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सबरीमाला: आरएसएस प्रमुख ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के उल्लंघन को ठहराया न्यायसंगत

मोहन भागवत का कहना है कि महिलाओं के अधिकारों, संविधान, न्यायपालिका से ऊपर उठकर कर है हिंदू परंपरा और उसकी निष्ठा और जो उन्हे नज़रअंदाज करेगा तो समझो वे मुसीबतों को आमंत्रित कर रहे हैं।
Sabarimala and mohan bhagwat

केरल में सबरीमाला मंदिर के द्वारों पर अराजकता और हिंसा अभी भी जारी रही, प्रदर्शनकारियों का हुजूम महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोक रहा है, पत्रकारों पर हमला और उनके वाहनों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है, आस-पास के गाँवों में ग्रामीणों को अपनी दुकानों को ज़बरदस्ती बंद करने के लिए दबाव डाला जा रहा है और दूर महाराष्ट्र के नागपुर में आरएसएस के सर्वोच्च नेता मोहन भागवत ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के इस शर्मनाक उल्लंघन को सही ठहराया।

भागवत विजयदाश्मी के अवसर भाषण दे रहे थे, जो वार्षिकी परंपरा है जब आरएसएस के सरसंघचालक आरएसएस के कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन के लिए वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक स्थिति की समीक्षा पर व्याख्यान करते हैं। अब यह वक्तव्य महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि कई आरएसएस सदस्य सरकार का हिस्सा हैं, जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं।

अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की मांग को दोहराने के अलावा, भागवत ने केरल में सुप्रीम कोर्ट के फैंसले के खिलाफ चल रहे विवाद और विरोध पर भी भाषण किया। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश, जिसमें सभी उम्र की महिलाओं को सबरीमाला में प्रवेश की इजाजत दी गई है, के बारे में कहा:

इस परंपरा की प्रकृति और आधार जिसे समाज द्वारा स्वीकार किया गया है और वर्षों से लगातार उसका पालन किया जाता रहा है, इनको ध्यान में नहीं रखा गया। धार्मिक संप्रदायों के प्रमुखों और करोड़ों भक्तों के विश्वास को ध्यान में नहीं रखा गया। महिलाओं के एक बड़े वर्ग की याचिका, जो इस परंपरा का पालन करती है, को नहीं सुना गया। कानूनी फैसले ने शांति, स्थिरता और समानता के स्थान पर समाज में अशांति, उथल-पुथल और विभाजन को बढ़ा दिया है। प्रश्न उठता है कि सिर्फ हिंदू समाज के विश्वास के प्रतीकों पर इस तरह के बार-बार और अनावश्यक हमले क्यों होते है, स्पष्ट रूप से जनता के दिमाग में यह बात कौंधती है और यही बात अशांति का कारण बन जाती है।

यहां सादी शब्दों में इसका अर्थ है: यदि कोई भीड़ भगवा ध्वज उठाती है और कुछ मांगती है, तो आपको उनकी मांग स्वीकार करनी होगी, अन्यथा अशांति और उथल-पुथल होगी। भागवत विशेष रूप से और खुले तौर पर कहते हैं कि "कानूनी फैसले" अर्थात सबरीमाला मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश ने "अशांति, उथल-पुथल और विभाजन" पैदा किया है। तो, यह सर्वोच्च न्यायालय है जो सबरीमाला और केरल में अराजकता और हिंसा के लिए ज़िम्मेदार है!

