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क्या बड़े मीडिया समूह और कंपनियां लॉकडाउन में भी फायदे के परे देख पा रही हैं?

अगर बड़ी संख्या में नौकरियां जाती हैं, तो बेरोज़गारी आगे तेज़ी से बढ़ेगी और खपत में कमी आएगी, जैसा कि TOI में हुआ है। इसके बाद अर्थव्यवस्था के सामान्य होने में बहुत दिक़्क़तें आएंगी।
बेरोज़गारी
प्रतीकात्मक तस्वीर

13 अप्रैल को पत्रकार नोना वालिया ने बताया कि उन्हें और उनके दो साथी कर्मचारियों को टाइम्स ऑफ इंडिया से निकाल दिया गया है। इस खुलासे के बाद सोशल मीडिया पर लोग हैरान रह गए। पहली बात, टाइम्स ऑफ इंडिया ने वह सामाजिक धारणा तोड़ी है, जिसमें कोरोना महामारी से बचाव के लिए लगाए गए लॉकडाउन की ज़िम्मेदारी सभी भारतीयों, खासकर अमीरों के कंधो पर बराबर है।

दूसरी बात, TOI ने न तो प्रधानमंत्री मोदी की उस सलाह पर कोई ध्यान दिया, जिसमें उन्होंने नियोक्ताओं से लोगों को काम से ना निकालने की अपील की थी। ना ही उन्होंने गृहमंत्रालय के उस नोटिफिकेशन पर ध्यान दिया, जिसमें कंपनियों, दुकानदारों औऱ दूसरे प्रतिष्ठानों से अपने कर्मचारियों को बिना किसी कटौती के बकाया पैसा अदा करने को कहा गया था।

TOI के अलावा एक हिंदी न्यूज़ चैनल न्यूज़नेशन ने अपनी 15 पत्रकारों वाली इंग्लिश वेब टीम को खत्म कर दिया है। साथ ही न्यूज़ वेबसाइट द क्विंट ने 45 कर्मचारियों से 'बिना वेतन की छुट्टी' पर जाने को कहा है।

लेकिन TOI के फ़ैसले से लोगों को सबसे ज़्यादा झटका लगा। क्योंकि इसे बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड/BCCL प्रकाशित करती है, जो कई सालों से मुनाफ़े में है। जैसे 2018-19 में BCCL ने 484.27 करोड़ रुपये का मुनाफ़ा दिखाया, जो 2017-18 में हुए 681.37 करोड़ रुपये के मुनाफ़े से कम था। 2018-19 में अपने कर्मचारियों पर कंपनी का खर्च 2,562.93 करोड़ रुपये और 2017-18 में 2,390 करोड़ रुपये था।

इतने बड़े वेतन बिल वाली कंपनी द्वारा वालिया और उनके दो साथी कर्मचारियों को निकाला जाना बेहद कठोर नज़र आता है। यह लोग BCCL के प्रिंट प्रतिष्ठानों में काम करते थे, अगर प्रिंट के सभी प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं को जोड़ा जाए, तो 31 मार्च 2019 तक वहां 6,259 करोड़ रुपये का राजस्व इकट्ठा किया जा चुका था, यह उसके एक साल पहले इकट्ठा किए गए 6,415.43 करोड़ रुपये से थोड़ा ही कम था। इसके ठीक उलट कंपनी के टीवी और इंटरनेट प्रतिष्ठान बहुत ज़्यादा फायदा नहीं पहुंचा रहे हैं। ऊपर से वालिया को लॉकडाउन से पैदा हुए संकट के बीच निकाला गया, जबकि वे 24 साल से कंपनी में काम कर रही थीं!

