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बिहार चुनाव: रोहतास में पत्थर खनन पर लगा प्रतिबंध शायद सरकार की संभावनाओं पर असर डाले

रोहतास के वे लोग, जो अपनी आजीविका के लिए पत्थर खनन पर निर्भर थे, उनका कहना है कि भाजपा के राज्यसभा सांसद के स्वार्थ ने लाखों लोगों को इस क्षेत्र में बेरोज़गार कर दिया है।
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सासाराम (रोहतास): विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पश्चिमी बिहार के रोहतास ज़िले के कैमूर की पहाड़ियों में पत्थर खनन पर प्रतिबंध लगाये जाने से राज्य के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की संभावनाओं का प्रभावित होना तय है। पत्थर की खदान बंद होने के बाद इस ज़िले से वे लाखों लोग (पट्टे पर ब्लॉक हासिल करने वाले, क्रशिंग मशीन के मालिक, ट्रांसपोर्टर्स और दैनिक मज़दूरी करने वाले तक) बेरोज़गार हो गये हैं , जो अपनी जीविका के लिए सासाराम के ज़िला मुख्यालय के पास के गजवाही और गायघाट गांवों में स्थित इन पहाड़ियों के तीन ब्लॉकों में पत्थर खनन के कार्यों पर निर्भर थे।

राज्य सरकार के प्रदूषण विभाग ने 2006 से क्रशिंग मशीनों के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) जारी करना बंद कर दिया था। इस क्षेत्र में काम करने वाले सभी 465 क्रशर मशीन द्वारा हासिल मौजूदा एनओसी की समय सीमा समाप्त हो गयी और अगले दो वर्षों में इसका नवीनीकरण भी नहीं किया गया। नतीजतन, जिला प्रशासन ने यह दलील देते हुए 2008 में खनन पर प्रतिबंध लगा दिया कि इस क्षेत्र में किसी भी क्रशर मशीन के पास एनओसी नहीं है।

यहां तक कि जिन लोगों को 22 साल के लिए पट्टे पर खदानें मिली थीं, और जिनके पट्टे 2021 में समाप्त होंगे, उन्हें भी नोटबंदी के चलते खुदाई रोकनी पड़  गयी,ज़ाहिर सी बात है कि इससे उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा। ग़ौरतलब है कि सरकार ने पहले ही उनसे राजस्व अर्जित कर लिया है। खनन की अनुमति मिलने की प्रक्रिया के मुताबिक़, खनन ब्लॉकों की नीलामी की जाती है और जो उच्चतम बोली लगाते हैं, उन्हें एक निश्चित अवधि के लिए पट्टे पर ब्लॉक मिल जाते हैं। उन्हें टेंडर के मुताबिक़ लीज़ हासिल करने की तारीख़ से सात साल के भीतर पूरा भुगतान करना होता है।

पत्थर उद्योग संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष,अमित सिंह मंगल चंद्रवंशी ने न्यूज़क्लिक को बताया “हमने पहले ही सरकार को पूर्ण राजस्व का भुगतान कर दिया था, लेकिन हम सहमत अवधि तक के लिए अपने खनन का संचालन जारी नहीं रख सके। इससे हमें बड़ा नुकसान हुआ। हम सिर्फ़ धोखा के  ही शिकार नहीं हुए हैं,बल्कि यह धोखा सरकार ने दिया है। चूंकि खनन पर प्रतिबंध सरकार ने लगाया है, इसलिए सरकार को पत्थर की निकाली गयी मात्रा के मुताबिक़ अनुमानित कुछ राशि की कटौती के बाद पैसा वापस कर देना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।“।

स्थानीय निवासियों का आरोप है कि भाजपा के राज्यसभा सांसद,गोपाल नारायण सिंह के इशारे पर ही खनन पर रोक लगायी गयी थी, जो अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए पास में ही नारायण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल चलाते हैं।

मंगल का आरोप है,“गोपाल नारायण सिंह के पास भी खनन ब्लॉक था। खनन के पैसों से उन्होंने मेडिकल कॉलेज की स्थापना की और अब जब भी नीलामी का ऐलान होता है,उसमें रुकावट पैदा हो जाती है। वह नहीं चाहते कि इस क्षेत्र में खनन का काम चले,क्योंकि इससे क्षेत्र में प्रदूषण होता है और किसी अस्पताल को आदर्श रूप से तो इस क्षेत्र में होना ही नहीं चाहिए।”  

