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'जितनी जल्दी तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान को स्थिर करने में मदद मिलेगी, भारत और पश्चिम के लिए उतना ही बेहतर- एड्रियन लेवी

एड्रियन लेवी के साथ साक्षात्कार, जिन्होंने कैथी स्कॉट-क्लार्क के साथ मिलकर 'स्पाई स्टोरीज़: इनसाइड द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ़ द रॉ एंड द आईएसआई' लिखी है। यह किताब कई नयी और चौंकाने वाली जानकारियों से भरी पड़ी है।
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एड्रियन लेवी और कैथी स्कॉट-क्लार्क

जाने-माने लेखक एड्रियन लेवी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि काबुल का पतन तालिबान की जीत नहीं, बल्कि अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की तरफ़ से उन निहित कमज़ोरियों की एक व्यावहारिक मान्यता है, जिन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका ने बढ़ा दिया था और फिर वहां उन कमज़ोरियों को छोड़कर चल दिया था। लेवी और उनके साथी लेखक कैथी स्कॉट-क्लार्क ने मुंबई में 26/11 के हमले, ओसामा बिन लादेन की गिरफ़्तारी, दक्षिण एशिया में परमाणु हथियारों के प्रसार पर सबसे ज़्यादा बिकने वाली श्रृंखला लिखी है। 'द मीडो', 1995 में कश्मीर में पांच पर्यटकों के अपहरण के आसपास की घटनाओं पर लिखी गयी एक बेहद सराही गयी किताब है। उनकी हालिया किताब 'स्पाई स्टोरीज़: इनसाइड द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ़ द रॉ एंड द आईएसआई', जासूसी रहस्य से भरी दुनिया का ब्योरा देती है। प्रस्तुत है रश्मि सहगल के साथ एड्रियन लेवी का एक ईमेल साक्षात्कार का संपादित अंश:

क्या अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का कब्ज़ा सचमुच आईएसआई के लिए एक बड़ी कामयाबी है? यह भारत को कैसे प्रभावित करेगा?

आइये, हम अपने दिमाग़ के जाले को साफ़ कर लें और ज़रा उन चीज़ों पर नज़र डालने की कोशिश कर लें, जिन्हें  दरअस्ल हम देख नहीं पा रहे हैं कि यह आईएसआई की जीत नहीं है। कथित तौर पर आतंकवाद के ख़िलाफ़ उस लड़ाई के दो दशकों में तक़रीबन दस लाख लोगों की मौत हुई और आठ ट्रिलियन डॉलर ख़र्च किये गये। आतंकवाद के ख़िलाफ़ संयुक्त राज्य अमेरिका और बुश-चेनी का यह युद्ध नाटकीय रूप से बुरी तरह नाकाम रहा। इसके बजाय 9/11 के घातक हमलों की लड़ाई एक ऐसे संगठन-तालिबान के साथ की लड़ाई बन गयी, जिसने उन हमलों की योजना नहीं बनायी थी। बुश-चेनी ने 2002 और 2003 के ईरानी सौदे को ठुकराकर ओसामा बिन लादेन परिवार और रिवोल्यूशनरी गार्ड्स द्वारा बलूचिस्तान और तेहरान में चलाये जा रहे अल क़ायदा सैन्य परिषद  के ज़्यादातर लोगों के सौंपे जाने को लेकर अपना इरादा जता दिया था।

अफ़ग़ानिस्तान में एक दिखायी जाने वाली शांति और अल क़ायदा के उस सुनियोजित आत्मसमर्पण के बजाय, जिससे कि ईरान के साथ रिश्तों को सामान्य करने की जटिल प्रक्रिया शुरू हो सकती थी, व्हाइट हाउस ने इराक़ के साथ एक बनायी गयी धारणा की बुनियाद पर एक ऐसी ग़ैर-क़ानूनी जंग का ऐलान कर दिया जिसका 9/11 से कोई लेना-देना नहीं था। इस युद्ध ने लीबिया और सीरिया में अस्थिरता फैला दी और इराक़ में इसका हल अल क़ायदा के आगे बढ़ने के रूप में हुआ, जिससे कि एक बर्बर इस्लामिक स्टेट (दाएश) पैदा हो गया, जिसकी ख़िलाफ़त अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामी अमीरात के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बड़ी और कहीं ज़्यादा सक्रिय थी। एशिया और खाड़ी में अमन-चैन को ख़तरे के हवाले करने और तक़रीबन उस हर यूरोपीय देश में विस्फ़ोटक और भयानक प्रतिक्रियाओं को उकसाने के बाद, जहां पूर्वाग्रह, नस्लवाद, बहिष्कार और छोटी-छोटी आपराधिकता ने नये-नये अजीब-ओ-ग़रीब गिरोहों को पैदा कर दिया, जो दरअस्ल दाएश के चलते वजूद में आये।इससे न तो दुनिया सुरक्षित हुई और न ही आतंक का ख़ात्मा हुआ। (संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड) ट्रम्प ने अपने कुर्द सहयोगियों को उनके हाल पर छोड़ दिया और (राष्ट्रपति जो) बाइडेन ने अपने आप को अफ़ग़ान परियोजना से अलग कर लिया, और इनके पिट्ठू ताजिकिस्तान भाग गये।

