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सोनल मान सिंह: डांसिंग ऑन फासिस्ट ट्यून!

सोनल मान सिंह का हमला टीएम कृष्णा पर है लेकिन ट्रोल्स को लेकर वे चुप रहती हैं। एक कलाकार के नाते उन्हें ट्रोल्स के खिलाफ़ कार्रवाई की मांग करनी चाहिए थी।
Sonal Man Singh and TM Krishna

"A dancer is not just a dancer. He/She is part of this environment. He/She does not exist in a vacuum. Society and its happenings have an impact on all individuals, especially artists. If an art form does not reflect the existing milieu, it stagnates.`` - Sonal Man Singh   (Wekipedia)

सोनल मान सिंह का यह कथन दिलचस्प है। बस उनके व्यक्ति या कलाकार पर फिट नहीं बैठता है। अपना समय और समाज उन्हें प्रभावित करता भी है तो इस तरह कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद के दिनों में देश के अनेक नामचीन कलाकार साम्प्रदायिकता के उफान को लेकर चिंतित हैं और राजधानी के मालवलंकर हॉल में `आर्टिस्ट अगेन्स्ट कम्युनलिज़्मप्रतिरोध कार्यक्रम में इकट्ठा होते हैं, वे विश्व हिन्दू परिषद के वॉशिंगटन बुलावे (1993) को स्वीकार कर रही होती हैं। तब से अब तक गंगा-जमना में कितना पानी सड़ चुका है। गुजरात के जनसंहार से सड़कों पर मॉब लिंचिंग तक के परिदृश्य के बीच उनकी कला में क्या रिफलेक्ट हुआ है? उनका तो डांसिंग-पॉलिटिकल करियर ही इस धुन पर परवान चढ़ रहा है।

जाहिर है कि ये बातें कर्नाटक संगीत के महान स्वर टीएम कृष्णा पर सोनल मान सिंह के लेख के संदर्भ में कह रहा हूँ। इंडियन एक्सप्रेस में `Singing a political tune` शीर्षक से उन्होंने टीएमके पर कला और राजनीतिक विचारों के घालमेल का आरोप भी लगाया है। दिलचस्प यह है कि सोनल मान सिंह यह सब अपनी राजनीतिक ताबेदारी के तहत सौंपी गई ज़िम्मेदारी को निबाहते हुए ही लिख रही हैं। दोनों को पढ़ते-सुनते हुए और दोनों के करियर को देखते हुए दोनों की राजनीति व कला के तौर-तरीकों और दोनों की बेचैनियों व ज़िम्मेदारियों को समझा जा सकता है।

सबसे पहले सोनल मान सिंह के इस दावे को समझने की कोशिश करते हैं कि दिल्ली में टीएम कृष्णा का कन्सर्ट रद्द होना एक सामान्य बात है और इसका टीएमके को गाने से रोकने से कोई ताल्लुक़ नहीं है। ऐसा दावा भोलेपन या धूर्तता की अति ही कहा जा सकता है। वे कहती हैं कि एयरपोर्ट्स ऑथोरिटी ऑफ इंडिया (एआईए) और स्पिक मैके का कार्यक्रम रद्द होना अकेले टीएमके का कन्सर्ट रद्द होना नहीं है। वहाँ उनको (सोनल) और बहुत से दूसरे कलाकारों को भी परफोर्म करना था। तो वे नहीं जानतीं कि एआईए ने किन परिस्थितियों में अचानक इस कार्यक्रम से हाथ खींच लिए? इस बारे में रवीश के साथ हुई बातचीत से टीएमके को ही उद्धृत करते हैं। वे बताते हैं किस तरह अमेरिका के एक मन्दिर में उनके कार्यक्रम को राइट विंग-हिंदुत्व ग्रुप्स (दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी संगठन) के दबाव में रद्द कर दिया गया था। उसके बाद पहली बार वे दिल्ली में गाने जा रहे थे। 11 नवंबर को एआईए ने इस बारे में ट्वीट भी किया लेकिन 12 नवंबर की दोपहर को ट्रोलिंग शुरू हो जाती है। उन्हें एन्टी-नैशनल (राष्ट्र-विरोधी) , एन्टी मोदी (मोदी-विरोधी), एन्टी बीजेपी (बीजेपी-विरोधी) कहकर ट्रोलिंग की जाती है। उन पर क्रिश्चियनिटी और कनवर्जन (धर्मांतरण) को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जाता है, कल्चर (संस्कृति) को खराब करने का आरोप लगाया जाता है। कहा जाता है कि उन पर टैक्सपेयर का पैसा बर्बाद किया जा रहा है। 13 नवंबर को स्पिक मैके को एआईए की तरफ से फोन आता है कि बहुत ट्रोलिंग हो रही है, फिर भी कार्यक्रम होगा। बाद में फिऱ फोन आता है कि अतिरिक्त सुरक्षा की व्यवस्था की जाए क्योंकि कार्यक्रम होना है। फिर अचानक 13 नवंबर को ही शाम 5 बजे स्पिक मैके वॉलेंटियर्स को एआईए का फोन आता है कि कार्यक्रम नहीं हो सकता है क्योंकि `सम अर्जेंट एंगेजमेंट्स` (कुछ अपरिहार्य कार्य) हैं।

