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सीएम साहब दूसरे राज्यों में चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं, बेरोज़गार कर्मचारी अनशन पर

108 एंबुलेंस सेवा के बेरोजगार हुए 700 कर्मचारियों ने रैली निकाली, भीख मांगी, यज्ञ-हवन किया, ख़ून से पत्र लिखा लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। मुख्यमंत्री समेत भाजपा नेता अभी दूसरे राज्यों में चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं।
एम्बुलेंस

उत्तराखंड के दुर्गम इलाकों समेत राज्यभर में 11 सालों से सेवा देने वाले 108 एंबुलेंस सेवा और ख़ुशियों की सवारी के बेरोज़गार हुए 700 से अधिक कर्मचारी देहरादून के परेड ग्राउंड में 30 अप्रैल से अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं। आज, बुधवार, 8 मई से इन्होंने क्रमिक अनशन भी शुरू कर दिया है। लेकिन सरकार का कोई नुमाइंदा इनसे मिलने नहीं आया। राज्य सरकार की ओर से किसी नेता या मंत्री ने इन कर्मचारियों से बातचीत की कोई पहल नहीं की। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत समेत भाजपा नेता अभी दूसरे राज्यों में चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं।

राज्य के 700 से अधिक घरों में चूल्हा कैसे जलेगा, बच्चों की स्कूल की फीस कैसे भरी जाएगी, बुजुर्गों की दवा के पैसों का इंतज़ाम कैसे होगा, जैसे मूलभूत सवाल खड़े हुए हैं। यही वजह है कि बेरोजगार कर्मचारियों ने ख़ून से खत लिखकर अपनी बात कहने की कोशिश की।

108 एंबुलेंस कर्मचारी संघ के विपिन जमलोकी कहते हैं कि जो फील्ड कर्मचारी पिछले 11 वर्षों से विषम भौगोलिक परिस्थितियों में राज्य में अपनी सेवाएं देते आ रहे थे,राज्य में हर आपात स्थिति में जिन कर्मचारियों ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन्हीं कर्मचारियों को जीवीके-ईएमआरआई ने उत्तराखंड स्वास्थ्य निदेशालय के निर्देश को आधार मानकर संविदा समाप्ति का नोटिस जारी कर दिया। 30 अप्रैल को कंपनी का करार खत्म हुआ और उनकी सेवाएं समाप्त कर दी गईं। जिससे 700 से अधिक बेरोजगार फील्ड कर्मचारियों के आगे मुश्किलों का पहाड़ खड़ा हो गया है।

विपिन जमलोकी कहते हैं कि कैंप संस्था जो इस एंबुलेंस सेवा का संचालन कर रही है, वो इन सभी बेरोजगार कर्मचारियों को वर्तमान में दिए जा रहे वेतन और लोकेशन पर समायोजित करे, ताकि इनके सामने आर्थिक संकट की स्थिति न खड़ी हो।

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बेरोजगार हुए कर्मचारियों ने रैली निकाली, भीख मांगी, यज्ञ-हवन किया, ख़ून से पत्र लिखा, हर तरह से अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश की। आज से वे क्रमिक अनशन पर बैठ गए हैं।

कांग्रेस नेता किशोर उपाध्याय कहते हैं कि वर्ष 2008 में जब 108 एंबुलेंस सेवा शुरू हुई थी, उस समय राज्य में रमेश पोखरियाल निशंक की अगुवाई वाली भाजपा सरकार थी। उस समय उन्होंने इसे स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन बताया था। 108 एंबुलेंस के ज़रिये कितने लोगों की जान बची, कितने बच्चे एंबुलेंस में पैदा हुए,इसके आंकड़े भाजपा सरकार अपनी उपलब्धियों के तौर पर बताती थी। आज उन्हीं लोगों की रोजी-रोटी छीन ली जाती है। किशोर कहते हैं कि ये मानवता के प्रति अपराध है। यदि ये एंबुलेंस सेवा पूरी तरह से बंद होती तो अलग बात थी। लेकिन जब सेवा चालू है तो नई कंपनी में इन्हीं कर्मचारियों को समायोजित करना चाहिए था। वह कहते हैं कि कम वेतन पर रखे गए ड्राइवरों का ही नतीजा है कि नई कंपनी के जिम्मा संभालते ही 108 एंबुलेंस की सड़क दुर्घटनाओं के दो से अधिक मामले सामने आ चुके हैं। उनका कहना है कि इस तरह लोगों की जान के साथ भी खिलवाड़ किया जा रहा है।

सवाल है कि जो 108 एंबुलेंस सेवा पहले ही प्रति माह के जिस खर्च में खस्ता हालत में पहुंच गई थी। वो अब और भी कम बजट में कैसे संचालित की जाएगी। उत्तराखंड में 108 एंबुलेंस के लिए जारी किए गए टेंडर में तीन कंपनियों ने हिस्सा लिया। जीवीके ने 1.66 लाख प्रति एंबुलेंस प्रति माह कोट किया। एक अन्य कंपनी ने 1.44 लाख रुपये प्रति एंबुलेंस प्रति माह कोट किया और मध्य प्रदेश की गैर-लाभकारी संस्था कैंप ने 1.18 लाख रुपये प्रति एंबुलेंस प्रति माह कोट किया। कैंप को ये टेंडर मिल गया। चूंकि उन्होंने अपेक्षाकृत कम बजट में ये टेंडर लिया है।

कांग्रेस नेता किशोर उपाध्याय कहते हैं कि नई संस्था कैंप भाजपा नेता के करीबी व्यक्ति से जुड़ी है। जिन्हें इस तरह की सेवा का बहुत अनुभव भी नहीं है। अपने नज़दीकियों को फायदा पहुंचाने के इरादे से ऐसा किया गया। वह कहते हैं कि ऐसा करना भी था तो पुराने कर्मचारियों को हटाने की क्या जरूरत थी।

108 एंबुलेंस सेवा स्वास्थ्य विभाग के अधीन ठेका प्रथा में आती है। श्रम कानून के मुताबिक ठेका प्रथा में ठेकेदार बदलने पर कर्मचारियों को हटाए जाने की जरूरत नहीं होती, न ही उनका वेतन कम करने, या उन्हें दी जा रही सुविधाएं वापस ली जा सकती हैं।

यहां गौर करने वाली बात है कि स्वास्थ्य विभाग का जिम्मा खुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के पास है। अनिश्चितता की आशंकाओं से घिरे 700 से अधिक कर्मचारी अनिश्चतकालीन धरने और अनशन के ज़रिये अपने हक़ की मांग कर रहे हैं। सत्ता के गलियारों में उनकी आवाज़ सुनी जाएगी, इस पर संदेह ही लगता है।

 

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