आपको इसमें बुश-चेनी की बदइंतज़ामी के शिकार के तौर पर नियमों से बंधी व्यवस्था को भी जोड़ना होगा। सीआईए ने जानबूझकर 9/11 की उस साज़िश को छुपाया, जिसमें एफ़बीआई को बेअसर करने के लिए कुचल दिये गये मलेशिया से कैलिफ़ोर्निया जाने वाले दो लोगों के पारगमन को लेकर अहम विवरण शामिल थे। इसके तुरंत बाद, लैंगली के बदला लेने वाले अधिकारियों ने व्हाइट हाउस और न्याय विभाग में पैरवी की, ताकि वे अपने नुक़सान की भरपाई कर सकें और अपनी साख को क़ायम रख सकें। उनकी नयी 'दस्ताने बंद' योजना विदेशी विवरणों से उन गुप्त ठिकानों पर संदिग्धों को छुपाने की थी, जहां उन्हें एक प्रयोग के बाद ख़त्म कर देना था, जिसका वर्णन संयुक्त राज्य अमेरिका के दोनों राष्ट्रपति यातना के रूप में कर पाते। यह सब नरसंहार के होने को फिर से रोकने के लिए जिनेवा सम्मेलनों और दूसरे विश्व युद्ध के बाद की नियम-बद्ध प्रणाली से बचने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के अधिकार क्षेत्र के बाहर हुआ। यूनाइटेड किंगडम, फ़्रांस, जर्मनी और अन्य छोटी-छोटी यूरोपीय शक्तियों के साथ-साथ अमेरिका और उसके सहयोगियों ने इन सभी कार्रवाइयों का समर्थन उसी तरह किया था,जिस तरह कि पाकिस्तान ने किया था और ये ही शक्तियां काबुल की घेरेबंदी के लिए भी दोषी हैं; इनका पतन हो रहा है, मगर एक मृगतृष्णा पैदा हो रही है, और उसी मृगतृष्णा का पतन 2021 में भी हो रहा है।

इस पैंतरेबाज़ी और हेरफेर में पाकिस्तान की क्या भूमिका थी?

पाकिस्तान काबुल में रावलपिंडी के हिसाब से बनने वाली सरकार की मांग के अपने घोषित रुख़ वाली भूमिका से कभी नहीं भटकी। पाकिस्तान ने खुले तौर पर 9/11 के बाद के दिनों में आईएसआई मिशन की शुरुआत (अक्टूबर 2001) में मुल्ला उमर पर ध्यान देने से लेकर आईएसआई प्रमुख की पहली तालिबान योजना (नवंबर 2001) तक अपने रुख़ का तभी ऐलान कर दिया था, जब आईएसआई के महानिदेशक एहसान उल हक़ ने काबुल में राष्ट्रीय सुलह की एक नयी सरकार में तालिबान को शामिल करने के लिए बुश-चेनी को सहमत करने के लिए सऊदी शाही परिवार और ब्रिटिश ब्लेय समर्थक गठबंधन को एक साथ जोड़े रखा। इससे अल क़ायदा के सफाये का समर्थन तो हो रहा था, लेकिन तालिबान को दबाया नहीं जा रहा था।

अल क़ायदा को आख़िरकार बड़े पैमाने पर नुक़सान हुआ था, और इसके तक़रीबन हर वरिष्ठ नेता को पाकिस्तान से निकाल दिया गया था। ज़बरदस्त सबूतों के आधार पर उनके अभियोजन को नामुमकिन बनाते हुए उन्हें सीआईए की गुप्त ठिकानों में प्रताड़ित किया गया था।इससे बीस साल तक ऐसा क़ानूनी तमाशा चलता रहा, जो कि बुश के इंसाफ़ के लिहाज़ से एक धक्का था,जो कि 9/11 पीड़ितों के परिवारों के लिए भी बड़ी बात थी। इसे लेकर कोई मुकदमा तक नहीं चला, यह सब इतना साफ़ है हम 9/11 के बारे में जानते हुए भी सबकुछ नहीं जानते हैं,यानी अभीतक लगभग कोई फ़ैसला तक नहीं हुआ है।

अब ज़रा 2021 का रुख़ करें, और रावलपिंडी की ओर से एक बड़े पैमाने पर नुक़सान होने के बाद अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर चला गया। पाकिस्तान का दावा है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ अंदरूनी लड़ाई में 2013 तक 48,504 लोगों की मौतें हुईं और इसके ख़ज़ाने पर (2014 तक) 102.51 बिलियन डॉलर की प्रत्यक्ष लागत का दबाव पड़ा।हालांकि, यह एक ऐसा युद्ध था,जिसमें से किसी को नहीं 'जीतना' था। मगर,इसके साथ ही तालिबान कमांडरों और धार्मिक विद्वानों को दंडित किया जाता रहा, उनके साथ जोड़-तोड़ किया जाता रहा और उनके साथ सांठ-गांध किया जाता रहा, कुछ को जेल में डाल दिया गया, कुछ को यातनायें दी गयीं, और रावलपिंडी से इन सब बातों का तार जुड़ा रहा। पाकिस्तान और भारत की आंतरिक ख़ुफ़िया जानकारी से पता चलता है कि यह रास्ता आईएसआई और पाकिस्तान के विशेष सैन्यबलों के लिए हमेशा विश्वासघाती रहा है। उनका असर आंशिक और सही मायने में बहुत ही कम हद तक ही रहा है, और भारत के साथ पूर्वी सीमा पर ध्यान केंद्रित करते हुए और ईरान के साथ अपनी सीमा में दाखिल होने की कोशिश करते हुए आबपारा (रावलपिंडी का एक इलाक़ा) के पास इस स्थिति से निपटने के लिए ज़रूरी ऊर्जा या इतनी मानसिक क्षमता नहीं थी कि वह क्षेत्रीय रूप से चौतरफ़ा तालिबान की मौजूदगी वाले अफ़ग़ानिस्तान को पूरी तरह अपनी ज़द में ले सके।

अब जबकि काबुल का पतन हो चुका है और देश-व्यापी सत्ता की अमेरिकी मृगतृष्णा चुभ रही है, ऐसे में पाकिस्तान को बहुत डरने की ज़रूरत है। ठीक है कि आईएसआई के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद दोहा और ग़ैर-दोहा वाले गुटों को आपस में मिलाकर एक अंतरिम सरकार बनाने को लेकर भले ही काबुल में थे, लेकिन वह अपनी लड़ाई भी लड़ रहे हैं,क्योंकि उन्हें इस साल के आख़िर में या अगले साल की शुरुआत में सेना प्रमुख बनाये जाने की उम्मीद है। रावलपिंडी में उनकी वर्दी उन समस्याओं के एक ऐसे विशाल पहाड़ पर विचार कर रही है, जिनसे किसी भी देश को कोई डाह नहीं है।

 ये किस तरह की समस्यायें हैं?