कई वर्षों के विरोध प्रदर्शन, आमरण अनशन और सड़क नाकेबंदी के बाद बिहार सरकार के खान और भू-विज्ञान विभाग ने दो साल पहले तीन ब्लॉकों में खनन के लिए इलेक्ट्रॉनिक नीलामी को आमंत्रित करते हुए एक अधिसूचना जारी की थी। लेकिन,खनन सचिव के आदेश पर निविदा प्रक्रिया से ठीक एक दिन पहले नीलामी प्रक्रिया रद्द कर दी गयी।

“हमने बोली प्रक्रिया में भाग लेने के लिए आवेदन किया था और फ़ीस आदि भी जमा कर दिये थे। लेकिन,नीलामी होने के ठीक एक दिन पहले इसे रद्द कर दिया गया।” उन्होंने आगे बताया, “जब लोगों ने विरोध किया, तो ज़िला मजिस्ट्रेट (DM) ने यह कहते हुए खनन के रद्द किये जाने का बचाव किया कि मेडिकल कॉलेज की मौजूदगी के चलते तीनों ब्लॉकों में खनन नहीं हो सकता।”

उन्होंने कहा कि डीएम ने एक अजीब-ओ-ग़रीब दलील देते हुए कहा था कि इस बात को कौन सुनिश्चित करेगा कि खनन सिर्फ़ पहाड़ियों के छह एकड़ क्षेत्र तक ही सीमित रहेगी और बाकी 80 एकड़, जो वन विभाग के नियंत्रण में है, वह इससे अछूता रहेगा।

चंद्रवंशी ने आगे कहा,“यह इसलिए एक हास्यास्पद दलील थी,क्योंकि अवैध खनन को रोकना खनन विभाग और पुलिस प्रशासन की ज़िम्मेदारी है, न कि हमारी। हम भी सरकार से यही पूछते हैं कि ऐसे क्षेत्र में मेडिकल कॉलेज के निर्माण की अनुमति क्यों दी गयी है, जहां पीढ़ियों से खनन का काम चल रहा है। हमारा दूसरा सवाल यह है कि जब पड़ोसी-कैमूर और नालंदा ज़िलों में यह काम चल रहा है, तो रोहतास में ही प्रतिबंध क्यों ।”  

यहां यह बताना अहम है कि मोर्चा के प्रमुख का कहना था कि प्रतिबंध के बावजूद खनन का काम बेरोकटोक चल रहा है, लेकिन अब इसे माफ़ियाओं ने अपने कब्जे में ले लिया है। उनका आरोप है,“कई पहाड़ियों को तो ज़मीन के नीचे तक समतल कर दिया गया है और यह इलाक़ा इस तरह से समतल भूमि में बदल गया है कि इस बात का अनुमान लगा पाना भी मुमकिन नहीं है कि कभी यहां कोई पहाड़ी भी रही होगी। इससे भी बड़ी तो यह है कि अनुमानित सीमा से कहीं ज़्यादा गहराई तक खनन किया जा रहा है। यह सब चंद लोगों और पुलिस की मिलीभगत से किया जा रहा है।”  

मोर्चा ने प्रदूषण विभाग द्वारा एनओसी जारी नहीं किये जाने के ख़िलाफ़ पटना उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था, जहां मामला अब भी लंबित है।

उनका दावा है कि 20 गांवों की 12 पंचायतों में 50,000 से ज़्यादा ऐसे मतदाता हैं, जो किसी न किसी रूप में खनन पर निर्भर थे। इन मतदाताओं ने अपने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल विपक्षी गठबंधन (राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों) के पक्ष में करके एनडीए को सबक सिखाने का फ़ैसला कर लिया है।

जद (यू), भाजपा के ख़िलाफ़ दिख रहा ग़ुस्सा

यहां रहने वाले उन लोगों के बीच सरकार के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा दिखायी दे रहा है, जो इस क्षेत्र में खनन गतिविधियों से जुड़े थे।

सासाराम के करवंदिया चौक पर सड़क के किनारे भोजनालय चलाने वाले 35 वर्षीय सोनू गुप्ता ने बताया कि उनके पास दो ट्रैक्टर थे,जो पत्थर ढोने का काम करते थे। इसके अलावा, वह सड़क के किनारे भोजनालय भी चला रहे थे। उनके मुताबिक़, उनकी दुकान से दैनिक बिक्री तक़रीबन 10,000 रुपये की थी, जो अब घटकर 1,500-2,000 रुपये तक की रह गयी है।