जब राजस्व एकदम से गिर रहा हो, तब जरूरी नहीं है कि मुनाफ़े से ही कंपनी द्वारा कर्मचारियों को वेतन देने की क्षमता का पता चले। लॉकडाउन में कई कंपनियों का मुनाफ़ा गिर रहा है। भारत के पहले मुख्य सांख्यिकीविद् और ''इंडियन प्रोग्राम ऑफ द इंटनेशनल ग्रोथ सेंटर'' के कंट्री डॉयरेक्टर प्रोनब सेन इसी पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, ''तब यह मायने रखता है कि कंपनी के पास कितना कैश रिजर्व (नग़द जमा) है। यह हो सकता है कि कंपनी ने अपने मुनाफ़े को निवेश में लगा दिया हो और उससे तुरंत पैसे इकट्ठे हो पाएं।''

जैसा 2018-19 की BCCL की बैलेंस शीट दिखाती है, कंपनी के पास 1260.09 करोड़ रुपये का भारी कैश रिज़र्व है। 2017-18 में यह आंकड़ा 977.25 करोड़ रुपये था। कंपनी के क्रियाकलापों से पैदा हुआ पैसा और पूंजी का कुल प्रवाह (नेट फ्लो) भी सकारात्मक नज़र आ रहा है। सेन ने आगे कहा, ''TOI के लिए अपने कर्मचारियों को निकाल देना वैधानिक तो हो सकता है, लेकिन ऐसा करना अनैतिक है।''

BCCL ने हमारे सवालों का जवाब नहीं दिया, इसलिए हम यह नहीं बता सकते कि क्या कंपनी ने नौकरियां बचाने के लिए दूसरे तरीके अपनाने की कोशिश की या नहीं। जैसे- कर्मचारियों के वेतन में कटौती। ''मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डिवेल्पमेंट'' के प्रोफेसर एम विजयभास्कर कहते हैं, ''मीडिया में औसत वेतन, भारतीयों के औसत वेतन से कहीं ज़्यादा है। TOI को स्थिति से निपटने के लिए पहले कदम के तौर पर कर्मचारियों के वेतन में कटौती करनी थी। कर्मचारियों को नौकरी से निकालना अनैतिक है।''

विजयभास्कर का कहना है कि मुनाफ़ा ही मात्र कर्मचारियों को नौकरी से निकालने का विकल्प नहीं हो सकता। उन्होंने कहा, ''हर व्यक्ति को जीवन आत्मसम्मान से जीने का अधिकार है। मीडिया में वेतन कटौती के बाद भी सभी को एक आरामदायक जीवन दिया जा सकता है।'' इंडियन एक्सप्रेस ने यही कदम उठाया है और कर्मचारियों के विभिन्न वेतन पैमानों में अलग-अलग हिस्से की कटौती की है।

TOI का यह कदम बुरा लगता है, लेकिन लॉकडाउन के दौरान और इसके बाद बहुत सारे कॉरपोरेट घराने यही करने जा रहे हैं। क्या उन्हें अपने फायदे के किसी स्तर को बरकरार रखने के लिए कर्मचारियों को हटाना चाहिए? या उन्हें कोरोना के चलते लगाए गए लॉकडाउन से ऊपजे आर्थिक संकट में नैतिकता दिखानी चाहिए?

केंद्र सरकार के मुताबिक़ देश में 10,327 ऐसी कंपनियां हैं, जो 10 करोड़ से लेकर 500 करोड़ रुपये के बीच में ''कर पूर्व मुनाफ़ा'' दर्शाती हैं। दूसरी 424 कंपनियां ऐसी हैं, जिनका कर पूर्व मुनाफ़ा 500 करोड़ रुपये से ज़्यादा होता है (यह उन 7,90,537 कंपनियों के सैंपल साइज पर आधारित है, जिन्होंने 2018-19 में कर दिया)। क्या मास्क बनाने की प्रक्रिया बताने के साथ-साथ BCCL जैसी यह बड़ी कंपनियां नौकरी बचाकर जीवन को ज़्यादा सुरक्षित बनाने में योगदान नहीं कर सकतीं? इसका जवाब उन कंपनियों के पास वेतन देने के लिए कैश की उपलब्धता में निहित है, वह भी ऐसे वक़्त में जब यह कंपनियां पहले की तरह राजस्व नहीं कमा सकतीं।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी प्राइवेट लिमिटेड (CMIE) के महेश व्यास कहते हैं कि भारतीय कंपनियां औसत तौर पर अपने पास 24 से 25 दिन की जरूरतों का नगद रखती हैं, भले ही इस दौरान उनकी कोई आय न हो। कुल संचालन पूंजी का करीब़ 9.3 फ़ीसदी हिस्सा कर्मचारियों को तनख़्वाह देने में जाता है। लेकिन कंपनियां इस बीच न तो कच्चा माल खरीद रही हैं, न ही ऊर्जा जैसी खपत पर खर्च कर रही हैं। इसका मतलब है कि लॉकडाउन के दौरान उनके कैश रिज़र्व पर ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ेगा।