मसलन, बदले हुए हालात में काबुल की मदद को लेकर किस तरह का अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन आये, और एक-दूसरे पर अविश्वास करने वाले पक्षों का यह गठबंधन एक साथ कैसे बंधे ? चीन मध्य एशिया से ग्वादर बंदरगाह तक अपने व्यापारिक विकल्पों के रास्ते पर क़दम रखना और बढ़ाना चाहता है,हालांकि सऊदी अरब भी ऐसा ही चाहता है,लेकिन सऊदी अरब का बीजिंग के साथ जो रिश्ता है,उसमें कई समस्यायें हैं। किंग्डम ऑफ़ सऊदी अरब (KSA) उस क़तर से नफ़रत करता है, जिसकी हैसियत तालिबान को पिछले दरवाज़े से पहुंचायी गयी मदद और काबुल शहर और उसके हवाई अड्डे को चलाये जाने को लेकर काबुल को शुरुआती तकनीकी मदद की पेशकश से ऊपर उठी है। तुर्की सऊदी के लिए एक सुन्नी प्रतियोगी के रूप में दाखिल होना चाहता है, और ऐसा ही ईरान भी चाहता है, जिसने मौक़े की नज़ाक़त को समझते हुए तालिबान को पैसों से मदद पहुंचायी है। केएसए, क़तर और तुर्की इस पुनर्निर्माण में ईरानी निवेश पर विचार नहीं कर सकते, जबकि ईरान उस चाबहार में अपने भारतीय समर्थित बंदरगाह को लेकर सोच रहा है, जिसे लेकर उसे उम्मीद है कि अफ़ग़ानिस्तान में अस्थायी शांति के साथ यह बंदरगाह भी फूले-फलेगा।

अब सवाल है कि इन सबको संतुष्ट कैसे किया जाये ? अलग-अलग गुट वाले तालिबान को एक साथ कैसे रखा जाये ? मुजाहिदीन के इस आंदोलन को तकीनकी समझ वाले लोगों के आंदोलन में कैसे बदला जाये ? उस देश से पाकिस्तान में भाग रहे लाखों लोगों की मानवीय तबाही की क़ीमत किस तरह चुकायी जाये। पाकिस्तान के कंधों पर जो ज़िम्मेदारी है,वह असहनीय है। जहां एक तरफ़ भारत इस समय अपने ‘नज़र रखो और इंतज़ार करो’ के तरीक़े को अपनाना पसंद करेगा, वहीं दिल्ली और मॉस्को के साथ-साथ दिल्ली और खाड़ी और रियाद के बीच अस्थायी बातचीत चल रही है। हम नहीं जानते कि इसमें से कोई कैसे आगे बढ़ेगा। हमे वही पता है,जिससे सभी को डर लगता है। हालांकि, अराजकता आतंक के लिए माकूल हालात पैदा करती है, इसलिए जितनी जल्दी तालिबान को अपने देश को स्थिर करने में मदद मिलेगी, भारत और पश्चिम के लिए उतना ही बेहतर होगा। अल क़ायदा वहां मौजूद ज़रूर है, लेकिन इस समय उसकी इतनी ताक़त नहीं है कि वह पश्चिम या भारत पर हमला कर सके। भारत विरोधी विद्रोहियों का इरादा इस तरह का तो है, लेकिन हम नहीं जानते कि तालिबान इसकी अनुमति देगा भी नहीं या फिर उस  इरादे पर मुहर भी लगा पायेगा या नहीं।

सवाल तो यह भी है कि काबुल में अमेरिकी परियोजना के नाकाम हो जाने के बाद भारत के लिए अब अहम मुद्दे क्या रह गये हैं ? कुछ लोगों का कहना है कि इससे भारत में इस्लामवादियों में जोश आयेगा। कुछ का कहना है कि तालिबान की कामयाबी से कश्मीरी नौजवान आकर्षित होंगे...

इस तरह के समीकरण भरोसेमंद नहीं होते, क्योंकि वे ऐसे आंदोलन के आमूल चूल बदलाव की प्रचंडता का अनुमान लगाते हैं, जो न तो है, और न ही इससे पहले कभी था। काबुल का पतन, और काले (या सफ़ेद) पताकों का उदय पूरी दुनिया में होना तय है। ये पताके एक इस्लामी अमीरात के समर्थन में उठ रहे हैं और कोई शक नहीं कि इस झंडे तले इस्लामवादी लामबंद होंगे। बल्कि यह जिहाद पश्चिमी देशों और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ आमने-सामने के टकराव से दमनकारी राज्यों के भीतर स्थानीय संघर्षों में बदल गयी है, या फिर बदल रही है।

कश्मीर के लोग तालिबान के मक़सदों के साथ नहीं हैं, और न ही वे चाहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के मन में जिस तरह का अमीरात है,वह उनके यहां भी हो। कश्मीर की शिकायतों को कश्मीर और दिल्ली के उन राजनेताओं को ही दूर करना है, जो जानते हैं कि इसका एकलौता हल राजनीतिक समाधान ही है, न कि सैन्यीकरण और ज़्यादा से ज़्यादा उत्पीड़न। अल क़ायदा ने कश्मीर विद्रोह में शामिल होने को लेकर कभी भी गंभीरता से कोशिश नहीं की है, क्योंकि उसे पता है कि वह घाटी में ख़ुद को नहीं बचाये रख सकेगा। इसके समर्थक पश्चिम और मध्य अफ़्रीका स्थिति साहेल इलाक़े और सीरिया में रहते हैं।

