सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है…
दिल्ली में ढाई महीने से नागरिकता संशोधन क़ानून-एनआरसी-एनपीआर को लेकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन जारी थे। लेकिन शनिवार की रात से उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा शुरू हो गई। इस हिंसा में जान, माल-ओ-असबाब के साथ-साथ जज़्बातों का भी क़त्ल किया गया है। अब यह हिंसा सीएए के इर्द-गिर्द भी नहीं दिखती है, ऐसा लगता है जैसे यह सिर्फ़ नफ़रत है जो बंदूकों-लाठीयों के साथ सड़कों पर मौत का खेल खेल रही है।
ऐसे माहौल में हम सब को ज़ेहरा निगाह की यह नज़्म पढ़नी चाहिए जिसमें वो कहती हैं, कि जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है; लिहाज़ा यह एक अपील भी हैं हमारे शहर में अपना जंगलों का ही कोई क़ानून नाफ़िज़ कर दिया जाए।
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है
- ज़ेहरा निगाह
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है
सुना है शेर का जब पेट भर जाए तो वो हमला नहीं करता
दरख़्तों की घनी छाँव में जा कर लेट जाता है
हवा के तेज़ झोंके जब दरख़्तों को हिलाते हैं
तो मैना अपने बच्चे छोड़ कर
कव्वे के अंडों को परों से थाम लेती है
सुना है घोंसले से कोई बच्चा गिर पड़े तो सारा जंगल जाग जाता है
सुना है जब किसी नद्दी के पानी में
बए के घोंसले का गंदुमी साया लरज़ता है
तो नद्दी की रुपहली मछलियाँ उस को पड़ोसी मान लेती हैं
कभी तूफ़ान आ जाए, कोई पुल टूट जाए तो
किसी लकड़ी के तख़्ते पर
गिलहरी, साँप, बकरी और चीता साथ होते हैं
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है
ख़ुदावंदा! जलील ओ मो'तबर! दाना ओ बीना! मुंसिफ़ ओ अकबर!
मिरे इस शहर में अब जंगलों ही का कोई क़ानून नाफ़िज़ कर!
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है...
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