व्यास कहते हैं, ''मेरी निजी गणना बताती है कि गैर वित्तीय कंपनियां औसत तौर पर कर्मचारियों को तीन महीने की पगार दे सकती हैं। हालांकि यह कॉरपोरेट पर छोड़ देना चाहिए कि वे कंपनियां किस हद तक जाकर नौकरियां बचाना चाहती हैं। यह सरकारी निर्देश से नहीं होना चाहिए।''

हालांकि व्यास कहते हैं कि कोरोना महामारी से पैदा हुए आर्थिक संकट में सरकार को एक कानून बनाकर कंपनियों को निकाले जाने वाले कर्मचारियों को पैसा देने का प्रावधान करना चाहिए। इससे अपनी जीविका लेकर चिंतित भारतीय समाज में कुछ शांति पैदा होती।

पूंजीवाद का नैतिक ढांचा अधिकतम लाभ को मानवीय उद्यम का सबसे बड़ा उत्प्रेरक मानता है। कोरोना वायरस द्वारा इस ढांचे को चुनौती देने के 6 महीने पहले, 200 सीईओ की लॉबी वाले समूह ''वाशिंटगन राउंडटेबल'' ने एक स्टेटमेंट जारी कर सभी कंपनियों के तमाम 'खतरा उठाने वाले लोगों (स्टेकहोल्डर्स)', जिनमें कर्मचारी भी शामिल ते, उन्हें शेयरहोल्डर के बराबर दर्जा दिया था।

अपने संपादकीय में द गॉर्डियन ने लिखा, ''इससे पता चलता है कि नैतिकता बदल रही है. अब बड़े पैमाने पर यह माना जाने लगा है कि बिना किसी दूसरी चीज पर ध्यान दिए सिर्फ मुनाफ़ा कमाना अनैतिकता है।''

इस नज़रिए से देखा जाए, एक ऐसे दौर में जब भारत समेत पूरी दुनिया को कोरोना महामारी ने चपेट रखा है, तब TOI का अपने कर्मचारियों को हटाने का फ़ैसला बेहद अनैतिक  नज़र आता है।

निजी फायदे को बचाए रखने के लिए कर्मचारियों को निकालना भी पागलपन भरा है। बड़ी संख्या में कर्मचारियों को निकालने से बेरोज़गारी बढ़ेगी और मांग में कमी आएगी। इससे अर्थव्यवस्था के सामने बहुत बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी। यह स्थिति तब भी बनी रहेगी, जब स्थितियां सामान्य होने के बाद अर्थव्यवस्था को तेज करने की कोशिश की जाएगी।

अमेरिकन एक्सप्रेस के चीफ एक़्जीक्यूटिव स्टीफन स्केवरी ने वाशिंगटन राउंडटेबल डिक्लेरेशन में हस्ताक्षर किए थे। BCCL को उनके सुझावों पर ध्यान देना चाहिए। बढ़ती बेरोज़गारी के बीच जब अमेरिकी राज्य 6.5 मिलियन लोगों को सीधे मदद कर रहा था, तब स्केवरी ने कहा था, ''2008-09 के वित्तीय संकट के दौरान भी हमने 2.2 बिलियन डॉलर बनाए थे। अब जब हम 1.8 बिलियन डॉलर बना पाएंगे, तो आप समझ सकते हैं कि स्थिति क्या हो चली है। जब स्थिति सामान्य होगी, तो हमें अपने बिक्री संगठन के लोगों को ज़्यादा तेजी से ज़मीन पर भेजना होगा।''