काबुल में संयुक्त राज्य की परियोजना के पतन से पैदा होने वाले अहम मुद्दे यही हैं कि अस्थिरता और अराजकता की वह स्थित मज़बूत हो सकती है, जिसके भीतर भारत विरोधी और पश्चिमी विरोधी ताक़तें सामने आ सकती हैं। वे कहां हमला करेंगे,इसे लेकर किसी तरह का कोई भी अनुमान नहीं है, लेकिन कश्मीर को अल क़ायदा-शैली के इस्लामी विद्रोह के ठिकाने के तौर पर चित्रित करना ठीक नहीं है और उन मक़सदों और ज़ोर-आज़माईश को कमज़ोर करता है, जिन्होंने इस इलाक़े को दशकों से ज्वलंत बनाया हुआ है।

पाकिस्तान और भारत के सुरक्षा एजेंसियों के भीतर कश्मीर को एक गतिरोध, बौतर एक ऐसे राजनीतिक गतिरोध की तरह देखा जाता है, जिसे (पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज़) मुशर्रफ़ भारत के साथ पिछले दरवाज़े (2004-07) से ग़ैर-मामूली तरीक़े से हल करने के करीब पहुंच गये थे। हालांकि, पाकिस्तान और भारत,दोनों ही देशों में ऐसी ताकतें हैं, जो यह दिखावा करना चाहेंगी कि ये वार्ता हुई ही नहीं और सैन्यीकरण के अलावा इस समस्या का कोई समाधान भी नहीं है। पाकिस्तान की ओर से अनसुनी और अनसुलझी शिकायतों के नहीं टाले जा सकने वाले एक और स्थानीय विद्रोह को अगर हवा दी जाती है,तो भारत इसी तरह खून-ख़राबे के साथ उसे कुचल देगा और यह चक्र चलता रहेगा।  

2010 तक कश्मीर में दाखिल होने वाले विदेशी विद्रोहियों की तादाद कम होकर दोहरे अंकों तक आ गयी थी। हालांकि, पांच साल बाद ही सैन्य हत्याओं, हत्याओं और ग़ायब कर दिये जाने को लेकर क़ानूनी दंड से मुक्ति और भारी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पैलेट गन आदि का इस्तेमाल आदि ने मिलकर राज्य को फिर से दहका दिया था। शांति बनाये रखने और व्यवस्था को बहाल करने में नाकामी को छुपाने के लिहाज़ से वहां की सरकार को निलंबित कर दिया गया और अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया। ये सुरक्षा सेवाओं और उन राजनीतिक प्रतिष्ठान की ओर से दिया गया विकल्प है, जिन्हें इस तरह के नतीजे की उम्मीद थी और जिन्होंने अपने चुनावी घोषणापत्र में इसे लेकर वादा किया था। ऐसे में सवाल है कि कश्मीर को फिर से नाकाम होने के नये कारणों की तलाश क्यों हो ?

 अफ़ग़ान उलझन के बाद भारत को क्या करना होगा?

हालात के मुताबिक़ ढलने को लेकर भारत के पास ख़ुद को संतुलित करने का एक नाज़ुक काम है। 9/11 के बाद से रॉ, लैंगली (सीआईए के लिए एक बोलचाल का नाम) से चाहता था कि वह आईएसआई के साथ अपने समझौते को तोड़ दे। अब जबकि यह सब लगभग ख़त्म हो चुका है और सीआईए रॉ का सबसे क़रीबी सहयोगी बन चुका है, तो सवाल है कि भारत को इसका क्या फ़ायदा मिलेगा ? अमेरिका हमेशा ख़ुद के स्वार्थ के लिए काम करता है।इसके दो उदाहरण कुर्द और एएनए है।इन दो सहयोगियों को उसने उनके हाल पर छोड़ दिया है और ऐसे में भारत के ऐतबार से इसे अच्छा तो नहीं ही कहा जा सकता। सवाल तो यही भी पैदा होता है कि क्या दिल्ली अपने राष्ट्रीय हित को बनाये रखेगी और अपने संस्थानों को मज़बूत करेगी या बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों की अनदेखी करते हुए उसी रास्ते पर चलेगी,जिस रास्ते पर चलकर पाकिस्तान ने अपने यहां के लोकतांत्रिक संस्थानों को ख़त्म कर दिया है ? भारत के भीतर के अधिनायकवाद ने पत्रकारों, फ़िल्म निर्माताओं और सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वालों और कंपनियों के ख़िलाफ़ अभियान चलाकर सांप्रदायिक झड़पों से भारी तनाव पैदा कर दिया है।इस वजह से  दिल्ली का बाइडेन प्रशासन के साथ विवाद बढ़ता जा रहा है। (यहां तक कि मानवाधिकारों के लिए भी संघर्ष चल रहा है।)

जिस चीज़ की ज़रूरत भारत को है,क्या वह कहीं और संघर्ष को भड़काये बिना बिना संयुक्त राज्य अमेरिका से हासिल हो सकती है ?  क्या संयुक्त राज्य अमेरिका को भारत के घरेलू कड़वेपन, इस्लाम या मुसलमानों को लेकर नापसंदगी या पूर्वाग्रह जैसी सांप्रदायिक प्रवृत्तियों और लोकतंत्र के कमज़ोर पड़ते जाने की उसी तरह अनदेखी को जारी रखना चाहिए, जिस तरह की अनदेखी (निवर्तमान जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल और (फ़्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल) मैक्रों से कहीं ज़्यादा अनदेखी (हंगरी के सत्तावादी प्रधान मंत्री विक्टर) ओर्बन और (फ़िलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो) दुतेर्ते जैसे नासमझ लोगों की वह करता रहा है।

बांग्लादेश के निर्माण में अपनी भूमिका को छोड़कर क्या आपको लगता है कि कि भारत का रॉ आईएसआई को टक्कर दे सकता है? मुझे पता है कि आप अमेरिकी नीति की घोर नाकामी के लिए अफ़ग़ानिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। हालांकि, आईएसआई और पाकिस्तान इसे अपनी फ़ख़्र करने वाली किसी उपलब्धि की तरह पेश करता है।