तो सोनल मान सिंह बताएंगी कि इतने बड़े प्रोग्राम जिसमें उन्हें भी शामिल होना था, अचानक यह `सम अर्जेंट एंगेजमेंट्स` क्या मज़ाक हैक्या राज्य सभा सदस्य होने के नाते उन्हें सरकार से इस `सम अर्जेंट एंगेजमेंट्स` का सल्यूशन नहीं करा देना चाहिए थावे तो सरकार और उसके फादर ऑर्गेनाइजेशन `राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ` के निकट भी हैं। उनके मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्पिक मैके के साथ गुजरात के मुख्यमंत्रित्व काल से ही एक निरंतर रिश्ता है। तो फिर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कलाकारों के देश की राजधानी में कार्यक्रम को रद्द होने से बचा लेना चुटकी का काम था। हकीकत यह है कि स्पिक मैके चाहती थी कि कोई ऐसा रास्ता निकल आया कि कार्यक्रम हो पाए।

सोनल मान सिंह का हमला टीएम कृष्णा पर है लेकिन ट्रोल्स को लेकर वे चुप रहती हैं। पूरे लेख में इसका वे ज़िक्र तक नहीं करतीं। एक कलाकार के नाते उन्हें ट्रोल्स के खिलाफ़ कार्रवाई की मांग करनी चाहिए थी। उन्हें इस फासिस्ट ट्रोलिंग की निंदा तो कर ही देनी चाहिए थी। कोई `इफ-बट` लगाकर ही सही। पर वे जिस तरह टीएमके पर हमलावर होकर `Singing a political tune` कह रही थीं, असल में फासिस्ट मुहिम के साथ ही खड़ी हो रही थीं। क्या यह `Dancing on facist tune` नहीं हैसोनल मान सिंह नहीं जानतीं कि ट्रोलिंग का पैटर्न क्या है रवीश से बातचीत में ही टीएमके कहते हैं कि `ट्रोलिंग का पैटर्न आर्बिट्रेरी नहीं है। ट्रोलर का कॉन्टेक्ट इस्टेबलिशमेंट के साथ है। यह सब मिलाजुला है।` सोनल मान सिंह ख़ुद इस्टेबलिशमेंट के साथ हैं। उनका पैटर्न यही है। उनकी नृत्य प्रस्तुतियां तक इस्टेबलिशमेंट का हिस्सा हैं।

सोनल मान सिंह अपने पांच दशकों के अनुभव का हवाला देते हुए कहती हैं कि कृष्णा का कोई कार्यक्रम रद्द होना न तो पहली बार है और न आखिरी बार। जब वे इसे सामान्य बात की तरह दर्ज़ करती हैं तो उनकी राजनीति की वजह से ही सही, इसे तरह पढ़ा जा सकता है कि यह सिलसिला जारी रहने वाला है। यह अतिपाठ कहा जा सकता था, अगर यह ख़बर न आ गई होती कि टीएम कृष्णा के मैसूर में 22 व 23 नवंबर को प्रस्तावित दो अन्य कार्यक्रम भी धमकियों की जद में आ चुके हैं। टीएमके के मुताबिक, `शानदार बात यह है कि मैसूर कन्सर्ट के आयोजकों ने धमकियो के आगे झुकने से इंकार कर दिया है। मुझे असहमत लोगों के वहां आने और बाहर खड़े होकर नारेबाजी करने से कोई परेशानी नहीं हैं। कृपया, वे आएं। यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है। लेकिन मैं नहीं समझता कि किसी को कुछ (कन्सर्ट) रोक देने का हक़ है। यह घिनौनापन है।`

