैया कराये जाने का अनुरोध किया गया था, जहां 28 फ़रवरी, 2002 की तड़के गोधरा से अहमदाबाद शवों को लाया गया था। स्टेट इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक संदेश में यह भी कहा गया है कि साबरकांठा ज़िले के एक कस्बे खेड़ब्रह्मा में एक अंतिम संस्कार जुलूस निकालने की अनुमति दी गयी थी और इसके तुरंत बाद खेड़ब्रह्मा जा रहे दो मुसलमानों को चाकू मार दिया गया था। मुस्लिम आवासीय कॉलोनियों, दुकानों और प्रतिष्ठानों को पहले ही चिह्नित कर लिया गया था और इसकी जानकारी लूटपाट करने वाली भीड़ के पास उपलब्ध थी।

इन बातों  को रखने के बाद सिब्बल ने सवाल किया कि एसआईटी ने पांडे से यह दावा करने का कारण क्यों नहीं पूछा कि अंतिम संस्कार के जुलूस शांतिपूर्ण थे, जबकि विभिन्न ज़िलों में इन जुलूसों के बाद इतनी हिंसक घटनायें हुई थीं।

याचिकाकर्ताओं की ओर से दायर अपनी विरोध याचिका में पांडे के कॉल रिकॉर्ड का विश्लेषण भी किया गया था और यह पाया गया था कि 28 फ़रवरी, 2002 को उन्होंने अपने अधिकारियों को अपने लैंडलाइन से कोई कॉल नहीं किया था और उनकी ओर से अपने मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल बिल्कुल भी नहीं किया गया था। उन्होंने सिर्फ़ विहिप नेता और आरोपी जयदीप पटेल के साथ फ़ोन पर बातचीत की थी, जिसे गोधरा के शवों को अहमदाबाद लाने के लिए कथित तौर पर सांप्रदायिक आग भड़काने के इरादे से सौंप दिया गया था। पांडे का यह भी दावा था कि उन्हें नरोदा पाटिया और गुलबर्ग के क्रूर नरसंहार के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी।

सिब्बल ने बताया कि अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त पीसी पांडे राष्ट्रीय टीवी पर आये और 1 मार्च, 2002 को स्टार न्यूज़ नामक एक समाचार चैनल को बताया, “―ये लोग भी, कहीं न कहीं आम भावना से बहक जाते हैं। यही सारी परेशानी है। पुलिस भी आम भावनाओं से इसी तरह प्रभावित होती है।"

इसके साथ फ़ायर ब्रिगेड की भी मिलीभगत थी, क्योंकि जब फ़ायर ब्रिगेड को कॉल किया गया,तो वहां से कोई जवाब नहीं मिला। एसआईटी यह पता लगाने में नाकाम रही कि ऐसा आख़िर क्यों हुआ और उन्होंने शाहपुर फ़ायर ब्रिगेड के गोरधनभाई जैसे फायर ब्रिगेड अधिकारियों से इस सिलसिले में पूछताछ भी नहीं की थी कि आख़िर किसी ने फ़ोन क्यों नहीं उठाया।

एसआईटी की ओर से की गयी कथित जांच में कई विसंगतियों की ओर इशारा करने के बाद सिब्बल ने कहा, "यह  (एसआईटी की ओर से की गयी) कोई तहक़ीक़ात नहीं थी, बल्कि यह एक सहयोगात्मक क़वायद थी।"

यह आरोप लगाया जाता है कि ऐसी ही मिलीभगत के चलते पांडे जैसे अधिकारियों को सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक जैसे अहम पद दिये गये और इस नियुक्ति का कई लोगों ने विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट के सामने चुनौती भी दी गयी थी। तब उन्हें आईटीबीपी के अतिरिक्त महानिदेशक के रूप में तैनात किया गया था। हैरत है कि बाद में उन्हें डीजीपी, गुजरात के रूप में भी तैनात किया गया था, इसके बाद चुनाव आयोग के आदेश पर 2007 के गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान उन्हें कुछ समय के लिए हटा दिया गया था, जिसके दौरान उन्हें भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के निदेशक के रूप में तैनात किया गया था और 2008 में चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद डीजीपी, गुजरात के रूप में उन्हें फिर बहाल कर दिया गया था!