काबुल की यह घटना 1971 की उस घटना की तरह नहीं है। वह तो एक विस्तार है। शायद लोग इस समानता का इस्तेमाल काबुल के नुकसान पर महसूस किये गये दर्द के झटके को मापने के लिए करते हैं। लेकिन, पूर्वी पाकिस्तान तो अंग्रेज़ों की ओर से “पाकिस्तान” के साथ किया गया एक अनोखा भौगोलिक अनुबंध था। जैसा कि हमें पता है कि विभाजन के बाद पाकिस्तान बना था,उस हिसाब से इसे खोना पाकिस्तान का एक हिस्से का खोना था। जिस तरह पाकिस्तान के हाथ से वह हिस्सा निकल गया था, उसने पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों और जासूसों की पीढ़ियों पर एक अमिट छाप छोड़ गयी थी। एक बड़े कुशल सैन्य पड़ोसी के सामने उन्हें बौना महसूस करा दिया गया था। आईएसआई और सेना शायद ही कभी यह भूले पाये,बल्कि वहां की सेना तो भारत को चोट पहुंचाने को लेकर छद्म रणनीतियों के लिहाज़ से और भी ज़्यादा प्रतिबद्ध हो गयी।

1971 में पाकिस्तान के एक हिस्से का हुआ नुक़सान निश्चित रूप से भारत का एक असाधारण और साहसी जासूसी का एक ऐसा नतीजा था,जिसे बहुत ही छुपी हुई उन गतिविधियों से अंजाम दिया गया था,जिसके तहत फ़ोन और डाक से चलने वाली चिट्ठियों को बीच में ही रोका गया था और छुपी हुई उन ताक़तों को आगे बढ़ाया गया था, जिन्होंने पाकिस्तान और उसके सहयोगियों का ख़ून बहाया था। यह कहना सही होगा कि आईएसआई और उसके गुप्त खेलों ने तालिबान को बढ़ावा दिया, जिससे उसे अमेरिकी राष्ट्र-निर्माण के दो दशकों के दौरान भी ख़ुद को बचाये रखने में मदद मिली। फिर भी आईएसआई ने तालिबान के उदय का बारीक़ स्तर पर प्रबंधन नहीं किया था या काबुल की मृगतृष्णा पर तालिबान का समर्थन करने को लेकर प्रांतों में फ़ैसलों में जोड़-तोड़ नहीं किया था।

काबुल का पतन तालिबान की जीत नहीं है, बल्कि अफ़ग़ानिस्तान के लोगों और उनके राजनीतिक नेताओं की ओर से पूरे देश में संयुक्त राज्य अमेरिका के पैदा किये गये और छोड़ दिये गये कमज़ोरियों की एक व्यावहारिक मान्यता है। जिस अफ़ग़ानिस्तान का पतन हुआ,दरअस्ल वह कभी भारत का था ही नहीं। कई विकास परियोजनायें जिन पर भारत ने पैसे लगाये थे, वे कभी पूरी हुई ही नहीं और न ही पूरी होने के क़रीब थी।

काबुल को होने वाले नुक़सान का अंदाज़ा नवंबर 2001 से ही लग गया था, जब कई देशों और अमेरिकी अधिकारियों ने बुश-चेनी को सलाह दी थी कि वे देश को जलायें नहीं और इसके पुनर्निर्माण की कोशिश करें। बुश-चेनी ने तुरंत तालिबान के पथभ्रष्ट लुटेरों और बड़े पैमाने पर हत्या करने वालों को एक नयी तरह की गुप्त अराजकता के उस रास्ते गवर्नर और सांसद तक बना दिया, जहां सतह पर काबुल की पक्की सड़कों पर पश्चिम देशों का ध्यान आकर्षित करने वाले बदलाव दिखायी दे। संयुक्त राज्य अमेरिका ने सूबों में नशीले पदार्थों के उन कारोबार करने वाले आतंकवादियों को ताक़तवर बना दिया,जिनपर तालिबान ने पुनरुत्थान के नाम पर रोक लगा दी थी। जब वे बेहद ताक़तवर हो गये, तो एएनए में अमेरिका और उसके नुमाइंदों ने उन अभियानों में भी उन पर हमला किया, जिनमें उन लाखों लोगों की जान चली गयी, जिनका कभी कोई हिसाब-किताब तक नहीं है।

भले ही आईएसआई यह जानकर विजयी महसूस करे कि वे सही थे, लेकिन रॉ की कामयाबी बहुत सारे हैं और अहम हैं, इनमें कुछ कामयाबियां तो लगातार जारी रहने वाली थी और कुच कामयाबियां बारीक थीं, जबकि कुछ कामायाबियां इतिहास को उसके मोड़ पर ही रोक देने वाला रहा है। भारतीय ख़ुफ़िया ने उस कहूटा को चिह्नित किया, जहां पाक संवर्धन परियोजना सीआईए के सामने रखी गयी थी और वह वहां दाखिल हो गयी थी। इस भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी ने किसी भी ताक़तवर देश की ख़ुफ़िया एजेंसी से पहले पाकिस्तान की परमाणु तैयारी को अच्छी तरह समझ लिया था। रॉ पाकिस्तान के सैन्य मुख्यालय के कंप्यूटरों के अंदर अपनी पैठ बना ली थी और दोनों देशों के बीच की प्रौद्योगिकी के गैप का फ़ायदा उठा लिया था। पाकिस्तान में सैन्य प्रमुखों के एसओपी (Standard Operating Procedure) की कमी के कारण भारतीय तकनीकी खुफ़िया ने चीन में मुशर्रफ़ को एक होटल लैंडलाइन में ही पलीता लगा दिया था, कारगिल पर उनके सैन्य प्रमुख के साथ उसकी बातचीत को जान लिया था, उस झूठ को भी उजागर कर दिया था कि स्वतंत्रता सेनानियों ने कारगिल पर कब्ज़ा कर लिया है।

