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सेंसर पर आधी आबादी

किसी भी देश के विकास का सपना वहां की आबादी को पूर्ण रूप से शिक्षित व् तर्कशील बनाकर ही संभव हो सकता है | जिसमें कि आधी आबादी महिलाओं की है | यह ठीक उसी तरह से है | जैसे किसी भी गाड़ी को चलाने के लिए उसमें दोनों पहियों का आपसी तालमेल जरुरी होता है | उसी प्रकार किसी भी देश का विकास व् व्यक्ति का विकास भी महिलाओं के सम्पूर्ण विकास में ही निहित है | महिलाओं की स्थितियों में सुधार तभी हो सकता है जब पुरुष वर्ग उसमें बराबर की भूमिका निभाये | आजादी के बाद इन साठ वर्षों में महिलाओं की स्थितियों को लेकर काफी कुछ काम किया गया है लेकिन समाजशास्त्र की नजर से इसे देखे तो स्त्री विमर्श हिंदी साहित्य में बहुत समय बाद में बहस का बिंदु बनके उभरा | इसका श्रेय, उस जागरूकता को मिलता है जिसका उदय पश्चिमी देशों में हुआ | नवउदारवाद के समय हम अगर भारत में महिलाओं के लिए आन्दोलन को एक मोटे तौर पर देखें तो नजर आता है कि ज्योतिबा फुले, नजीर अहमद और राजा राम मोहन राय जैसे व्यक्तियों ने स्त्री के प्रति अत्याचारों और जड़ परम्पराओं को सिरे उखाड़ फेंकने का दृढ निश्चय किया और उसके बाद जनवादी महिला समिति जैसी अनेक संस्थाओं ने भी पीड़ित,शोषित,सतीप्रथा,पर्दाप्रथा तथा बालविवाह के विरुद्ध अपनी आवाज को बुलंद किया था | भारतीय समाज के लिए यह एक नई लहर थी | जिसमें सभी महिलायें कदम से कदम मिलाकर सड़कों पर जुलूस के रूप में उतारी थी | इसमें वे सभी स्त्रियाँ शामिल थी जिन्हें घर में पति व् सास-ससुर के सामने ऊँची आवाज में बोलने पर भी प्रताड़ित किया जाता था और वह सब कुछ सहती थी | तब यहाँ पर न केवल मीडिया उनका साथ दे रहा थी बल्कि उनकी आवाज को सार्वजनिक मुद्दा बनाकर, उनकी मांगों को आधी आबादी का जरुरी मसला बताकर, देश के हर कोने के पाठकों तक पहुंच रहा थी | यह सब देखकर उनके आन्दोलन में एक सक्रियता आई और उनका विश्वास भी बढ़ा कि वह अत्याचारों के खिलाफ अपनी आवाज उठायेंगी तो उसे अब नजरअंदाज नहीं किया जाएगा बल्कि उस पर गंभीरता से विचार किया जाएगा |

                                                                                                                     

यदि हम पिछले पैंसठ सालों को स्त्री समस्याओं की दृष्टि से देखें तो पता चलता है कि महिलाओं ने इस बीच बाहर की दुनिया में भी हस्तक्षेप किया है | जिससे उनकी मुश्किलें कम होने की जगह पर और ज्यादा बढ़ गई हैं लेकिन महिलाओं के बाहर निकलने से उत्पन्न समस्याओं के चलते अनेक महिला संगठन भी वजूद में आये है वहीं सरकार द्वारा उनके अधिकारों के लिए टी० वी०,रेडियो और अखवारों आदि में नए-नए कानूनों की भी जानकारी दी जाती है |