सोनल मान सिंह राजनीति का जो आरोप टीएम कृष्णा पर लगा रही हैं, असल में उसके पीछे भी एक राजनीतिक उत्तरदायित्व ही है। फ़र्क़ यह है कि टीएमके अपनी राजनीति, अपनी वैचारिकी को छुपा नहीं रहे हैं, सोनल मान सिंह छुपा पा नहीं सकती हैं। यूं भी गैर-राजनीतिक कुछ भी नहीं है। सांस्कृतिक ढांचा और उसकी क्रूरता व बेईमानियों को पवित्रता के आतंक में छुपाने की प्रैक्टिस तो कतई नहीं जिसे टीएमके चुनौती दे रहे हैं। इस संबंध में उडिया बुद्धिजीवी राधा कांत बारिक की अंग्रेजी में लिखी गई एक फेसबुक पोस्ट का अनुवाद यहां देना मुझे जरूरी लग रहा है - ``सोनल मानसिंह का दावा है कि टी एम कृष्णा अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुतियों को राजनीति के साथ जोड़ रहे हैं लेकिन वो अपने राजनीतिक नजरिये को जाहिर करने में ईमानदार हैं और अपने संगीत में समावेशी हैं। उन्होंने दलितों, मुसलमानों और ईसाइयों की प्रार्थनाओं और श्लोंको को कर्नाटक संगीत में लाकर सांस्कृतिक विविधता को ही मजबूत किया है। (दूसरी तरफ) ओडिसी नृत्य जनजातीय मूल की व्यापक नृत्य शैली है जिसमें आज के जनजातीय नृत्य की तरह आगे की ओर झुका जाता है। सोनल मानसिंह ने ओडीशा संस्कृति की सांस्कृतिक बारीकियों को तोड़ामरोड़ा है। बाबरी मस्जिद मामले में सोनल के अलावा सभी गायक और नर्तक-नृत्यांगना प्रतिरोध में सामने आए। ओडीसी नृत्य को उन्होने (सोनल मान सिंह ने) हिंदूवादी तरीके से पेश किया। यह खतरनाक है। उनकी नृत्य मुद्राएं ओडिसी डांसर की नहीं हैं। उन्होंने हिंदुत्व राजनीति को सूट करने वाली बातों को अपने डांस-नैरेटिव में रखा है। एक सच्चे गुजराती की तरह वे वर्तमान शासन काल के फुट-स्टेप्स फॉलो करती हैं।``

दिलचस्प यह है कि टीएम कृष्णा ने सोनल मान सिंह को अपने ख़िलाफ लिखे गए लेख के लिए शुक्रिया बोला है। इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में उन्होंने कहा है कि सोनल मान सिंह का लेख असल में कार्यक्रम रद्द किए जाने की वजह के बारे में हमारी राय को पुख़्ता करता है और अकनॉलिजमेंट की तरह है। पूरा पीस मेरी पॉलिटिकल पजिशन्स को लेकर ही है। इस तथ्य के बारे में कि जो बातें मैंने कहीं, एन्टी मोदी हैं। गौरतलब है कि एमटीके कभी भी संघ परिवार, भाजपा या मोदी से असहमतियों और दिक्कत की वजहों को छुपाते नहीं हैं। वे कहते हैं कि ये एक हैं और उनकी राजनीति अपर कास्ट ब्राह्मणवादी ढांचे को बनाए रखने की राजनीति है। कर्नाटक संगीत के ढांचे को सेकुलर और वंचित जनोन्मुख बनाने की कोशिशों को वे हिन्दुत्व पर हमला मानते हैं। यह काम उनके लिए एन्टी हिन्दू, एन्टी नैशनल, कम्युनिस्ट, अर्बन नक्सल है।