भारतीय ख़ुफ़िया ने मुशर्रफ़ की जान बचा दी थी, उन्हें मारने की कई साज़िशों को रोक दिया था, और उनके पिछले दरवाज़े से चली जा रही उस रणनीति को छितरा दिया था, जो कामयाबी के बिल्कुल क़रीब पहुंच गयी थी। भारतीय ख़ुफ़िया ने इस व्यापक और उपयोगी मिथक को भी गढ़ा कि पाकिस्तान एक आतंकवादी देश है, अल क़ायदा को रावलपिंडी के साथ जोड़ने में भी वह कामयाब रहा, दोनों को एक-दूसरे की परियोजना के हिस्से के तौर पर पेश किया, जो कि सचाई से बिल्कुल अलग था।

नुक़सान पहुंचाने वाले और सुधारे जाने योग्य आरोपों को मढ़ते हुए उन्हें शहरी सचाई बना देने में भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी का कोई जवाब नहीं रहा है, यह सब जानकर उनका खंडन करना बेअक़्ली दिखती है। इसलिए, कई अहम तरीक़ों से ख़ुफ़िया सेवायें भारत को आगे बढ़ाने और पाकिस्तान को छोटा साबित करने में कामयाब रही हैं।

आपकी किताब रॉ और आईएसआई के साझा इतिहास के बारे में बताती है। लेकिन, आप इस बात की ओर इशारा करते हैं कि कैसे रॉ को आवंटित संसाधन आईएसआई के मिलते संसाधनों के बराबर नहीं हैं। क्या यह रॉ के काम के आड़े आता है?

रॉ के लिए पैसा एक सीमित कारक ज़रूर था। लेकिन, इससे कहीं ज़्यादा नुक़सानदेह गहरी गुटनिरपेक्षता और शांतिवादी भारतीय राजनीति रही है,जो अनिवार्य रूप से उस विदेशी ख़ुफ़िया और रहस्य वाली दुनिया के मूल्य पर संदेह करती रही है, जिसे व्यापक रूप से लोकतंत्र विरोधी, सेना के अनियंत्रित पहलुओं के रूप में देखा जाता था, जिससे पद के लिए चुने गये नागरिकों और सिविल सर्वेंट की ओर से दूरी बरती जाती थी। हालांकि,यह स्थिति 80 के दशक के मध्य से लेकर उसके जाते-जाते एक हद तक बदल गयी थी क्योंकि रॉ ने सीआईए की ओर से आईएसआई की ताक़त को बढ़ाने और उस पैसे को लेकर लगातार चेताया, जो अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी गुप्त युद्ध, अफ़ीम से मिलते भरपूर नक़दी, अवैध हथियारों के व्यापार और अमेरिकी सहायता में हेराफेरी से आ रहे थे।

भारत के राजनीतिक प्रतिष्ठान को यह बात आख़िरकार तब समझ में आ गयी, जब 80 के दशक में पंजाब में संकट गहराया,  इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी और उसी दशक के आख़िर में कश्मीर की स्थिति विस्फोटक हो गयी। ये सब संकट अफ़ग़ानिस्तान से दूसरे इलाक़ों में फैलाये जाने के नतीजे थे।।

इस दौरान रॉ संयुक्त राज्य अमेरिका में अपने विस्तार की कमी से परेशान था, चतुराई से वह चीन, ईरान और रूस में अपने बेहतर और संतुलित संचालन के ज़रिये अमेरिका के दुश्मनों तक अपनी पहुंच बनायी। जिस तरह पाकिस्तान ने सोवियत विरोधी मुजाहिदीन के विकास को लेकर किया था, उसे देखते हुए रॉ ने विद्रोहियों की गतिविधियों के ख़िलाफ़ की जाने वाली सैन्य या राजनीतिक कार्रवाई में अंग्रेज़ों से प्रशिक्षण हासिल किया। रॉ के अफ़सरों को यह देखते हुए उत्तरी आयरलैंड में रॉयल अल्स्टर कांस्टेबुलरी और ब्रिटिश सुरक्षा सेवाओं की ओर से प्रशिक्षित किया गया था कि यह क्षेत्र एक ख़ूनी गृहयुद्ध से गुज़र रहा था, जिसमें यातना, ग़ायब कर देना और बेदर्दी से की जाने वाली हत्याओं (सरकार और उसके विरोधियों द्वारा) आदर्श बन गये थे। इस तरह की गतिविधियां-विद्रोही संगठनों को कठपुतली बना लेना, रहस्य पैदा करना, नकार दी जाने वाली अति हिंसा को पूरे भारत में एक मानक संचालन प्रक्रिया बना दिया गया।

9/11 के बाद भारतीय ख़ुफ़िया की ताक़त बढ़ने लगी, और 26/11 ने विदेशी सहयोग के स्वरूप के साथ-साथ पैसों के मामले में भी भारत की ख़ुफ़िया प्रकृति में बदलाव की शुरुआत कर दी । दिलचस्प बात यह है कि 26/11 के बाद की ख़ुफ़िया जानकारी भी एक सियासी खेल बन गयी, जिसका इस्तेमाल पार्टियां अपने लक्ष्यों और मक़सदों को साधने में करने लगी। 26/11 के बाद एक आम सहमति बनती हुई दिखी कि मुंबई पर अल क़ायदा और लश्कर-ए-तैयबा की ओर से संचालित एक भयावह व्यापकता वाले हमले की बेशर्म प्रकृति को देखते हुए भारत को और ज़्यादा सक्रिय होने की ज़रूरत है। इस तारीख़ से ही भारत पर नुक़्ताचीनी करने वाली ताक़तों से परेशान और ख़फ़ा ख़ुफ़िया अधिकारियों ने साज़िशों को बुनना शुरू कर दिया, इसने पाकिस्तान से संचालित हो रहे लोगों को तब तक आगे बढ़ाया, जब तक यह देखना मुश्किल नहीं हो गया कि कौन सा पक्ष कौन से आतंकी गुट को नियंत्रित कर रहा है, कौन सी हरकतें कर रहा है।

 रॉ की कार्य शैली आईएसआई की कार्य शैली से किस तरह अलग है?

