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बीच बहस: आरक्षण हर मर्ज़ की दवा नहीं!

...सामाजिक न्याय के विचार को ताक़तवर राजनीतिक सत्ता ने तोड़ मरोड़ दिया है। अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ रहा है और आरक्षण की मांग भी, लेकिन सामाजिक न्याय की परिधि सिमटती जा रही है।
आरक्षण

यह बड़ी अजीब दशा है कि देश की आजादी के बाद की समय की यात्रा बढ़ती जा रही है लेकिन आरक्षण के जरिए फायदा पाने की इच्छा रखने वाले समूहों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ रहा है लेकिन सामाजिक न्याय की परिधि सिमटती जा रही है। बहुत बड़ी आबादी कई तरह की वंचनाओं का शिकार हो रही है। न्याय की पहुंच से बहुत बड़ी आबादी दूर होती जा रही है। लेकिन सबका संघर्ष इस बिंदु पर जाकर खत्म हो रहा है कि उन्हें आरक्षण के कोटे के अंदर शामिल कर लिया जाए। 

मराठा समुदाय पिछले 10 साल से अपने हकों की लड़ाई लड़ रहा है। जानकारों का कहना है कि मराठा आंदोलन के केंद्र में कृषि संकट है। मराठा आंदोलन कृषि संकट का ही प्रतिबिंब है, जिसकी वजह से मराठा समुदाय का अधिकतर हिस्सा पिछड़ेपन का शिकार है। 

अब सवाल यह उठता है कि इस पिछड़ेपन को दूर करने के लिए क्या महज आरक्षण एक हथियार है? जबकि सरकार के सामने उसके समाज की परेशानी होती है और उस परेशानी को हल करने की जिम्मेदारी सरकार को होती है। 

सरकार जब बहुत बड़ी आबादी को अनदेखा कर देती है। महज कुछ लोग ही, कुछ समुदाय ही आगे बढ़ते हैं तो तो जनता को अंततः मजबूर होकर एक ही रास्ता नजर आता है जिसका नाम आरक्षण है। आरक्षण पर लोगों की गोलबंदी आसानी से हो जाती है। संघर्ष के रास्ते में भीड़ का जुटान आसानी से हो जाता है। लेकिन सवाल यही है कि क्या उस माहौल में आरक्षण जायज है या नजायज जब सब कुछ प्राइवेटाइज कर दिया जाए? सरकारी नौकरियों के नाम पर 3 फ़ीसदी लोगों तक को भी नौकरी ना मिले? उच्च शिक्षण संस्थानों तक समाज का एक छोटा तबका ही पहुंच पाए? देश की तकरीबन 85 फ़ीसदी से अधिक आबादी 10,000 से कम की आमदनी पर जी रही हो?

महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समुदाय को नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में 16 फ़ीसदी आरक्षण देने का फैसला किया। मामला बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंचा। बॉम्बे हाईकोर्ट ने आरक्षण के दायरे को 16 फीसदी से घटाकर शिक्षा में 12 फीसदी और नौकरी में 13 फीसदी आरक्षण देना तय कर दिया। इस फैसले की वजह से महाराष्ट्र में आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी के पार चली गई। 

दरअसल, साल 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए जाति-आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों की वजह से यह कानून बन गया था कि आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी के बांध को पार नहीं कर सकती है। यह फैसला राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, गुजरात में पटेल जैसे समुदायों के आरक्षण की मांग पर बीच में अड़ंगे की तरह आता रहा है। लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले खिलाफ जाकर सुनवाई की। बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अपवाद स्वरूप ऐसे कानून बनाए भी जा सकते हैं, जिनकी वजह से 50 फ़ीसदी आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता हो। 

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली गई। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच इस मसले पर सुनवाई कर रही है। चूंकि इस फैसले से भारत के सभी राज्य प्रभावित होने वाले हैं इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने भारत के सभी राज्यों से 50 फ़ीसदी आरक्षण की सीमा बढ़ाने को लेकर राय मांगी। भारत के तकरीबन आधा दर्जन राज्य ऐसे हैं, जो 50 फीसदी आरक्षण का दायरा बढ़ाने के पक्ष में खड़े हैं। इनमें महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, झारखंड और कर्नाटक जैसे राज्य आरक्षण की सीमा पर बढ़ोतरी चाहते हैं।

यह सारी बातें पढ़कर आपको लगता होगा कि आरक्षण जितने अच्छे इरादे के साथ शुरू किया गया था, उस अच्छे इरादे के साथ अब इसे नहीं अपनाया जा रहा है। मजबूत जातियां जो चुनाव में पासा पलट सकती हैं, वह आरक्षण को लेकर लेन-देन वाला रवैया अपना रहीं हैं। आरक्षण का सिस्टम खत्म कर देना चाहिए। यह बेकार हो चला है। झल्लाते हुए आप में से कोई सुप्रीम कोर्ट के जज की बोली बोल सकता है कि आरक्षण आखिरकर कितनी पीढ़ियों तक दिया जाएगा?