उन्होंने बताया,“उन दिनों मेरी अच्छी कमाई थी। मेरे दो बच्चे हैं,जिनकी मैंने अच्छी शिक्षा देने की योजना बनायी थी, लेकिन खनन पर प्रतिबंध लगने के बाद सारे सपने चकनाचूर हो गये। ग्राहकों की आमद में भारी गिरावट आ गयी है,क्योंकि पत्थर ढोने वाली गाड़ियों, मज़दूरों और अन्य लोगों की आवाजाही बंद हो गयी।”

“बचा-खुचा क़सर लॉकडाउन ने पूरा कर दिया। दुकान बंद होने के चलते हमें कई दिनों तक भूखा रहना पड़ा। सरकारी मदद भी हम तक नहीं पहुंच पायी। हम आम लोगों की तरफ़ से की जा रही खाद्य आपूर्ति पर किसी तरह ज़िंदा रहे।” उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, “स्थिति में अभी भी सुधार नहीं हुआ है, क्योंकि लोग कोरोना वायरस के संक्रमण के डर से स्नैक्स, मिठाई और चाय नहीं ख़रीदते हैं।”

अपने चेहरे पर दिखायी देने वाली चिंता और निराशा के साथ वह इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, “दो बच्चों की परवरिश और उनके लिए अच्छी शिक्षा सुनिश्चित करना और पत्नी और बुज़ुर्ग माता-पिता की देखभाल करना, जिन्हें अक्सर दवाओं और इलाज की ज़रुरत रहती है, अब ये सब एक चुनौती बन गये हैं। भविष्य अब धुंधला लग रहा है।”  

बांसा गांव के राजू सिंह ने बताया कि इस ज़िले की एक बड़ी आबादी पत्थर खदान से जुड़ी हुई थी। उन्होंने आगे कहा,“हक़ीकत़ तो यही है कि खनन इस इलाक़े की जीवन रेखा थी। लेकिन, सरकार ने एक बड़ी आबादी की आजीविका के स्रोत पर एक नेता के स्वार्थ को वरियता दे दी। खनन बंद होने के बाद ज़्यादातर लोग तो नौकरी की तलाश में बड़े शहरों में पलायन कर गये। जो लोग पीछे रह गये,वे तो अब भी रोज़गार के अवसरों की तलाश कर रहे हैं।”

बांसा गांव के ही एक टैक्सी ड्राइवर, देवेंद्र कुमार ने बताया कि वह भी अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए खनन पर ही निर्भर थे। वह अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “मेरे पास तीन ट्रैक्टर थे, जो पत्थरों और मशीनों को ढोने का काम करते थे। मेरी मासिक आय 30,000 रुपये से ऊपर थी। उन दिनों मेरी ज़िंदगी बहुत मज़े से चल रही थी। लेकिन,खनन पर प्रतिबंध के फ़ैसले से हमें झटका लगा। मुझे ट्रैक्टरों को इसलिए बेच देना पड़ा,क्योंकि मैं इन ट्रैक्टरों का ख़र्च वहन करने में असमर्थ हो गया था, अब जो एकमात्र विकल्प बचा है, वह खेतीबाड़ी है। अब मेरे पास एक कार है, जिसे मैं ख़ुद ही चलाता हूं। चूंकि यह चुनाव का वक़्त है, इसलिए ठीक ठाक आय हो जाती है। जैसा ही चुनाव ख़त्म हो जायेगा, वैसे ही आमदनी कम हो जायेगी, कम आय के साथ शायद ही परिवार का ख़र्चों चल पाये।”

वह भी यही आरोप लगाते हैं कि यह एक ऐसी हक़ीक़त है,जो सबको पता है कि गोपाल नारायण सिंह खनन की नीलामी में मुख्य बाधा हैं। उनका आरोप है, “वह डेहरी-ऑन-सोन में डालमिया समूह के ढहाने के लिए भी ज़िम्मेदार थे। वह वहां के यूनियन के अध्यक्ष थे और गुमराह करने के चलते कामगार अक्सर हड़ताल पर चले जाते थे, इसका उत्पादन पर उल्टा असर पड़ता था और इससे प्रबंधन को अपना प्लांट बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा था।”

उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के दौरान डीएम ने अपने अधिकारियों के साथ उनके गांव का दौरा किया था और कहा था कि वे खानों को फिर से खोलने की मांग करना बंद कर दें,क्योंकि यह एक ऐसा मामला है,जो हमेशा के लिए बंद हो गया है। उनका कहना था,“उन्होंने कहा कि हमें अब मछली पालन, बकरी पालन और मुर्गी पालन जैसे व्यवसायों को अपनाना चाहिए, जिसके लिए सरकार हमें क़र्ज़ देगी। बड़ी तादात में लोगों ने इसके लिए दरख़्वास्त दिये हैं, लेकिन उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।”  

जब लोग डीएम के दफ़्तर में यह जानने के लिए गये कि उनके जमा हुए आवेदनों का क्या हुआ, तो उन्हें कथित तौर पर ज़मीन के एक टुकड़े को चिह्नित करने, एक शेड बनाने या तालाब खोदने और बकरियों, चिकन और मछलियों का पालन शुरू करने के लिए कहा गया। उन्हें बताया गया कि इसके बाद ही उन्हें सरकार की तरफ़ से वित्तीय मदद मिल पायेगी।

उन्होंने सवाल किया,“हम सरकार से पूछते हैं कि जब हमारे पास अपने भरण-पोषण के लिए ही पैसे नहीं हैं,तो भला हम यह सब कैसे कर पायेंगे ?”

करवंदिया गांव के धीरेंद्र सिंह ने बताया कि विधायक (जनता दल-यूनाइटेड के डॉ.अशोक कुमार) चुनावों के दौरान पांच साल में सिर्फ़ एक बार ही उनके गांवों का दौरा करते हैं।

उन्होंने आगे बताया,“मुख्यमंत्री कहते हैं कि पहाड़ हमारी विरासत हैं और हमें उनकी रक्षा करने की ज़रूरत है। सबसे पहले तो हम एक बात साफ़ कर देना चाहते हैं कि जिन पहाड़ियों में खनन होता है वे मृत पहाड़ हैं। वहां कोई पशुधन नहीं है और इसलिए,उन्हें खनन के लिए पट्टे पर दिया जाता है। दूसरी बात कि अगर सरकार सचमुच अपनी विरासत को लेकर चिंतित है, तो उसे उन्हें विरासत स्थल घोषित कर देना चाहिए और पर्यटन उद्योग को समृद्ध करने के लिए इस क्षेत्र को विकसित करना चाहिए। यह तो नौकरी के अवसर पैदा करेगा। यहां ऐसे कई ख़ूबसूरत पहाड़ियां और झरने हैं, लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए सड़कें तक नहीं हैं।”  

बांसा गांव के सुरेन्द्र प्रसाद और कृष्णा चौधरी, जो पत्थर खनन में शामिल दिहाड़ी मजदूर थे, उनके लिए तो यह आय का एकलौता स्रोत था।प्रसाद ने बताया, “हम आज भी दिहाड़ी मज़दूर ही हैं, लेकिन फ़र्क़ यह है कि हम सभी 30 दिनों के लिए वहां काम करते थे, लेकिन अब हम हर रोज़ काम पाने के लिए संघर्ष करते हैं।”

संपर्क करने पर रोहतास के ज़िला मजिस्ट्रेट-सह-कलेक्टर,पंकज दीक्षित ने इन आरोपों को ख़ारिज कर दिया और लागू चुनाव आचरण संहिता को देखते हुए किसी भी तरह की टिप्पणी करने से इनकार कर दिया।

खनन विभाग के सचिव से टिप्पणी लेने की कोशिश की गयी,मगर उनसे संपर्क नहीं हो सका।

रोहतास ज़िले में चुनाव तीन चरणों के विधानसभा चुनावों के पहले चरण में होने जा रहा है,यह चुनाव 28 अक्टूबर को होगा। राजद के राजेश कुमार गुप्ता सासाराम विधानसभा क्षेत्र से जद (यू) के डॉ अशोक कुमार को कड़ी चुनौती दे रहे हैं। लोक जनशक्ति पार्टी के रामेश्वर चौरसिया भी जद (यू) के उम्मीदवार के राजनीतिक समीकरण को बिगाड़ने के लिए मैदान में हैं।

इसी तरह, भाजपा के सत्यनारायण यादव का सामना डेहरी विधानसभा क्षेत्र से राजद के फतेहबहादुर सिंह के साथ है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Bihar Elections: Ban on Stone Mining Likely to Impact Govt’s Prospects in Rohtas

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