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संघी फासीवाद के खिलाफ उठ खड़े होने वाले साहित्यकारों-कलाकारों का दृढ़ता से समर्थन करो !

कुलबर्गी की हत्या और दादरी काण्ड के बाद साहित्यकारों-कलाकारों के बड़े पैमाने के विरोध प्रदर्शन ने मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। इससे बौखलाकर संघियों ने साहित्यकारों-कलाकारों पर हमला बोल दिया है। मोदी सरकार के नम्बर-2 यानी अरुण जेटली ने तो इसे कागजी विद्रोह और गढ़ा हुआ विद्रोह की संज्ञा दे दी।

साहित्यकारों-कलाकारों के इस विरोध की शुरुआत 4 अक्टूबर को उदय प्रकाश द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने से हुई। उसके बाद नयनतारा सहगल ने अपना पुरस्कार लौटाया। फिर तो मानो बांध टूट गया। अब पुरस्कार लौटाने वालों की संख्या तीन दर्जन पार कर चुकी है। साहित्यकारों के अलावा ललित कला अकादमी से पुरस्कार प्राप्त और पद्मश्री सम्मानित लोग भी अब इसमें शामिल हो गये हैं। स्वयं साहित्य अकादमी से पांच लोगों ने इस्तीफा दे दिया है।

साहित्यकारों-कलाकारों का यह विरोध उस माहौल के खिलाफ है जिसका निर्माण संघी फासीवादियों के दिल्ली में सत्ताशील होने के बाद हुआ है। यह माहौल गौ-माता, लव जिहाद, घर वापसी इत्यादि-इत्यादि के नाम पर बनाया जा रहा है। इसे बनाने में संघ परिवार के सारे संगठन लिप्त है। इसमें मोहन भागवत, प्रवीण तोगडि़या से लेकर मोदी-अमित शाह तक सभी लिप्त हैं। यह थोड़े से हाशिये के तत्वों का काम नहीं है जैसा कि मोदी समर्थक पूंजीवादी प्रचारतंत्र बताने का प्रयास कर रहा है। यह संघ की मुख्यधारा का काम है। संघ के मुख पत्र पांचजन्य का ताजा अंक इस बात का प्रमाण है। जिसमें दादरी हत्या को सही ठहराया गया है। यह नहीं भूलना होगा कि लोकसभा चुनाव के दौरान स्वयं नरेन्द्र मोदी ने इसी दादरी के पड़ोस में अपने भाषण में ‘पिंक रिवोल्यूशन’ की भर्त्सना की थी। दादरी की हत्या के लिए सीधे मोहन भागवत और नरेन्द्र मोदी जिम्मेदार हैं। ये ही वह माहौल बना रहे हैं जिसमें हत्यारे बेखौफ हत्या कर रहे हैं।

इस माहौल के खिलाफ भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर आवाज उठ रही है। उन्हीं में से एक आवाज साहित्यकारों-कलाकारों की भी है। एक लम्बे समय से घुटन-छटपटाहट महसूस कर रहे साहित्यकारों-कलाकारों  का  बांध टूट गया है और वे संघी फासीवादिया के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं।

स्वभावतः ही संघी फासीवादियों को यह गवारा नहीं है। पूरे समाज को मध्ययुगीन बर्बरता के युग में ले जाने की इच्छा रखने वाले संघी फासीवादी इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसीलिए लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद पिछले दरवाजे से मंत्री बनने वाले अरुण जेटली ने, जो न्यायिक आयोग पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ‘बिना चुने हुओं की निरंकुशता’ बता रहे हैं, इन साहित्यकारों-कलाकारों पर हमला बोल दिया है। उन्होंने इन्हें कांग्रेसी व वामपंथी समर्थक घोषित कर दिया। फिर क्या था, संघ के सारे छुटभैये साहित्यकारों-कलाकारों पर टूट पड़े। एक ने तो उन्हें दरबारी तक घोषित कर दिया।

इन बर्बर संघी फासीवादियों की बर्बरता का तो एक प्रमाण यही है कि वे अपने पक्ष में एक भी उच्च कोटि का साहित्यकार नहीं खड़ा कर सकते। उनके पक्ष में आया भी तो चेतन भगत जैसा चवन्निया लेखक जिसने अपने चवन्निया लेखक के अनुरूप ही बात की।

लेकिन संघी फासीवादियों को इसकी चिंता नहीं है। इन्हें साहित्य-कला की भी चिंता नहीं है। बर्बरों को साहित्य-कला की चिंता नहीं होती। वह तो उनके रास्त का रोड़ा ही है। और वे इस रोड़े को ठोकर मार कर हटाना चाहेंगे।

पर साहित्य-कला को फासीवाद का चिंता करनी होगी। हिटलर-मुसोलिनी का इतिहास और संघी फासीवादियों का वर्तमान व्यवहार बताते हैं कि यदि इन फासीवादियों का मुकाबला नहीं किया गया तो ये पूरे समाज को मध्ययुगीन बर्बरता के युग में ले जायेंगे। संघी फासीवादियों का निशाना केवल मुसलमान और इसाई नहीं हैं। इनका निशान समूचा सभ्य समाज है। वे समाजवाद और कम्युनिज्म के ही विरोधी नहीं हैं वे पूंजीवादी जनतंत्र के भी विरोधी हैं। वे वर्ण व्यवस्था और स्त्रियों की गुलामी के हामी हैं।

साहित्यकारों-कलाकारों द्वारा संघी फासीवाद का विरोध बहुत स्वागत योग्य कदम है। यह बौद्धिक तौर पर वह धक्का है जिसकी संघ परिवार उम्मीद नहीं कर रहा था। यह उसकी बौखलाहट से स्पष्ट है। संघी फासीवाद के खिलाफ आम लामबंदी के हिस्से के तौर पर साहित्यकारों-कलाकारों के इस विरोध का हर तरह से समर्थन किया जाना चाहिए। मजदूर वर्ग का दृढ़ समर्थन इस तरह के विरोध को और मजबूती प्रदान करके उसे आगे बढ़ायेगा।

सौजन्य: हस्तक्षेप

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।

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