कोरोना संकट उन लोगों के लिए भी नसीहत है, जो सोचते हैं कि बाज़ार पर आर्थिक कल्याण के लिए भरोसा किया जा सकता है।कई देशों ने अर्थव्यवस्था को ढहने से बचाने के लिए पैकेज देने की घोषणा की है। जैसे- फ्रांस की सरकार ने कंपनियों को अपने कर्मचारियों को तकनीकी छुट्टियां देने की अनुमति दी है। इस दौरान इन कर्मचारियों के वेतन का बड़ा हिस्सा सरकार देगी।

इन वित्तीय भारों के बड़े स्तर को मानते हुए फ्रांस के श्रम मंत्री मुरिएल पेनिकाउड ने फ्रांस की शुरूआती 40 बड़ी कंपनियों से सरकार की ''तात्कालिक बेरोज़गारी योजना'' का लाभ न लेने की अपील की। उनमें से ज़्यादातर ने यह बात मान ली। लुई विटों ने एक सप्ताहांत, परफ्यूम बनाने वाली अपने हिस्से की एल्कोहल सेनेटाइज़र बनाने के लिए सरकार को भेज दी।

भारत के मामले में किसी भी छोटे निर्माण उद्यम (जैसे ओखला में स्थित कोई ईकाई) से कोरोना के दौर में अर्थव्यवस्था को बचाने की उम्मीद करना बेमानी है। यह नेतृत्व BCCL जैसी बड़ी नग़द जमा कंपनियों से आना चाहिए।

साथ में भारत सरकार को औद्योगिक क्षेत्र को फ्रांस की तरह जनता के भले के लिए काम करने को प्रेरित करना होगा। जैसे- सिंगापुर में सरकार ने एक योजना चलाई है, जिसमें नियोक्ताओं को कर्मचारियों को काम पर रखने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। वहां की सरकार संबंधित कर्मचारी के शुरूआती 9 महीने के वेतन में 4,600 डॉलर का योगदान करेगी। अप्रैल में वहां की सरकार ने सभी क्षेत्रों के कर्मचारियों का 75 फ़ीसदी वेतन दिया। इस वित्त वर्ष के बचे हुए आठ महीनों के लिए उड्डयन, पर्यटन और आवास क्षेत्र के कर्मचारियों को सरकार 75 फ़ीसदी और फूड सर्विस सेक्टर को 50 फ़ीसदी वेतन सरकार देगी। शेष बचे क्षेत्रों में सरकार 25 फ़ीसदी हिस्से का योगदान करेगी।

भारत फ्रांस या सिंगापुर नहीं है। यहां लाखों लोगों को खाना खिलाने की ही समस्या बनी हुई है, जो अचानक लागू किए गए लॉकडाउन से ऊपजी है। लेकिन भारतीय राज्य उन संस्थानों को मदद कर सकती है, जो नौकरियों के ज़रिए अर्थव्यवस्था बचाने की कोशिश कर रहे हैं। साथ में उन कंपनियों को हतोत्साहित करना चाहिए, जो अगले एक साल में अपने कर्मचारियों को निकाल रही हैं, जबकि वो उनका वहन कर सकती हैं।

विजयभास्कर ने बिलकुल यही बात दोहराते हुए कहा, ''उदारीकरण के बाद भारतीय राज्य ने अपनी ज़िम्मेदारी कम कर ली है। राज्य वह विचार मानता रहा है, जिसमें बाज़ार को विकास का नेतृत्वकारी तत्व बताया जाता है। अब राज्य को प्रोत्साहन और हतोत्साहन के ज़रिए, नियोक्ताओं द्वारा कर्मचारियों को नौकरियों में बनाए रखने को बाध्य करने के लिए जरूरी कदम उठाने चाहिए। ''

अगर भारतीय राज्य ऐसा नहीं करता है, तो वो आज सबसे ज़्यादा अनैतिक हो जाएगा। उस पर TOI और कर्मचारियों को निकालने वाली दूसरी कंपनियों की तरह असंवेदनशील होने का दोष होगा।

एजाज़ अशरफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। प्रज्ञा सिंह न्यूज़क्लिक में काम करती हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख यहाँ पढ़ें-

Should Big Media and Other Elite Firms Look Beyond Profit During Lockdown?

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