यहीं पर रुकना है। सोचना है कि भारत में जाति के आंकड़े क्यों नहीं प्रकाशित होते? एक अनुमान के मुताबिक अन्य पिछड़ा वर्ग की संख्या तकरीबन पचास फ़ीसदी के आसपास है। और इतनी बड़ी जनसंख्या का सरकारी रसूख पद प्रतिष्ठा और सत्ता वाली नौकरियों में भागीदारी ना के बराबर है। 

लेकिन क्या इतनी बड़ी आबादी का सही मात्रा में प्रतिनिधित्व केवल आरक्षण के जरिए हो सकता है? इस पर बात करते हुए सामाजिक न्याय के मुद्दे पर बड़ी अच्छी समझ रखने वाली दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मण यादव ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी बढ़ानी चाहिए। क्योंकि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अन्य पिछड़ा वर्ग इन तीनों को मिला लिया जाए तो इनकी आबादी तकरीबन 80 फ़ीसदी तक होगी। सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में इनकी भागीदारी अपनी आबादी के मुकाबले तो नगण्य है। सरकार के बड़े-बड़े पदों पर इस 80 फ़ीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व दस फ़ीसदी के आसपास भी नहीं है। इसलिए प्रतिनिधित्व के सिद्धांत पर देखा जाए तो आरक्षण की सीमा जरूर बढ़नी चाहिए।

लेकिन असली सवाल तो यही है कि आरक्षण से फायदा किनको मिलेगा? महज 3% सरकारी नौकरी और चंद शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले लोगों को। इस आधार पर देखा जाए तो आरक्षण की पूरी व्यवस्था ही बड़ी अजीब लगती है। जरूरत नीचे से भी काम करने की है। मुफ्त शिक्षा, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं और तमाम बुनियादी जरूरतों को मुहैया करवाए बिना महज आरक्षण से भारत की बहुत बड़ी आबादी के साथ किसी भी तरह का इंसाफ नहीं हो सकता है। आरक्षण के आलावा सामाजिक न्याय से जुड़े दूसरे पहलुओं पर काम करने की जरूरत है। मंडल कमीशन कहता है कि पूरा का पूरा इकोनामिक मॉडल बहुत बड़ी आबादी के खिलाफ जाता है। ऐसे में इस इकोनामिक मॉडल को सुधारने की जरूरत है जहां पर बहुत बड़ी आबादी के लिए कुछ भी नहीं है। 

इसके अलावा इस मुद्दे पर दूसरा नजरिया भी है। इस विषय के प्रखर विद्वान प्रोफेसर सतीश देशपांडे की माने तो आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। यह सदियों से समाज में जातिगत भेदभाव से उपजी सामाजिक मान्यताओं, रूढ़ियों, नियमों, प्रथाओं से सामाजिक अन्याय की बीमारी को दूर करने की एक दवा है। इसके जरिए मिलने वाले कोटे की वजह से ही सामाजिक तौर पर वंचना की शिकार निचली और पिछड़ी जातियां समाज के शक्ति और विशेषाधिकार हासिल किए हुए संरचनाओं में अपनी दखलअंदाजी कर पाई हैं।

लेकिन भाजपा सरकार ने जिस तरह से आर्थिक तौर पर कमजोर 10 फ़ीसदी लोगों को आरक्षण देने की व्यवस्था बनाई उससे एक बात तो साबित हो गई कि आरक्षण जैसे औजार का गलत इस्तेमाल किया गया। यह सामाजिक न्याय के औजार से अलग गरीबी दूर करने के औजार में बदल गया।

जानकारों की मानें तो यह आजादी के बाद से लेकर अब तक के सामाजिक न्याय के संघर्ष में पहला ऐसा मोड़ था, जहां सामाजिक न्याय के विचार को ताकतवर राजनीतिक सत्ता ने तोड़ मरोड़ दिया। इस कदम ने यह साबित किया कि आरक्षण के पूरे विचार को ताकतवर समूह अपनी तरफ मोड़ सकता है।

बड़े ध्यान से देखा जाए तो समाज की मराठा, गुर्जर पटेल जैसी ताकतवर जातियां अपनी राजनीतिक गोलबंदी से इस मुकाम तक तो पहुंच ही गई हैं कि वह अपनी जायज परेशानियों के हल के लिए आरक्षण जैसी मांग पर अड़ी रहें। यह बात सही है इन जातियों का बहुत बड़ा हिस्सा गरीबी में जी रहा है। कई सारी परेशानियां झेल रहा है। लेकिन क्या यह जातियां ऐतिहासिक तौर पर दूसरी जातियों के मुकाबले पिछड़ी हुई हैं? 