आईएसआई भारत के शरीक होने पर टाल-मटोल करने का मज़ाक उड़ाता है, लेकिन उसके आख़िरी दांव व भारत के सब्र की तारीफ़ करता है कि वे जिस तरह खेल को पराकाष्ठा तक पहुंचा देते हैं। रॉ को आईएसआई में नैतिक दिशा की कमी और आतंक की प्रवृत्ति दिखती है, लेकिन लोकतंत्र के भार के बिना काम में तेज़ी से लग जाने की उसकी प्रवृत्ति की सराहना करता है।

आईएसआई को भारत की अंतर्राष्ट्रीय पहुंच से भी जलन होती है और यह जिस तरह कुशल राजनयिकों और सॉफ़्ट पावर संसाधनों, विश्वविद्यालय के विभागों में प्रायोजित पदों और दुनिया भर में विशेषज्ञ समूहों के शिक्षाविदों का इस्तेमाल करके अपने विचारों को शक्तिशाली और ज़बरदस्त आत्मविश्वास के साथ परोसता है,आईएसआई को इससे भी जलन होती है। आईएसआई को लगता है कि भारत अपनी कहानी बहुत अच्छी तरह और पूरे आत्मविश्वास के साथ बताता है। पाकिस्तान में आईएसआई डरता है, लड़खड़ाता है और शिक्षा, उद्योग या शासन के भीतर के प्रवासियों से उसे समर्थन नहीं मिलता है।

ये दोनों संगठन हर तरह के पैंतरे अपनाने वाली एजेंसियां होने के नाते उन अनैतिक, ग़ैर-क़ानूनी क्षेत्र में भी काम करते हैं, जो इस दुनिया के माकूल संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं। मानव बुद्धि में उपयोगी लोग या सम्मोहक मुख़बिरों की भर्तीयां भी शामिल है...दोनों ही संगठन जज्बाती थकावट के माकूल वक़्त का इस्तेमाल करते हैं। बम धमाकों या नरसंहारों के बाद ये ख़ुफ़िया संगठन हालत पर नज़र रखते हैं, थके हुए और ख़फ़ा हुए ऐसे लोगों की तलाश में होते हैं, जो उनके मत्थे चढ़ सकते हैं। मसलन, भारत के लिए इसका मतलब पाकिस्तान के सिंध में एमक्यूएम जैसे संगठनों के साथ तालमेल बिठाना और ज़मीनी स्तर पर ख़ुफ़िया जानकारी और अशांति फैलाने को लेकर उस आंदोलन का इस्तेमाल करना है। ऐसा ही डूरंड रेखा और बलूचिस्तान में किया गया है। पाकिस्तान ने सीआईए के अर्धसैनिक बलों के सबक को दिल से लिया है। इसने भारत की कमज़ोरियों पर काम करते हुए दिल्ली के प्रति उस हर जगह की दुश्मनी को बढ़ा दिया, जहां यह दुश्मनी पहले से मौजूद थी, जैसे-पंजाब, पूर्वोत्तर का क्षेत्र और कश्मीर आदि। भारत भी तो कश्मीर में ऐसा ही कुछ करता है। यह पुलिस स्पेशल टास्क फ़ोर्स या स्पेशल ऑपरेटिंग ग्रुप जैसी ग्रे फोर्स का निर्माण करता है, जिसकी प्रकृति भी फ़्रांसीसी विदेशी सैन्यबल (French Foreign Legion) की तरह है। अधिकारी उस जगह पर तब जाते हैं, जब उनके पास सैन्यबल की गुंज़ाइश नहीं होती है। भले ही यह तरीक़ा कश्मीरियों को उग्रवाद-विरोधी बनाने के एक साधन के रूप में शुरू हुआ हो, लेकिन यह अराजक और आपराधिक बन गया है, जिस पर बड़े पैमाने पर हत्याओं, बलात्कारों, अपहरणों और यातनाओं का आरोप लगता रहा है।

राष्ट्रीय राइफ़ल्स और सीमा सुरक्षा बल के साथ आत्मसमर्पण करने और काम करने को लेकर प्रेरित इख़वान जैसी छद्म ताकतें भी आपराधिक उद्यम बन जाती हैं, जिनकी कभी कल्पना भी नहीं की गयी थी, लेकिन उन्हें रोक पाना मुश्किल था। जिस तरह भारत के छद्म और इशारों पर नाचने वाले ताक़तें ख़ौफ़ और हिंसा पर उतर आती हैं, उसी तरह पाकिस्तान के सैन्य बल में इज़ाफ़ा करने वाले लश्कर और उनकी तरह की ताक़तें करती हैं। रावलपिंडी और आबपारा के संरक्षित इस्लामवादी परदे के पीछे से 2002 तक पाकिस्तान विरोधी के साथ-साथ भारत से नफ़रत के मिश्रण के साथ एक नया आतंकवादी समूह तैयार किया।

रॉ भर्ती और पदोन्नति के लिहाज़ से अपने पुलिस ढांचे से बंधा हुआ है और भारतीय संविधान में उस विशेषाधिकार और उस संभावना की आंतरिक मांगों को नज़रअंदाज कर दिया है, जो इसकी स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इनके बिना इसका इस्तेमाल और दुरुपयोग उसी तरह किया जा सकता है, जिस तरह कि इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राज्य अमेरिका ने किया है। सबसे पहले, इराक़ में युद्ध का तर्क गढ़ने के लिए राजनेताओं ने वास्तविक ख़ुफ़िया जानकारी में हेरफेर किया था। इसके बाद उन राजनेताओं को फ़र्ज़ी ख़ुफ़िया जानकारी दी गयी, जो इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में युद्धों की एक गुलाबी तस्वीर दिखाना चाहते थे।इससे यह बता पाना मुश्किल हो गया कि वास्तव में आख़िर चल क्या रहा है। इस धारणा ने उस सबसे यादगार अमेरिकी मुहावरे को जन्म दिया, जिसे कहते हैं- “ख़ुद को बनाये रखने के अलावा और कोई मक़सद नहीं” (the self-licking ice cream cone)।

भारतीय ख़ुफ़िया को विशेषज्ञता और अपने काम में विविन्न समुदायों की नुमाइंदगी को दर्शाने की ज़रूरत है, क्योंकि यह आज भी एक धर्म से चलाया जाने वाला एक पुलिस संगठन है, जो ख़ास तौर पर मुसलमानों को दूर रखता है और जाति और लिंग को लेकर अनुकूल नहीं है। अधिकारी चाहते हैं कि इसमें बदलाव हो।

कई रणनीतिकारों का मानना है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम से अनजान था। क्या आज भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र मौजूदा स्थिति में बेहतर तरीक़े से चल पा रहा है, जबकि सत्ता में भाजपा है और एनएसए की अगुवाई अजीत डोभाल कर रहे हैं?

