सिर्फ़ जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन नहीं हुआ, इससे भी बड़ा हादसा हो गया है!
जिनको ये लगता है कि अब कश्मीर समस्या का समाधान हो जाएगा वो गलतफहमी का शिकार हैं। अनुच्छेद 370 सही है या नहीं, प्रांत का पुनर्गठन सही है या नहीं? बात यहां तक ही सीमित नहीं है। बल्कि देश में इससे बड़ा कुछ घटित हो गया है। भाजपा ने संविधान को ताक पर रखकर जनता से तालियां पिटवा कर दिखा दिया है। कल को किस सूबे में ये नहीं हो सकता?किसी राज्य के नेताओं को हाउस अरेस्ट करके, कर्फ्यू लगाकर, कम्यूनिकेशन ब्लैक आउट करके वो कुछ और भी कर सकते हैं। कुछ व्यक्तियों का संविधान और लोकतंत्र से बड़ा हो जाना, तमाम प्रक्रियों और संवैधानिक समितियों को बाइपास करके खुफिया ढंग से कोई प्लान देश पर थोप देना गलत ही नहीं ख़तरनाक भी है।
कश्मीर के राज्यपाल (जो केंद्र सरकार का ही प्रतिनिधि है) को दो दिन पहले तक इस बात की कोई ख़बर नहीं थी। कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला की संसद में उपस्थिति के बारे गृहमंत्री झूठ बोलते हैं। जबकि फारुक अब्दुल्ला अगले दिन बयान देते हैं कि उन्हें घर में कैद कर दिया गया था और उन्हें दरवाजा तोड़ना पड़ा। एक ख़बर आती है कि तृणमूल कांग्रेस के 5 सांसद जिस फ्लाइट से संसदीय कार्यवाही में हिस्सा लेने आ रहे थे वो फ्लाइट दिल्ली की बजाय अमृतसर पहुंच जाती है। स्मरण रहे तृणमूल कांग्रेस ने कश्मीर पुनर्गठन के खिलाफ वोट किया है। कश्मीर में न सिर्फ इंटरनेट ठप्प कर दिया जाता है बल्कि लैंडलाइन भी ठप्प कर दिये जाते हैं। ये लोकतांत्रिक कार्यवाही है या देश में सैक्रेड गेम का सीजन चल रहा है और देश की जनता इसे लाइव देखकर रोमांचित है।
इस फैसले से पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान की साख पर सवाल उठे हैं। इससे कश्मीर और भारत के मध्य दूरियां व कड़वाहट और बढेंगी। इतना बड़ा फैसला इतनी जल्दबाजी में और इतने खुफिया तरीके से क्यों लिया गया? भाजपा को इस बात का पक्का यकीन था कि कश्मीर में इसका पुरजोर विरोध होगा। कायदे से इस बारे संवैधानिक प्रक्रिया अपनानी चाहिये थी। कश्मीर के लोगों और नुमाइंदों के साथ संवाद करना चाहिये था। लेकिन पूरी प्रक्रिया को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि भाजपा का एजेंडा मात्र 370 को खत्म करना और कश्मीर के टुकड़े करना ही नहीं था बल्कि एक निरंकुश सत्ता और शक्ति प्रदर्शन करना भी था। ये दिखाना चाहते थे कि हम किस हद तक और क्या कर सकते हैं। वो दिखाना चाहते थे कि हम सवा करोड़ लोगों के हाथ-पैर बांधकर, जुबान काटकर हलक में नया कानून डाल सकते हैं। वे दिखाना चाहते थे कि जनता की आवाज़ का उनके लिए कोई मतलब नहीं है। लेकिन क्या हमेशा के लिये कश्मीर पर कर्फ्यू रख सकते हैं? क्या हमेशा के लिये उनकी आवाज़ को दबाया जा सकता है? ऐसा कतई मुमकिन नहीं है।
जो इस बात पर अत्यंत खुश हो रहे है हैं कि कश्मीर का भारत में विलय हो गया। उनसे भी पूछना चाहिये कि वो किस भारत की बात कर रहे हैं और किस कश्मीर की? जिस भारत में नॉर्थ-ईस्ट के लोगों के साथ नफ़रत और हिंसा भरी दर्दनाक घटनाएं होती हैं। जिस भारत के लोग आज कश्मीर की औरतों के बारे में घटिया किस्म के पोस्ट डाल रहे हैं।
ये फ़ैसला क्यों लिया गया है? क्या दिलचस्पी कश्मीर समस्या के समाधान में है या इसके पीछे संचालक शक्ति कब्जा, इगो, छद्म देशभक्ति, राजनैतिक फायदा, आरएसएस के अखंड हिंदू राष्ट्र का सपना और संसाधनों की प्राइवेट कंपनियों को खुली छूट देना है। पूरी प्रक्रिया को देखने पर ये साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि मंशा कश्मीर समस्या के समाधान की है ही नहीं, जिस तरह ये किया गया है इससे तो समस्या और गहरी होगी।
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गाहे-बगाहे मीडिया में सोशल मीडिया में पक्ष-विपक्ष कई तरफ से 370 ही नहीं बल्कि 371 का भी जिक्र आ रहा है। क्या भाजपा कश्मीर पुनर्गठन को एक प्रयोग के तौर पर देख रही है। क्योंकि अगर कश्मीर में ऐसा किया जा सकता है तो बाकि जगहों पर क्या मुश्किल है। पहले ही विभिन्न राज्य के संसाधनों जल, जंगल औऱ जमीन पर वहां के निवासियों के अधिकारों पर लगातार हमले हो रहे है। अगर सवा करोड़ लोगों की आवाज़ को आर्मी के जरिये पूरे सरकारी तंत्र को इस्तेमाल करके कुचला जा सकता है तो और क्या नहीं हो सकता।
वनाधिकार कानून, छोटा नागपुर एक्ट, पेसा, संविधान की पाचवीं अनूसूचि के बारे हमें क्या सबक लेना चाहिये। ये वो प्रावधान हैं जो स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय निवासियों का अधिकार सुनिश्चित करते हैं और जिन पर लगातार हमले होते रहे हैं। कल को अगर इन कानूनों पर गाज गिरती है तो आपको लगता है कि आपकी आवाज का कोई मतलब होगा? संविधान के साथ खिलवाड़ होता है तो आपको लगता है कि आपकी आवाज का कोई मतलब होगा? कश्मीर पुनर्गठन से जश्न की बजाय सबक निकालना चाहिये जिसमें आप बहुत देर कर चुके हैं।
(राज कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
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