पहले महिलायें अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं थी | पिछले कई दशकों से इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि महिलाओं की स्थिति में अंतर आ सकता है यदि वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो जाए लेकिन यह पूरा सच नहीं है | आज औरतों को कमाने की आजादी जरूर मिल गई है लेकिन उनकी पूरी कमाई पर उनके परिवार का अधिकार होता है | वह अपनी मर्जी से उस धन को खर्च करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती और जो ऐसा कर लेती है उन्हें घर में डांट-फटकार का सामना करना पड़ता है या कभी-कभी बहुत बड़ा लड़ाई-झगडा भी हो जाता है तो इस तरह से देखा गया है कि यह आधी आत्मनिर्भर स्वतंत्रता है जिसमें महिलायें अपनी इच्छाएं पूरी नहीं कर पाती है | इससे भली-भांति यह महसूस किया जा सकता है कि उनमें तर्क और क़ानून का ज्ञान अधूरा है या बिलकुल नहीं है जिसके कारण वे अपनी जिन्दगी अपनी शर्तों पर नहीं जी पाती हैं | लेकिन पिछले दिनों एक अंगरेजी समाचार पत्र में महिला आयोग की रिपोर्ट के अनुसार इस तेजी से बदलते समय में महिलायें अपने अधिकारों के प्रति पहले से ज्यादा सजग हो रही हैं | इसका आधार शिक्षा तो है ही, साथ में वे योजनायें भी हैं जो लगातार टी० वी०, रेडियो, सेमीनार, वर्कशॉप और लेखों द्वारा महिलाओं के उत्थान के लिए प्रसारित और प्रचलित की जा रही हैं |

महिलाओं के प्रति लोगों का नजरिया पूरे विश्व भर में एक जैसा ही है | कभी-कभी तो लगता है क्या समाज का नजरिया महिलाओं को लेकर बदलेगा ? जिसमें वह महिलाओं के दुःख-दर्दों को भली-भांति समझ सके | इस इक्कीसवीं सदी के आधुनिक सभ्य समाज से यह आशा की जा रही है कि वह मध्ययुगीन समाज की जड़ता को समाप्त कर बाहर निकले और दूसरे इंसान को देखने का उसका सामाजिक मानवीय दृष्टिकोण अधिक व्यापक हो, लेकिन समाज में घटित होने वाली रोज बढ़ती ऐसी घृणित घटनाएं हमें विश्वास दिलाती है कि इंसान बदल नहीं सकता | उसकी हिंसक व क्रूर प्रवृत्ति इस मानव समाज में एक अभिशाप की तरह दूसरे इंसान पर टूट पड़ती है | उसे यातना और पीड़ा के सागर में डुबो देती है | इन परिस्थितियों के चलते ही पूरे विश्वभर में स्त्रियाँ स्वयं जीने के रास्ते तलाश रही है | और अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख रही है ऐसे में मथुरा, भंवरी देवी, मलाला जैसे नाम स्वतः ही स्मृति में उभरते हैं | इस लड़ाई में उनका साथ देने वाले अनेक पुरुष भी है | जो इस तरह की हिंसात्मक प्रवृत्तियों के विरोध में खड़े दिखते है | यह कितना सुखद लगता है जब लोग लिंग, वर्ग, जाति, धर्म आदि से हटकर जुल्म के खिलाफ एकजुट होकर अपनी एक आवाज बुलंद करते है |

एक बड़ी विडम्बना है इस समाज में कि धर्म में और संविधान में सारे क़ानून औरत को नजर में रखकर ही बनाए जाते है | ऐसे क़ानून जो स्त्री मुक्ति को लेकर बनाए जाते है | वे फाइलों में दबकर ही रह जाते है या उनको तोड़-मडोकर यह पुरुष वर्ग अपने हितानुसार फिट कर लेता है | महिलाओं को कई पीढ़ियों तक मालूम ही नहीं होता है कि उनको किस तरह उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है क्योंकि वे भी धार्मिक संस्कारों का लबादा ओढ़े अपने भाग्य का मालिक पुरुष समाज को मानकर कभी भी अपने बारे में बनाए गए कानूनों की पड़ताल नहीं करती और अन्धकार में ही भटकती रहती है | लेकिन कुछ पढी-लिखी औरतों में इन कानूनों को पढ़कर जाग्रति आई है जिनमें कुछ वकील है, सामाजिक कार्यकर्ता है, लेखक है, पत्रकार है और अन्य क्षेत्रों में है उन्होंने कानूनों को समझा और महिलाओं की सहायता के लिए बहुत सी योजनायें भी बनाई गई है | सरकार द्वारा भी महिलाओं को निःशुल्क परामर्श के लिए वकीलों की सुविधा भी दी गई है | पर अफ़सोस तब होता है जब इन सब बातों का पता उस पीड़ित अबला को नहीं चल पाता जो लगातार कष्ट झेलती अपनी मुक्ति की आशा लिए जिन्दगी भर छटपटाती रह जाती है | इस उम्मीद में कि कोई आकर उसको इस यातना से निकाल पायेगा | विश्व भर में स्त्रियों की स्थिति हर वर्ग में एक जैसी ही है | उच्चवर्ग, मध्यवर्ग और निम्नवर्ग की स्त्रियां अलग-अलग रूपों में अपनी तरह से शोषित होती है उनकी समस्याएं उनके अपने परिवेश के अनुसार है | इन वर्ग आधारित स्त्रियों की समस्याओं को लेकर भी ढेर सारी चर्चाएँ हो रही है कि इनका समाधान कब होगा ?