सीधा जवाब तो यही है कि सभी तरह के बदलाव हो रहे हैं। रॉ एक विशाल पोत की तरह है, और यह धीरे-धीरे बढ़ रहा है या फिर इसमें धीरे-धीरे सुधार हो रहे हैं। 2001 के बाद बदलाव आया। 26-11 के बाद बदलाव आया और अब 2014 के भाजपा के प्रचंड बहुमत में सत्ता में आने के बाद भी इसमें बदलाव आया है। अब हम इसमें हो रहे छोटे-छोटे उन बदलावों की पराकाष्ठा को देखते हैं, जो उन सभी को किसी एक प्रशासन के प्रति ज़िम्मेदार ठहराने के मुक़ाबले इसे देखने का पहले से कहीं ज़्यादा ईमानदार तरीका है। सच कहूं तो, जो कोई ऐसा कर रहा है, वह किसी राजनीतिक एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहा है।

पाकिस्तान में आप 'बाजवा सिद्धांत' सुन रहे होंगे। यह दरअस्ल सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा और उनके समर्थकों की ओर से उनके करियर की विरासत में चार चांद लगाने के लिए गढ़ा गया एक मुहावरा है। जब उन्होंने तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान, लश्कर-ए-झांगवी की तबाही और जैश का दमन आदि जैसे दिखावा किया, तो उस दौरान जो कार्रवाइयां हुईं, वे 2006 और 2007 में किये गये कार्य की पराकाष्ठा थीं और इसके पीछे जनरल अशफ़ाक़ परवेज़ कयानी और दूसरे लोगों के हाथ ही थे।

2014 में डोभाल के फिर से उभरने के साथ ही इस क्षेत्र में कई दशकों का तजुर्बा रखने वाला एक पेशेवर सामने आया, जिसके पास ऑपरेशन ब्लू स्टार और उसके बाद, कश्मीर युद्धों के उदय, IC814 अपहरण कांड, कारगिल, और 9/11 के बाद के उथल-पुथल सहित कई कथानकों के गढ़ने का तजुर्बा था। संदेश भेजा जाना पहले के मुक़ाबले ज़्यादा केंद्रित हो गया है, क्योंकि भारत कहीं ज़्यादा मुखर हो गया है। एक नये राष्ट्रीय सुरक्षा ढांचे ने भारत के उस नज़रिये को बेहतर ढंग से पेश करने में सक्षम कर दिया है,जो कि दरअस्ल भाजपा का नज़रिया था। इससे वैश्विक स्तर पर पेश की जा रही दलील से भारत का असर बढ़ा है।

मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए सरकार की कहानी को सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म, जी-हुजूरी करने वाले मीडिया संगठनों और फ़िल्मों में भी सुव्यवस्थित ढंग से स्थापित किया गया है। ग़ैर-मामूली सैन्य संकेतों से नयी तरह की मुखरता और अंधराष्ट्रीयता भी सामने आयी है। सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट बुनियादी तौर पर ऐसे नामालूम ऑपरेशन थे, जिनके निशाने पर विद्रोही या उनके आकाओं के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मतदाता थे। सवाल है कि क्या बालाकोट में 300 विद्रोही मारे गये थे? अब हमें मालूम है कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया था, लेकिन उस समय डोभाल के जादू ने इस तरह के अफ़सानों को विश्व स्तर पर सभी सही जगहों पर और बिना कौड़ी ख़र्च किये फैला दिया है। उनकी इस कोशिश में पश्चिम के कुछ ऐसे लेखक भी शामिल थे, जो उनकी कहानी को आगे बढ़ाकर ख़ुश थे। सच्चाई  तो यही है कि इनमें से किसी भी ऑपरेशन से ज़मीनी हक़ीकत नहीं बदली।

सियासी तौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधन ने भाजपा को पहले से कहीं ज़्यादा बहुमत से जीत दिल दी है और आक्रामक ग़ैर-परमाणु कार्रवाई के ज़रिये आत्मरक्षा के अपने अधिकार पर ज़ोर दिये जाने के अपने मिशन में इसे एकीकृत रूप में पेश करने का काम किया है। किसी भी दूसरे प्रशासन के मुक़ाबले कभी भी किसी भी बुनियादी संकट से बेहतर तरीक़े से नहीं निपटा गया है। मसलन, कश्मीर बिना किसी राजनीतिक समाधान के टाइम बम बना हुआ है। भारत का सामना करने वाले इस्लामवादी अफ़ग़ानिस्तान भाग गये हैं, जहां से वे नये अनुयायियों को प्रशिक्षित और प्रेरित कर रहे हैं और हमले करने की उम्मीद कर रहे हैं। जैश हर जगह असरदार दुश्मन बना हुआ है। भारत के सामने ख़तरे का स्तर कम नहीं हुआ है। भारतीय कूटनीति (सिर्फ़) पाकिस्तान के मुक़ाबले देश की कहानी बताने और उन हिस्सों को छिपाने के लिहाज़ से बेहतर काम कर रही है, जिन्हें पश्चिम नहीं पचा सकता, जैसे-बढ़ती सांप्रदायिकता, न्यायपालिका की जोड़-तोड़, और पुलिस का दमन के एक हथियार तौर पर इस्तेमाल।

(रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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