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दरकिनार करने और उसके लागू करने से रोकने के लिए भागवत का यह खुला आह्वान उन लोगों को आश्चर्यचकित कर सकता है, जिन्होंने आरएसएस द्वारा किए गए नए प्रयासों के तहत  'आउटरीच' कार्यक्रमों के माध्यम से अपने समर्थन या स्वीकृति को विस्तारित करने की नई कोशिश की है। वास्तव में, 2016 में महाराष्ट्र के नासिक में त्रिंबकेश्वर मंदिर में महिलाओं की प्रविष्टि की अनुमति देने के खिलाफ भी आंदोलन का सामना करना पड़ा था, उस वक़्त आरएसएस के महासचिव भाईयाजी जोशी ने कहा था, "कुछ अनुचित परंपराओं के कारण, कुछ स्थानों पर मंदिर प्रविष्टि पर सर्वसम्मति की कमी रही हैI" उन्होंने इसके लिए आपसी संवाद का आहवान किया था।

लेकिन आरएसएस और इसकी संतान बीजेपी के असली चेहरा का भागवत की घोषणा बेनकाब होता है जोकि वास्तव में आश्चर्य की बात नहीं है। आखिरकार, यह शुरुआत से ही राम जन्मभूमि विवाद के बारे में पहले से इस  विचार को लिए चल रहा है। वे अदालत द्वारा शुरू किए गए समझौते को मानने के लिए तैयार हैं बशर्ते उन्हें  (हिंदू कट्टरपंथी समूहों) को विवादित जगह पर मंदिर बनाने की इजाजत दी जाए, जहां 1992 तक बाबरी मस्जिद खड़ी थी। कई बार, आरएसएस के अनुयायी और उसके सहयोगी घोषित करते हैं कि अदालतों को  सबूत और हिंदू लोगों की निष्ठा का पालन करना चाहिए।

आरएसएस और बीजेपी का यह विशिष्ट किस्म का अवसरवाद है। केरल एक ऐसा राज्य है जहां आरएसएस / बीजेपी का लगभग कोई महत्वपूर्ण आधार नही है। कई दशकों के संघर्ष के बाद, बीजेपी ने पिछले चुनावों में एक विधानसभा सीट हासिल करने में कामयाब हुयी है। ऐसा भी इसलिए हुआ क्योंकि उस सीट पर कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने आरएसएस के उम्मीदवार को अपना वोट स्थानांतरित कर दिया था। इसलिए, आरएसएस हिंदू समुदाय के बीच अपना समर्थन बढ़ाने के एक विचित्र प्रयास में सबरीमाला मुद्दे को उठा रहा है। यह एक हास्यपूर्ण दृष्टिकोण है क्योंकि हिंदू समुदाय का एक बहुत बड़ा हिस्सा सभी उम्र की महिलाओं के लिए मंदिर के द्वार खोलने के पक्ष में है। लेकिन, आरएसएस / बीजेपी इतनी छोटी है कि यह इस वास्तविक स्थिति को भी समझ नहीं पा रही है।

इस पर भी भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि कांग्रेस, जो खुद को भाजपा के खिलाफ अपने आपको धर्मनिरपेक्ष विकल्प के रूप में चित्रित करना पसंद करती है, सक्रिय रूप से केरल में सुप्रीम कोर्ट के फैंसले  के खिलाफ आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग ले रही है। इस प्रकार यह बीजेपी के साथ कंधे के कंधा मिलाए खड़ी है। इसके अखिल भारतीय नेता सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत कर रहे हैं जबकि केरल में इनके कार्यकर्ता सबरीमाला के द्वार पर धरना लगाए बैठे हैं!

वामपंथ का प्रगतिशील सुधारों का इतिहास

केरल में वामपंथी और जनवादी मोर्चा (एलडीएफ) के साथ विचारधारात्मक विरोध से बीजेपी और कांग्रेस दोनों उत्तेजित रहते हैं। यह एलडीएफ और इसका मुख्य घटक, सीपीआई (एम) है, जिसने महिलाओं की समानता को कायम रखने और सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से व्यक्त कानून के शासन को कायम करने के सिद्धांत को स्थापित किया है। केरल में या देश के अन्य जगहों पर वाम का यह रुख नया नहीं है।