जब भी कोई महिला घर में या ससुराल में तेज बोलती है तो उसके बोलने पर रोक लगा दी जाती है कि धीरे-धीरे और कम बोलो | इस कम बोलने के दबाब के चलते अधिकतर महिलायें अपने ऊपर विश्वास खो देती है और वह दूसरों की हाँ में हाँ मिलाती रहती है जैसा कि दूसरे लोग सुनना चाहते है | औरत अपनी जुबान का इस्तेमाल अपने जज्बात को बयान करने में भी नहीं कर पाती है उससे बड़ा अन्याय उसके साथ और क्या हो सकता है | उसके बोलने पर भी सेंसरशिप लगा दिया जाता है | लड़कियों के साथ दोहरा मापदंड अपनाया जाता है | विद्यालयों में उन्हें तेज बोलने के लिए कहा जाता है वहीं घर पर उन्हें खामोशी से ही काम चलाना पड़ता है | इस तरह कम बोलने व खामोश रहने की वजह से लड़कियों को भाषा का सही प्रयोग करना नही आ पाता है | उनके शब्दों का चयन ठीक नहीं होने की वजह से उनके हाव-भाव की भाषा भी गड़बड़ा जाती है | कई बार उनका इनकार भी इकरार नजर आता है जिसकी वजह से उनके साथ शोषण होता है क्योंकि वह अपनी बात को स्पष्ट तरीके से नहीं रख पाती है और शोषण के सारे सबूत भी उनके विरोध में ही चले जाते है इस स्थिति में अपनी भावना को व्यक्त करने वाली भाषा भी उनका साथ नहीं दे पाती तो फिर क़ानून भी उनकी कोई मदद नहीं कर पाता | किसी भी क्षेत्र में जब भी किसी महिला ने अपनी जीत हासिल की है तो वह खामोशी से नहीं बल्कि अपने गुणों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति से की है |

वर्तमान समय स्त्रियों को सिर्फ विवाह के लिए या आठ बच्चे पैदा करने वाली मशीन के रूप में तैयार करने का नहीं रह गया है बल्कि उन्हें युद्ध रूपी समाज में बिना अपने पर कटाए अपने अस्तित्व को जमाये रखने का है | उनके युद्ध रूपी क्षेत्र का विस्तार उनकी शिक्षा, कार्यस्थल, विवाहित जीवन, अकेले रहना, विधवा होने पर सब कुछ संभालना और अपने भीतर के संसार को खुश बनाने तक फैला है | ऐसी स्थिति में उनकी अभिव्यक्ति पर सेंसर लगाकर लगाम लगाने की जरूरत नहीं है बल्कि उनको अपनी संवेदनाओं को व्यक्त करने का मौक़ा देकर उनमें आत्मविश्वास पैदा करने की जरुरत है | जिससे वह सही दिशा में सही समय में और सही जगह पर अपने आप को प्रजेंट करने में न झिझकें और उसी आत्मविश्वास से अपने मौलिक अधिकारों को पाने की कोशिश करें | और समाज में एक मानवीय सोच को पैदा करें ताकि सदियों से चली आ रही इस बंधन और गुलामी की बेड़ियों को तोड़ा जा सके | जिसमें एक नए समाज का निर्माण हो सके |

सौजन्य: Humrang.com

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

 

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