सोनल मान सिंह अपने लेख की शुरुआत कुछ `नैतिक` बातों से करती हैं। वे कहती हैं कि `कलाकार किसी भी समाज की अंतर्रात्मा के रक्षक होते हैं। उनके स्वर, उनके शब्द, उनका काम उन लाखों बेजुबानों का नज़रिया होता है जो दबावों या परिस्थितियों की वजह से ख़ुद को अभिव्यक्त नहीं कर सकते हैं।` यह दिलचस्प है कि सोनल मान सिंह अपनी इस नसीहत का विलोम हैं और कान छूकर, सज़दा करके `चुपचापगाते-बजाते चले जाने वाली शास्त्रीय संगीत के कलाकारों की दुनिया में पहले ऐसे शख़्स हैं जो सिर्फ़ गाते ही नहीं हैं, बेज़ुबानों की मुखर आवाज़ बनते हैं। कर्नाटक संगीत की दुनिया में और वह भी किसी ब्राह्मण परिवार से निकले शख़्स के रूप में ऐसे कलाकार का उदय हैरान करने वाली बात है। कर्नाटक संगीत की जड़ें मंदिरों में हैं। उसके कलात्मक शिखर के बावजूद उस पर ब्राह्मणवादी हिन्दू अपर कास्ट की मजबूत जकड़ है। टीएमके इस हेजेमनी का उल्लेख करते हैं, उसे तोड़ने की बात ही नहीं करते, उसे तोड़ने की दिशा में काम करते हैं, लिखते हैं, बात करते हैं और इसे अपने गायन का हिस्सा बनाते हैं। वे इस भ्रष्ट अवधारणा को तोड़ते हैं कि संगीत कोई ऐसी पवित्र एकांगी शै है जो किसी ख़ास धर्म से बंधी है। सुनने में हैरानी होती है कि महान कही जाने वाली कोई संगीत परंपरा ज़िद करती हो कि एक ख़ास धर्म-जाति की सीमा के बाहर का गान उसे अपवित्र करता है। टीएमके 17वीं और 18वीं सेंचुरी में अल्लाह के बारे में लिखे गए गीतों का, उन्हें हमारी अवधारणा से अलग कर दिए जाने की राजनीति का और वंचित तबकों के स्वर को अलग-थलग करने की धूर्तता का उल्लेख करते हैं। वे पेरुमल मुरगन की कविताओं को गा सकते हैं। वे परंपरागत हिंदू मिथ्स गा सकते हैं,अल्लाह और जीसस के बारे में गा सकते हैं और इस बात पर ज़ोर देते हैं कि यह भी क्यों नहीं गाया जा सकता है कि ``गॉड नहीं है``

शास्त्रीय संगीत समझने वालों की दुनिया एक सीमित दुनिया है। उत्तर भारतीयों के लिए कर्नाटक संगीत तो और भी कम परिचित दुनिया है। टीएमके का प्रतिरोध और संगीत की दुनिया का यह भयावह सच हम जैसे लोगों तक कहां पहुंच पाता,अगर दिल्ली का कार्यक्रम रद्द नहीं करा दिया जाता? अब दिल्ली में वैकल्पिक मंच से आज होने जा रहा टीएमके का कन्सर्ट शायद और ज्यादा ध्यान आकर्षित करे। उम्मीद करनी चाहिए कि कर्नाटकी संगीत में उपजा यह प्रतिरोध हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत जो अपने मूल में और अपनी प्रैक्टिस में ज्यादा मूलगामी है, जिसकी जड़ें सामाजिक-धार्मिक रूप से आम दुरियाए हुए तबकों में भी हैं, के विरोधाभासों तक भी जाएगा। लेकिन सबसे पहली बात यह कि बर्बर दौर में टीएमके जैसी आवाज़ों को इंसाफ़पसंद लोगों के समर्थन की दरकार है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं । न्यूज़क्लिक का इनसे अनिवार्य रूप से सहमत  होना आवश्नयक नहीं  है।)

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