इस पर सिब्बल ने टिप्पणी करते हुए कहा, 'एक आरोपी से गुजरात के डीजीपी तक का यह सफ़र काफ़ी विचलित करने वाला है।

पांडे को एसआईटी ने इसलिए बरी कर दिया था, क्योंकि उसका मानना था कि जब गुलबर्ग हत्याकांड हुआ था, उस समय वह शवों को निपट रहे अस्पताल में थे।

एसआईटी के विरोधाभासी निष्कर्ष

एसआईटी ने अपनी शुरुआती रिपोर्ट में टिप्पणी की थी, "ऐसा लगता है कि लोक अभियोजकों की नियुक्ति को लेकर अधिवक्ताओं के राजनीतिक जुड़ाव सरकार के लिए मायने रखता था।" इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि 2002 में वडोदरा ज़िला और सत्र अदालत में एक वीएचपी समर्थक वकील रघुवीर पंड्या को सरकारी वकील के रूप में नियुक्त किया गया था और वह बेस्ट बेकरी मामले में भी शामिल थे, जिसका नतीजा यह रहा कि आरोपी बरी हो गये थे।

बतौर एसआईटी के अध्यक्ष अपनी टिप्पणियों में एके मल्होत्रा ने कहा था, "पाया गया है कि पिछली नियुक्तियों में से कुछ का जुड़ाव वास्तव में राजनीतिक था, यह जुड़ाव या तो सत्ताधारी दल या उससे सहानुभूति रखने वाले संगठनों से था।"

हालांकि, यह रिपोर्ट अपने निष्कर्ष में ख़ुद का खंडन करते हुए  कहती है, "किसी भी सरकारी वकील की ओर से पेशेवर कदाचार का कोई ख़ास आरोप सामने नहीं आया है।"

एसआईटी ने यह भी पाया कि गुजरात विहिप के महासचिव दिलीप त्रिवेदी अप्रैल 2000 और दिसंबर 2007 के बीच मेहसाणा ज़िले में एक सरकारी वकील थे, उनके अधीन एक दर्जन से ज़्यादा सरकारी वकील काम कर रहे थे। तहलका पत्रिका की स्टिंग जांच-ऑपरेशन कलंक के दौरान अंडरकवर रिपोर्टर के साथ बातचीत में त्रिवेदी ने शेखी बघारते हुए कहा था कि कैसे उन्होंने गुजरात के हर ज़िले में सरकारी अभियोजकों, विहिप कार्यकर्ताओं, पुलिस अधिकारियों और बचाव पक्ष के वकीलों के साथ बैठक कर हिंदू आरोपियों को ज़मानत और बरी कराने के लिए डेरा डाला था। उन्होंने तहलका को फ़ख़्र से बताया था कि मेहसाणा में दंगों से जुड़े कुल 74 मामलों में से महज़ दो मामलों में ही दोष सिद्ध हो पाया है।

सिब्बल ने कहा कि यह तो साफ़ तौर पर साज़िश का मामला है।

विरोध याचिका

सिब्बल ने दलील देते हुए कहा कि इस विरोध याचिका में पुलिस के काम करने के तौर-तरीक़े, लोक अभियोजकों के सहयोग, रिकॉर्ड को नष्ट करने और कई सालों बाद उसी को पेश करने, टेप में अपराध किये जाने को स्वीकार करने वाले व्यक्ति की जांच न करने जैसे पहलुओं के बारे में चर्चा की गयी है।लेकिन,एसआईटी के रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों के प्रावधान के बावजूद एसआईटी की तरफ़ से इन पर न तो कोई कार्रवाई की गयी और न ही मजिस्ट्रेट या गुजरात हाई कोर्ट ने इस याचिका पर चर्चा करने की जहमत उठायी।

इस विरोध याचिका में याचिकाकर्ताओं ने यह भी बताया कि क्या क़दम उठाये जाने चाहिए और किन क्षेत्रों में बहुत विस्तार से जांच की जानी चाहिए। सिब्बल ने कहा कि मैजिस्ट्रेट इस विरोध याचिका को पढ़कर उसमें उल्लिखित कई अपराधों का संज्ञान ले सकते थे,लेकिन उन्होंने ऐसा किया। 

इस मामले में 16 नवंबर को सुनवाई जारी रहेगी।

यह ऑर्डर यहां पढ़ा जा सकता है:

साभार: सबरंग इंडिया

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

SIT was Only ‘SIT’Ting, Not Investigating: Kapil Sibal in Zakia Jafri SLP

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