इनके पिछड़ेपन का दोष क्या केवल सामाजिक प्रथाओं मान्यताओं नियमों और रूढ़ियों पर थोपा जा सकता है, जैसा कि निचली और दलित जातियों के मामले में है? या यह इसलिए पिछड़ रही है क्योंकि भारत की जीडीपी भले बढ़ रही हो लेकिन भारत की बहुत बड़ी आबादी गुरबत में जीने के लिए भी मजबूर हो रही है। सरकारी रवैया ऐसा है कि महज एक साल की कोरोना की बंदी की वजह से प्यू रिसर्च के अनुमान के मुताबिक तकरीबन 7 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से नीचे चले गए हैं। यह विकराल समस्या सरकार की नीतियों लापरवाही और भ्रष्टाचार की वजह से फैली है। जिसका अंततः आरक्षण के तौर पर समाधान देखने के लिए लोग मजबूर हो रहे हैं? 

पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कोटे अंदर सबकोटा बनाकर उन जातियों तक आरक्षण पहुंचाने का फैसला लिया जिन तक आरक्षण नहीं पहुंच पा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के आधार पर सोचा जाए तो विचार तो यही निकल कर आता है कि आरक्षण उन तक पहुंचना चाहिए जो ऐतिहासिक तौर पर बहुत अधिक वंचना के शिकार हैं। दूसरों के मुकाबले बहुत अधिक पिछड़े हैं और जिन तक आरक्षण नहीं पहुंच पाया है। उन्हें टारगेट करने की जरूरत है। इस आधार पर देखा जाए तो मराठा पाटीदार और गुर्जर जैसी जातियां अपेक्षाकृत दूसरी जातियों के मुकाबले थोड़ी मजबूत जातियां हैं। यह समुदाय कृषि संकट के परेशानियों से जरूर जूझ रहा है लेकिन कृषि पर आश्रित ओबीसी की सभी जातियों के मुकाबले ऐतिहासिक तौर पर वंचना का कम शिकार रहा है। लेकिन इस बार इन सभी जातियों की दलील होती है कि उनका सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व कम है। इसका मतलब है कि वह वंचित है। 

लेकिन राजनीतिक तौर पर आरक्षण के जरिए लेनदेन करने के चलते यह जातियां राजनीतिक दलों को अपने मांग से दबाने में कामयाब रहती हैं। शायद यही वजह है कि कई राज्य 50 फ़ीसदी की सीमा बढ़ाने के पैरोकार बन चुके हैं। 

50 फ़ीसदी आरक्षण की सीमा रहेगी या नहीं रहेगी तो आने वाला वक्त बताएगा?, लेकिन यह बहुत ही गहरे सवाल पैदा कर रहा है। जैसे अगर एक आबादी में 50 फ़ीसदी से अधिक हिस्सा आरक्षित बनाया जा रहा है तो इसका मतलब यही निकलता है कि आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा पिछड़ा है। यह पिछड़ापन बढ़ता जा रहा है। इसीलिए कभी गुर्जर आंदोलन करते हैं तो कभी जाट आंदोलन करते हैं तो कभी मराठा। इसका हल महज आरक्षण नहीं हो सकता। पूरे आर्थिक ढांचे को जन उन्मुख बनाने की जरूरत है। यह नहीं हो रहा है जो हो रहा है वह यह है कि सब कुछ बेचा जा रहा है सब कुछ प्राइवेट किया जा रहा है। सब कुछ केवल कुछ लोगों के फायदों को सोच कर किया जा रहा है, भले ही एक बहुत बड़ी आबादी वंचित क्यों ना रह जाए?

वंचना का एक मूलभूत सिद्धांत होता है कि हमारे समाज में ' जो सब को उपलब्ध होना चाहिए, वह सब को उपलब्ध हो रहा है या नहीं। यानी जो सबके लिए है उसमें सर्वजन की भागीदारी है या नहीं।' इस आधार पर देखा जाए तो भारत में कई समूह वंचित दिखेंगे। 

इन सब का हल केवल आरक्षण नहीं हो सकता है। आरक्षण के साथ कुछ और भी करने की जरूरत है। जैसे भूमि सुधार हो, सबको मुफ्त शिक्षा मिले, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं मिले, सब की आमदनी गरिमा पूर्ण जीवन गुजर बसर करने लायक हो। ऐसी तमाम मूलभूत सुविधाएं सबको मिलनी चाहिए। साथ में वर्तमान विशेषाधिकार खत्म होने चाहिए जो जाति धर्म या किसी भी तरह की पहचान की वजह से मिलते हैं, जो हमारे आपसी संबंधों की वजह से मिलते हैं। जहां काबिलियत का महज एक पैमाना होता है कि कौन किस के कुनबे में फिट बैठ सकता है। इन सभी सवालों पर सोचने की जरूरत है। अन्यथा सामाजिक नाइंसाफी बहुत गहरी होती चली जाएंगी। जिनमें से किसी का भी जवाब महज आरक्षण नहीं होगा।

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