केरल में, वामपंथियों द्वारा दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के मंदिर में प्रवेश करने की लडाई लड़ने का लंबा इतिहास है। इसने दलितों और आदिवासियों को पदों पर आरक्षण के माध्यम से मंदिर के कार्यवाहक बनने के लिए प्रोत्साहित किया है। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, ईएमएस नंबूदिरापद, एके गोपाल, ईके नयनार जैसे  अन्य कई कम्युनिस्ट नेताओं ने सड़कों पर और विधायिकाओं में, मंदिर के द्वारों पर इन लड़ाइयों को लड़ा है।

जैसा कि नंबूदिरपद ने 1981 में लिखा था "... कि सबको भारत की 'पुरानी' सभ्यता और संस्कृति को श्रद्धांजलि अर्पित करने के विचारों को त्यागना होगा। सबको यह महसूस करने की जरूरत है कि आधुनिक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत के पुनर्निर्माण के लिए जाति आधारित हिंदू समाज और इसकी संस्कृति के खिलाफ एक गैर-समझौता परस्त संघर्ष की आवश्यकता है।

यह वह विचार है जिसने आज़ादी से पहले के संघर्षों को प्रेरित किया ताकि महिलाएँ अपनी छाती को ढंकने के लिए कपड़े पहनने और चांदी और सोने के गहने का उपयोग कर सके, या दलित और पिछड़ी जातियों के पुरुषों  मूंछों को बढ़ाने के लिए कर देने के खिलाफ लडाई लड़ सके। सामाजिक सुधार आंदोलन, और साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन में प्रगतिशील नेताओं और बाद में कम्युनिस्ट आंदोलन ने इन सभी बुराइयों के खिलाफ लडाई लड़ी।

वामपंथी पार्टियाँ विभिन्न अल्पसंख्यकों की बड़ी आबादी वाले राज्य में सांप्रदायिक शांति की रक्षा करने में सबसे आगे रही है। इसने उन जाति विरोधी प्रयासों को जीवित रखने की भी कोशिश की है, जिनके खिलाफ केरल में नारायण गुरु, अयंकली, भट्टाथिरिपद और कई अन्य लोग तथाकथित 'परंपराओं' के खिलाफ लड़े थे, जिन्हें भागवत संरक्षित करना चाहते हैं।

सत्ता के लिए आरएसएस / बीजेपी का लालच

जाति और महिलाओं के अधिकारों के संबन्ध में परेशान करने वाले विभिन्न मुद्दों पर आरएसएस की की इस  जिमनास्टिक (उठापठक, कलामंदी) के पीछे वास्तविक प्रेरणा, और सबरीमाला के विरोध प्रदर्शन से उत्पन्न  अवसरवाद आगामी चुनाव हैं, जोकि पहले बीजेपी शासित राज्यों में होगा और फिर 2019 में आम चुनाव। शायद उन्हें यह समझ में आ गया है कि कांग्रेस के खिलाफ 2014 में इस्तेमाल किए जाने वाले जुमलेबाज़ी/ वक्तव्य इस बार नहीं चलेगी क्योंकि यह मोदी का स्वयं का भ्रष्टाचार है जो अब जांच के दायरे में आ गया है, आरएसएस/बीजेपी अपने सामान्य सांप्रदायिक और जातिवादी मुद्दों को उठाने की दिशा में तेजी से बढ़ रही है, अवसरवादी रूप से वह उम्मीद कर रही है कियह  हिंदु को लुभाएगा और उन्हे एक बार फिर वोट मिल जाएगा।

हालांकि, चाहे वह केरल या देश का अन्य कोई हिस्सा हो, उनके लिए एक बड़ा सदमा इंतजार कर रहा हैं: ये साम्प्र्दायिक/विषाक्त रणनीति काम नहीं करेगी क्योंकि लोग अब नौकरियां, बेहतर आय, फसल की बेहतर कीमतें, किफायती शिक्षा और स्वास्थ्य की देखभाल, और समान अधिकार चाहते हैं। विभाजनकारी राजनीति बीजेपी या उसके सलाहकार आरएसएस को कहीं भी नही ले जा पाएगी।

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